{पिया के घर में पहला दिन ' परिचर्चा के अंतर्गत अब तक लावण्या शाह जी, रंजू भाटिया, रचना आभा, स्वप्न मञ्जूषा 'अदा' ,सरस दरबारी , कविता वर्मा , वन्दना अवस्थी दुबे ,, शोभना चौरे जी , पल्लवी सक्सेना , साधना वैद , इस्मत जैदी और अर्चना चावजी अपने रोचक संस्मरण हम सबके साथ शेयर कर चुकी हैं. }
सबसे पहले तो राजेश उत्साही जी का बहुत बहुत शुक्रिया कि उन्होंने अपना यह रोचक अनुभव हम सबसे शेयर किया, वरना मेरे ब्लॉग पर तमाम आरोप लग रहे थे {सीरियसली नहीं :)} कि मैं पक्षपात करती हूँ, मेरी छत पर नारीवादी झंडा लहराता रहता है...अपने ब्लॉग पर सिर्फ महिलाओं के संस्मरण को ही जगह देती हूँ आदि..आदि. पर मैंने पहली पोस्ट में ही पुरुष ब्लोगर मित्रों से भी आग्रह किया था ,अपने संस्मरण शेयर करने के लिए...अब उनलोगों ने भाव ही नहीं दिया तो मुझ बिचारी का क्या दोष :(
सबसे पहले तो राजेश उत्साही जी का बहुत बहुत शुक्रिया कि उन्होंने अपना यह रोचक अनुभव हम सबसे शेयर किया, वरना मेरे ब्लॉग पर तमाम आरोप लग रहे थे {सीरियसली नहीं :)} कि मैं पक्षपात करती हूँ, मेरी छत पर नारीवादी झंडा लहराता रहता है...अपने ब्लॉग पर सिर्फ महिलाओं के संस्मरण को ही जगह देती हूँ आदि..आदि. पर मैंने पहली पोस्ट में ही पुरुष ब्लोगर मित्रों से भी आग्रह किया था ,अपने संस्मरण शेयर करने के लिए...अब उनलोगों ने भाव ही नहीं दिया तो मुझ बिचारी का क्या दोष :(
राजेश उत्साही जी : ससुराल में फैलता हंसी का वायरस
शादी के बाद पहली बार ससुराल की यात्रा एक दुर्घटना के कारण और यादगार बन गई है। जून
1985 में शादी हुई थी। पत्नी को लिवाने जाना था। शायद सितम्बर का महीना रहा होगा। तब
मैं होशंगाबाद में था। ससुराल खरगोन जिले के सेंधवा कस्बे में थी। वहां जाने के दो रास्ते हैं।
एक भोपाल से होते हुए व्हाया इंदौर। और दूसरा व्हाया खंडवा।
खंडवा में फूफाजी रहते थे। तो तय किया कि खंडवा होते हुए ही जाएं, ताकि उनसे भी मुलाकात हो सके।पंजाब मेल से रात 9 बजे के लगभग मैं खंडवा पहुंचा। साथ में एक छोटा सा ब्रीफकेस था। सुबह चार बजे सेंधवा के लिए बस थी। फूफाजी से मिलकर और वहां आराम करके मैं बस पकड़ने के लिए सुबह लगभग साढे तीन बजे बस स्टैंड पहुंचा।
बस प्लटेफार्म पर लग चुकी थी। लोग उसमें जाकर बैठने भी लगे थे। मैंने भी जाकर एक सीट पर कब्जा जमा लिया। थोड़ी देर बाद बस का कंडक्टर प्रगट हुआ और उसने ऐलान किया कि
टिकट खिड़की पर ही मिलेगी, बस में नहीं।
मैं ब्रीफकेस सीट पर रखकर टिकट लेने चला गया। टिकट लेकर लौटा तो देखता हूं कि ब्रीफकेस नदारद है। मैंने पूरी बस छान मारी, बस में बैठे लोगों से पूछा, लेकिन कुछ पता नहीं चला। बस से
निकलकर बदहवास यहां-वहां खोजता रहा। लेकिन कोई फायदा नहीं। मैंने कंडक्टर से कहा तो
पहले वह मेरी नादानी पर मुस्कराया। बोला, ‘अरे साहब ब्रीफकेस साथ रखना था न। सीट कहीं
भागी जा रही थी क्या। फिर बोला, यहां तो यह होता ही रहता है। कोई लेकर चंपत हो गया।
अब तो मिलने से रहा। अब आप चाहो तो थाने में रपट लिखवा दो।’
थाना भी बस स्टैंड के पीछे ही था। बस रवाना होने में समय था, सो मैं रपट लिखवाने पहुंच गया।
ब्रीफकेस में शादी के समय पहना कुरता-शेरवानी , दो जोड़ी नए शर्ट-पैंट, अंडर गारमेंट, लुंगी, एक जोड़ी चप्पल और ‘चकमक’ के तीसरे अंक की पांच प्रतियां थीं। पैसे मैं हमेशा पेंट की चोर जेब में रखता था। सो वे वहीं थे। थाने वालों ने ऊंघते हुए रपट लिखने की औपचारिकता पूरी की। सम्पर्क के लिए फूफाजी का पता लिखवा दिया। थाने वालों ने कहा, ‘साहब अब अगर ब्रीफकेस मिल जाएगा तो हम खबर भिजवा देंगे। और क्या कर सकते हैं।’
रपट लिखवाकर लौटा तो बस चलने के लिए तैयार थी। तब तक सारी सीट भर चुकीं थीं, केवल
पीछे की सीट ही खाली थीं। वहीं बैठा। बस चली और पचास कदम चलकर रुक गई। पता चला
कि बस में कुछ खराबी है। अब बस पहले डिपो जाएगी, वहां ठीक होगी। चार बजे रवाना होने
वाली बस सुबह सात बजे खंडवा से रवाना हुई।
ग्यारह बजे सेंधवा पहुंची। बस से उतरते ही मैंने अंडर गारमेंट और एक लुंगी खरीदी। उन्हें एक पोलीथीन की थैली में लेकर सकुचाते हुए, ससुराल पहुंचा।
पत्नी यानी नीमा ही दरवाजा खोलने आईं। दरवाजे पर मुझे एक पोलीथीन की थैली लिए देखकर
बोलीं, ‘क्या हुआ। कुछ बैग वगैरा लेकर नहीं आए क्या।’
मैंने उन्हें सारा वाकया बताया। उसके बाद उन्होंने जो हंसना शुरू किया तो वह हंसी वायरस की तरह पूरी ससुराल और आसपड़ोस में फैल गई। अब हर कोई आकर मुझसे पूरा किस्सा सुनना चाहता था। वहां मैं किसी का जीजा था, तो किसी का फूफा, किसी का जंवाई साब और न जाने क्या क्या।
जब सब जी भर कर मुझ पर हंस लिए, तो नीमा जी को ख्याल आया कि अरे इनके पास तो
अब पहनने के लिए कपड़े भी नहीं हैं। यही एक जोड़ी है। तो वे तुरंत मुझे लेकर बाजार में
निकलीं। पैंटशर्ट के लिए कपड़ा खरीदा। परिचित टेलर के पास गए। उससे कहा हर हाल में
शाम तक तैयार चाहिए। टेलर ने पूछा, क्यों। एक बार फिर उसे सारा किस्सा सुनाया गया।
किस्सा सुनकर वह भी मुस्कराया और बोला, ‘ कुंवर साब, तो पहली ससुराल यात्रा में ही लुट
गए।’
बहरहाल टेलर ने हमें निराश नहीं किया। शाम को कपड़े सिलकर तैयार थे। बाकी सब तो ठीक था, मुझे सबसे
ज्यादा दुख शादी में पहने गए कुरता-शेरवानी के जाने का हुआ।
ममता कुमार : सिंक में पड़ी माचिस की डिबिया
जब इस परिचर्चा का ख्याल आया तो मैंने अपनी ममता भाभी से भी कहा, अपने संस्मरण लिख भेजिए. यहाँ तक कि उन्हें याद भी दिला दिया वो वाकया..जो शादी के बाद उन्होंने बताया था, बल्कि हम दोनों ने ही अपने अपने अनुभव एक दुसरे को सुनाए थे . पर भाभी जान,मायके में छुट्टियां मना रही हैं. मुझसे कहा, "आपको तो सब याद है ..आप ही लिख दीजिये "
ये और लो..याद रखने का ईनाम...:(
और लोगों के अनुभव पढ़ कर तो लग रहा है, हमारे संस्मरण उतने रोचक नहीं...पर अब आइडिया तो वही से उपजा है, इस परिचर्चा का...इसलिए लिख ही डालती हूँ.
भैया की पोस्टिंग झांसी में थी. शादी के बाद नयी नवेली भाभी अपनी गृहस्थी संभालने झांसी पहुँचीं. भाभी, अपने भाई -बहनों में सबसे छोटी हैं, कभी घर का काम नहीं किया था. यहाँ भी थोड़ी आशंकित तो थीं , पर फिर भी उनमें इतना आत्मविश्वास तो था कि दाल-चावल सब्जी बना लेंगीं.
भैया लंचटाइम में घर आने वाले थे. भैया के ऑफिस जाने के बाद भाभी किचन में खाना बनाने की तैयारी करने लगीं. इस बीच भैया ने फोन कर के पूछ भी लिया कि ' आप किचन के अंडर में हैं या किचन आपके अंडर में ??"
भाभी ने कहा ..."बिलकुल फ़िक्र न करें, किचन मेरे अंडर में हैं '
उन्होंने दाल चावल धोये, सब्जी काट कर रखी. जब गैस पर चढाने चलीं तो पाया इकलौती माचिस की डिब्बी तो न जाने कैसे सिंक में गिर गयी है. किचन में गैस लाइटर नहीं था और माचिस भी एक ही थी जिसे अचानक नहाने का मन हो आया था और वो सिंक में कूद पड़ी थी.
अब कोई दूसरा उपाय न देख, उन्होंने भैया को ऑफिस में फोन लगाया और मुश्किल बता दी. उस वक़्त भैया के कोई जूनियर जो पद में जूनियर थे पर उम्र में उनसे बड़े थे ,पास ही खड़े थे .फोन पर उनकी बातें सुन मंद मंद मुस्कराते हुए बोले," गंभीर सिचुएशन है सर....आपको जाना चाहिए" और फिर भैया ने ऑफिस से निकल माचिस की डिबिया खरीदी . पत्नीश्री को देकर आये तब जाकर भाभी जी खाना बना पायीं.
कढ़ाई में चाय
मेरे पतिदेव को खाना बनाने बहुत शौक है और खाना बनाने के शौक के साथ खाने का और खिलाने का शौक अपनेआप ही जुड़ जाता है. खिलाने का शौक न हो तो फिर खाना खा कर वाह वाह कौन करे ?? और लोग वाह वाह भी कैसे न करें रोजमर्रा की दाल-चावल-रोटी-सब्जी तो बनती नहीं. मटन-चिकन-आलूदम, शाही पनीर जैसे लज़ीज़ व्यंजन ही बनते हैं.
कुछ साल पहले गणेशोत्सव के दिन हमेशा की तरह बहुत सारे काम थे. पूजा की तैयारी ,घर की साफ़-सफाई, खाना बनाना, बच्चे छोटे थे, उन्हें भी तैआर करना...वगैरह वगैरह , मैं बहुत परेशान हो रही थी, पतिदेव पर नज़र पड़ती तो उन्हें भी कुछ न कुछ काम बता देती...'ये जरा वहां रख दीजिये'..'वो जरा लेकर आइये' आदि.. आदि . इनसे बचने के लिए उन्होंने रसोई की शरण में जाना ही बेहतर समझा ,बोले, " मैं सब्जी बना देता हूँ., आलूदम और शाही पनीर ."
मैंने भी सोचा चलो एक काम से तो फुर्सत मिली . किचन में मैंने घी का पैकेट खोल कर दो चम्मच घी काम में लिया था और पैकेट शेल्फ के सहारे टिका कर रख दी थी कि बाद में डब्बे में डाल दूंगी. दुसरे काम करते वक़्त भी पूरा ध्यान बना रहा 'घी डब्बे में डालना है.वरना कहीं गिरकर बह न जाए...बर्बाद होगा सो तो होगा, पर सफाई करने में जान निकल जायेगी.' पतिदेव सब्जी बना कर किचन से निकल आये, पूजा शुरू हो गयी, लोग भी आने-जाने लगे. आखिर काफी देर बाद मुझे समय मिला, घी डब्बे में डालने का. पर किचन में घी का पैकेट तो था ही नहीं. बड़े अविश्वास से घी का डब्बा खोलकर देखा, 'कहीं नवनीत ने तो नहीं यूँ बाहर पड़ा देख डब्बे में डाल दिया' पर मेरे अविश्वास कि रखा हुई, डब्बा खाली था. नवनीत से नहीं पूछा, कि इनलोगों को सामने रखी चीज़ तो दिखती नहीं...वो कोने में रखी क्या दिखी होगी .
तब तक किसी ने बाहर बुला लिया, फिर सारे दिन हर थोड़ी देर बाद वक़्त मिलता तो मैं जाकर घी का पैकेट ढूंढती.. आखिरकार नवनीत से पूछ ही लिया "आपने देखा क्या वो घी का पैकेट ??"
"हाँ, सब्जी बनाए न उसमे "
"पूरा घी डाल दिया??..आधा किलो घी था वो "
"हाँ तो दो सब्जी बनायी न ..इतना तो लगेगा ही न "
तो ऐसे बनती है अच्छी सब्जी :)
खैर बात तो शुरूआती दिनों के संस्मरण की थी मौका देख मैंने ये राज़ भी बाँट लिया .कई रिश्तेदार मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं, अब अगली बार जो नवनीत के हाथ का बना खाकर तारीफ़ करें तो ये राज़ भी जान लें कि उसे बनाने में सामग्री क्या क्या लगी है :)
अब नवनीत के खाने का शौक तो ये आज का है नहीं, बैचलर डेज़ में भी दो कमरे के फ़्लैट में सामान के नाम पर सिर्फ एक कैम्प कौट और दो कुर्सियां थीं पर किचन भरा-पूरा था. गैस के चूल्हे के साथ सारे बर्तन भी थे यहाँ तक कि डोंगे, सर्विंग स्पून , क्वार्टर प्लेट सब कुछ. एक हेल्पर भी था जो सुबह-शाम खाना बनाया करता. इस वजह से दुसरे शहर से कोई दोस्त या रिश्तेदार आता तो होटल या ऑफिस के गेस्टहाउस में न रुक कर नवनीत के पास ही ठहरता. वे शहर में न होते तब भी. किचन और हेल्पर तो रहता ही.
जब शादी के बाद पहली बार मैं पतिदेव के साथ दिल्ली आयी .तो घर में नवनीत के दो मित्र एक भतीजा ,एक भांजा और एक हेल्पर पहले से थे. शनिवार की शाम थी. देर रात तक सबके साथ गप- शप ,खाना-पीना हुआ.
दुसरे दिन रविवार था, किसी को कहीं नहीं जाना था सब देर तक सो रहे थे. पर मुझे जल्दी उठने की आदत ,मैं अपने समय से उठ गयी. चाय पीने की तलब हुई तो किचन में देखा, जूठे बर्तनों का अम्बार लगा था. एक तरफ चाय की पत्तियों से भरा सौस्पेन भी पड़ा था . अब चाय किसमे बनाऊं?
ऐसा नहीं था कि शादी से पहले मैंने कभी जूठे बर्तन धोये ही नहीं थे. कभी कभी हेल्पर और काम वाली बाई एक साथ ही नदारद होते, कभी मेहमानों से घर भरा होता, ऐसे में बर्तन तो धोये ही थे . पर शायद सुबह-सुबह नहीं धोये होंगे . इसलिए बर्तन धोने का ख्याल बिलकुल नहीं आया.
साफ़ बर्तन की तलाश शुरू हुई और शेल्फ के एक कोने में मुझे औंधी हुई एक कढ़ाई दिख गयी. मैंने कढ़ाई निकाली , आराम से उसमे चाय बनायी और चाय का कप लिए बालकनी में चली आई दिल्ली की अपनी पहली सुबह देखने.
मुझे तो इसमें कुछ भी अटपटा नहीं लगा था. पर जब घर पर यूँ ही इन बातों का जिक्र किया तो सबलोग बहुत हँसे कि 'कढाई में कहीं चाय बनाता है कोई ??"
काफी दिनों तक सबके बीच 'कढ़ाई में चाय' चर्चा का विषय बनी रही.
हाँ,आज भी कभी कभी चाय के तीनो बर्तन जूठे होते हैं और कई कढ़ाई, भगौने साफ रखे हों फिर भी बर्तन धोकर चाय के बर्तन में ही चाय बनाती हूँ, कढाई में नहीं (पर अब ये प्रकरण याद आ गया तो बनायी जा सकती है, कढाई में चाय....वाई नॉट...बेकार के बर्तन क्यूँ धोये जाएँ :)
वह जी ये भी खूब रही \राजेशजी के संस्मरण ने तो हमे खंडवा की सभी यादे ताजा कर दी ,छोड़ आये हम वो गलियां ।
जवाब देंहटाएंकिन्तु उनका ब्रीफकेस खंडवा में खोया इसका दुःख रहेगा ।
माचिस उन दिनों बड़ी कीमती चीज हुआ करती थी मजेदार !
इतना घी डालेगे तो खाना अच्छा बनना ही है ।
रोचक संस्मरण ।
हाँ शोभना जी,
हटाएंजब शुद्ध घी ,काजू का पेस्ट, मलाई डालकर सब्जी बनायी जाए तो सुस्वादु कैसे न बने भला
कढाई में चाय .... ? अभी तक नहीं बनाई कभी , न किसी को बनाते देखा है :) सच में मजेदार रहा आपका संस्मरण, राजेश जी और ममता जी के संस्मरण भी रोचक लगे
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मोनिका जी,
हटाएंकढाई में चाय न कभी बनायी, न किसी को बनाते देखा...पर सुन लिया न :)ऐसी बेवकूफियां करने वाले लोग भी हैं, इस जहां में
सबको शादी का ख़ुमार है, संस्मरणों की बहार है। तीनों संस्मरण रोचक लगे।
जवाब देंहटाएंउत्साही जी के शेरवानी-कुरता खोने का वाकई अफ़सोस हुआ।
एक ज़माना था माचिस की तीली और नमक न होने की वजह से हमारे १ जनवरी की अच्छी खासी पिकनिक का बिना बैंड के बैंड बज जाता था। पिकनिक ऐसी जगह होता था, जहाँ दूर दूर तक कुछ भी नहीं मिलता था, बड़ी मुश्किल से और टाईम ख़राब करके नमक और माचिस का इंतज़ाम किया जाता था, याद है मुझे।
और तूने तो भई कमाल कर दिया, धोती फाड़ के रुमाल कर दिया। एक नया डिश ही इज़ाद कर दिया ...
ऊ का है न जब कड़ाही पनीर, कड़ाही चिकेन हो सकता है तो कड़ाही चाय काहे नहीं। एकदम ओरिजिनल आईडिया है झट से पेटेंट करवा लो कहीं अमेरिका को पता चल गया तो हमदोनों का बहुत नुस्कान हो जाएगा ....पेटेंट करवाने का आईडिया मेरा है, इसलिए कुछ कमीशन तो बनता है न मेरा भी ...हाँ नहीं तो !!
अरे हाँ...क्या आइडिया है... कमीशन पक्का :)
हटाएंबल्कि कमीशन क्या, बिजनेस पार्टनर बन जायेंगे...एक आउटलेट खोल लेंगे, 'स्पेशल कडाही चाय' की :)
तीनों तसवीरें बहुत सुन्दर हैं ..लेकिन उत्साही जी और उनकी पत्नी की तस्वीर सबसे सुन्दर है|
जवाब देंहटाएंइसमें क्या शक...वो तस्वीर सबसे सुन्दर है...
हटाएंहमलोगों की भी शादी वाली या उसके कुछ बाद की होती तो ऐसी ही भोली-भाली होती :)
शुक्रिया मंजूषा जी,रश्मि जी। यह तस्वीर शादी के लगभग साल भर बाद की है।
हटाएंराजेशजी का संस्मरण पढ़कर समझ आया कि क्यों पुरुष अपने संस्मरण नहीं लिख रहे। ससुराल में जिन्दगी भर की मजाक छोंड आए। हम भी कढाई में चाय बनाने की अब सोचेंगे।
जवाब देंहटाएंऐसा भी क्या, अजित जी, हम सब भी तो अपनी बेवकूफियां लिख रहे हैं न...राजेश जी के संस्मरण ने भी मुस्कान ला दी,सबके चेहरे पर .
हटाएंलेकिन वे लोग शायद अपनी हीरो की छवि ही बरकरार रखना चाहते हैं :)
jis seat ke liye ataichi kho gayi wo seat bhi na mili...machis kii dibbi ke karan khane kii taiyari par pani fir gaya...par sabse rochak raha "kadhai par chai" ,sabke ghar par kadhai bhi hai aur chai bhi banti hai lekin aisi innovative soch kisi ko nahi aayi.. :)
जवाब देंहटाएंसब पर ऐसी मुसीबत भी तो नहीं आयी कि चाय पीने का मन हो और बर्तन न धुले हों :)
हटाएंबचपने के किस्से में तो पुरुष ब्लौगर भी शामिल थे , ससुराल के पहले दिन में उनका क्या विशेष होता जो लिखते :)
जवाब देंहटाएंभला हो माचिस की डिबिया का , घर खिंच लाई :)
कडाही में चाय कभी कोशिश नहीं की , न कही देखा ...मगर बड़े शहरों में ऐसी घटनाएँ हो जाती है , जब भावी महिला ब्लौगर का मामला हो !
रोचक परिचर्चा !
@ ससुराल के पहले दिन में उनका क्या विशेष होता जो लिखते :)
हटाएंक्यूँ नहीं होता है...बहुत कुछ विशेष होता है....उन्हें खीर में नमक मिला कर पेश की जाती है , पत्तों कि पकौड़ी,ऐसा ही बहुत कुछ ,अब राजेश जी का संस्मरण भी कितना रोचक है.
@.मगर बड़े शहरों में ऐसी घटनाएँ हो जाती है , जब भावी महिला ब्लौगर का मामला हो .
शहर बड़ा था, पर ऐसी घटना को अंजाम देने वाली तो छोटे शहर की ही थी. और हाँ...तब पत्रिकाओं में ऐसे संस्मरण कलम से लिख कर भेजती थी , कहाँ पता था एक दिन कंप्यूटर पर ब्लॉग में लिखूंगी (पर पढने का शौक रखने वाले तब भी पढ़ते थे और अब भी...कुछ फरक नहीं पड़ा :)
सभी संस्मरण मजेदार .... कढाई में चाय ... हा हा ...
जवाब देंहटाएंअफ़सोस राजेश जी के ब्रीफकेस खोने का ... ओर फोटोस तो सभी मस्त हैं ...
शुक्रिया दिगंबर जी :)
हटाएंखूबसूरत संस्मरण
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंशुक्रिया रश्मि जी। हम तो कढ़ाई में चाय बनाकर तीसरी कसम के गुलफाम की तरह लोटे में भरकर पीते रहे हैं। नवनीत जी का घी का किस्सा पढ़कर याद आया कि बंगलौर में एक दिन हम वनस्पति घी का एक पैकेट लाए। चार दिन तक उसे रखे रहे संभालकर। फिर आपकी ही तरह उसे खोलकर डिब्बे में भरने का उपक्रम करने लगे,तो पता चला कि वह घी नहीं टोंड दूध है।...तब ख्याल आया कि दुकान वाले ने इसीलिए कम पैसे लिए थे...और हम सोच रहे थे कि हमने उसे चूना लगा दिया।..चूना तो हमें ही लगा था।
जवाब देंहटाएंक्या बात है राजेश जी. खूब मज़ा आया :)
जवाब देंहटाएंरश्मि तुम्हारी ममता भाभी का किस्सा भी एक नम्बर का है :)
जवाब देंहटाएंहाहा...होहो...खूब भालो.. रश्मि, ये पतिदेव लोग ऐसे ही सब्जी बनाते हैं. मेरे पतिदेव को भी कुकिंग का शौक है. कुकिंग बोले तो सब्जी बनाने का :) संजीव कपूर का शो भी देखते हैं वे तो :) और कोई नई विधि बताई नहीं कि तुरन्त बनाने को तैयार. ऐसे में मेरा कलेजा हलक को आ जाता है क्योंकि सब्जी बनने के बाद प्लेट फ़ॉर्म की हालत देखी नहीं जा सकती :( पूरे में प्याज़ लहसुन के छिलके, सब्जियों के छिलके... अलग-अलग सामग्री के लिये बरबाद की गयीं प्यालियां..( सारा सामान संजीव कपूर की तरह सजाते भी हैं न..मसाले भी अलग अलग प्यालियों में निकाल लेते हैं :( ) खूब मज़ा आया पढ के.
जवाब देंहटाएंआज की ब्लॉग बुलेटिन छत्रपति शिवाजी महाराज की जय - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंमजेदार संस्मरण । दूल्हे मियां का लुटना, माचिस का स्विमिंगपूल में जंप लगाना और कढाई चाय, भई वाह ।
जवाब देंहटाएंहास्य विनोद हम सबके जीवन से कहीं न कहीं चिपक ही जाता है, सुन्दर संस्मरण।
जवाब देंहटाएंThank you for giving my memory back to me...I really had forgotten it.
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