बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

खुदा महफूज़ रखे इन्हें हर बला से,हर बला से


यह पोस्ट मैंने 'हमज़बान' के लिए लिखी थी या यह कहना सही होगा कि शहरोज़ भाई ने ...मुझसे लिखवा ली थी.उनके जैसे तकाज़े करने वाला और मेरे जैसे टालने वाला.उन्हें ऑनलाईन देखकर ही डर जाती कि अभी पूछ बैठेंगे और जरा सी कुशल क्षेम के बाद वे पूछ ही लेते कभी कभी तो हलो भी नहीं..सीधा ही पूछ बैठते.."आपका मेल नहीं मिला"..और एक दिन प्रॉमिस कर ही दिया...शाम तक आपके मेलबॉक्स में होगा..और बस उंगलियाँ कीबोर्ड पे खटखटाई और लिख डाला

जिन लोगों ने पढ़ रखी है,वे तस्वीरें देख सकते हैं :)

'लोकल ट्रेन' मुंबई की धड़कन कही जाती है और इसी तर्ज़ पर अगर यहाँ की कामवाली बाईयों को 'मुंबई' का हाथ पैर कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी.क्यूंकि इन्हीं की बदौलत,मुंबई के सारे घर शांतिपूर्वक और सुचारू रूप से चलते हैं.सुबह पांच बजे से रात के ग्यारह बजे तक ये कामवालियां दूसरों का घर संभालने में लगी होती हैं.

ये सब कामवालियां,भारत के सुदूर प्रान्तों से आकर यहाँ बसी हुई होती हैं.बिहार,यू,पी.,मध्यप्रदेश,उडीसा,आसाम,बंगाल,तमिलनाडु,कर्नाटक...शायद ही कोई ऐसा प्रदेश हो जहाँ की मिटटी में पले,बढे ये हाथ मुंबई के घरों को साफ़-सुथरा रखने में ना लगे हों.कितनी ही बाईयां ऐसी होती हैं जिन्हें ठीक से हिंदी बोलना भी नहीं आता.पर ये इशारों में ही बात समझ, काम करना शुरू कर देती हैं और एकाध सालों में ही इतनी दक्ष हो जाती हैं कि इन्हें पहचानना भी मुश्किल हो जाता है.कच्चे घरों और कच्ची सडकों की आदी ये महिलायें पूरे आत्मविश्वास से लिफ्ट का इस्तेमाल करना और इतने ट्रैफिक के बीच आराम से रास्ता तय करना सीख जाती हैं.अत्याधुनिक उपकरणों से लैस रसोईघर को ये इतनी निपुणता से संभालती हैं कि इनके अनपढ़ होने पर शक होता है.सच है,व्यावहारिक ज्ञान के आगे,किताबी ज्ञान कितना बौना है.

घर की मालकिनों को सोफे पर बैठ कर टी.वी.देखने का या ऑफिस के ए.सी.कमरे में बैठ कलम चलाने (या नेट पर ब्लॉग लिखने :)) का अवसर देनेवाली इन कामवालियों का खुद का जीवन बहुत ही कठिन होता है.सुबह ४ बजे उठती हैं,अपने घर का खाना बना,नहा धोकर काम पे निकल जाती हैं. हाँ! मुंबई की ज्यादातर बाईयां सुबह नहा धोकर,पूजा और नाश्ता करके ही काम पर जाती हैं.दक्षिण भारतीय और मराठी महिलाओं के तो बालों में फूल भी लगा होता है.मेरी माँ जब मेरे पास आई थीं तो सबसे ज्यादा ख़ुशी, उन्हें मेरी मराठी बाई को देखकर होती थी. सुबह सुबह ही उसके बालों में लगे गजरे से मेरे पूरे घर में भीनी भीनी खुशबू फ़ैल जाती.
इनकी कठिन दिनचर्या शुरू हो जाती है. औसतन ये ५,६, घरों में जरूर काम करती हैं.किसी घर में सिर्फ झाडू,पोंछा,बर्तन का काम होता है तो कहीं कपड़े धोना,कपड़े फैलाना,डस्टिंग करना,खाना बनाने में मदद करना और कहीं कहीं पूरा खाना भी यही बनाती हैं.
दोपहर को थोड़ी देर को ये अपने घर जाती हैं और अपने घर के बर्तन साफ़ करते,कपड़े धोते इन्हें दो घडी का भी आराम नहीं मिलता.और दूसरी पाली का काम शुरू हो जाता है.बहुत सी बइयां शाम ७ से दस बजे रात तक घर घर घूम कर रोटियाँ बनाती हैं.ज्यादातर गुजराती घरों में रात के जूठे बर्तन सुबह तक नहीं रखते,उनके यहाँ ये बाईयां रात ग्यारह बजे काम ख़त्म कर वापस जाती हैं.

रात में सोने में इन्हें एक,दो बज जाते हैं क्यूंकि बी.एम्.सी.(ब्रिहन्न्मुम्बाई महानगरपालिका) रात में ही पानी रिलीज़ करती है.बड़ी बड़ी बिल्डिंग्स में तो टैंक में पानी भरता रहता है पर.इन्हें रात में ही बड़े बड़े ड्रमों में पानी भरना पड़ता है ताकि दिन भर काम चल सके.
पर अच्छी बात ये है कि पैसे इन्हें अच्छे मिलते हैं तीन हज़ार से दस हज़ार तक ये प्रति माह कमा लेती हैं.इन पैसों को ये बहुत ही बुद्धिमानी से खर्च करती हैं.करीब करीब सभी बाईयों के बैंक एकाउंट हैं.हर महीने ये कुछ पैसे जरूर जमा करती हैं और दिवाली में तो अच्छी खासी रकम जमा हो जाती है क्यूंकि यहाँ के रिवाज़ के अनुसार पूरे एक महीने का वेतन इन्हें बोनस के रूप में मिलता है.खुद भी और अपने बच्चों को भी ये साफ़ सुथरे कपड़े पहनाती हैं. मुंबई आने के शुरुआत के दिन में जब मेरी बाई ने बताया था कि उसने ६सौ की बेडशीट खरीदी है तो मैं आश्चर्य में पड़ गयी थी.करीब करीब सभी बाईयां अपने बच्चों को स्कूल भी भेजती हैं और ट्यूशन भी.कुछ बाईयां तो अपने बच्चों को प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाती हैं और फीस भरने को दुगुनी मेहनत करती हैं.इनके दस बाई दस के कमरे में सुख सुविधा की सारी चीज़ें मिलेंगी.गैस,मिक्सी,रंगीन टी.वी..मोबाईल के बिना तो ये घर से बाहर कदम नहीं रखतीं.

इन्हें ज़िन्दगी जीना भी आता है.सिनेमा जाना,बच्चों के साथ' जुहू बीच' जाना ,गरबा और गणपति के समय देर रात तक घूमना,ये सब इनकी ज़िन्दगी के हिस्से हैं.अच्छा लगता है देख अपने बच्चों का बर्थडे भी केक काटकर मनाती हैं.एक बार तो 'वेलेंटाईन डे' पर मेरी बाई अपने पति के साथ सिनेमा देखने चली गयी और मुझे बर्तन साफ़ करने पड़े.(दरअसल उसका पति,रिक्शा चलाता था और कॉलेज के लड़के लड़कियों की बातें सुन और बाज़ार की रौनक देख,उसका भी मन ''वेलेंटाईन डे' मनाने का हो आया)
पर इनकी ऐसी किस्मत कभी कभी ही होती है.ज्यादातर इनके पति,इनके पैसों पर ऐश ही करते हैं.और इन्हें मारते पीटते भी हैं.शायद ही किसी बाई का पति हो जो रोज काम पर जाता हो.महीने में बीस दिन अपने साथियों के साथ पत्ते खेलता है और शराब पीता है.पैसे नहीं देने पर इन्हें मारता पीटता भी है.पर ये बाईयां मध्यम वर्गीय महिलाओं की तरह चुप नहीं बैठतीं.पुलिस में भी रिपोर्ट कर देती हैं और कई बार पति को घर से निकाल भी देती हैं.और कुछ दिनों बाद ही पति दुम हिलाता हुआ,माफ़ी मांग वापस लौट आता है.फिर वही सब शुरू हो जाता है,ये अलग बात है.पर सबसे दुःख होता है,इनके बेटों का व्यवहार देख.बेटियाँ फिर भी पढ़ लेती हैं पर बेटे ना स्कूल जाते हैं,ना ट्यूशन.एक ही क्लास में फेल होते रहते हैं और जब भी मौका मिले अपनी माँ से पैसे छीन भाग जाते हैं,एक बार मेरी बाई ने बड़ी मासूमियत से पूछा था,"कोई ऐसी दवा होती है,भाभी जिस से इनका पढने में मन लगे."
ये बाईयां मेहनतकश होने के साथ साथ बहुत ही ईमानदार और प्रोफेशनल भी होती हैं.कई घरों में पड़ोस से चाबी ले,फ़्लैट खोलकर ये सारा काम करती हैं और चाबी वापस कर चली जाती हैं.एक युवक अपने घर के बाहर doormat के नीचे चाबी रखकर चला जाता था.बाई घर खोल उसे मिस कॉल देती और वह फोन करके बताता कि क्या खाना बनाना है.कितने ही घरों का काम ऐसे ही चलता है.महीने में दो छुट्टी इनका नियम है,इसके अलावा बीमार पड़ने या बहुत जरूरी होने पर ही ये छुट्टियाँ लेती हैं.वरना मैंने देखा है,छोटे शहरों में जरा सा मूड नहीं हुआ,या नींद नहीं खुली,सर में दर्द था,कोई आ गया,ऐसे बहाने बना बाईयां छुट्टी कर जाती हैं.

यहाँ एक और अलग रूप है इन काम वाली बाईयों का. एक बार 'बॉम्बे टाईम्स' में एक रिपोर्ट छपी थी कि या बाईयां अपनी मालकिनों के emotional anchor का रोल भी बखूबी निभाती हैं.मुंबई में अपने पड़ोसियों की भी कोई खबर नहीं होती.ऐसे में उनकी परेशानियां बांटने वाली एकमात्र ये बाईयां ही होती हैं.कई महिलाओं ने अपने अनुभव बांटे थे.एक युवती ने बताया था कि उसका डिवोर्स हो गया था और वह घोर डिप्रेशन में थी.उड़ीसा के किसी गाँव से आई एक सीधी साधी बाई ने उसका पूरा घर संभाला.उसके बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना,उसे भी जबरदस्ती खाना खिलाना,उसे समझाना,इक ने अपना पति खो दिया था,एक की नौकरी चली गयी थी,सबको उनकी बाई ने ही सहारा दिया था.बरसों पहले रिलीज़ हुई फिल्म अर्थ में 'रोहिणी हट्टनगडी' का किरदार कपोल कल्पित नहीं था.मुंबई के जीवन में यह अक्षरशः सत्य है.फ्लैट्स की चहारदीवारी में क़ैद कई जोड़ी बूढी आँखें अपने बेटे बेटियों का इंतज़ार उतनी शिद्दत से नहीं करतीं जितनी व्याकुलता से इन कामवालियों की बाट जोहती हैं....मैंने एक बार अपनी कामवाली से पूछा ," आंटी के यहाँ तो इतना काम नहीं तुम्हे इतनी
देर क्यूँ लगती है" तब उसने बताया....'आंटी बात करते बैठती है,..अकेली जो है."..मैंने भी कहा हाँ बाबा..थोड़ा समय बिताया करो उनके साथ.तुम्हे भी ब्रेक मिल जाएगा. 'नारद मुनि' वाला अवतार ये भी निभाती हैं,यानि की 'गौसिपिंग' इधर की बात उधर....पर ज्यादा नहीं क्यूंकि इनके पास समय बहुत कम होता है...जल्दी होती है,एक घर से दूसरे घर भागने की...और ये आप पर भी निर्भर है कि आप बतरस का कितना आनंद लेते हैं.

अगर सिर्फ दो दिन के लिए ही,मुंबई की बाईयां कहीं अंतर्ध्यान हो जाएँ तो कितने ही घरों में खाना नहीं बने,बच्चे स्कूल नहीं जा पायें,घर बिखरा पड़ा रहें कपड़े नहीं धुले और घर की मालकिन अपना मानसिक संतुलन ही खो बैठे..इसलिए
LONG LIVE KAAMWAALI BAAI .

29 टिप्‍पणियां:

  1. आपने ... बहुत सुंदर चित्रण किया है इनके जीवन का.....







    मैं सोच रहा हूँ कि अपना नाम पेटेंट करवा लूं...... ही ही ही ही ही ही ही ही....

    बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट...

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  2. बहुत ही रोचक अंदाज़ में आपने इनके रोज़मर्रा जीवन के बारे में बताया है...

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  3. मुम्बई की बाई के बारे मे खूब बताया है
    पढते - पढते श्रद्धा से मन भर आया है

    काम कोई हो उसे ही खूब खास बनाया है
    आपकी पोस्ट ने इन सबका यश बढाया है

    ऐसी गुणी बाई मिले ये मुम्बई की माया है
    पढ पढके उनकी गाथा मेरा जिया हर्षाया है

    आपने ये बाई गीत इस खूबी से गाया है
    बाई ही बहुत से घरो का मजबूत पाया है

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  4. विशेष समुदाय पर बहुत उम्दा आलेख..निश्चित ही यह भारत के हर शहर के हाथ पैर हैं.

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  5. आपकी ये रोचक और सार्थक पोस्ट मैने हमजबां में ही पढ़ ली थी...और फिर से एक बार पढ़कर भी उतना ही मजा आया..और सबसे बढ़िया तस्वीरें अब हम शान से कह सकते हैं कि हमारी कामवालियां भी ब्लोग्स पर हैं :) आखिर उनका इतना हक तो बनता ही है...बहुत अच्छा आलेख है ..एक बार फिर बधाई

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  6. हमज़बान पर पढ़ चुकी थी...लेकिन सजीव चित्रण ने फिर पढने पर मजबूर कर दिया....लेखन शैली बहुत बढ़िया है...लेख में कसाव है....शुभकामनायें

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  7. सब कुछ अच्छा लगा और आखरी में कामवाली बाइयों के जुलूस का चित्र देख कर तो मज़ा आ गया । इस चित्र के नीचे कैप्शन होना चाहिये " हड़ताल हमारा शौक नही मजबूरी है मजबूरी "

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  8. काम वाली बाईयों पर बहुत ही अच्छा लेख है यह। बहुत बढिया।

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  9. हम ज़बान में पढ़ चुके थे हम...
    फिर एक बार पढ़ा ..चित्रों समेत...अच्छा लगा...
    बायीं ओर तुम्हारी पेंटिंग्स भी बहुत खूबसूरत हैं...
    बधाई...!!

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  10. बहुत अच्छा वर्णन किया है। यह अच्छी बात है कि आज की कामवाली बाई निरीह नहीं है, बहुत जागरुक है।
    संयोग देखिए मैं भी बाइयों पर काफी लिख चुकी हूँ और अभी भी एक लेख अधूरा पड़ा है जो उनपर ही है।
    घुघूती बासूती

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  11. पहले पढ़ चुकी हूँ ...फिर शिकायत करोगी ...दुबारा क्यों पढ़ी ....हा हा हा
    अब जब कोई रचना पसंद आये तो बार बार पढ़ती हूँ ....मजबूरी है ...
    आपकी सशक्त लेखनी और सामाजिक सरोकार पर संवेदनशीलता को नमन ....!!

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  12. Very true!These are the people about whom we never think but they make our life so easy.Nice to have someone who can throw light on these taken for granted people.

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  13. धन्यबाद रश्मि जी एक वर्ग विशेष की स्तिथि को बहुत खूबी से बयान किया है आप ने और समाज में उनकी उपयोगता को भी काफी संजीदगी से दिखाया है आपने ,, पर उनकी निजी जिन्दगी और पारिवारिक जीवन को देख कर थोडा दुःख होता है उम्मीद कायम है स्तिथि सुधरेगी ,,,, और शारीरिक श्रम को भी भी अन्य( मानसिक श्रम ) श्रम की तरह उचित पारिश्रमिक मिलेगा

    सादर
    प्रवीण पथिक
    ९८९७१९६९०८४

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  14. बहुत बढिया लिखा है।आज कल यह बाइयां भी परिवार का हिस्सा बनती जा रही हैं....भागती जिन्दगी मे यह बहुत सहयोग दे रही हैं..

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  15. hey,i am myself a working women in mumbai and i completely agree with what u said.hats off to the realistic potrayal.

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  16. बहुत ही रोचक और सार्थक आलेख. और क्या कहूं? बधाई.

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  17. मैं जब भी मेड, आया, काम वाली, नौकरानी, बाई, महरी नाम सुनता था, कानों को कचोटते थे...हमारे घर पत्नीश्री का हाथ बंटाने के लिए माया आती है, मैं उसके बारे में पत्नीश्री की मददगार शब्द का ही इस्तेमाल करता हूं...दो-तीन महीने पहले इसी शीर्षक के साथ एक पोस्ट लिखी थी, लिंक यहां दे रहा हूं...हो सके तो पढ़ने के लिए वक्त निकालना...

    http://deshnama.blogspot.com/2009/08/blog-post_27.html

    जय हिंद...

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  18. 'लोकल ट्रेन' मुंबई की धड़कन कही जाती है और इसी तर्ज़ पर अगर यहाँ की कामवाली बाईयों को 'मुंबई' का हाथ पैर कहा जाए तो शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी.क्यूंकि इन्हीं की बदौलत,मुंबई के सारे घर शांतिपूर्वक और सुचारू रूप से चलते हैं.सुबह पांच बजे से रात के ग्यारह बजे तक ये कामवालियां दूसरों का घर संभालने में लगी होती हैं.

    उपरोक्त पंक्तियों में ही आप ने महानगरों की दशा का चित्रण कर दिया। बाखूब। सजदा कबूल करें।

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  19. बहुत सजीव चित्रण , बधाई .
    एकदम यथार्थ को करीब से जीकर जो देखा है, फिर भी वे धन्य हैं कि हमको सुख देकर खुद को पाल रही हैं. नारी का यह रूप वन्दनीय है. लेकिन ऐसा हर जगह नहीं है. उनकी व्यथा से मालिक कोई सरोकार नहीं रखता है. उसको काम चाहिए और फिर कुछ नहीं. हमारे जीवन को सहज बना रही इन महिलाओं को हमें भी अपने परिवार के सदस्य के रूप में देखना चाहिए.

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  20. ही कहा आपने, आज के परिप्रेक्ष्य में जब महिलाये ऑफिस और घर दोनों काम के बीच चकरघिन्नी बनी हुई है तो सहायता के लिए किसी का होना एक नियामत ही है.और मेरे जैसे लोग जिनका कोई नहीं उनके लिए तो देवदूत ही है वो.लेकिन दुःख की बात ये की हमारे देश में डोमेस्टिक वोर्केर को उचित निगाह से नहीं देखा जाता.उनकी प्रोब्लेम्स को सुनने के लिए कोई संस्था भी नहीं है.

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  21. आपका लिखा उपन्यास तो मैं नहीं पढ़ सका हूँ -शायद आगे पढ़ सकूं मगर आज मुम्बई की बाईयों पर आपकी रपट से आपकी लेखकीय प्रतिभा से परिचित हुआ हूँ -
    कह सकता हूँ आप लेखन की जन्मजात /प्रकृति प्रदत्त क्षमता से संपन्न हैं .
    बाईयो के जीवन का बहुत सूक्ष्मता से विश्लेषण किया है -आखिर वे भी मानव हैं और उनकी भी भावनाए हैं .
    मुम्बई के बाईयों की इस मानवीयता से संस्पर्शित रिपोर्ट पर आपको साधुवाद !

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  22. baaii story brought to you baaiii rashmi ravija....achchaa hai mumbai mein nayeee aayee grihiniyo ke liye first hand report!!!!

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  23. रश्मि जीवन को बहुत करीब से देखती हो तभी तो तुम्हारे सृजन मे जीवंत सा एहसास होता है । बहुत अच्छा लिखा है शुभकामनायें

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  24. पुनः प्रस्तुति, पुनः पठन भी ।
    सजीवता वही है । लगा नहीं दोबारा पढ़ रहा हूँ । चित्र से ज्यादा अक्षर दिखे मुझे, सूझे भी !
    आभार प्रविष्टि का ।

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  25. true - we cant even manage our own home - one single home ... how these women manage their own and 6-7 others is a mystery to me . i salute them .

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  26. शुक्रिया लिंक देने के लिए। सचमुच आपने बहुत गहन अवलोकन के बाद लिखा है। अंशुमाला जी के ब्‍लाग पर चल रही बहस के बीच मेरा कहना यही था कि आप सामान्‍यीकरण न करें।

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  27. सही है एक दम सटीक नक्शा खींचा है आपने मुंबई की लाइफ का और अब तो मुंबई ही क्या हर छोटे बड़े शहरों का यही हाल है।

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