('पिया के घर में पहला दिन ' परिचर्चा की शुरुआत में लावण्या शाह जी ने अपनी माता जी 'सुशीला देवी' की मिश्री सी मीठी यादों को हमसे बांटा था , तो मैंने सोचा इस संस्मरण -श्रृंखला का समापन भी रश्मि प्रभा जी की माता जी के पावन-निर्दोष संस्मरण से करना चाहिए )
रश्मि प्रभा जी की माता जी 'सरस्वती प्रसाद ' |
"ऐ लड़की! ज़रा स्थिर हो कर बैठ, सीधी माँग निकालने दे - माँग अगर सीधी न हुई तो टेढ़े
स्वभाव का दूल्हा होगा जान ले. " लड़की पालथी मार
कर मुस्कुराती हुई बैठ जाती है - " लो अच्छी तरह सीधी माँग निकालो. "
आईने के सामने खड़ी होकर वह माँग देख रही है - सीधी
माँग - ऊँ.....हूँ, सामने के थोडा उठे उठे हैं, कैसे तो उलटे, पुलटे.
अँगुलियों से दबा दबा कर वह ठीक कर रही है कि उसकी सखी आकर चोरी पकड़
लेती है - "अभी से माँग ठीक करने लगी हो, क्यों? टेढ़े दुल्हे कि कल्पना से डर लगता है? अरे रहने भी दो थोडा टेढ़ा हुआ तो क्या?"
"-धत! मैं कहाँ कुछ कर रही हूँ."
दूल्हा! उसकी चर्चा तो वह लड़की बसंत के पहले से सुन
रही है - यानि तिलक जाने के पहले से - दूल्हा क्या है, लाखों में एक. सुनहला रंग, घुंघराले बाल.
चलने का शानदार ढंग, बोलता है तो जैसे विनम्रता टपकती है - भाई किस्मत हो
तो ऐसी, इकलौती बेटी के लिए इकलौता लड़का, भगवन ने सोच कर जोड़ी बनाई है.
दूल्हा देखने को वह उतावली हुई जा रही है - लाखों में एक, सुनहला रंग, घुंघराले बालों वाला! अगली बार जब वह कोई नया नाटक खेलेगी -
अपने घर के बड़े से हॉल में अपने साथियों के साथ, तो दुल्हे को
अच्छा सा पार्ट देगी - राम और कृष्ण के लिए वही अच्छा रहेगा. अगले ही पल उसे अजीब
लगा अपनी इस सोच का- दूल्हा बोलता है तो विनम्रता टपकती है - हाय राम! एक हमलोग
हैं, किस प्रकार हल्ला-गुल्ला करते हैं! - फिर वह तो पढ़ा
लिखा बड़ा आदमी है - हमारे खेल में कैसे शामिल होगा....?....देखने के बाद ही - निर्णय लिया जा सकता है.
खिड़की से लग कर वह खड़ी है -
-" ऐ श्यामा, ज़रा सुन तो इधर, बता क्या - क्या बन रहा है?"
-"लड्डू - मेहीदाने के -"
-"मेहीदाने के ! खूब ढेर सारे बन रहे होंगे? और क्या क्या?"
-"इमारती, भरी कचौड़ी, गुलाब जामुन, सेव-
दालमोट....."
- "मैं भी चलूँ उधर देखने को, क्या - क्या बना और क्या बनने जा रहा है?"
-"तू इधर जाएगी, हद है! तेरी शादी
हो रही है- आज ही तो शाम में बरात आएगी हट जा खिड़की पर से, चची ने देख लिया तो बहुत गुस्सा करेंगी - मैं चलती हूँ उधर
काम है. "
-"हुँह, काम है, काम है - जिसे देखो सबको काम है और मैं घर में बंद होकर
बैठी रहूँ........!"
- धूप अभी दीवालों पर चढ़ रही है जल्दी-जल्दी भागे और
शाम हो जाए, बारात आये. कितने बाजे बजते आयेंगे - और ढेर सारे
लोग..................आतिशबाजी भी होगी, पटाखे छूटेंगे -
बाप रे ! मैं तो डर के मारे दोनों कान में ऊँगली डाल लूँगी . बाजे-गाजे और
ढोल की ढम-ढम से ही तो मेरी छाती धड़कने लगती - लेकिन इससे क्या - आज मेरी शादी
होगी. कितना अच्छा लगेगा दूल्हा आएगा - डोले में या मोटर में दोनों और से चंवर
झूलता होगा.
"ऐ रूपा, रूपा, सुन-सुन इधर मेरे पास आ, बारात कब आएगी?"
-रूपा - ही ही ही ही करके हँसने लगती है और हँसते -
हँसते लाल पड़ जाती है. "ज़रा सुनो- ही -ही-ही......क्या पूछ रही है यह
ही-ही-ही....आएगी बाबा आएगी- इस तरह मत घबरा, आज ही शाम को
आएगी- अब ज्यादा देर नहीं है."
आँगन में आकर कोई जोर से चिल्लाया - बारात चल चुकी, आने में ज्यादा नहीं, आधे घंटे की देर
हो सकती है.
खलबली मच गई औरतों और बच्चों के समूह में - भाग दौड़ और
बातों की घुली मिली आवाज़- एक उठता हुआ शोर. लड़की निकलने को सोच ही रही थी कि
जाड़े में भी पसीने से लथ-पथ, हाँफती हुई सी
चाची आई हिदायत देने को - "खिडकियों से ताक-झाँक न करना रे शुभा ,कहाँ-कहाँ
के बाहरी लोग आयेंगे औरतों का जमघट है- माथे पर ठीक से आँचल घर के बैठ, तुरंत बारात आ रही है, तुझे भी दिखाने को
ले चलेंगे - रूपा, श्यामा, लाली, कमला कोई भी आये उनलोगों के साथ मत निकल जाना- हाँ.......s.........s.........
भड़ाक से किवाड़ उठ्गान्ती चची चली गई और करीब आती बाजे की आवाज़ से शुभा के पाँव चंचल होने लगे - ओफ़!
चची हमेशा कुछ मन करती रहती है अब बारात देखने भी उन्ही के साथ जाना होगा हुँह.....
मोहल्ले कि बारात देखते - देखते आज तो मौका आया है कि बारात अपने दरवाज़े आ रही है, देर करेगी चची तो चल ही दूँगी- तभी माँ आ गई. शुभा ने माँ की
ओर देखा – पीले गोटे लगी साडी में माँ तो खुद दुल्हन लग रही थी- चेहरे पर व्यस्तता
और थकान. इसके बावजूद एक ख़ुशी और उत्साह की लहरों पर झूलती जाने कैसी उदासी के
आवरण में लिपटी है माँ- 'माँ!' कहती हुई शुभा माँ
के गले लिपट गई.
"बारात आ गई, बारात आ गई...के
बीच धम...धम....धम...धम...की भगदड़ मच गई.
माईक पर बजते गीतों में घिरी, माथे पर घूंघट
निकाले, धड़कता हुआ मन लेकर शुभा अपनी बारात देखने चली. एक
तरफ से माँ और एक तरफ से चाची ने उसे सहारा दे रखा था, अगल-बगल, आगे-पीछे, भीड़ थी. किसी प्रकार उसमे से निकाल कर बाहर कोने वाले कमरे
में पहुचाया गया जिसकी खिड़की सड़क कि और खुलती थी. एक बड़ी खिड़की पर चाची और
सहेलियां जा लगीं - दूसरी छोटी वाली पर माँ और शुभा.
बारात आ गई - बड़े, बूढ़े, लड़के, नौजवान....बेशुमार
लोग! लो, पटाखे भी छूटने लगे. धमाको से सहमती हुई शुभा ने माँ
को पकड़ रखा है. आँखें भीड़ को चीरती, रौशनी और धुंए को
पार करती, लाखों में एक दुल्हे को खोज रहीं हैं...दूल्हा! कि वो
ख़ुशी से चहक उठी... "माँ! वह रहा दूल्हा, मेरा दूल्हा है
न. वाह क्या शान है! एकदम सिंहासन जैसे डोले में बैठा है, चंवर भी झूल रहे हैं - मोतियों कि लड़ी के मारे मुँह नहीं
दीखता है, कोई ज़रा हटा देता तो ठीक था - लाखों में एक मेरा
दूल्हा! "
माँ ने फुसफुसाते हुए टोका - "अरी चुप भी रह चल उस
कमरे में द्वार पूजा के बाद नहान होगा, सारे विधि
व्यवहार करने होंगे . बोलो नहीं , लोग-बाग़ क्या
कहेंगे?"
फिर भी कमरे से निकलते हुए उसने चाची का आँचल खींच ही लिया, " ऐ चाची बता तो दूल्हा कैसा है? रूपा, श्यामा - वह कैसा
लगा रे..." रूपा खिलखिलाने लगी, श्यामा ने पीठ पर
एक धौंस जमाया, चाची दांत पीसने लगी - "भाग यहाँ से, लाज कर कोई सुन लेगा तो क्या कहेगा?"
लाली दौड़ कर आई और कानो में कह गई - "शुभा तेरा
दूल्हा! सच, लाखों में एक, बहुत सुन्दर, ख़ुशी के सागर में डूबती इतराती रह अभी थोड़ी देर बाद वह
आँगन में आएगा. "
माँ ने उसे बाहों में भरे हुए भीतर के कमरे में पहुंचा
दिया.
दूल्हा आँगन में है, मंडप के बीच खड़ा
हुआ, औरतें गा रही हैं - " आज सुहानी है रात, चंदा तुम उगिहो..." परिछन होने लगा. खिड़की के फांक से
शुभा देख रही है - लाखों में एक दूल्हा सुनहले रंगों वाला...पहले उसे रामलीला के
राम जी याद आये, मंत्र मुग्ध होकर वह राम को भी देखा करती थी एकदम
वैसा ही है दूल्हा नहीं उससे भी ज्यादा सुन्दर. उसकी निश्छल चंचल आँखों में एक चमक
भरने लगी - पता नहीं दुल्हे के रूप की या जगमग करते मौर की उसकी समझ में भी नहीं
आया. दूल्हा मुस्कुरा भी रहा है तभी उसे ख्याल आया वह दूल्हा से मिलते ही अपने मन
की बात कह देगी "मुझे तुम अपना ये मौर दे दो एक दम से, इस मौर के चलते तो मेरी बड़ी धाक जमेगी पूरे मोहल्ले भर के
संगी साथी याचक दृष्टि लिए आगे-पीछे चक्कर काटेंगे, कितना रौब जमेगा, कितना मज़ा आएगा सब जानते हुए भी वह अनजान बनने का नाटक
करेगी आखिर हार कर उन्हें आजीजी से मूह खोलना ही पड़ेगा - शुभा एक चमकता लटतू मुझे
भी देना, मुझे झिलमिल करता पान, दस लाल मोती
मुझे. अरे बाबा दे दूंगी दे दूंगी, मोतियों कि लम्बी
लड़ी कोई एक नहीं, दो नहीं पूरे सात हैं कितने डिब्बे भर जायेंगे.
गुडियाओं के भारी-भारी गहने बन जायेंगे, पीली मोतियों का
कंठ तो खूब अच्छा लगेगा अब नाक रगड़ेन्गी दीपा , मनोरमा और वो
झगडालू चंपा भी. दूल्हा बड़ा ही अच्छा है, मुस्कुराता है
मौर मांगूंगी तो न नहीं करेगा और तन्मयता में डूबी शुभा ने खिड़की कि खुली फांक को
थोडा ज्यादा कर दिया. कोई बाधा नहीं, कोई रोक टोक नहीं
इत्मीनान से वो दूल्हा देख रही है. किसी और का नहीं अपना दूल्हा उसका पहला
प्लान...लेकिन इस दुल्हे से तो बात करने में डर लगेगा, गंभीरता है उसके मुस्कुराने में, पता नहीं मौरमांगने से क्या सोचे! कौन जाने डांट दे या
झिड़क दे हमारे खेल में वो राम कृष्ण तो नहीं ही बनेगा. बहुत पढ़ा लिखा भी है, अंग्रेजी बोलता है और खूब लिखता है, मेरा तो एक ही पेज में बहुत गलत हो जाता है.
दुल्हे के बगल में बैठी है शुभा, पंडित मंत्रोच्चार कर रहे हैं, मांग भर गई, औरतें गा रही है
-"दूल्हा राम , सिया दुल्हनी...." अक्षत के साथ शुभे हो शुभे कि
वर्षा हो रही है..माँ,बाबूजी, चाचा चाची नाना
नानी बुआ पास पड़ोस दूर दराज अपने पराये सभी प्यार लूटा रहे हैं .सभी दुआएं दे रहे
हैं गीतों और बाजों कि आवाज़ में हँसी ठिठोली चल रही है- हाँ हाँ खाइए, साथ खाने कि शुरुआत तो यहीं से होती है यह प्यार का आदान
प्रदान है शुभा की ऊँगली से दुल्हे को दही खिलाया जा रहा है और दूल्हा खिला रहा है
शुभा को दुल्हे की ऊँगली का दही चाटते हुए घूंघट के भीतर भी शुभा लाज में गिरी जा
रही है! लगता है कहीं बोलती न बंद हो जाये.
शुभा और दूल्हा एक दुसरे के आमने-सामने बैठे हैं, शुभा ने अपने को संयत कर लिया है, वह अपनी बात कहेगी, दूल्हा बातें कर
रहा है - "पढ़ती हो न"
"हाँ, अब तो जल्दी ही
इम्तिहान होने वाला है"
"पढने में मन लगता है?"
शुभा को थोड़ी हँसी आई "लगता है, लेकिन खेलने में ज्यादा"
"बहुत से साथी होंगे?"
"हाँ बहुत है , जब सब इकट्ठे होते हैं न तो घर भर जाता है, आपको सबों से मिलाऊँगी
"हाँ बहुत है , जब सब इकट्ठे होते हैं न तो घर भर जाता है, आपको सबों से मिलाऊँगी
"खाने में क्या अच्छा लगता है...."
शुभा ने समझा नहीं
"मेरा मतलब मीठा या नमकीन, कौन ज्यादा अच्छा लगता है?"
" दोनों, मैं मीठी चीज़ें ज्यादा मन से खाती हूँ और नमकीन भी, मुझे अचार भी पसंद है"
" दोनों, मैं मीठी चीज़ें ज्यादा मन से खाती हूँ और नमकीन भी, मुझे अचार भी पसंद है"
"अच्छा शुभा हमलोग कैसे बातें करेंगे - खड़ी हिंदी या
भोजपुरी में?"
"जैसी आपकी इक्षा वैसे घर में मैं भोजपुरी बोलती हूँ, स्कूल या बाहर वालों से खड़ी हिंदी में, आपसे खड़ी हिंदी में बातें करना ही ठीक रहेगा"
थोडा हँस कर दुल्हे ने कहा -"बाहर वाला जो हूँ, ठीक है हम खड़ी हिंदी में ही बातें करेंगे, अच्छा अब मैं बहुत बोल चूका तुमसे, कितनी बातें पूछ चूका, तुम हमसे कुछ
पूछो?"
"आपसे?"
"हाँ मुझसे तुम भी कुछ पूछो"
"आपसे मैं क्या पूछों आप तो सब जानते हैं, अंग्रेजी , हिंदी और उर्दू
भी...ढेर सारी किताबें आपने पढ़ कर ख़त्म कर डाली हैं, मैं क्या पूछूं? "
"कुछ भी पूछो, अपने मन से अपनी
मर्ज़ी से, मैं चाहता हूँ इसलिए पूछो"
शुभा तो निहाल हो गई फिर भी कुछ अटकते हुए कहा " मुझे
आपसे एक चीज़ मांगनी है, दीजियेगा? "
"मांगो, मांगो क्या मांग
रही हो?" उत्साहित हो कर दूल्हा बोला
शुभा ने दुल्हे को गौर से देखा कितना अच्छा है ये अब मांग
ही लें आनाकानी करने का प्रश्न ही नहीं होता. टुकुर टुकुर एक तक देखती दो अल्हड
आँखों कि भाषा सुनने को दूल्हा व्यग्र हो उठा "बोलो न क्या मांगती ही?"
सहज मुस्कान बिखेरती शुभा बोली "आपकी वह मौर जो वहां उस
कोने में राखी है, कितना अच्छी है ये मौर, जग नाग करती
मोतियों कि लड़ियों से लड़ी दे देंगे न मुझे एकदम से"
हँस पड़ा था दूल्हा और बड़ी उदारता दिखाई थी "यह मौर
मेरा नहीं तुम्हारा ही है रख लेना और भी जो जो कहोगी मैं सब ला दूंगा मेरे पास
रंगीन चित्रों वाली ढेर किताबें हैं पसंद है न तुमको"
"हाँ आप मुझे दे देंगे"
"सब दे दूंगा, तुम खुद ही अपनी
पसंद से चुन लेना..."
"ओह आप कितने अछे हैं"
"और तुम भी बहुत अच्छी हो"
शुभा आश्वस्त हुई यह दूल्हा लाखों में एक है सच मच लाखों
में एक...जाने क्यों वह थोडा डर रही थी पर डरने कि कोई बात नहीं है. जल्दी सवेरा
हो तो वह अपनी सहेलियों को बताये "यह दूल्हा एक बहुत अच्छा दोस्त है, इसे तो कभी कुट्टी भी नहीं हो सकती, यह सारीबातें मान लेगा"
तभी उसे मांग का ख्याल आया और वह उतावली होने लगी अभी जा कर
सबसे पहले अपनी भरी भरी मांग देखनी है - अपनी सीधी मांग- तभी तो ऐसा दूल्हा मिला!
---- सरस्वती प्रसाद
---- सरस्वती प्रसाद
माँ बेटी दोनों गरिमामयी हैं ..
जवाब देंहटाएंमंगल कामनाएं !
बहुत ही अच्छा लगा आदरणीय माँ का संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंसंस्मरण पढ़ा पर...एक फोटो और होना चाहिए थी :)
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंपी के घर अज प्यारी दुल्हनिया चली ।
पढ़ते हुए मुस्कान आई लबों पर , बालिका वधू देखी हो जैसे !
जवाब देंहटाएंमधुरम मधुरम !
जीवंत संस्मरण..... आभार पढवाने का
जवाब देंहटाएंइस संस्मरण के हर शब्द से झांकती एक मीठी याद जो मुस्कान बन ...सजीव सी हो उठी ... अच्छा लगा पढ़कर
जवाब देंहटाएंआभार आपका इस प्रस्तुति के लिए
आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत - अमर शहीद मंगल पाण्डेय - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंरोचक जीवंत संस्मरण...आभार
जवाब देंहटाएंअतीत का सुंदर चित्रण
जवाब देंहटाएंलगा की घर में बारात वाकई आ गई
गुड्डा गुडिया,के खेल से गुजरता हुआ
जीवन के सच का सजीव चित्रण
इतना सुन्दर चित्रण, बस लग रहा था कि उपहार फिल्म चल रही है। बहुत ही सशक्त लेखनी। माँ को प्रणाम। उनकी और रचनाएं भी प्रकाशित करें।
जवाब देंहटाएंअतीत का सुंदर चित्रण
जवाब देंहटाएंसीधी माँग, सीधा दूल्हा।
जवाब देंहटाएं:) बहुत सुंदर संस्मरण था। संस्मरण से अधिक एक लघु कथा..
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक सुन्दर
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