कोई कहता है उन्हें होली नहीं पसंद...कोई कहता है बहुत पसंद है.पर मैंने कभी खुद को इस स्थिति में पाया ही नहीं कि पसंद या नापसंद करूँ.शायद बचपन सेही इस त्योहार को अपने अंदर रचा बसा पाया है.
दस वर्ष की उम्र में हॉस्टल चली गयी...और तब से जैसे बस होली का इंतज़ार ही रहता...बाकी का पूरा साल होली में की गयी मस्ती याद करके ही गुजरता.सरस्वती पूजा के विसर्जन वाले दिन से जो गुलाल खेलने की शुरुआत होती वह होली की छुट्टी के अंतिम दिन तक चलती रहती. हमारे हॉस्टल का हर कमरा' इंटरकनेक्टेड' था.पूरी रात हर कमरे में जाकर सोने वालों के बालों में अबीर डालने का और मुहँ पर दाढ़ी मूंछ बनाने का सिलिसिला चलता रहता.पेंट ख़त्म हो जाते तो कैनवास वाले जूते का सफ़ेद रंग वाला शू पोलिश भी काम आता (ड्रामा में हमलोग बाल सफ़ेद करने के लिए भी इसका उपयोग करते थे) उन दिनों ज्यादातर लड़कियों के लम्बे बाल होते थे.उन्हें रोज़ शैम्पू करने होते.और टीचर से डांट पड़ती...बाल खुले क्यूँ रखे हैं?.मैं शुरू से ही नींद की अपराधिनी हूँ .इसलिए इस रात वाली गैंग में हमेशा शामिल रहती..बाकी सदस्य अदलते बदलते रहते.
सरस्वती पूजा में हमलोग गेट से लेकर स्टेज तक ,जहाँ सरस्वती जी की मूर्ति रखी जाती थी.सुर्खी की एक सड़क बनाते थे.(सुर्खी ईंट के चूरे जैसा होता है ) उसके ऊपर चॉक पाउडर से अल्पना बनायी जाती थी.हर वर्ष होली में एक बार उस सुर्खी से जमकर होली खेली जाती.ये रास्ता मैदान के बीच से होकर जाता था और हम लोग रोज शाम को मैदान में 'बुढ़िया कबड्डी' खेला करते थे.किसी ना किसी का मन मचल जाता और वो एक पर सुर्खी उठा कर फेंकती..वो लड़की उसके पीछे भागती पर बीच में जो मिल जाता,उसे ही लगा देती. फिर पूरा हॉस्टल ही शामिल हो जाता इसमें. एक बार शनिवार के दिन ऐसे ही हम सब सुर्खी से होली खेल रहें थे. अधिकाँश लड़कियों ने यूनिफ़ॉर्म नहीं बदले थे.सफ़ेद शर्ट और आसमानी रंग की स्कर्ट सुर्खी से लाल हो गयी थी.उन दिनों 'सर्फ़ एक्सेल' भी नहीं था.फिर भी हमें कोई परवाह नहीं थी. मेट्रन मार्केट गयीं थीं. वो कब आकर हमारे बीच खड़ी हो गयीं पता ही नहीं चला.जब जोर जोर से चिल्लाईं तब हमें होश आया और हमें सजा मिली की इसी हालत में खड़े रहो. सब सर झुकाए लाईन में खड़े हो गए. शाम रात में बदल गयी,सुर्खी चुभने लगी,मच्छर काटने लगे पर मेट्रन दी का दिल नहीं पिघला.जब खाने की घंटी बजी और कोई मेस में नहीं गया तो मेस में काम करने वाली गौरी और प्रमिला हमें देखने आई. झूठमूठ का डांटा फिर इशारे से कहा..एक एप्लीकेशन लिखो...कि अब ऐसे नहीं करेंगे.सबने साईन किया डरते डरते उनके कमरे में जाकर दिया.फिर हमें आलू की पानी वाली सब्जी और रोटी(रात का रोज़ का यही खाना था,हमारा) खाने की इजाज़त मिली.पर सिर्फ हाथ मुहँ धोने की अनुमति थी,नहा कर कपड़े बदलने की नहीं.खाना तो हमने किसी तरह खा लिया.पर मेट्रन के लाईट बंद करने के आदेश के बावजूद ,अँधेरे में ही एक एक कर बाथरूम में जाकर बारह बजे रात तक सारी लडकियां नहाती रहीं.
हॉस्टल में 'टाइटल' देने का बड़ा चलन था...रोज ही नोटिस बोर्ड के पास एक कागज़ चिपका होता.और किसी ना किसी कमरे की लड़कियों ने बाकियों की खबर ली होती.खूब दुश्मनी निकाली जाती इस बहाने. कई बार तो असली झगडे भी हो जाते और बोल चाल बंद हो जाती.पर ऐसा कभी कभी होता...ज्यादातर सब टाइटल पढ़ हँसते हँसते लोट पोट ही हो जाते.
मेरे स्कूल के दिनों में पापा की पोस्टिंग मेरे पैतृक गाँव के पास थी. अक्सर हॉस्टल से सीधा मैं गाँव ही चली जाती.वहाँ की होली भी निराली होती थी.दिन भर अलग अलग लोगों के ग्रुप निकलते.सुबह सुबह लड़कों का हुजूम निकलता.लड़के गोबर और कीचड़ से भी खेला करते.और कोई दामाद अगर गाँव में आ गया तो उसकी खैर नहीं उसे फटे जूते और उपलों का माला भी पहनाया जाता.एक बार मेरे पापा दालान में बैठे शेव कर रहें थे.एक हुडदंगी टोली आई पर वे निश्चिन्त बैठे थे कि ये सब उनसे उम्र में छोटे हैं.पर उनमे ही उनका हमउम्र भी कोई था और उसने उन्हें एक कीचड़ भरी बाल्टी से नहला दिया.पापा को सीधा नहर में जाकर नहाना पड़ा.
लड़कियों का ग्रुप एक बाल्टी में रंग और प्लेट में अबीर और सूखे मेवे(कटे हुए गरी, छुहारे) लेकर घर घर घूमता.उन दिनों घर की बहुएं बाहर नहीं निकलती थीं. कई घर की बहुएं तो लड़कियों से भी बात नहीं करती थीं.(ये बात अब तक मेरी समझ में नहीं आती). घर में काम करने वाली,आँगन में एक पटरा और रंग भरी बाल्टी रखती. कमरे से घूंघट निकाले बहू आकर पटरे पर बैठ जाती और हम लोग अपनी अपनी बाल्टी से एक एक लोटा रंग भरा जल शिव जी की तरह उनपर ढाल देते.फिर घूंघट के अंदर ही उनके गालों पर अबीर मल देते और हाथों में थोड़े अबीर में लिपटे मेवे थमा देते.वे बहुएं भी हमारी फ्रॉक खींच हमें नीचे बैठातीं और एक लोटा रंग डाल देतीं.घूंघट के अंदर से भी वे सब कुछ देखती रहतीं.कोई लड़की अगर बचने की कोशिश में पीछे ही खड़ी रहती तो इशारे से उसे भी बुला कर नहला देतीं.
इसके बाद शुरू होता रंग छुडाने का सिलसिला.आँगन में चापाकल के पास हम बहनों का हुजूम जमा हो जाता,आटा,बेसन से लेकर केरोसिन तेल तक आजमाए जाते.त्वचा छिल जाती.पर हम रंग छुड़ा कर ही रहते.घर की औरतें बड़े बड़े कडाहों में पुए पूरी तलने में लगी होतीं.पुए का आटा रात में ही घोल कर रख दिया जाता.एक बार मेरी दादी ने जिन्हें हम 'ईआ' बुलाते थे.मैदे के घोल में शक्कर की जगह नमक डाल दिया था.वहाँ बिजली तो रहती नहीं थी.एक थैले में गाय बैलों के लिए लाया गया नमक और दूसरे थैले में शक्कर एक ही जगह टंगी थी.सुबह सुबह सबसे पहले 'ईआ' ने मुझे ही दिया चखने को,जब मैंने कहा नमकीन है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ.फिर उन्होंने हमारे घर में काम करने वाली (पर बहुओं पर सास से भी ज्यादा प्यार,अधिकार और रौब जमाने वाली) 'भुट्टा काकी' से चखने को कहा .जब उन्होंने भी यही बताया तब उनके होश उड़ गए...फिर तो पता नहीं कितने एक्सपेरिमेंट किये गए.दुगुना,शक्कर..मैदा सब मिला कर देखा गया..पर अंततः उसे फेंकना ही पड़ा.
शाम को होली गाने वालों की टोली घर घर घूमती.पूरे झाल मंजीरे के साथ हर घर के सामने कुछ होली गीत गाये जाते और बदले में उन्हें ढेर सारा अनाज दिया जाता.सारे दिन खेतों में काम करने वाले,गाय-भैंस चराने वालों का यह रूप, हैरान कर देता हमें.हमारे 'प्रसाद काका' जो इतने गंभीर दीखते कभी काम के अलावा कोई बात नहीं करते. वे भी आज के दिन भांग या ताड़ी के नशे में गाने में मशगूल रहते.ज्यादातर वे लोग एक ही लाइन पर अटक जाते..." गोरी तेरी अंखियाँ लगे कटार..."...बस अलग अलग सुर में यही लाईन दुहराते रहते.
अब तो पता नहीं...गाँव में भी ऐसी होली होती है या नहीं.
क्या बात है रश्मि ! मजा आगया . आपकी इस पोस्ट ने मुझे भी अपने बचपन की ,होस्टल की तरह तरह की होली याद दिया दी ..अब मेरा भी मन कर रहा है की एक संस्मरण लिख ही डालूं ....:) क्योंकी इस रंगों भरे त्यौहार पर अगर मस्तियों को याद न किया जाये तो मजा ही क्या...बहुत अच्छा लिखा है....आपकी होली प्रेम ,मस्ती और खूबसूरती के रंगों से हमेशा सरोबर गुजरे यही कामना है
जवाब देंहटाएंअरे देर काहे की शिखा.....लिख डालो...हम बस इंतज़ार में हैं..और तुम्हे भी टोकरी (रंगों वाली) भर कर शुभकामनाएं :)
जवाब देंहटाएंरश्मि जी हमारी वाली रंगों की टोकरी कहां है
जवाब देंहटाएंकहीं उसमें रंग की जगह हल्दी, मिर्च, धनिया
इत्यादि तो नहीं भर रखे हैं
अविनाश जी,..आपके लिए रंगों भरी गोनी है....अब गोनी का अर्थ ढूंढिए?...नहीं तो एक पोस्ट लगा कर पूछ लीजिये :)
जवाब देंहटाएंवाह तुम्हारी पोस्ट ने तो मुझे भी हॉस्टल की याद दिला दी....होली की छुट्टियों से पहले रविवार को जो होली होती थी और फिर फाइन भी लगता था...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया संस्मरण....होली की शुभकामनायें
इतना बढ़िया वर्णन किया हैआपने हॉस्टल की होली का और गाँव की होली का कि मन सराबोर हो गया ।
जवाब देंहटाएंहोली को मैं केवल होली के गानों के कारण पसंद करता हूँ, बाकि तो कलर वलर से थोडा बिदकता हूँ।
जवाब देंहटाएंअच्छा संस्मरण लिखा ।
बहुत सुंदर आप का लेख पढ कर अपना बचपन भी याद आ गया हम तो एक महीना पहले ही होळी खेलना शुरु कर देते थे, ओर कई बार तो हमे मना करने वाले भी हमारे संग खुब होली खेलते थे, मै सब से ज्यादा नटखत हुआ करता था, लेकिन चेहरे से भोला भाला इस लिये नये लोग मेरे पास बहुत फ़ंसते थे:)
जवाब देंहटाएंवाह रश्मि जी...क्या सैर कराई है बचपन की, वो भी होली की. जब मैं छह साल की थी, तब मेरा कनछेदन हुआ वसंतपंचंमी के दिन. कुछ दिनों बाद ही होली थी. तब दीदी और उनकी सहेलियों का ही बोलबाला हुआ करता था, सो होली खेलते हुए दीदी की एक सहेली ने मेरे चेहरे पर कुछ इस तरह रंग रगडा कि मेरे कान की बाली खिंच गई और मैं दर्द से तडप उठी. घाव हो गया. तब से होली से डरने लगी, ये डर कहीं इतना गहरे बैठ गया था कि मैने अपनी बिटिया के कान जल्दी छिदवाये ही नहीं. खैर अब नहीं डरती. रंग खेलने में तो मज़ा आता है लेकिन बाद में रंग छुडाने में.....???
जवाब देंहटाएंबहुत मजा आया होली का, आपके रंगों में भीगकर और अपने पुराने दिन याद आ गए |
जवाब देंहटाएंआपने होली की यादो का ऐसा जीवन चित्र खीचा है कि लगता है कोई फ़िल्म देख रहे है. होली का मज़ा गाव देहात मे जितना है उतना शहरो मे नही है. शहरो मे हम एक मुखौटा पहने रहते है लेकिन फिर भी जब आप लिखेगी तो शहरी होली भी मेजेदार होगी ये यकीन है.
जवाब देंहटाएंमेरे कस्बे की होली की यादे आज लिखी है
http://hariprasadsharma.blogspot.com/2009/03/blog-post_11.html
@वंदना जी,
जवाब देंहटाएंक्या बात कह दी आपने...रंग छुडाने में तब भी जान निकल जाती थी...और अब भी...पिछले साल एक सहेली ने सलाह दी कि सरसों तेल में आटा मिलाकर रगड़ने से रंग जल्दी छूट जाता है...और दूसरी सहेली ने अपनी सात वर्षीया बेटी पर आजमा लिया...बेचारी चिल्लाती रही.."मम्मा जल रहा है.." पर सहेली ने एक ना मानी...जब खुद लगाया तब बेटी के दर्द का अंदाजा हुआ..
रश्मि,
जवाब देंहटाएंये गाँव कि होली भी न , अब यादों में ही बसी है, कब का गाँव छूट गया पर तुमने तो फिर से सब वही बात याद दिला डी. बहुत मजेदार लगा ये होली का हुडदंग ! उसमें तुमने जितने रंग भरे हैं न, सब मिलकर खूब जम रहे हैं.
बहुत बहुत बधाई ऐसे लेख के लिए.
बहुत बढ़िया लगा यह संस्मरण बचपन याद आगया अब कहाँ वह सब खूब डूबा आपके लिखे इन रंगों में यह मन शुक्रिया
जवाब देंहटाएंआपके संस्मरण ने अपने बचपन की याद ताज़ा कर दी ... अब कहाँ वो दिन ,... वो त्योहार मनाने की रीत .... बहुत अच्छा लगा पढ़ कर .....
जवाब देंहटाएंसंस्मरणात्मक रूप से बहुत अच्छा लगा यह संस्मरण... गाँव के रंग को बहुत सटीक तरह से बताया है आपने.... इस पोस्ट ने तो कई तादें ताज़ा कर दीं... बहुत अच्छी गई यह पोस्ट...
जवाब देंहटाएंbahut hi badhiya varnan kiya hai tumne...hostel mein to main bhi rehti thi lekin hamare hostel mein holi nahi kheli jaati thi...
जवाब देंहटाएंtumhaari holi bhi khoob masti mein guzre yahi kaamna hai..
bahut bahut shubhkaamna holi ki..
क्या खेल बताया है 'बुढ़िया कबड्डी'...कॉमनवेल्थ गेम्स में शामिल कराने के लिए खेल मंत्री जी के पास सिफ़ारिश भेज रहा हूं...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
Wow!Very interesting!Great!All these words are meaningless now.Your holi post is as great as all the previous ones.I really have no words to praise now.Help me!
जवाब देंहटाएंrashmi ji
जवाब देंहटाएंbahut hi badhiya sansmaran raha ...........sari purani yaadein taaza ho gayi........sach jitna rangne mein mazaa aata hai na usse jyada use chudaane mein jo mehnat karni padti thi uska to kahna hi kya.........ek hi din mein sare ubtan aajma liye jate the .......phir chahe koi jis bhi cheese se kah de bas lag jate the chudane .............yahan tak ki mitti ke tail se bhi..
बड़ा रोचक है यादों के वातायन में जाकर रंगों की परतें सहलाना !
जवाब देंहटाएंHi..
जवाब देंहटाएंEk din kisi ne kaha tha, 'Der aayad durust aayad'..so der se hi sahi aapke sansmaran ki holi se hum bhi yadon ke Indra- dhanushi rang main rang gaye hain..
Bachpan main apne Pita ji, bujurgon aadi ke wo safed dhoti kurte pe khilte wo holi ke rang..sham ko varsh bhar ka samvat aur fir wo sabke ghar gujhia mithayi khana..sab punah jeevant ho utha hai..
Hostel main wo dhama chaukdi, ki apne wardan mahoday tak ko rang se bhare gadhe main jabran utha kar fenkna aur uski saza swaroop wo hockey ki maar aaj bhi chehre par muskaan la deti hai..
Vandana ji ke likhe anusaar apni kai bhabhiyon ki naak ki kilen aur kaan ki baaliyan todne ka shreya mere khate main bhi darz hai aur parinamswarup har holi aur uske uprant har baali aur keel ke sath humen bhi yaad kiya jata hai..
Holi aaj bhi holika dahan se shuru hoti hai aur holi milan par samapt par ek aas fir bhi baki rahati jo agli holi tak sapne bunne main humari madad karti hai..
Ek holi aur ho...li..
Agli holi ki pratiksha hai..
Agli Holi main khelun.. Fir se sabke sang..
Apne hi rang main rangun..daalun aisa rang..
Es holi se us holi tak dheron shubhkamnayen..
DEEPAK..
Rashmi jee
जवाब देंहटाएंthanks for sharing your memories of holi.
we also miss very much that golden days when we were in the village
now there is everything a showings not anything real...
shanu
क्या क्या न याद दिला दिया यह संस्मरण लिख कर.....बहुत बढ़िया लगा,
जवाब देंहटाएंकमाल का ज़माना था। होली मुबारक!
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