सोमवार, 20 दिसंबर 2010

खेल में बच्चों का भविष्य और सचिन के गीले पॉकेट्स


   
'जीवन में खेल का महत्व' इस विषय पर हम सबने अपने स्कूली जीवन में कभी ना कभी एक लेख लिखा ही होगा.पर बड़े होने पर हम क्या इस पर अमल कर पाते हैं?अपने बच्चों को 'खेल' एक कैरियर के रूप में अपनाने की इजाज़त दे सकते हैं? हम चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाते. कई मजबूरियाँ आड़े आ जाती हैं. हमारे देश में खेल का क्या भविष्य है और खिलाड़ियों की क्या स्थिति है, किसी से छुपी नहीं है. पर अगर आपके बच्चे की खेल में रूचि हो,स्कूल की टीम में हो, और वह अच्छा भी कर रहा हो तो माता-पिता के सामने एक बड़ी दुविधा आ खड़ी होती है.
 

स्कूल का नया सेशन शुरू होता है और हमारे घर में एक बहस छिड़ जाती है,क्यूंकि हर खेल की टीम का पुनर्गठन होता है और मैं अपने बेटे को शामिल होने से मना करती हूँ. जब तक वे छोटी कक्षाओं में थे,मैं खुद प्रोत्साहित करती थी,हर तरह से सहयोग देती थी. इनका मैच देखने भी जाती थी.कई बार मैं अकेली दर्शक होती थी. दोनों स्कूलों के टीम के बच्चे,कोच,कुछ स्टाफ और मैं. छोटे छोटे रणबांकुरे,जब ग्राउंड की मिटटी माथे पे लगा,मैच खेलने मैदान में उतरते तो उनके चेहरे की चमक देख, ऐसा लगता जैसे युद्ध के लिए जा रहें हों . मैंने,मैच के पहले कोच को 'पेप टॉक' देते सुना था और बढा चढ़ा कर नहीं कह रही पर सच में उसके सामने 'चक दे' के शाहरुख़ खान का 'पेप टॉक' बिलकुल फीका लगा था, फिल्म डाइरेक्टर के साथ में 'नेगी' थे, अच्छे इनपुट्स तो दिए ही होंगे.फिर भी मुझे नहीं जमा था.
पर जब बच्चे ऊँची कक्षाओं में आ जाते हैं,तब पढाई ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगती है. .क्यूंकि पढाई पर असर तो पड़ता ही है.जिन दिनों टूर्नामेंट्स चलते हैं. २ महीने तक बच्चे किताबों से करीब करीब दूर ही रहते हैं.और एक्जाम में 90% से सीधा 70 % पर आ जाते हैं.ऐसे में
बड़ी समस्या आती है.क्यूंकि भविष्य तो किताबों में ही है.(ऐसा सोचना हमारी मजबूरी है).एक लड़के को जानती हूँ.जो ज़हीर और अगरकर के साथ खेला करता था. रणजी में मुंबई की टीम में था. १२वीं भी नहीं कर पाया. आज ढाई हज़ार की नौकरी पर खट रहा है...और यह कोई आइसोलेटेड केस नहीं है.ज्यादातर खिलाड़ियों की यही दास्तान है.यह भी डर रहता है,अगर खेल में बच्चों का भविष्य नहीं बन पाया तो कल को वे माता-पिता को भी दोष दे सकते हैं कि हम तो बच्चे थे,आपको समझाना था.और कोई भी माता पिता ऐसा रिस्क लेंगे ही क्यूँ??बुरा तो बहुत लगता है एक समय इनके मन में खेल प्रेम के बीज डालो और जब वह बीज जड़ पकड़ लेता है तो उसे उखाड़ने की कोशिश शुरू हो जाती है. इस प्रक्रिया में बच्चों के हृदयरूपी जमीन पर क्या गुजरती है,इसकी कल्पना भी बेकार है.

अगर उन्हें किसी खेल के विधिवत प्रशिक्षण देने की सोंचे भी तो मध्यम वर्ग के पर्स पर यह अच्छी खासी चपत होती है. coaching.traveling, bat, football ,studs,stockings,pads .... . लिस्ट काफी लम्बी है.
पता नहीं सचिन तेंदुलकर के गीले पौकेट्स की कहानी कितने लोगों को मालूम है? सचिन के पास एक ही सफ़ेद शर्ट पेंट थी.सुबह ५.३० बजे वे उसे पहन क्रिकेट प्रैक्टिस के लिए जाते.फिर साफ़ करके सूखने डाल देते और स्कूल चले जाते,स्कूल से आने के बाद फिर से ४ बजे प्रैक्टिस के लिए जाना होता.तबतक शर्ट पेंट सूख तो जाते पर पेंट की पौकेट्स गीली ही रहतीं.(मुंबई में कपड़े फैलाने की बहुत दिक्कत है,फ्लैट्स में खिड़की के बाहर थोड़ी सी जगह में ही पूरे घर के कपड़े सुखाने पड़ते हैं,यहाँ छत या घर के बाहर खुली जगह नहीं होती..उन दिनों उनके पास वाशिंग मशीन नहीं थी,और सचिन खुद अपने हाथों से कपड़े धोते थे,क्यूंकि उनकी माँ भी नौकरी करती थीं.वैसे भी सचिन अपने चाचा,चाची के यहाँ रहते थे,क्यूंकि उनका स्कूल पास था. चाचा-चाची ने उन्हें अपने बेटे से रत्ती भर कम प्यार नहीं दिया)इंटरव्यू लेने वाले ने मजाक में यह भी लिखा था, क्या पता सचिन के इतने रनों के अम्बार के पीछे ये गीले पौकेट्स ही हों,इस से एकाग्रता में ज्यादा मदद मिलती हो.

20/20 वर्ल्ड कप के स्टार रोहित शर्मा की कहानी भी कम रोचक नहीं.रोहित शर्मा मेरे बच्चों के स्कूल SVIS से ही पढ़े हुए हैं. ये पहले किसी छोटे से स्कूल में थे.एक बार समर कैम्प में SVIS के कोच की नज़र पड़ी और उनकी प्रतिभा देख,कोच ने रोहित शर्मा को SVIS ज्वाइन करने को कहा.पर उनके माता-पिता इस स्कूल की फीस अफोर्ड नहीं कर सकते थे. कोच डाइरेक्टर से मिले और उनकी विलक्षण प्रतिभा देख डाइरेक्टर ने सिर्फ पूरी फीस माफ़ ही नहीं की बलिक क्रिकेट का पूरा किट भी खरीद कर दिया,रोहित शर्मा ने भी निराश नहीं किया. 'गाइल्स शील्ड' जिस पर 104 वर्षों तक सिर्फ कुछ स्कूल्स का ही वर्चस्व था.SVIS के लिए जीत कर लाये. मिस्टर लाड को कोचिंग के अनगिनत ऑफर मिलने लगे.बाद में तो एक कमरे में रहने वाले रोहति शर्मा ने मनपसंद कार की नंबर प्लेट 4500 के लिए 95,000Rs. RTO को दिए.(एक ख्याल आया,राज ठाकरे ,इन्हें मुम्बईकर मानते हैं या नहीं क्यूंकि रोहित शर्मा के पिता भी कुछ बरस पहले कानपुर से आये थे )

सचिन और रोहित शर्मा हर कोई तो नहीं बन सकता.पर जबतक हम बच्चों को मौका देंगे ही नहीं खेलने का,उनकी प्रतिभा का पता कैसा चलेगा?..जब कभी मैं बोलती हूँ,सचिन ढाई घंटे तक एक स्टंप से दीवार पर बॉल मारकर प्रैक्टिस करते थे. बच्चे तुरंत पलट कर बोलते हैं हमें तो दस मिनट में ही डांट पड़ने लगती है.
खेल के मैदान से बड़ी ज़िन्दगी की कोई पाठशाला नहीं है.मैंने देखा है, कैसे इन्हें ज़िन्दगी की बड़ी सीख जो मोटे मोटे ग्रन्थ नहीं दे सकते. खेल का मैदान देता है.एक मैच हारकर आते हैं,मुहँ लटकाए,उदास....पर कुछ ही देर बाद एक नए जोश से भर जाते हैं,चाहे कुछ भी हो,हमें अगला मैच तो जीतना ही है. यही ज़ज्बा मैंने खेल से इतर चीज़ों के लिए भी नोटिस किया है.
दूसरों के लिए कैसे त्याग किया जाए,और उस त्याग में ख़ुशी ढूंढी जाए,बच्चे बखूबी सीख जाते हैं.गोल के पास सामने बॉल रहती है,पर इन्हें जरा सी भी शंका होती है,अपने साथी को बॉल पास कर देते हैं,वो गोल कर देता है,उसे शाब्बाशी मिलती है,कंधे पर उठाकर घूमते हैं,अखबार में नाम आता है.और उसकी ख़ुशी में ही ये खुश हो जाते हैं.
 

आज टीनेजर बच्चों को टीचर तो दूर माता-पिता भी हाथ लगाने की नहीं सोच सकते.पर गोल मिस करने पर,या कैच छोड़ देने पर कोच थप्पड़ लगा देता है,और ये बच्चे चुपचाप सर झुकाए सह लेते हैं.एक बार भी विरोध नहीं करते.
समानता का पाठ भी खेल से बढ़कर कौन सिखा सकता है? अभी कुछ दिनों पहले पास के मैंदान में ही अंडर 14 का मैच था. आमने सामने थे,धीरुभाई अम्बानी स्कूल,(जिसमे शाहरुख़,सचिन,सैफ,अनिल,मुकेश अम्बानी के बच्चे पढ़ते हैं) और सेंट फ्रांसिस (जिसमे मध्यम वर्ग के घर के बच्चों के साथ साथ,ऑटो वाले और कामवालियों के बच्चे भी पढ़ते हैं...स्कूल अच्छा है,और fully aided होने की वजह से फीस बहुत कम है.) धीरुभाई स्कूल का कैप्टन था शाहरुख़ का बेटा और सेंट फ्रांसिस का कैप्टन था एक ऑटो वाले का बेटा.जिसकी माँ,मोर्निंग वाल्क करने वालों को एक छोटी से फोल्डिंग टेबल लगा,करेले,आंवले,नीम वगैरह का जूस बेचती है. हम भी, कभी कभी सुबह सुबह मुहँ कड़वा करने चले जाते हैं. उसने उस दिन लड्डू भी खिलाये,बेटे की टीम जीत गयी थी. निजी ज़िन्दगी में ये बच्चे एक साथ कभी बैठेंगे भी नहीं पर मैंदान में धक्के भी मारे होंगे,गिराया भी होगा,एक दूसरे को..
अफ़सोस होता है...यह सबकुछ जानते समझते हुए भी हम मजबूर हो जाते हैं...क्यूंकि दसवीं में जमकर पढाई नहीं की तो अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलेगा.और फिर किसी वाईट कॉलर जॉब हंटिंग की भेड़ चाल में शामिल कैसे हो पायेंगे ,ये नन्हे खिलाड़ी

37 टिप्‍पणियां:

  1. @रचना जी,
    हमलोग जरूर पढेंगे .
    पर आपने शायद नहीं पढ़ी ये पोस्ट वरना एक पंक्ति भी नहीं लिखतीं...सिर्फ लिंक देकर चली जातीं...

    वैसे आप टिप्पणीकर्ताओं से निवेदन है रचना जी के दिए लिंक पर जरूर जाएँ और जरूर पढ़ें वे अद्भुत रचनाएं.

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  2. दीदी ऑफिस पहुंचा और कम्प्यूटर खोलते ही दिखाई दी आपकी पोस्ट।
    अब बताओ, पहले साथियों से मिलता या पोस्ट पढ़ता।
    फटाफट पोस्ट पढ़ ली और इस पर चर्चा बाद में आकर करुंगा।
    बॉस को मिलना है, सबको हेलो करना है।
    जॉब भी तो जरूरी है ना!

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  3. हम उनकी इस महान सफलता के लिए उन्हें बधाई देने के साथ-साथ अपना आभार भी व्यक्त करते हैं। आज सचिन ने क्रिकेट के इतिहास में मील का एक और पत्थर पार कर लिया है।

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  4. सेंचुरियन का मतलब है
    सचिन तेंदुलकर....

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  5. अच्छा हुआ आपने ये पोस्ट यहाँ डाली, पहले नहीं पढ़ पाए थे आज ही पढ़ी. सही लिखा है आपने ...........

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  6. रश्मिजी, आपकी पोस्‍ट से दो बाते निकलकर आती हैं एक तो बच्‍चों के जीवन में खेल का महत्‍व और दूसरा केरियर। जीवन में खेल का महत्‍व रहना चाहिए। हम भी बहुत खेले हैं। लेकिन केरियर बनाना हो तो इसके लिए बहुत जीवट चाहिए। एक दिन में ट्रेन में थी, मेरे पास टीसी आकर बैठ गया। बातचीत चलती रही फिर उसने क्रिकेट की बात शुरू कर दी कि मेरा बेटा क्रिकेट खेलता है और मैं उसे राजस्‍थान की अण्‍डर नाइन्‍टीन की टीम में देखना चाहता हूँ। वह फिर गुस्‍से में आने लगा कि लोग बेईमान हैं मेरे बेटे को नहीं खेलने दे रहे। मैंने बहुत समझाया लेकिन वह तो गुस्‍से में था। फिर बोला कि मैं उसे रेलवे की टीम से खिलाऊंगा। मैंने कहा कि रेलवे की टीम से कैसे? वह बोला कि दो चार वर्ष इंतजार करता हूँ, यदि उसका चयन नहीं हुआ तो मैं इसे रेलवे में नौकरी दिला दूंगा। मैंने पूछा वों कैसे? वह बोला कि मेरे मरने के बाद। मैं दंग रह गयी, कि केरियर या प्रसिद्धि के कारण एक पिता अपनी जान देने को तैयार है कि उसका बेटा क्रिकेटन बने। इसलिए केरियर का विषय मुझे कम समझ आता है। खेल हमारे जीवन में तन और मन की स्‍वस्‍थता के लिए आवश्‍यकत हैं बस इतना ही होना चाहिए। जो अफोर्ड कर सकते हैं ये सब उनके लिए ही हैं।

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  7. सचिन तो है ही मास्टर ब्लास्टरहर एक का हीरो .
    बढ़िया पोस्ट. .

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  8. रश्मि रविजा जी!
    एक अभिभावक की सही मनोदशा का वर्णन किया है आपने. आज जब मैं भी अपनी बेटी को एक ऐसे खेल की तरफ आकर्षित होते देखता हूँ, जो उसके दादा जी का प्रिय खेल होता था, तो इतिहास के दोहराने पर विश्वास होने लगता है. फुटबॉल कभी मेरा प्रिय खेल नहीं रहा , लेकिन आज जब उसे रियाल मैड्रिड, आर्सेनल और न जाने क्या बोलते सुनता हूँ तो पिता जी की याद आ जाती है.
    खेलोगे कूदोगे होगे खराब वाली कहावत अब वाकई गलत होती दिख रही है. रही बात खेलको कैरियर के रूप में चुनने की, तो बेहतरीन होना किसी भी क्षेत्र में सफलता की कुंजी है, पढ़ाई हो या खेल!
    वैसे बधाई सचिन को!!

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  9. @अजित जी,
    सही कहा कुछ अभिभावक अपनी महत्वाकांक्षा अपने बच्चो पर थोपना चाहते हैं. वे टी.सी. महाशय भी ऐसे ही होंगे,जो कुछ, खुद नहीं पा सके,बेटे के माध्यम से पाने का सपना देख रहे होंगे. और इसके लिए किसी हद तक जाने को तैयार.

    लेकिन हम मैच्योर लोग इस बात को समझ सकते हैं कि सिर्फ व्यक्तित्व के विकास के लिए खेलना जरूरी है पर उन अबोध बच्चों का क्या जो आर्सेनल और MNU तक के लिए खेलने का सपना पाले होते हैं.
    बहुत ही दुविधापूर्ण स्थिति है.

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  10. @सलिल जी,
    मुझे लगता है...पढ़ाई में अच्छा करना फिर भी आसान है पर खेल में आगे बढ़ने के लिए मर-मिटने वाला पागलपन होना चाहिए. पर अभिभावक उस पागलपन तक पहुँचने की इजाज़त नहीं देते.

    एक बच्चे का जिक्र करना चाहूंगी , अपने स्कूल की फुटबॉल टीम का कैप्टन. दसवीं में घर से इजाज़त नहीं मिली खेलने की.पर वो छुप कर खेलता रहा. अपना किट किसी दोस्त के यहाँ रखता. एक्स्ट्रा क्लासेज़ कह कर मैच खेलने जाता. मेडल्स भी दोस्तों के पास छुपा कर रखता.
    उसके रेकॉर्ड देख, कॉलेज की टीम में भी उसे सहर्ष ले लिया गया. जब वह दबे पाँव सुबह सुबह अपनी किट ले प्रैक्टिस के लिए घर से निकल रहा था तो उसके पिताजी ने देख लिया और किट उठाकर सातवीं मंजिल से नीचे फेंक दिया. क्या गुजरी होगी उस नन्हे से ह्रदय पर.

    लेकिन पिता को भी दोष कैसे दिया जाए...उन्हें बेटे के भविष्य की चिंता थी.

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  11. क्या कहें.. कुछ चीजें बचपन कि अब भी मन में है.. जिसे इस सार्वजनिक मंच पर नहीं कहना चाहता.. बस कुछ शौक, जिसे प्रोफेशन में नहीं अपना सका..

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  12. @PD
    समझ सकती हूँ ,प्रशांत...बिना तुम्हारे कहे भी समझ सकती हूँ....पर वही एक अनिश्चित भविष्य की आशंका,मन के सारे अरमान पूरे नहीं होने देती.

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  13. दो दोस्त "शेखर और दिलीप",
    अद्दुत खिलाडी थे अपने समय में...ऐसा मैं मानता हूँ क्यूंकि उन्हें देखा है देखते हुए और स्कूल के लिए मैच जीतते हुए...क्या शौक था उन्हें खेल को अपना प्रोफेसन बनाने के, लेकिन उनके घरवालों को इस बात पर बहुत सख्त विरोध था...क्या कर सकते थे ये दोनों...खेल का मोह छोड़ना ही पड़ा...

    वैसे आजकल बात कुछ सही होते तो दिख रही है ही....

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  14. अरे हाँ,
    सचिन ने पचासवां शतक बनाया, वो मेरे लिए जीत के बराबर ही है...वैसे ज्यादा खुशी होती अगर मैच बच जाता तो...फिर भी,

    सचिन बाबा
    - जय जो :)

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  15. सचिन के बहाने आपने हर मां बाप के मन में चलते द्वंद को सामने रख दिया। सही बात है कि हर कोई खेलकर अपनी जीविका नहीं कमा सकता। उसके लिए तो कुछ हुनर आना ही चाहिए।
    *
    मुझे याद है,जब मैं छोटा था और पढ़ने में फिसड्डी तो पिताजी कहते थे, अरे पढ़ना-लिखना नहीं है तो कुछ कुश्‍ती-वुश्‍ती लड़ो। मास्‍टर चंदगीराम की तरह नाम कमाओ।
    *
    मेरे दो बेटे हैं। बड़े को फुटबॉल का जुनून की हद तक शौक है,वह शहर की टीमों में खेलता भी है। पर जीविका के लिए वही कर रहा है जो सब करते हैं। छोटे वाले को खेलों को बहुत शौक नहीं रहा।
    *
    एक अभिभावक के नाते हमने दोनों बच्‍चों को किसी भी चीज के लिए निरुत्‍साहित नहीं किया।

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  16. बहुत सुंदर बात कही आप ने, पढाई के संग खेलो का अपना ही महतव होता हे,लेकिन मैने देखा हे कि भारत मे लोग सिर्फ़ क्रिकेट को ही सब कुछ मानते हे, ओर बाकी खेलो को कोई महत्व नही देता, जब कि जिस देश से क्रिकेट चली हे वहां के लोग क्रिकेट के सिवा अन्य खेलो मे भी आगे रहते हे, आप का धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये.

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  17. रश्मि जी
    बहुत अच्छी पोस्ट है...अगर खेल जगत से भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाए तो इस देश को सचिन जैसे न जाने कितने खिलाड़ी मिल सकते हैं...

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  18. सचिन के बारे में बहुत दिलचस्प बातें बताई हैं आपने इस पोस्ट में ।
    बेशक लाखों में एक आध बच्चा ही इस लेवल तक पहुँच पाता है । बाकि सभी गुमनामी के अँधेरे में खो जाते हैं ।
    इसलिए पढ़ाई तो पहले होनी ही चाहिए ।
    साथ साथ यदि खेलों में भी रूचि हो तो प्रयास करने में कोई बुराई नहीं ।

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  19. कई देशो में खिलाडियों के लिए स्कोलरशिप और एडमिशन मिलते हैं अच्छे कॉलेजों में. मुझे यहाँ कहना चाहिए की वे 'दुनिया के सबसे अच्छे कॉलेज' हैं. अपने यहाँ भी चीजें बदल रही हैं धीरे-धीरे ही सही. १-२ दिन पहले किसी और सन्दर्भ में भी मैंने यही कहा था. बहुत आशावान व्यक्ति हूँ मैं :)

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  20. बहुत अच्छी पोस्ट। खेल से तन और मन दोनों का विकास होता है। हम तो जिस दिन खूब खेल कर आते थे उस दिन पढते भी खूब थे।

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  21. @अभिषेक ओझा

    बढ़िया है, अभिषेक.....अच्छा लगता है, लोगो का ऐसा आशावान होना :)
    ये positive vibes ही कुछ बदलाव ले आएँ

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  22. हां सचिन तो सचिन हैं. शानदार किरकिटिया पोस्ट :):)

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  23. हमारे यहाँ क्रिकेट को छोड़ कर बाकि खिलाडियों की क्या इज्जत है ये सभी को पता है उड़नपरी पी टी उषा को भी कई बार अपमान झेलना पड़ा और महिला खिलाडियों को क्या क्या झेलना पड़ता है वो कई बार सामने आ चूका है अब इन चीजो को देखने के बाद अभिवावक अपने बच्चो को कैसे किसी खेल में अपना केरियर बनाने की इजाजत दे सकता है | फिर कई बार ये भी होता है की खेलने का शौक तो है किन्तु प्रतिभा ही नहीं है उसके पहचानने तक पता चला की दूसरे केरियर की उम्र निकल गई |

    लेख बहुत ही अच्छा लगा अभिवावाको की उलझन को बहुत अच्छे से आप ने सामने रखा है | वैसे आज के दौर में सानिया और शाइना ने लड़कियों और उनके अभिवावाको में एक नई उम्मीद जगाई है | सचिन को उनकी पचासवी सेंचुरी पर बधाई काश भारत मैच भी बच लेती |

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  24. बहुत ही नाज़ुक जगह पर हिट कर दिया आपने , कुछ स्मृतियाँ दुखती हैं , जीवन में स्थापित नहीं हो पाने के लिये कई बार पालक के अलावा बालक स्वयं भी दोषी होता है खासकर अपने विचलनों की वज़ह से ! खैर ...जाने दीजिए !

    तेंदुलकर की मिसाल से एक निष्कर्ष ये भी निकलता है कि अगर सही उम्र में सही मेहनत / सच्ची लगन / जिजीविषा /संयोग हो तो गीली पाकेट , गर्म पाकेट में तब्दील हो जाती हैं !

    आपने जिस लिंक को रिकमेंड किया ,वहां गया तो सही पर अदभुत क्या है समझ में नहीं आया !

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  25. अभी अचानक से एक प्रश्न मन में आ गया अंशुमाला जी का कमेन्ट पढ़कर.. P.T.Usha के जीवन कि उपलब्धियां क्या सच में उतना अधिक है जितना उन्हें भारत में सम्मान मिला है?

    हो सकता है कि पोस्ट से इतर बात हो, मगर कमेन्ट से इतर नहीं है.. :)

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  26. सचिन तो इस देश की शान है। उनके बारे मे प्रेरक जानकारी बहुत अच्छी लगी। बधाई और धन्यवाद।

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  27. रश्मि जी, इस महान खिलाडी के बारे में जितना भी कहा जाए कम है। शब्‍दों और वक्‍तव्‍यों से कहीं ऊपर है यह इंसान।
    इस नाचीज की ओर से भी उस महान हस्‍ती को हार्दिक बधाईयां और आपको उसके बारे में एक शानदार लेख लिखने के लिए भी ढेर सारी बधाई।
    ---------
    आपका सुनहरा भविष्‍यफल, सिर्फ आपके लिए।
    खूबसूरत क्लियोपेट्रा के बारे में आप क्‍या जानते हैं?

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  28. कमाल है ...सचिन पर क्रिकेट पर लेख रश्मि रविजा का ...सामयिक लेख के लिए बधाई !

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  29. @सतीश जी,
    सचिन पर तो यह लेख नहीं है.....सचिन के बहाने जरूर कुछ बातों पर चर्चा की है.
    गावस्कर के बहाने भी कुछ लिखा था...वो भी पढ़वा दूंगी, आप सबको...:)

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  30. आज की दौड़ती भागती जिंदगी में हम सभी मध्यमवर्गीय अभिभावकों और बच्चों की समस्या है ...बच्चों को कैरिअर छोड़ कर स्पोर्ट्स अपनाने की सलाह किस बिना पर दें ...
    सचिन तो सचिन ही हैं ..उनका शतक बनाना भारतीय टीम के काम नहीं आया ...सचिन अपनी आलोचनाओं का जवाब अपने बल्ले से देते हैं ...देते रहेंगे ...!

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  31. सचिन का तो कोई जवाब ही नहीं ...गीली पॉकेट्स के बारे में नहीं पता था ..अच्छी जानकारी दी है ...

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  32. कभी पलट पर लौटे क़दमों की तरफ से इस पर कुछ भी नहीं...... काश!

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  33. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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