कुछ गंभीर विषयों पर लिखने की सोच रखी थी.पर दूसरे ब्लॉग पर कहानी ने ऐसा मोड़ ले लिया है कि unwind होना बहुत जरूरी है .और उसे बैलेंस करने के लिए कुछ हल्का-फुल्का लिखने का मन हो आया. मेरी एक पोस्ट पीक आवर्स" में मुंबई लोकल ट्रेन में यात्रा लोगों को पसंद आई थी. उस समय ट्रेन से सम्बंधित तीन संस्मरणों की सीरीज लिखने की सोची थी.पर एकरसता से मुझे बोरियत भी बहुत जल्दी हो जाती है सो टलता गया .
एक और वजह है,आजकल नौस्टेल्जिया ने भी परेशान कर रखा है. अप्रैल की इन्हीं तारीखों में मेरी पटना यात्रा हुआ करती थी. बच्चों के इम्तहान ख़त्म हुए और दूसरे दिन ही मैं ट्रेन पर सवार. उनके रिजल्ट का भी इंतज़ार नहीं करती थी.(पतिदेव को दस बार फोन करके याद दिलाना,पड़ता था यह दीगर बात है) पर अब बच्चों के ऊँची कक्षाओं में आ जाने से जाना मुल्तवी हो गया है.
कुछ साल पहले,जब मेरा बड़ा बेटा ५ साल का और छोटा २ साल का था. मैंने पटना जाने का प्लान बनाया. कुर्ला स्टेशन से ,रात के साढ़े ग्यारह बजे की ट्रेन थी और मेरी टिकट वेटिंग लिस्ट में एक और दो नंबर पर आकर रुक गयी थी. पतिदेव के ऑफिस से किसी ने VIP कोटा में भी ट्राई किया था और हमें आश्वस्त किया था कि आप स्टेशन पहुँचिये .एक घंटे पहले कन्फर्म हो जायेगा. प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँच कर पाया कि लोगबाग़ बदहवास से इधर उधर भाग रहें हैं क्यूंकि ए.सी. बोगी कैंसल हो गयी थी और ए.सी.वालों को कहीं, कहीं थ्री टियर में एडजस्ट किया गया था. लिहाज़ा ए.सी. बोगी की कोई लिस्ट नहीं लगी थी. पतिदेव ने कहा मैं स्टेशन मास्टर के केबिन में चार्ट देखकर आता हूँ कि कन्फर्म हुआ है या नहीं. वे उधर गए और इधर ट्रेन आ गयी और लोगबाग चढ़ने लगे. मुझे मय समान के यूँ खड़ी देख सहयात्रियों ने पूछा" आप क्यूँ नहीं चढ़ रहीं ?" और मेरे ये बताने पर कि पतिदेव पता करने गए हैं कि टिकट कन्फर्म भी हुई है या नहीं.एक ने सलाह दी कि यहीं पर तो टी.टी.खड़े हैं.उनके पास लिस्ट है आप पूछ लें. और जब मैंने टी.टी. से पूछा तो उन्होंने लिस्ट में देखकर कहा ,हाँ आर. वर्मा और के. वर्मा.(मेरे बड़े बेटा का नाम ) की टिकट कन्फर्म है. मैंने तुरंत कुली से कहा,'सामन चढाओ ' और गेट पर ही खड़े होकर नवनीत का इंतज़ार करने लगी. इधर ट्रेन ने सीटी देना शुरू कर दिया और नवनीत का कुछ पता ही नहीं. आखिर थोड़ी दूर पर वे आते दिखे.और उन्होंने चिल्ला कर कहा,"तुम्हारा टिकट कन्फर्म नहीं हुआ है" टी.टी. मेरे साथ दरवाजे पर ही खड़े थे. मैंने उन्हें एक बार फिर से लिस्ट चेक करने को कहा और फिर से उन्होंने कहा,हाँ... हाँ आर.वर्मा ,के वर्मा का नाम लिखा है. मैंने नवनीत को अस्श्वस्त किया, टिकट कन्फर्म है. तब तक ट्रेन सरकने लगी थी. और पति भी निश्चिंतता से हाथ हिलाते हुए चले गए.
अब मैंने टी.टी. से कहा,हमारी बर्थ नंबर बताइए. और जब मैं उक्त बर्थ के पास गयी तो देखा लोग बैठे हुए हैं. मैंने उनसे कहा कि ये बर्थ तो आर.वर्मा और के.वर्मा के नाम की है उन्होंने कहा, "हाँ सही है..मेरी पत्नी का नाम आर वर्मा है और बेटी का के.वर्मा. " अब तो मेरी हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. दो छोटे बच्चे, ३० घंटे का सफ़र और रिजर्वेशन नहीं. मैंने जल्दी से कहा जंजीर खींचिए,इस तरह तो मैं नहीं जा सकती. इतने लोगों में, एक महिला ने ही उठकर जंजीर खींची पर हमारी उत्कृष्ट रेल सेवा ,जंजीर उनकी हाथ में ही आ गयी. ट्रेन नहीं रुकी. पर बाद में मैंने सोचा ,अगर ट्रेन रुक जाती तो मैं वहीँ ट्रैक के पास सामान और बच्चों सहित उतर जाती .क्यूंकि ट्रेन ने प्लेटफ़ॉर्म तो छोड़ ही दिया था. पर मेरे पास उस वक़्त मोबाइल फोन भी नहीं था,नवनीत के पास था,पर मैं उनसे संपर्क कैसे करती? इसलिए उस जंजीर का टूट जाना और ट्रेन का नहीं रुकना,मेरे हक में अच्छा ही हुआ.
मैंने टी.टी. से कहा ..."अब देखिये कोई बर्थ खाली हो तो..." उन्होंने दो बर्थ खाली होने की सूचना तो दी, लेकिन सिर्फ आधी दूरी तक और कहा," उसके बाद किसी और का रिजर्वेशन है और मेरी ड्यूटी भी वहीँ तक है. उसके आगे की जिम्मेवारी मैं नहीं ले सकता." उसके बाद भी पूरी एक रात का सफ़र बचता था जो छोटे बच्चों के साथ मुमकिन नहीं था कि बैठ कर रात गुजारी जाए. तय किया कि एक घंटे बाद,अगला स्टेशन 'कल्याण' है जहाँ उतर जाउंगी और नवनीत को फोन कर दूंगी.
पर इतना सारा समान,कहाँ पब्लिक बूथ मिलेगा.और तब तक रात के एक बज जाएंगे. नवनीत को भी आने में ३ घंटे तो लग ही जाएंगे. तब तक स्टेशन पर रुकना ठीक होगा, .बाकी सहयात्री बातचीत में मशगूल थे. साइड वाले बर्थ पर बैठी,मैं यही सब सोच रही थी. कि सामने बैठे एक व्यक्ति जिसे god send ही कहेंगे , ने सलाह दी कि आप आधी दूरी तक का रिजर्वेशन ले लीजिये. उसके बाद दिन का सफ़र रहता है,कोई परेशानी नहीं होगी और रात के दस बजे ट्रेन इलाहाबाद पहुँचती है. काफी लोग वहाँ उतर जाते हैं और आपको जरूर रिजर्वेशन मिल जायेगा. मुझे भी यह सलाह सही लगी वरना मैंने तो 'कल्याण' उतरने का मन बना ही लिया था.
मैंने टी.टी. से बात करके अपना समान ज़माना शुरू किया.और एक बात लिखने से नहीं रोक पा रही खुद को. प्लेटफ़ॉर्म पर आते ही बिहार में बोली जाने वाली विभिन्न बोलियाँ भोजपुरी,मैथिलि,मगही सुन अपनापन की अनुभूति हुई थी क्यूंकि मुंबई में तो कान मराठी,गुजरती,मलयालम,तमिल सुनने के आदी हो चुके थे. पर यहाँ इतना भारी बैग,अटैची मैं अकेली खींच खींच कर ला रही थी लेकिन किसी भी एक बन्दे ने उठकर सहायता के लिए हाथ नहीं बढाया. ऐसे अनुभव मुझे कई बार हो चुके हैं. लोगबाग अपने पैर उठा लेंगे ,किनारे हो जाएंगे,पर हेल्प नहीं करेंगे.खैर हमलोग तो सक्षम हैं ही. यहाँ साथ वाली बर्थ पर वही महिला थीं जिसने मेरे लिए चेन खींची थी.उसका भी ५ साल का एक बेटा था. एक और बुजुर्ग पति-पत्नी थे. हमारा सफ़र बहुत अच्छा कटा,बिलकुल एक पिकनिक के जैसा.कोई किसी स्टेशन पर ठंढा पिलाता,कोई समोसे खिलाता. बातचीत करते,हँसते-बोलते रास्ता कटता गया.
एक स्टेशन पर बनारस जाने वाली ट्रेन 'महानगरी' लगी थी. कुछ लोगों ने उतर कर वो ट्रेन पकड़ ली.और मुझे आराम से पटना तक के लिए बर्थ मिल गयी. उन सबके जबलपुर उतर जाने के बाद यात्रा थोड़ी मायूसी में गुजरी. उस पर से एक जगह रात में ट्रेन करीब एक घंटे के लिए रुक गयी और ट्रेन की बिजली भी चली गयी.बच्चे गर्मी से परशान हो रोने लगे और कहते जाते, "गन्दी ट्रेन ..गन्दी ट्रेन" .सामने वाली बर्थ पर जाने वह कोई औटोवाला था,फलवाला या सब्जीवाला.पर भीषण गर्मी की वजह से उसने भी अपनी शर्ट उतार दी और उसके बनियान के अनगिनत सूराख किसी डिज़ाईनर बनियान का भ्रम दे रहें थे. मेरी सहेलियां यह सब सुन आश्चर्य में पड़ गयीं ,कैसे हिम्मत कर लेती हो.यूँ अकेली सफ़र करने का. अब मजबूरी तो है पर पिछले १५ बरस से अकेले आती जाती हूँ,कभी किसी अप्रिय घटना का सामना नहीं करना पड़ा.
खैर ट्रेन चली और सुबह का इंतज़ार होने लगा. पर हमारा ordeal अभी ख़त्म नहीं हुआ था. दानापुर से आधे घंटे लगते हैं,पटना पहुँचने में. मैं इधर उधर बिखरे सामान इकट्ठा करने लगी. घर पहुँचने की ख़ुशी से ज्यादा सुकून इस बात का था कि इस ट्रेन से तो निजात मिलेगी. पर ट्रेन को हमारा साथ कुछ ज्यादा ही पसंद आ गया था और करीब ४ घंटे तक ट्रेन वहीँ रुकी रही. कई लोग वहाँ से उतर कर टैक्सी से अपने गंतव्य तक चले गए. पर मेरे लिए यह मुमकिन नहीं था.एक तो अकेली ,साथ में बच्चे और उसपर से 'travel light " मैंने अब तक नहीं सीखा और खासकर जब घर जाना हो. हमेशा मेरे साथ ढेर सारा सामान होता है.
पापा मुझे स्टेशन लेने आ चुके थे और मम्मी घर पर परेशान हो रही थीं क्यूंकि railway inquiry में कोई फोन ही नहीं उठा रहा था . कुछ ही दिन पहले एक ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गयी थी .तब भी inquiry में फोन रिसीव नहीं कर रहें थे, बस मम्मी ने घबरा कर मामा वगैरह को बुला लिया.और वे लोग दानापुर के लिए निकलने ही वाले थे कि हमलोग पहुँच गए.
एक बात का जिक्र और करना चाहूंगी.हमलोग सोचते हैं कि २,३ साल के बच्चों को क्या समझ होती है, उनके सामने कुछ भी कह लो. पर मेरे पति ने जब फोन किया और छोटे बेटे से बात करना चाहा तो उसने पहला सवाल यही किया ,"आपने मम्मी को क्यूँ डांटा ?"
जब मैं ट्रेन में थी और पति ने प्लेटफ़ॉर्म से चिल्ला कर कहा था कि 'तुम्हारा टिकट कन्फर्म नहीं हुआ है' तो उसे लगा कि वे डांट रहें हैं ,और यह बात उसने दो दिन तक याद रखी थी.
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कुर्ला से पटना तक की यात्रा ....बहुत ही रोमांचक संस्मरण है....इसे कहते हैं की ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरना...:):) वैसे हिम्मत हो तो रस्ते निकल ही आते हैं...वैसे पतिदेव तो कभी भी बिना आरक्षित सीट के नहीं जाने देते...और हाँ बच्चों का मन बहुत कोमल होता है..बचपन की बातें मन में घर कर जाती हैं...बहुत अच्छा लिखा है...उत्सुकता अंत तक बनी रही...काफी घटनाएँ घटीं इस यात्रा में....बधाई
जवाब देंहटाएंशुक्रिया संगीता जी,
जवाब देंहटाएंबिना रिजर्वेशन तो हम भी नहीं जाते कहीं...पर उस बार जबरदस्त ग़लतफ़हमी हो गयी और किस्सा हमने लिख ही डाला है :)
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंHi,
जवाब देंहटाएंRail yatra ka sundar vivaran..
Main swayn amuman ghar se dur hi rahta hun aur main khud Rail se lambi yatrayen karta hun par bina reservation jaane ke naam se rooh kanpati hai.. Main aapki us samay hruday ki vyatha aur dasha samajh sakta hun.. Sahyatri kai baar tarksangat rai dete hain.. Sabki sune aur man ki karen.. Yahi mul darshan hona chahiye,
sundar aalekh..
DEEPAK..
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जवाब देंहटाएंरोमांचक यात्रा-संस्मरण. तो बच्चो, इस संस्मरण से हमें यही सीख मिलती है, कि वेटिंग टिकट पर कभी यात्रा नहीं करनी चाहिये, और न ही टीटी की बात पर भरोसा करना चाहिये. :) जीवट वाली यात्रा रही होगी वो.
जवाब देंहटाएंदीपक जी, शुक्रिया..
जवाब देंहटाएंअच्छी सलाह दी,आपने...पर आपके कमेंट्स ४ बार पोस्ट हो गए हैं..एक्स्ट्रा मैं डिलीट कर दे रही हूँ..सॉरी
Hi..
जवाब देंहटाएंSorry mam! Ye mere net ka kamal hai, jab nahi chahega, ek comment bhi post nahi hoga, aur jab chahega 3 ya char baar daya dikha dega..
आपकी यात्रा की बाते मजेदार .......
जवाब देंहटाएंbadhiya sansmaran hai di.. Pradeep chaube ji ki kavita-
जवाब देंहटाएं''bharteeya rail ki general bogi, aapne bhogi ke nahin bhogi..'' yaad aa gayi.. khair aap to 3 tier me theen.
काफ़ी मुश्किलों भरा सफ़र रहा। पर आपकी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी।
जवाब देंहटाएंबहुत रोमांचक सफर .. लिखने का ढंग भी निराला है !!
जवाब देंहटाएंगजब रोमांचक यात्रा कर ली..
जवाब देंहटाएंपढ़ रहा था:
उन सबके जबलपुर उतर जाने के बाद यात्रा थोड़ी मायूसी में गुजरी
-मैडम, जबलपुर वाले होते ही ऐसे हैं..साथ छोड़ दें तो मायूसी सी लगने लगती है...हा हा!! यह आपको एक जबलपुर वाला ही लिख रहा है. :)
वाकई आज भी अगर कोई महिला अकेले बच्चों के साथ सफ़र करती पायी जाती है तो लोग उसके साहस की तारीफ़ करते थकते नहीं हैं, और रेल्वे तो अपनेआप में एक अजूबा है। बढ़िया रहा संस्मरण
जवाब देंहटाएंसंस्मरण त्रासदिक किन्तु यात्रा का आवश्यक अंग बन गया है । शब्द शिल्प प्रशंसनीय ।
जवाब देंहटाएंमुझे इस संस्मरण में भी टीवी सीरियल का बढ़िया प्लॉट नज़र आ रहा है...वैसा ही स्वस्थ हास्य, जैसा आजकल सब टीवी पर दिखाया जाता है...
जवाब देंहटाएंवैसे ये ट्रैवल लाइट का असली दर्द पतियों से पूछिए...मायके जाते वक्त तीन-चार बैग होते हैं तो वापस आते वक्त वो सात-आठ हो ही जाते हैं...(इसलिए शादी से पहले पतियों के कुलीगिरी के गुणों को भी अच्छी तरह जांच परख लेना चाहिए)
जय हिंद..
रोचक यात्रा विवरण ...
जवाब देंहटाएंसर बताने के लिए कि पढ़ लिया है ...:):)
विस्तृत कमेन्ट बाद में ..सर्वर प्रॉब्लम है ..
बाप रे ! बिना रिज़र्वेशन, कुर्ला से पटना और वो भी दो बच्चों और गृहस्थी भर सामान के साथ. बिना रिज़र्वेशन मैंने कई बार दिल्ले से इलाहाबाद यात्रा की है वेटिंग टिकट पर...करना पड़ता है, गाइड बुलायें तो दौड़कर जाना पड़ता है, ख़ासकर जब उन्होंने दिल्ली में रहकर आई.ए.एस. की तैयारी की छूट दे रखी हो. पर मेरे पास सामान बहुत कम होता था, गृहस्थी वाली नहीं हूँ ना अभी तक. बच्चों के साथ सामान ज्यादा हो ही जाता है.
जवाब देंहटाएंअब तो मैं बिना रिज़र्वेशन कहीं नहीं जाती.
आपने तो कमाल कर दिया. सच में आप बहुत हिम्मती हैं. नहीं तो शादी के बाद औरतें पतियों पर बोझ बन जाती हैं. बेचारे पति (poor creature). कभी-कभी दया आती है उन पर.
ख़ैर, बड़ा मज़ा आया यात्रा संस्मरण पढ़कर...और क्या बात है...आजकल सभी नौस्टेल्जिक हो रहे हैं.
कुर्ला से पटना सफर अच्छा रहा न, हर दिशा में आत्मनिर्भर रहना सही होता है. अनुभव इसी को कहते हैं . वर्णन बहुत ही रोचक रहा . अगले कीप्रतीक्षा में.
जवाब देंहटाएंरोचक यात्रा संस्मरण ………………आपकी हिम्मत की दाद देनी पडेगी।
जवाब देंहटाएंवृत्तांत पूरा होने तक दिल धक् धक् करता रहा !सशक्त लेखनी का कमाल ! मेरी ट्रेन यात्राएं कुछ ऐसी ही रही है!
जवाब देंहटाएंहम तो रेल वाले हैं, पर यात्रा के नाम पर बहुत कष्ट होता है। :-(
जवाब देंहटाएंकथा सार संग्रह ये कि रिजवेशन (रिजर्वेशन ) का पटनैया संस्करण , हमेशा ही अपने फ़ुल्लम फ़ुल नाम से कराना चाहिए । अटैची में सामान भरते हुए हमेशा ये ख्याल रखना चाहिए ...सब के सब बैठे रहते हैं और टरेन में पैर मोड के जगह दे देते हैं बस ......। और भी सब नोट कर लिए हैं , पूरा लिस्ट भिजवाते हैं बाद में । हां उ लास्ट स्टौपेज चार घंटे वाली अभी भी वैसी ही है ...। हम भी जल्दी ही दिल्ली टू दरभंगा ....लिख देते हैं .........
जवाब देंहटाएंIndian railway,always butt of the joke!Ask my hubby;the typical railway officer ;he will give you ten thousand reasons why this is the condition of trains,none of which will blame the railiway-men.Always the travellers or some others.But your post was fun,reminded me of my innumerable Patna trips!
जवाब देंहटाएंरश्मि जी, आपकी यात्रा तो सही में रोमांचक रही...खैर अच्छी बात ये थी की रास्ते में आपको तकलीफ नहीं हुई..
जवाब देंहटाएंवैसे मैं तो कई बार ही फंस चुका हूँ इस तरह के जंजाल में...लेकिन हर बार कोई न कोई रास्ता निकल ही आता है..2 साल पहले जब मैं अपनी बहन के साथ बंगलोर से पटना जा रहा था दिवाली पे, उस समय भी आपके जैसी ही स्थिति थी हमारी..कुछ अच्छे आदमी मिले और सफ़र अच्छा कटा...
बहुत अच्छा लिखा आपने..
मजेदार किस्सा ... मसालेदार लगा आपका संस्मरण, बहुत ही रोचक अंदाज़ में लिखा है आपने ... ये सच है रेल यात्रा में ऐसा अक्सर होता रहता है ...
जवाब देंहटाएंमै तो यह सोच रहा हूँ कि यदि सचमुच आपका रिज़र्वेशन कंफर्म हो जाता तो यह कहानी यूँ बनती " हम लोग कुर्ला से बैठे और अगले दिन पटना उतर गये । यात्रा अच्छी रही । "
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी इसी का नाम है ।