'स्पोर्ट्स डे' की तरह ही स्कूल के 'वार्षिक प्रोग्राम' की तैयारी भी बड़े लगन और मेहनत से की जाती है.पर इसमें सारा दारोमदार टीचर पर होता है.प्रोग्राम के चयन से लेकर सैकड़ों बच्चों में से कुछ को चुनना फिर रिहर्सल करवाना.कॉस्टयूम निश्चित करना..आजकल वार्षिक प्रोग्राम जैसे स्कूल का एक 'प्रेस्टीज इशु' बन गया है और स्कूलों में होड़ लगी होती है कि किनका प्रोग्राम सबसे अच्छा होता है.
जब पहली बार मैंने सुना कि वार्षिक प्रोग्राम प्रतिष्ठित 'भाईदास हॉल' में होगा तो बडा आश्चर्य हुआ था.स्कूल कम्पाउंड में 'स्पोर्ट्स डे' की तरह भी कर सकते थे.हज़ारों रुपये खर्च कर इतना शानदार हॉल लेने की क्या जरूरत.इस हॉल में 'जगजीत सिंह' जैसे बड़े बड़े कलाकारों के प्रोग्राम होते हैं.स्कूल से एक घंटा लग जाता है जाने में.पर देखने के बाद पता चला.इतना अच्छा 'साउंड एन लाईट इफेक्ट' ,बार बार बदलते दृश्य बिलकुल प्रोफेशनल अंदाज़ में.यह स्कूल के स्टेज पर मुश्किल था.मुंबई में ज्यादातर स्कूल दो शिफ्ट में चलते हैं.सुबह ७ से १ बजे तक पांचवीं से दसवीं कक्षा.फिर १ से ६ बजे तक पहली से चौथी तक.एक क्लास के ८ से १० डिविज़न होते हैं और हर डिविज़न में ६० बच्चे.अब सभी बच्चों के माता-पिता को तो आमंत्रित करना ही होता है.लिहाज़ा ३ दिन तक प्रोग्राम के दो शो किये जाते हैं.पहले तो कार्ड पर लिखा होता था केवल दो लोगों को ही अनुमति है..पर पिछले २,३, साल से पहचान पत्र लेकर जाना होता है और सिर्फ माता-पिता को ही प्रोग्राम देखने की अनुमति है.मुझे यह व्यवस्था थोड़ी खटकती है, क्यूंकि जिन बच्चों के नाना-नानी,दादा-दादी साथ रहते हैं.उनकी भी तो इच्छा होती होगी कि अपने नौनिहालों का प्रोग्राम देखें.पहले फिर भी जो लोग नहीं जाते उनसे कार्ड लेकर उन्हें ले जाया जा सकता था .पर मुंबई की अपनी मजबूरियाँ हैं.
यहाँ स्कूलों में वार्षिक प्रोग्राम को इतनी गंभीरता से लिया जाता है कि नाटकों के लिए बाकायदा रंगकर्मी और नृत्य के लिए कोरियोग्राफर बुलाये जाते हैं.इच्छुक बच्चों का ऑडिशन लिया जाता है और उपयुक्त पाने पर ही उन्हें चुना जाता है.किसी पक्षपात की कोई गुंजाईश नहीं रह जाती वरना, टीचर्स बेचारों पर यह आरोप लग ही जाता था कि अपने, पडोसी,या फ्रेंड के बच्चे हैं, इसीलिए लिया है.ज्यादातर डांस फ़िल्मी गाने पर ही होते हैं यह बात नहीं जमती,इतनी भाषाओँ में ढेर सारे लोकगीत हैं.जिका उपयोग किया जा सकता है.
यहाँ विशेष अतिथि के रूप में 'फिल्म स्टार' को बुलाने का चलन है.एक बार मेरे पैरेंट्स यहाँ थे तो मैं दूसरों से एक्स्ट्रा कार्ड लेकर उन्हें भी साथ ले गयी थी.'गोविंदा' को मुख्य अतिथि के रूप में देखकर पापा बहुत नाराज़ हुए थे कि किसी शिक्षाविद को बुलाना चाहिए.मुझे भी ऐसा ही लगता था पर जब मैंने गोविंदा की बातें सुनीं तो लगा..शायद यही कोई शिक्षाविद कहते तो बच्चे बिलकुल ही नहीं सुनते.गोविंदा ने कहा कि 'बच्चों तुमने भगवान को तो नहीं देखा है पर माता-पिता तुम्हारे सामने हैं उन्हें ही अपना भगवान समझो.' बच्चों के साथ ये फिल्मस्टार नाचते हैं गाते हैं..पलभर को जैसे अपना बचपन भी जी लेते हैं बच्चों के बीच.जब जैकी श्रौफ़ ने अपने परिचित अंदाज़ में कहा था,"कैसा है बीड़ू?"तो सारे बच्चे खी खी कर हंस पड़े थे.
बच्चों का वार्षिक प्रोग्राम यानि पैरेंट्स की मुसीबत.एक बार छोटा बेटा 'कनिष्क' ,बाल मजदूर का रोल कर रहा था.डाइरेक्टर ने एक गन्दा शर्ट लाने को बोला.मैं जितने शर्ट भेजती सब लौटा देते 'नहीं और गन्दा चाहिए'.मेरी परेशानी देख सहेलियों ने कहा,ऐसा करो एक शर्ट से घर में पोछा लगा लो और वही सुखा कर भेज दो.अब यह तो नहीं कर सकती सो जानबूझक बर्तन जलाए कालिख बनाई और शर्ट से पोछा.पेंट से मिटटी जैसा रंग बना कर लगाया.उसके बावजूद स्टेज पर जाने से पहले उसके सर ने कहा बाहर जाकर लॉन से ढेर सारी मिटटी,अपने शर्ट,और हाथ मुहँ पर लगा कर आ जाओ.यही उसका मेकअप था.फिर भी सहेलियों ने कहा ये तो एकदम 'well fed' मजदूर है.इसके मालिक इसका अच्छा ख्याल रखते हैं.
कई बातें अब भी सीखने को मिल जाती हैं.एक बार किंजल्क' एंकर' था और उसे टाई सूट पहननी थी.मैंने सूट से मैच करता हुआ 'ग्रे कलर' का टाई दे दिया पर स्टेज पर देखते ही मेरी सहेली ने कहा.तुम्हे रेड कलर की टाई देनी चाहिए थी.दूसरे शो के लिए रेड दे देना.सचमुच फीका सा लग रहा था..उसने 'शाईमक डावर' की क्लासेस कीं थीं और बता रही थी कि शो के पहले ग्रीन रूम में शाईमक चिल्लाते रहते हैं,'आई वांट मोर कलर ..आई वांट मोर ग्लिटर '.स्टेज पर चटकीले और भड़कीले रंग ही अच्छे लगते हैं.
और एक मजेदार वाकया हुआ.मैंने अपने बेटे को ही नहीं पहचना.घर आकर उसने पूछा,'मेरा डांस कैसा था?'..जब मैंने कहा,'पर तुम तो एंकरिंग कर रहें थे' तब उसने बताया कि वह टाइम पास के लिए प्रैक्टिस में दोस्तों के बीच घुसकर डांस भी करता था .स्टेज पर जाते समय टीचर ने कहा,'तुम भी चले जाओ..बस कोट उतार कर रख दो.टाई ढीली कर लो,एक तरफ की शर्ट बाहर कर दो और बाल बिखेर लो. हो गया,'दस बहाने कर के.....' का कॉस्टयूम.पर मेरी सहेली ने उसे पहचान लिया था और बाद में बताया कि मैंने डर के मारे तुमसे नहीं कहा कि बोलोगी मेरे बेटे को भी नहीं पहचानती'
यहाँ सिर्फ स्कूलों में ही नहीं कोचिंग क्लास के भी वार्षिक प्रोग्राम होते हैं और मैंने नोटिस किया है कोचिंग क्लास के वार्षिक प्रोग्राम बच्चे ज्यादा एन्जॉय करते हैं क्यूंकि यहाँ उतना अनुशासन नहीं होता और टीचर्स ज्यादा फेंडली होते हैं.मैं किंजल्क से बहुत नाराज़ थी क्यूंकि बोर्ड एग्जाम सर पर था और वह रिहर्सल में लगा हुआ था.मैंने कह रखा था,'मैं देखने नहीं आउंगी'.फिर भी मुझे जाना ही था और उसे भी यह बात पता थी.ऑडिटोरियम में घुसते ही मैंने देखा किंजल्क स्टेज पर है. जाने पर पता चला वह 'impromptu speech' था.जिसमे स्टेज पर ही चिट उठाकर बोलना होता है.किंजल्क को विषय मिला था,'माँ की ममता' और माँ उस से इतनी नाराज़ थी.पर प्राइज़ उसे ही मिला..मैंने अपने workaholic husband के लिए बगल की कुर्सी खाली रखी थी कि यह प्रोग्राम तो रात में है,आ सकते हैं.और उसका नाटक शुरू होने के पहले आ भी गए.और हम दोनों स्तब्ध देखते रहें.किंजल्क जमूरा बना था,बालों में तेल लगाए,घुटने तक की पैंट पहन रखी थी, शर्ट कीबांह एक आधी और एक पूरी.इस गेटअप में भी वह किसी भी स्टेज फ्रायीट से बेखबर अपने अभिनय में मशगूल था.मेरे पति ने सिर्फ इतना कहा ,'अब बेटा बड़ा हो गया है'
किंजल्क स्कूल से निकल गया और कनिष्क के स्कूल के अंतिम वर्ष(9th ) में वार्षिक प्रोग्राम कैंसिल कर वे पैसे २६ /११ के विक्टिम्स को डोनेट कर दिए गए.
इसके बाद से मेरी भूमिका दर्शक से श्रोता की हो गयी.

चेतन भगत की Five Point Someone (जिसपर थ्री इडियट्स फिल्म बनी है) की शुरुआत में ही लिखा है."अगर आप इंजिनियर बनना चाहते हैं तो दो साल के लिए किताबों के साथ एक कमरे में खुद को बंद कर चाभी बाहर फेंक दें".और मैंने यह आँखों के सामने घटित होते भी देख लिया.दो साल किंजल्क सिर्फ किताबे,क्लासेस,होमवर्क और टेस्ट का ही होकर रह गया.
पर एक बार मनपसंद स्ट्रीम और मनपसनद कॉलेज में एडमिशन के बाद तो जैसे उसने कॉलेज एक्टिविटीज़ में खुद को डूबा लिया है.मेरे सामने भी एक नयी दुनिया खुलती जा रही है.नाटकों के इतने प्रकार होते हैं.spoof,situational drama ,hollywood-.bollywood.आदि .नुक्कड़ नाटक में ७,८,कलाकार होते हैं और एक कलाकर को ५,६ अलग अलग किरदार निभाने होते हैं और इसका प्रदर्शन किसी माल में या सडक के किनारे करना पड़ता है.जज भी भीड़ में ही खड़े होते हैं.और यह कोशिश करनी होती है कि सचमुच उनके नाटक से आकर्षित होकर भीड़ जुटे. हॉलीवुड-बॉलीवुड में एक हिंदी,एक अंग्रेजी फिल्मों को मिलाकर एक नयी कहानी बनानी होती है.situational acting में इन्हें किसी भी फिल्म के दो मिनट का सीन दिखाया जाता है और आगे ८ मिनट की कहानी खुद बनानी पड़ती है और आज शाम सीन दिया जाता है,दूसरे दिन प्रदर्शित करना होता है. रात के दस,ग्यारह बजे तक ये सीढियों पर रिहर्सल करते हैं.मेरी थोड़ी असहमति थी पर इनके टीम में लडकियां भी इतनी रात तक होती हैं.और प्रोग्राम भी हमेशा क्लासेस के बाद रात को ही होते हैं.बच्चे नाराज़ भी होते हैं कि ट्रॉफी तो कॉलेज वाले सजा लेते हैं पर रिहर्सल करने को एक कमरा भी नहीं देते.मुझे 'रंग दे बसंती' फिल्म याद आ गयी ,शायद हर कॉलेज में रिहर्सल सीढियों पर ही होती है
कई जगह इन्होने ईनाम भी जीता और ट्रॉफी और सर्टिफिकेट्स भी मिले.जब गिफ्ट वाउचर्स मिले तो ये बच्चे आश्चर्य में डूब गए.मुझे अपने दिन याद आ गए,रचना छप जाना ही बड़ी बात थी,जब १०० रुपये का चेक मिला था तो सुखद आश्चर्य हुआ था. इन्हें हज़ार- हज़ार रुपये के ३ गिफ्ट वाउचर्स 'लोखंडवाला' के जूते,घडी और कपड़ों के शोरूम के मिले. पर जब किंजल्क अपने भाई के बर्थडे में गिफ्ट करने को एक घडी लेने गया तो पता चला,वहाँ शुरुआत ही १५०० रुपये से थी.

यहाँ जज में अनुराग कश्यप,डौली ठाकुर,एलेक पद्मसी जैसी हस्तियाँ आती हैं.मैंने कह रखा है, कहीं से कोई ऑफर मिले तो ध्यान मत देना,बेसिक एडुकेशन बहुत जरूरी है.फिर भी यकीन नहीं था.पर जब डौली ठाकुर ने इनके नुक्कड़ नाटक (विषय था..'पप्पू कांट वोट.....")से प्रभावित होकर कहा कि वे महाराष्ट्र सरकार को लिख देती है."तुम लोग, जनता को जागरूक करने के लिए जगह जगह जाकर इसका प्रदर्शन करो' तो सब बच्चों ने मना कर दिया.'एलिक पद्मसी' ने भी पृथ्वी थियेटर का एक ग्रुप ज्वाइन करने को कहा तब भी इनलोगों ने इनकार कर दिया कि पढ़ाई पर बहुत असर पड़ेगा. और शायद ये बच्चे हकीकत से वाकिफ भी हैं क्यूंकि आसपास ही देखते हैं कितने ही टी.वी. कलाकार दो महीने तो दिन रात काम करते हैं,बर्थडे 'फाइव स्टार' में मनाते हैं और अगले चार महीने गार्डेन में बैठे गिटार टुनटुनाते रहते हैं और ढाबे में खाना पड़ता है.इसीलिए शायद ग्लैमर का आकर्षण थोड़ा कम है.
फिर भी मैंने फिंगर क्रॉस करके ही रखी है कि इसका मन कभी ना डोले और कोई ऑफर भी ना मिले.