लखनऊ में बहन की शादी तय होने की खबर सुनते ही ,मैने लखनऊ जाने का प्लान बना लिया था. और लखनऊ जाऊं और महफूज़ से ना मिलूं ये तो मुमकिन ही नहीं. महफूज़ के साथ हुए हादसे के बाद तो मिलने की इच्छा और भी बलवती हो गयी कि अपनी आँखों से देख लूँ..वो बिलकुल ठीक तो है.
पर गिरिजेश राव जी की तरह महफूज़ से भी यही कहा कि शादी की गहमागहमी से फ्री होते ही खबर करती हूँ. शादी संपन्न हो जाने के बाद मेरे पास दो दिन थे. इन्ही दो दिनों में महफूज़ से मिलने की सोच रखा था .पर हुआ यूँ कि बारात वाले दिन मैं अपना मोबाइल चार्ज करना ही भूल गयी. दूसरे दिन बहन की विदाई के बाद बातें करते कब सो गयी पता ही नहीं चला. (दो तीन दिनों से सुबह तीन-चार बजे सोना...और शादी की रात का जागरण तो था ही ) मोबाइल स्विच्ड ऑफ हो चुका था. रात में ख्याल आया तो चार्जर लगाया.
दूसरे दिन सुबह स्विच ऑन करते ही महफूज़ के मेसेज आने शुरू हो गए..."आप कहाँ है?"..."आप लौट तो नहीं गयीं"..."प्लीज़ कॉल मी"...अब जाकर अपनी लापरवाही का अहसास हुआ .उस दिन तो महफूज़ से मिलना था. तुरंत कॉल बैक किया. पता चला, महफूज़ फोन कर-कर के परेशान था और मराठी में रेकॉर्डेड मेसेज सुन और परेशान हो गया कि शायद मैं बिना मिले लौट गयी.(ऐसा भला कैसे हो सकता है ) यह सुन और भी अफ़सोस हुआ कि उसने अपनी बहन आएशा के साथ घर आने का प्लान किया हुआ था. आएशा से भी मिलने का सुनहरा अवसर गँवा दिया था, मैने. आज का दिन तो था पर मेरी शॉपिंग पूरी बाकी थी. चिकन के कुरते...टॉप, सलवार-सूट ,साड़ियों की ढेर सारी खरीदारी करनी थी और शाम की ट्रेन थी. हिचकते हुए महफूज़ से कहा तो उसने कहा ."कोई बात नहीं शॉपिंग ख़तम कर के घर आ जाइए फिर मुझे कॉल करिए .मैं घर पर मिलने आ जाऊँगा." मन ही मन सौ बार थैंक्स कहा उसे.
पर घर से 'अमीनाबाद मार्केट' बहुत दूर था उस पर से घर से निकलने में भी देर हो गयी. शादी के घर से निकलना कितना मुश्किल होता है,सबको आभास होगा...कहीं कोई बहन,मौसी अटैची खोले बैठी होती है..और दूसरी कहती है."जरा ये साड़ी तो देखो..कितनी सुन्दर लग रही है"...वहाँ ठिठकते हुए, आगे बढ़ो..तो कोई जेवर दिखा रहा होता है...कहीं कोई बच्ची प्यारा सा डांस कर रही होती है, दो पल को कदम रुक ही जाते हैं.....दरवाजे से निकलने को ही होते हैं कि कोई काम करनेवाला फरमाइश कर देता है..'जरा किचन से ये निकाल कर दे दो" अब या तो खुद उनका काम कर दो..या किसी को ढूंढ कर सौंप दो...सब पूरा कर बाहर निकलो ..तो कुछ
एक्चुअली मैं शादी में इसमें बिजी थी.. बना बनाया जो मिल रहा था :) |
बुजुर्ग, कुर्सी लगाए बैठे होते हैं..देखते ही आवाज़ देंगे.."जरा देखो तो कब से चाय के लिए कहा था...लाया क्यूँ नहीं अब तक.." अब वापस पूरी दूरी तय कर चाय के लिए ताकीद करने जाओ.. ..आप सोचते हैं,जल्दी से ऑटो ले निकल जाएँ..पर किसी घर वाले की नज़र पड़ जाती है..और वे पीछे पड़ जाते हैं.."अरे इतनी गाड़ियां हैं..ऑटो से क्यूँ जाओगी...अरे जरा उसको बुलाओ..वो नहीं है..तो फलां को बुलाओ."....अब इंतज़ार करो..गाड़ी और ड्राइवर का..तो कहने का अर्थ ये कि इन सब अडचनों को पार करते हुए हमें मार्केट के लिए निकलने में दोपहर हो गयी.
लखनऊ की ट्रैफिक तो सुब्हानल्लाह ...कोई भी किधर से गाड़ी लिए घुसा चला आता है. वैसे ये boasting नहीं है.पर मुंबई जैसी systematic traffic कहीं नहीं है. हैदराबाद जैसे मेट्रो में भी देखा है...कोई extreme right lane से सीधा left turn ले लेता है. राम-राम करके मार्केट पहुंचे...और जल्दी-जल्दी खरीदारी शुरू की. दुकानदार सोच रहें होंगे ,'ऐसे कस्टमर रोज आएँ'. हम चार कुरते देखते और उसमे से दो सेलेक्ट कर लेते. एक नज़र घड़ी पर थी और एक नज़र कपड़ों पर. शो केस में लगी कितनी ही पोशाकें ललचा रही थीं (अभी भी आँखों के सामने घूम रही हैं :( ) पर समय की कमी के कारण उन्हें ट्राई नहीं कर पायी.
महफूज़ का फोन भी आ रहा था."घर कब पहुँच रही हैं?" पांच बज चुके थे .और घर जाकर सामान पैक कर वापस स्टेशन के लिए निकलना था. पौने आठ की ट्रेन थी. किसी तरह शॉपिंग ख़तम की और ईश्वर से प्रार्थना करते कि कोई ट्रैफिक जैम ना मिले ,घर की तरफ चले.
मेरे आने के कुछ ही देर बाद महफूज़ मियाँ भी अवतरित हो गए...एक सुन्दर सा बुके और मिठाई का पैकेट लिए. उसे बिलकुल स्वस्थ देख, सच बहुत ही ख़ुशी हुई . वही सदाबहार हंसी थी चेहरे पर...किसी अजनबियत की तो कोई गुंजाईश थी ही नहीं. पिछले एक साल में दोस्ती के हर रंग देख लिए हैं. महफूज़ को देखते ही मैने कह दिया.."तुम तो इतने छोटे लगते हो...अभी दो-चार साल शादी ना करो तब भी "मोस्ट एलिजिबल बैचलर" का खिताब कहीं जाने वाला नहीं." ये चॉकलेट,मिठाई, बुके का जिक्र करना मुझे ठीक नहीं लग रहा. पर वे लोंग लाए थे तो कहना तो पड़ेगा ही..वैसे ये सब जरूरी नहीं ..मैने तो उनलोगों को कुछ भी नहीं दिया... बस शादी की मिठाई ही ऑफर की ..वो भी मौसी की दी हुई....और हाँ एक और चीज़ दिया ....वो था...धन्यवाद :).
....और ' शिखा, महफूज़ लाल रंग की टीशर्ट पहन कर नहीं आया था.:) ' मैं और शिखा, महफूज़ के लाल रंग के ऑब्सेशन पर उसकी काफी खिंचाई करते हैं. {पता नहीं, पुरुषों को क्यूँ ये खब्त है कि वे रेड कलर में ज्यादा स्मार्ट दिखते हैं ...अब सारे पाठक अपनी रेड कलर की शर्ट, टी-शर्ट, कुरते याद कर रहें होंगे...आपलोग कॉन्शस मत होइए, बेहिचक पहनिए :)
पर महफूज़ से आराम से बैठकर बात तो हो ही नहीं सकी. कभी मैं भाग कर रिश्तेदारों को विदा करने जाती...कभी समान संभालती..कभी महफूज़ से दो बातें करती...महफूज़ को बड़ा अफ़सोस था, ' मेरे ममी-पापा से नहीं मिल सका' वे स्टेशन के लिए निकल चुके थे. और मुझे अफ़सोस हो रहा था कि वक्त ही नहीं है...जरा
वैसे ,मैने इतना सारा काम भी किया |
आराम से बैठ कर बातें करें. बातों से ज्यादा बस अफ़सोस ही प्रकट होता रहा. एक घंटा कैसे निकल गया पता ही नहीं चला. कैमरा ऊपर ही पड़ा था पर एक फोटो लेने की भी याद नही रही...जबकि इतने भाई-बहन सामने थे..कोई भी खींच देता. बहनों ने मेरे सारे समान एक जगह जुटा दिए थे. पैकिंग भी कर रही थीं. पर एक बार देख कर सब लॉक तो मुझे ही करना था. इधर मौसी की पुकार भी चल रही थी, "कुछ तो खा लो" बड़े बेमन से महफूज़ को विदा कहा. अब अगली बार सब सिस्टमैटिक होगा. मोबाइल चार्ज करना हरगिज़ नहीं भूलूँगी.
महफूज़ से तो घंटे भर की ही मुलाकात थी..पर उसकी लाई स्पेशल मिठाई ,मेरे साथ मुंबई तक आई. गुझिया के आकार की मिठाई जिसकी पूरी पेठे की थी और अंदर खोया और ड्राई फ्रूट्स भरा था..जरूर वहाँ की स्पेशियालिटी होगी क्यूंकि यहाँ मुंबई में नहीं मिलती. ट्रेन में मैने को-पैसेंजर्स को ऑफर किया...तो सब नाम पूछने लगे. अब मुझे तो पता ही नहीं था.(अब भी नहीं पता :( ) अली और अब्बास ने तो बस अंदर का खोया खाया और आउटर कवरिंग को चॉकलेट का रैपर समझते रहें. उनके डैडी ने कितना कहा..'इसे भी खा जाओ...ये खाने की चीज़ है"...पर वे नहीं माने.. रैपर समझ फेंकने ही वाले थे कि डैडी जी ने उदरस्थ कर लिया.
अपनी सहेलियों को भी खिलाया....उन्होंने इसे अच्छा नाम दिया.."ये तो बिलकुल पान की तरह है.:)" मेरे बच्चों ने भी कहा..'आंटी ने सही कहा...बिलकुल पान जैसा है.." और मेरे अंदर की माँ ने गंभीर होकर पूछ लिया.."तुमलोगों को कैसे पता..पान का स्वाद.....कब खाया?" दोनों ने एक स्वर में कहा.."शादी में खाए हैं...." हाँ! शादी..में बच्चों को चाय-कॉफी-पान की छूट मिल जाती है. पटना में अटेंड की एक शादी याद आ गयी...वहाँ बिलकुल एक नौटंकी कलाकार की तरह सजा-धजा एक पान वाला था...जो घूम घूम कर कुछ नृत्य जैसी मुद्राएँ बनाते हुए सबको अपने हाथों से पान खिला रहा था. नए से नए तरीके इंट्रोड्यूस हो रहें हैं.
महफूज़ ने बताया इस 'पान वाली मिठाई' को ऑनलाइन भी ऑर्डर कर सकते हैं...अब आप में से जो भी ऑर्डर करे..मेरा कमीशन मत भूलियेगा....आखिर मैने ही इसके बारे में बताया है आप लोगों को .:)
(एक और ब्लॉगर से मिलने का दिलचस्प किस्सा ..अगली पोस्ट में )