मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

तपती धरती पर एक बूँद गिरी हो जैसे

फेसबुक और ब्लॉग्गिंग के विषय में बहुत कुछ लिखा जाता रहा है कि लोग ब्लॉग्गिंग से फेसबुक  की तरफ पलायन कर गए हैं ..और अब फेसबुक पर स्टेटस लिख कर ही संतुष्ट हो जाते हैं आदि आदि. पर मेरी यात्रा उलटी रही. फेसबुक पर मैंने 2006 में ही अकाउंट बनाया था जबकि ब्लॉगिंग  ज्वाइन की 2009  में . पहले फेसबुक पर मेरी फ्रेंड्स लिस्ट में सिर्फ जाने-पहचाने मित्र और रिश्तेदार ही थे पर  ब्लॉग्गिंग ज्वाइन करने के बाद काफी ब्लॉग दोस्त (कर्ट्सी शोभा डे ) भी फेसबुक पर मित्रों में शुमार हो गए .

फिर भी मैं बहुत कम लोगों को ही add करती हूँ . बहुत ज्यादा सक्रिय भी नहीं हूँ..कि सबकी स्टेटस पढूं, कमेन्ट करूँ लिहाजा मेरे स्टेटस पर ज्यादा likes  और कमेंट्स भी नहीं होते. वरना किसी  ने लिखा, " धूप कितनी खिली हुई है ..शाम कितनी सुहानी  है " और सौ दो सौ likes . किसी की बचकानी तुकबंदी पर भी लोग अश अश कर उठते हैं, और दो सौ से ऊपर लोग like कर जाते हैं. मेरी कोई स्टेटस बहुत पसंद की गयी हो तब भी चालीस से ज्यादा लोगों ने like  नहीं किया .पर अभी कुछ लिख कर पोस्ट किया और हैरान  रह गयी 320 likes और 29 शेयर . 

मैंने  लिखा था ,
"रेडियो एफ .एम. वाले पूछ रहे हैं ,"अगर आपको किसी को थैंक्यू कहना है तो हमारे माध्यम से अपना थैंक्स भेज सकते हैं "
एक लड़की का फोन आता है , " कल रात ऑफिस में बहुत देर हो गयी और मैरिन ड्राइव पर मैं टैक्सी के इंतज़ार में खडी थी .एक भी खाली टैक्सी नहीं आ रही थी. .तभी पास आकर एक टैक्सी रुकी उसमे एक लड़का बैठा था बोला , ,"आप टैक्सी में बैठ सकती हैं, जहां जाना होगा छोड़ दूंगा " पर मैं डर गयी ,उसके साथ टैक्सी में बैठने को तैयार नहीं हुई तो वह बाहर निकल आया और बोला , "आप इस टैक्सी से चले जाइये ,आपका इतनी देर रात, अकेले खड़े रहना ठीक नहीं . मैं दूसरी टैक्सी ले लूँगा ".मैं उस लड़के का नाम नहीं जानती ,उसकी शक्ल भी ठीक से नहीं देखी पर आपके माध्यम से अपना थैंक्स बोलना चाहती हूँ "

हमारी भी एक बिग थैंक्यू उस अनाम लड़के को. इतनी संवेदनशीलता सब में आ जाए फिर कैसी शिकायत रहे इस दुनिया से
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    खैर ये बात भी तारीफ़ के काबिल थी, पसंद करने के लायक थी.  लोगों ने जेनुइनली पसंद किया था. मुझे भी बहुत अच्छी  लगी थी तभी मैंने भी स्टेटस के रूप में लिखा.
    पर यह सब देख थोडा दुःख भी हुआ. इस किस्म की संवेदनशीलता, ऐसी सहृदयता, एक अनजान की मदद करने का ज़ज्बा इतना कम हो गया है कि जो भी पढ़ रहा है, अभिभूत हो जा रहा है. जैसे ये  कोई rarest of rare घटना हो.

    उस लड़के ने कोई अपनी जान पर खेल कर गुंडों से उस लकड़ी को नहीं बचाया था . एक छोटा सा  gesture था, एक अनजान लड़की को देर रात सड़क पर खडा देख चिंतित हो गया और अपनी टैक्सी से उतर कर उसे वो राइड ऑफर कर दी. हो सकता है, आधे घंटे बाद या एक घंटे बाद ही उसे दूसरी टैक्सी मिल गयी हो. पर आजकल किसी अनजान के लिए इतना सा भी कोई नहीं करता . सबलोग बस अपनी दुनिया में मगन रहते हैं. इस लड़के की  टैक्सी गुजरने से पहले और भी कई टैक्सियाँ गुजरी होंगीं. पर किसी ने चिंता नहीं की कि  देर रात एक लड़की सड़क पर यूं अकेली खड़ी है. कल को कुछ हादसा हो जाता तो जरूर खबरे देख कर अपना आक्रोश व्यक्त करते. शायद कैंडल और पोस्टर ले, मोर्चा भी निकालें. पर अपने आस-पास के प्रति ज़रा सी भी जागरूकता नहीं  जागती. 
    अगर हम सब अपनी आँखें थोड़ी सी खुली रखें. अपने आस-पास जो घट रहा है, उसके प्रति संवेदनशील रहें . इतने ज्यादा आत्मकेंद्रित न हों.  रिश्तेदारी और  मित्रता से अलग भी दूसरों  की मदद के लिए तत्पर रहें तो कितने ही हादसे टल जाएँ. 

     उस लड़के द्वारा किया गया सद्कार्य आम होना चाहिए कि लोग सुन कर इसे आम समझें और कहें ,"हाँ..ऐसा तो होता ही है ' .इसमें कुछ अनोखा नहीं लगना चाहिए . अभी तो ऐसा लगा, जैसे इस असंवेदनाशीलता की लपट से झुलसती धरा पर बारिश की एक बूँद सी थी,ये घटना जो  इस जलती धरती पर गिरी और विलीन हो गयी. लोग इस बूँद की शीतलता की खबर पर ही मुग्ध हैं पर ऐसी कई बूँदें मिलकर बारिश का रूप ले लें और हमारे आस-पास बरसें तो फिर हमारी धरा जरा हरी-भरी हो. 
    खैर, आशा है कि इन 320 लोगों ने जो ये स्टेटस पसंद किया है और जो लोग अब ये पोस्ट पढ़ रहे हैं, वे तो जरूर ऐसा कुछ करेंगे .

46 टिप्‍पणियां:

  1. एक बात तो तय है कि वक्त जो दिखाए और उससे जो हम समझ पाएँ वही बढ़िया....फिर वह फेसबुक हो या ब्लॉग ... बहुत कुछ नया दिखता है और आशा की किरण जागती है कि चर्चा हो रही है तो समझो कि हलचल भी हो रही है समाज को नया रूप देने की....

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    1. बिलकुल मीनाक्षी जी,
      अगर किसी के अच्छे आचरण को सिर्फ पसंद या तारीफ़ ही न करें ,उअसका अनुकरण भी करें तो आधी समस्याएं तो वैसे ही हल हो जाएँ .

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  2. एक शमाँ जो आपने जलाई है उसकी रोशनी जहाँ तक पहुंचे वहाँ तक उजाला फैलेगा और इस शमाँ से जलने वाली शमाँ की कतार बढती जाए, यही आशा है!!

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  3. वाकई ...आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया ....इस सुखद एहसास से भी हम महरूम हो गए हैं न ......हालातों को क्या हो गया है.....!!!!

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    1. सच सरस जी ,
      बड़े बुरे हालात हो गए हैं...हम सबको व्यक्तिगत तौर पर ही कुछ करना होगा .

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  4. रश्मि जी मैंने आपके उस स्‍टेटस को शेयर करते हुए यह कमेंट भी लिखा था। पर शायद वह पढ़ा ही नहीं गया। क्‍योंकि उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।...खैर उसे ही यहां भी कट पेस्‍ट कर रहा हूं....देखें..

    रश्मि जी लड़के को तो बिग थैंक्‍यू कहें..जरूर बनता है..पर लड़की को क्‍या कहेंगी...वह टैक्‍सी ड्रायवर के साथ जा सकती है...लेकिन एक लड़के के साथ नहीं जो.....अगर इतनी रात गए....कुछ गलत होने का डर है तो वह ड्रायवर भी कर सकता है....दूसरी बात यह उस मुम्‍बई की घटना है जहां कहा जाता है कि किसी और शहर के मुकाबले महिलाएं अभी भी देर रात बाहर अकेले जा सकती हैं...। आप कहती हैं कि इतनी संवदेनशीलता सब में आ जाए तो फिर कैसी शिकायत इस दुनिया से....पर दूसरे दरवाजे से अंसवेदनशीलता भी आ रही है...


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    1. राजेश जी ,
      मैं चार-पांच दिन बाद ऑनलाइन आ रही हूँ. आपने इसे शेयर करते हुए जो टिपण्णी लिखी थी, मैंने मोबाइल पर उसे पढ़ा था और आपको इनबॉक्स में मैसेज भी किया था, शायद आपने नहीं देखा .

      @आपने कहा ,".पर लड़की को क्‍या कहेंगी...वह टैक्‍सी ड्रायवर के साथ जा सकती है...लेकिन एक लड़के के साथ नहीं जो.....अगर इतनी रात गए....कुछ गलत होने का डर है तो वह ड्रायवर भी कर सकता है.."

      ड्राइवर प्रोफेशनल होते हैं. उनकी टैक्सी रजिस्टर्ड होती है टैक्सी का नंबर होता है ,देर रात आने वाले लडकियां नंबर नोट कर लेती हैं. अगर टैक्सी ड्राइवर कोई वारदात करता है तो उसे आसानी से पकड़ा जा सकता है और उसकी रोजी रोटी भी चली जाती है. अमूमन टैक्सी ड्राइवर ऐसा नहीं करते .( एकाध ऐसी घटना हो जाए तो अलग बात है )
      जबकि किसी अनजान के साथ जिसका नाम-पता कुछ भी ज्ञात न हो, उसके साथ जाना सही नहीं है.
      और ये दुसरे दरवाजे से आ रही असंवेदनशीलता नहीं है, एहतियात है ,जो हर लड़की को बरतनी ही पड़ती है.

      महिलाओं के लिए दुसरे शहरों के अपेक्षाकृत मुम्बई ज्यादा सुरक्षित है .फिर भी जब कोई लड़की देर रात सूनी सड़क पर अकेली हों तो उसे डर लगना स्वाभाविक है.
      मैं इक्कीस वर्ष के बेटे की माँ हूँ, अभी हाल में ही ग्यारह बजे अकेले लौट रही थी. सड़क बिलकुल खाली नहीं थी. मेरा जाना -पहचाना एरिया था . फिर भी जब तक बिल्डिंग की गेट तक नहीं पहुंची ,थोड़ी आशंका तो थी ही.

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    2. @ दूसरे दरवाजे से अंसवेदनशीलता भी आ रही है...

      आप शायद ममता कुमार की टिपण्णी पढ़ अपनी राय बदल लेंगे.उन्होंने एक अनजान पुरुष पर भरोसा कर लिफ्ट ली. और उनका भरोसा भी खरा उतरा. ऐसे वाकये ही समाज पर से हिलता विश्वास पुनः जमा देते हैं .

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  5. ज्यादातर लोग अभी भी जेनुइनली जेनुइन हैं।

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    1. ना, ज्यादातर लोग ऐसे होते तो फिर शिकायत किस बात की थी.

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  6. The other day there was a incident in the news paper
    A lady reporter wrote that she was travelling back with her 80 year father from the same bus stop from where jyoti the delhi brave heart of 16 december had taken that ride . No auto was ready to go to mayur vihar . Suddenly a police man came and stopped a auto and asked them to sit . he instructed the auto driver to drive straight to destination with meter down . All of sudden before the auto started he caught hold of the girls hand { she wrote she was terrified } and on her palm he wrote his mobile number and said sister please call me if there is any problem any where

    she was amazaed to say the least and she said the "change is comming in "

    BRAVO TO ALL SUCH PEOPLE WHO BRING A SMALL CHANGE IN THE SOCIETY BY THEIR DEEDS

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  7. इसिलए मैं भी मानती हूँ कानून वो नहीं कर सकता जो आम आदमी कर सकता है | एक जिम्मेदार और कर्तव्यनिष्ठ नागरिक हर तरह से सकारात्मक और बेहतर ही सोचेगा |

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    1. एक जिम्मेदार और कर्तव्यनिष्ठ नागरिक सकारात्मक और बेहतर तो सोचता ही है , पर उसकी सोच का दायरा बहुत ही संकुचित होता है...ज़रा अपने परिवार से बाहर निकल कर समाज के बारे में भी सोचे और उस पर अमल करे तब कोई बात बने .

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  8. वैसे बैंगलोर में तो ऑटो बहुत कम लोग उपयोग करते हैं, क्योंकि यहाँ मीटर का कोई रिवाज ही नहीं है तो अधिकतर एसी वोल्वो बस का ही उपयोग करते हैं.. पर वाकई जो इज्जत बसों में महिलाओं के लिये आदमियों में यहाँ दिखती है, वह तारीफ़ेकाबिल है.. वैसे एक बात यह भी हो सकती है कि सब पढ़े लिखे अघाये लोग होते हैं, और अधिकतर बाहर देशों की यात्रा कर चुके होते हैं तो मौलिक अधिकारों को बहुत अच्छे से बहुत करीब से जान चुके होते हैं.. मैं भी गल्फ़ कई बार जा चुका हूँ.. पर मुझे तब भी यही लगता है कि महिलाएँ भारत में ज्यादा सुरक्षित हैं.. अगर वाकई कुछ अनहोनी हो भी जाती है.. तो कोई यहाँ सपोर्ट तो करता है.. परंतु वहाँ तो मामले सामने आ ही नहीं पाते हैं.. सब दबा दिये जाते हैं.. मुझे मेरे भारत पर गर्व है.. धीरे धीरे ही सही समाज में जागरूकता जरूर आयेगी ।

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    1. खैर खाड़ी देशों में जो स्त्रियों की दशा है...उस से तो हमारे हालात बहुत बेहतर हैं. पर यह पीछे देखकर खुश होनेवाली बात नहीं है ,अभी बहुत सुधार बाकी हैं और अपेक्षित हैं .

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    2. किसी व्यक्ति के पाँव के जूते उसे बहुत तकलीफ देते हैं, वो ऐसे व्यक्ति को देख कर खुश हो जाए जिसके पाँव ही नहीं हैं और समझे मैं उससे बेहतर हूँ, शायद यह बात दिल को बहलाने को ठीक लगे। लेकिन सही मायने में उसे ऐसे व्यक्ति के साथ खुद की तुलना करनी चाहिए जिसके पाँव भी हैं और उसने जूते भी पहने हुए हैं, जो उसे नहीं काट रहे हैं, फिर तो तुलना ठीक लगेगी । उसके बाद वो या तो जूते बदल ले या फिर जूता ठीक कर ले, तब ही वो सही मायने में बदलाव कहा जाएगा ।

      तुलना और प्रेरणा हमेशा अपने से बेहतर के साथ होनी चाहिए और लेनी चाहिए। अपने से कमतर को देखेंगे तो कभी प्रगति नहीं होगी। अगर सचमुच स्त्रियों की सुरक्षा, प्रगति और स्वतंत्रता देखनी हो तो कभी कैनेडा, अमेरिका भी आईये :)

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  9. ऐसा बिलकुल नहीं है कि इस तरह के लोग आजकल नहीं हैं. अच्छे लोग आज भी हैं इस दुनिया में.

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    1. अच्छे लोग हैं तो जरूर पर उँगलियों पर गिने जाने लायक भी नहीं .(भले ही अब कोई हमें निराशावादी कह ले )

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  10. आ यही है कि की ऐसे मददगारों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढती रहे !
    लाईक्स गिनना है तो बच्चों जैसा ही काम , मगर रोचक है . किसी प्रेरक सन्देश पर लाईक और शेयर मायने तभी रखते हैं जब उन पर अमल किया जाए !

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    1. likes गिनने की जरूरत कहाँ पड़ती है, लिख कर ही आ जाता है..इतने लोगों ने like किया .यूँ तो ध्यान भी नहीं जाता पर जब अचानक से इतनी संख्या दिखती है तो जरूर कुछ सोचने पर मजबूर करती है

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  11. एक सार्थक और विचारोतेजक चिंतन प्रस्तुत किया है आपने. काश आपकी बात सबकी समझ आजाये तो हमारे देश की दशा और दिशा दोनों ही कुछ ओर हो सकती हैं. शुभकामनाएं.

    रामारम.

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    1. ऐसी सोच ,हम सबको ही सिर्फ विचारों में ही नहीं व्यवहार में भी उतारना होगा

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  12. हाल में मेरे पास आई माँ ने बताया की जब पिछली बार वो बनारस गई तो ट्रेन लेट हो गई और उसे रिक्शे वाले के साथ रात ११ बजे घर जाने में डर लग रहा था , चोरी लुट का नहीं बल्कि अपने स्त्री होने के कारण , 50 पार कर चुकी है माँ भी डर रही थी , ये सबूत है समाज के महीलाओ के लिए असरक्षित होने का , लाइक के लायक तो है ही लडका , ये "बीमारी" छूत की बने और सभी को लगे

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    1. अब क्या कहने को रह जाता है , कड़वा सच तो है पर सच है, देश में कोई ऐसा कोना नहीं (शायद north east को छोड़कर ) जहाँ स्त्रियाँ खुद को पूर्णरूपेण सुरक्षित समझें :(

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  13. अच्छे काम की चर्चा होने में दुराई नहीं है ... अनुकरण करने वाले कुछ लोग भी अगर इससे सीखें तो अच्छी बात ही है ....
    वैसे जहां अपने अपने की ही सोच बड रही है वहां ये ताज़ा हवा का झौंका जरूर है ...

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    1. बलकुल आकाश से गिरी बूँद सरीखा हो या ताजे हवा के झोंके सा...बस यही है, आकर चला जाता है, ठहरता नहीं

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  14. कोई लडका मदद नहीं करेगा तो ही न खबर बनेगी ?जाहिर है मदद कर देगा तो खबर कोई बनेगी ही नहीं हादसा भी नहीं होगा।इस वाकये में कुछ भी अनोखा नहीं है।ऐसी मदद खूब की ही जाती है।और लड़कियाँ खुद आगे बढ़कर सहायता माँगें तो बहुत से लोग आगे आएँगे ही लेकिन शायद लड़कियाँ किसी और बात से झिझकती हैं और आपको बता दूँ कि किसी अकेली लड़की की बिना माँगें मदद करने का मतलब भी कुछ और मान लिया जाता है।झिझक पुरुषों में भी होती है।आप सब जानते हैं इतने अनजान नहीं हैं।

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    1. आपकी बातें कुछ सोचने को मजबूर करती हैं, राजन .
      ये पुरुष/लड़के इतने डरे हुए, घबराए हुए क्यूँ हैं कि ज़रा सी किसी की मदद कर दी तो कहीं वो ये न समझ लें कि उनका कोई vested interest है. यकीन मानिए लडकियां/स्त्रियाँ अब इन सब बातों से बहुत आगे निकल चुकी हैं.क्यूंकि वे पुरुष/लड़के को एक साथी के रूप में देखना चाहती हैं . सिर्फ पुरुष के अवतार में नहीं. लेकिन ये लोग (सामान्यीकरण नहीं कर रही, अधिकांशतः ) आज भी स्त्री/लड़की को सिर्फ स्त्री ही समझते हैं और ये सोचते हैं कि उनकी सद्पुरुष की इमेज तभी बनेगी ,जब वे लड़कियों की छाया से भी दूर रहें और अपनी तरफ से कभी पहल न करें...आज की भाषा में कहने का मन हो रहा है relax man..take a chill pill अब दुनिया बदल रही है. :)
      जरूरत पड़ने पर लडकियां, मदद मांग ही लेती हैं पर अगर लड़के देख रहे हों कि मदद की जरूरत है पर सिर्फ अपनी साफ़-सुथरी छवि बरकरार रखने के लिए कि कोई ये न कह दे ,'लड़की देख मदद करने चला गया ' मदद का हाथ नहीं बढाते तो ये सही नहीं है.

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    2. रश्मि जी,मेरी बातों ने आपको कुछ सोचने को मजबूर किया अपने लिए तो यही बड़ी बात।लेकिन आपने थोड़ी जल्दी कर दी लड़के लड़की में अंतर करने में।आप लडकों पर सवाल तभी उठाएंगी न जब कोई लडका किसी लड़की को परेशानी में देख मदद नहीं करेगा?लेकिन ऐसा तभी तो होगा क्योंकि लड़की जरूरत पड़ने पर भी खुद मदद नहीं माँग रही हो?और अगर लड़कियाँ मदद के लिए कहने में भी झिझक रही हैं तो आप कैसे कह सकती हैं कि इनमें बदलाव आ गया?हाँ मदद माँगने पर भी न की जाए तब आप कह सकती हैं कि लड़के असंवेदनशील या डरपोक हैं।लडके बल्कि लडकियों के डर झिझक को समझते हैं जैसे ये लड़की भी उसके साथ टैक्सी में बैठने से डर रही थी।अपना व्हीकल होता तो ये लड़का भी नहीं रुकता क्योंकि पता है वो लड़की इसके साथ डर के कारण बैठेगी ही नहीं और जबरदस्ती की नहीं जा सकती और जब तक लड़की बताएगी नहीं लिफ्ट के लिए नहीं कहेगी हर कोई ये नहीं समझ सकता कि वाकई वह परेशानी में है क्योंकि पुरुष भी यही सोचते हैं कि मदद की जरूरत होती है तो महिलाएँ खुद कह देंगीं।दोनो ही कुछ गलत नही कर रहे।समाज में जो दोनो एक दूसरे के बारे सुनते रहते हैं उसके अनुसार ही व्यवहार कर रहे हैं।हाँ अपवाद जरूर दोनों ही तरफ होते हैं।

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    3. राजन,
      मैंने जो कुछ कहा है, जल्दबाजी में नहीं अनुभव (यानि देखी-सुनी-जानी ) के आधार पर कहा है, बाल यूँ ही धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं(अलग बात है ,कलर कर लेती हूँ,इसलिए दिखते नहीं :) ,पर अनुभवों की सफेदी तो आ ही गयी है ).
      मैंने बहुत गहरे तक महसूस किया है कि स्त्रियों की मानसिकता बहुत तेजी से बदल रही है, सॉरी पर कहना पड़ेगा, पुरुष (अधिकांशतः ) कदम नहीं मिला पा रहे और इसीलिए कई सारी चीज़ें unexplained रह जाती हैं. एक पोस्ट लिख कर विश्लेषण करने की कोशिश भी की थी कि ऐसा क्यूँ है ? तब यही लगा कि स्त्रियों की जीवन शैली में बहुत तेजी से परिवर्तन आये हैं, जबकि पुरुषों का रोल ज्यादा नहीं बदला.

      और हाँ ,मांगने पर ही मदद करने की बात पर शायद यही कहा जा सकता है कि "Men are from Mars and Women are from Venus " दोनों अलग अलग तरह से सोचते हैं . अपना एक अनुभव शेयर करती हूँ. आज से पंद्रह साल पहले जब बच्चे छोटे थे, अक्सर मैं अकेले ही सफ़र किया करती थी.कोशिश ये रहती थी कि ऐसी ट्रेन चुनी जाए जो मुंबई या दिल्ली से ही शुरू हो और पटना में टर्मिनेट .पर कभी-कभी ऐसी ट्रेन से भी जाना पड़ता था जो पटना में पांच या दो मिनट के लिए रूकती थी. हमेशा की तरह मेरे पास बहुत सारा सामान होता था. पटना स्टेशन आने से काफी पहले ही मैं भारी भारी बैग खींचकर दरवाजे के पास रखना शुरू कर देती पर हमारे सारे को -पैसेंजर्स वीतराग से देखते रहते . कई बार अपने पैर समेट लेते लेकिन कोई बन्दा आगे बढ़ कर हेल्प नहीं करता . ऐसा एक बार नहीं कई बार हुआ है. शायद स्लीपर क्लास में ऐसा नहीं होता पर सेकेण्ड ए.सी. में ट्रेवल करने वाले इतने इनसेंसिटिव हो जाते हैं ? या फिर मेरे माथे पर ही लिखा रहता है कि "मुझे मदद की जरूरत नहीं" :) कभी कभी मुझे लगता था , ये लोग मन ही मन कह रहे हैं ," अकेले सफ़र करने का शौक है न भुगतिए अब " खैर पर आपके विचार पढ़ कर उन्हें ' बेनिफिट ऑफ डाउट' दे देती हूँ कि वे सब इंतज़ार में होंगे कि मैं मदद मांगू .

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    4. रश्मि जी,मुझे लगता है विचारों में लड़के लड़की सभी के बदलाव आया है लेकिन फिर भी व्यवहार वे वही करते हैं जो उनके आस पास के परिवेश के अनुकूल और स्वीकार्य है एक तरह यह सही भी है।हमारे समाज में लड़के लड़की के बीच संवाद ज्यादा नहीं इसलिए दोनों में एक दूसरे के बारे में कुछ गलतफहमियाँ है हालाँकि पहले से कम ।आपने जो अनुभव बताया वो ऐसा नहीं कि इससे पूरे वर्ग के बारे में धारणा बना ली जाए बहुत सी महिलाएँ इसके उलट भी अपने अनुभव आपको सुना देंगीं आमतौर पर पुरूष महिलाओं के वास्ते थोड़े चौकन्ने हो जाते है आपने होली पर अपने कॉलेज का एक संस्मरण लिखा।दिल्ली में जब दामिनी प्रकरण में प्रदर्शन हो रहे थे तो टीवी पर एक टीचर बता रही थी कि जब वह नारे लगा रही थी तो पुलिसवाले अचानक लाठियाँ लेकर उसकी और बढ़े लेकिन वहाँ पास ही कुछ लड़के थे जिन्होंने पुलिस को देखते ही महिला को बैठने को कहा और उसके ऊपर घेरा बना लिया और पुलिस की लाठियाँ खुद खाई।उस महिला को कोई चोट नहीं आई लड़कों के बारे में यह बात उन्होंने स्वयं बताई।जहाँ बहुत गंभीर बात हो वहाँ तो बिन पूछे ही मदद की जाती है या ध्यान रखा जाता है कि मदद की जरूरत हो सकती है।

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    5. लेकिन हर बार पुरुष ये समझ ही जाए कि कहाँ कब क्या मदद करनी है ये जरूरी नहीं सभी एक तरह से नहीं सोचते और पुरुष ही क्यों महिलाओं पर भी यह बात लागू।आपने फेसबुक पर जिस लड़की की बात की उसके सामने से उस रात बहुत से पुरुष ही नहीं बल्कि महिलाएँ और लड़कियाँ भी कार स्कूटी और टैक्सी से गुजरी होंगी।मुम्बई में ऐसा होता है पर उन्होंने भी ध्यान नहीं दिया कि उसे आगे किसी सुरक्षित स्थान या टैक्सी स्टैंड तक छोड़ दें इसमें तो दोनों को ही कोई दिक्कत नहीं होती।पर मुझे इसमें भी कुछ गलत नहीं लगता।इतना हर किसीका ध्यान नहीं जाता।अब जो आपने अपना अनुभव बताया उसकी बात करें तो ऐसा व्यवहार महिलाओं में भी देखने को मिलेगा।न जाने कितने उदाहरण मैंने खुद देखे जहाँ ट्रेन बस में कोई महिला अपने भाई पति या बेटे के साथ बैठी है और उनके साथ बैठा पुरुष यदि किसी अन्य महिला लड़की बच्चे या बुजुर्ग को सीट ऑफर करना चाहे या सामान उठाने में मदद करे तो उसे भी ऐसा करने से रोकती है।खुद मदद करना तो दूर की बात।ऐसे लोग मार्स वीनस जुपिटर कहीं से भी आए हो सकते हैं।इसमें कोई खास बात नहीं है।

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    6. अगर पुरुषों/स्त्रियों के विचारों में एक से बदलाव नज़र आ रहे हैं तो यह एक बढ़िया संकेत है. कहीं तो कुछ अच्छा हो रहा है .

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  15. ये खबर अनूठी लगेगी ही, जब हर दिन की ख़बरों में लड़कियों/महिलाओं के साथ दुर्घटना की ही बात होती है। ये तो वही बात हुई जैसे बदले की आग, जीने नहीं दूंगा, आग का गोला, बारूद से उड़ा दूंगा जैसी फिल्मों के दौर में एक राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म आ गयी हो' 'हम साथ साथ हैं', हिट तो होनी ही थी :)

    ऐसा लगता है जैसे अच्छी ख़बरों के लिए लोग अब तरस रहे हैं। अभी कुछ ही समय पहले तक ये सब शिष्टाचार माना जाता था, बहुत आम बात थी ये। लेकिन अब यही बातें ख़ास होने लगीं हैं।
    आज ही प्रवीण पाण्डेय जी की पोस्ट पढ़ी थी, अब वाकई ज़रुरत है, घंटी बजाने की। अगर बुरी ख़बरों को कम करना है तो कहीं कुछ भी घटित होने की संभावना को नहीं होने देना और अगर कहीं कुछ घटित होने लगा हो तो उसे रोकना, उसमें व्यवधान लाना, आज हर नागरिक का कर्तव्य होना चाहिए। तटस्थता से बाहर आना होगा। अपने आस पास नज़र रखनी होगी। मैं जहाँ रहतीं हूँ वहाँ के बाशिंदे खुद ही 'नेबरहुड वाच' करते हैं, मैंने इसी सन्दर्भ में एक पोस्ट भी लिखी थी। ऐसा ही कुछ हर नागरिक को अपनाना होगा। ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से समाज की छवि सुधर जायेगी। बड़ी सफलताएँ, छोटे छोटे उद्यम से ही मिलती है।

    रश्मि बहुत ही अच्छी पोस्ट। इस पोस्ट के उस पात्र से हम सबको प्रेरणा लेनी चाहिए। उस लड़की ने वही किया जो उस वक्त उसे अपनी सुरक्षा के लिए ठीक लगा। अच्छी बात ये है कि लड़की इस बात के लिए उस लड़के प्रति आभारी हुई है।

    यह पोस्ट तुम्हारी भी संवेदनशीलता दिखा रही है, तभी तो इस छोटी सी बात को तुम, सुन कर अनसुना नहीं कर पाई। बहुत ही अच्छा लगा पढ़ कर। वेरी नाईस !
    एक बात और ये तुम्हारी भी रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर पोस्ट है, इतनी छोटी जो है :):)

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    1. हा हा हा "रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर " तो है ही .बड़ी मुश्किल से रहने दिया. एकाध घटनाएं और याद आ रही थीं, पर जानबूझकर नहीं जोड़ा. अब क्या करूँ, लेखन में इतना लंबा गैप जो झेला है ,भरपाई करनी पड़ेगी न, पर कब तक ?? तीन साल से ऊपर हो गए ब्लॉग्गिंग करते पर लिखना चालू आहे :)

      और पूरे पोस्ट का मर्म तुम्हारी इन पंक्तियों में सिमट आया ,"ऐसा लगता है जैसे अच्छी ख़बरों के लिए लोग अब तरस रहे हैं। अभी कुछ ही समय पहले तक ये सब शिष्टाचार माना जाता था, बहुत आम बात थी ये। लेकिन अब यही बातें ख़ास होने लगीं हैं। "
      सच में फिर से ऐसी घटनाओं के आम बनने की आस है अब .

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  16. यह पोस्ट पढ़ कर एक वाकया याद आ रहा है। मैं और प्रभाष मलेशिया गए थे .प्रभाष ट्रेनिंग पर अपने ऑफिस गए और मुझे शाम को ज्वाइन करने को कहा ताकि हम कही घुमने जा सके important यह है कि मुझे प्रॉपर एड्रेस भी नहीं दिया .अपने overconfidence में मैंने भी bother नहीं किया .नतीजा as expected -I was lost .वहां एक Indian origin Malaysian ने खुद आगे बढ़कर अपनी कार में मुझे लिफ्ट ऑफर की और 5 km दूर मेरे destination पर मुझे पहुचाया .I was elated लेकिन मेरी बेटी अभी भी मुझे डांटती है. कहती है,Mamma ,how could you ,it could have been dangerous .तो बताइए करे .....लोगों पर विश्वास करे या नहीं .

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    1. हम्म मेरी भी समझ में नहीं आ रहा कि आपको आपकी हिम्मत {read adventurous :)}के लिए दाद दूँ या फिर मनु की हाँ में हाँ मिलाऊं .

      फिर भी मुझे लगता है अपनी gut feeling कभी कभी काम आ जाती है.

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  17. बहुत अच्छी पोस्ट है रश्मि जी ! दरअसल आजकल माहौल इतना खराब हो चुका है कि सहज की किसी पर विश्वास कर लेने की हिम्मत नहीं होती ! किसीकी भी शुभेच्छा के प्रति यह संदेह ऐसे ही नहीं घर कर गया है ! आये दिन न्यूज़ चैनल्स और अखबार इस तरह के समाचारों से भरे पड़े होते हैं ! इसीलिये मन में सदाशयता होते हुए भी लोग मदद करने या मदद माँगने से अब कतराने लगे हैं कि कहीं बेवजह ही किसी मुसीबत में ना फँस जाएँ ! वो एक कहावत है ना 'होम करते हाथ जले' ! यही एक संकोच है जो सबको आत्मकेंद्रित होने के लिये विवश करने लगा है ! ऐसा बिलकुल नहीं है कि अब सब असंवेदनशील हो गये हैं या अब लोगों के दिल में दया माया नहीं बची है बस यही सोच कर डर जाते हैं कि उनका यह कदम अनजाने में ही उन्हें किसी 'काजल की कोठरी' के अंदर ना पहुँचा दे ! वैसे उस युवक के प्रति मेरे मन में भी कृतज्ञता का भाव जागृत हो रहा है ! मेरा धन्यवाद भी उस तक पहुँचेगा तो मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी !

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  18. रश्मि जी बहुत दिनों से आपको पढ़ नहीं पाया लेकिन पढ़ा तो कुछ नयी और रोचक पोस्ट पढ़ने को मिल ही गयी |

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  19. संवेदनशीलता जागृत करना आवश्‍यक है, हमें यहीं से शुरू करनी चाहिए।

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