रविवार, 12 जून 2011

फिल्म 'स्टेनली का डब्बा' के बहाने

किसी भी बच्चे के लिए उसके  टिफिन  का डब्बा कितना महत्वपूर्ण होता है..शायद हम नहीं महसूस कर सकते. अक्सर माताएं बच्चों को टिफिन में क्या देना है..इसका ख़ास ख्याल रखती हैं. माँ जिस प्यार से बच्चे के लिए टिफिन रखती है...बच्चा भी व्यक्त करे या ना...पर इसे महसूस जरूर करता है....{प्रसंगवश,याद आ गया ...आज ही अखबारों में "ज्योतिर्मय डे' (J Dey ) से जुड़े आलेख पढ़ रही थी .  मुंबई से निकलनेवाले एक अखबार 'Mid Day'  के क्राइम रिपोर्टर J Dey की  कल शनिवार की दोपहर...बीच सड़क पर गोली मारकर हत्या कर दी गयी. उनके एक सहयोगी ने उन्हें याद करते हुए कहा है...कि दो दिन पहले ही ,वे लोग साथ में लंच कर रहे थे...और J  Dey  ने अपना टिफिन खोलते हुए कहा था..""My mother packed it for me...It is a declaration of a mother's love....all her love goes into making it for you and that's why it tastes so good." J Dey को  हमारी विनम्र श्रद्धांजलि )

फिल्म 'स्टेनली का डब्बा ' में इसी टिफिन  के डब्बे के मध्यम से  एक बहुत ही संवेदनशील विषय को उठाने की कोशिश की गयी है. स्टेनली एक हंसमुख चुलबुला सा बच्चा है. और एक संभावित कहानीकार भी. टीचर ने अगर पूछ लिया..चेहरा गन्दा क्यूँ  है...तो पूरे एक्शन के साथ घटना बयाँ करता है कि माँ ने उसे कुछ लाने को भेजा..वहाँ उसने देखा एक छोटे लड़के को एक बड़ा लड़का पीट रहा था...फिर वो उस से भिड़ गया...और यूँ हाथ घुमाया...यूँ घूंसे जमाये...यूँ उठा कर पटका..." पूरा क्लास मंत्रमुग्ध हो उसकी बातें सुनता रहता है. टीचर के क्लास से बाहर जाते ही..बच्चे उसके पीछे पड़ जाते हैं..."स्टेनली फाइटिंग  की स्टोरी सुना,ना " और वो शुरू हो जाता है. रोज एक नई कहानी...जिसमे माँ ने उसे कहीं भेजा  होता  है.वो माँ पर एक रोचक निबंध भी लिखता है...कि 'उसकी माँ..बस से जम्प करती है...और ट्रेन में उछल कर चढ़ जाती है..उसकी माँ एक  सुपरवुमैन है '.

पर जब लंच-टाइम होता है तो स्टेनली चुपचाप बाहर जाने लगता है. और किसी बच्चे के पूछने पर कहता है... मैं कैंटीन से बड़ा पाव लेने जा रहा हूँ. उसके पास टिफिन नहीं होता. वो बाहर के नल से भर-पेट पानी पीकर आ जाता है. एक हिंदी के शिक्षक हैं. 'वर्मा सर' उनकी आदत है..लंच-टाइम में बच्चों  की क्लास में ही घूमते रहते हैं..और सबकी टिफिन से कुछ ना कुछ लेकर खाते रहते हैं. लेकिन स्टेनली को देखते  ही हिकारत से कहते हैं..'डब्बा तो कभी लाता नहीं.." (मुंबई में लंच-बॉक्स को डब्बा ही कहा जाता है...) अब स्टेनली कहने लगता है...'वो घर जा रहा है...माँ ने गरमागरम खाना बनाया है उसके लिए "


कुछ दिन बाद ही उसके दोस्त ये राज़ जान लेते हैं कि वो घर  नहीं जाता, बल्कि सड़कों पर घूम कर वापस आ जाता है. स्टेनली कहता है..उसके मम्मी-पापा प्लेन से शहर के बाहर गए हैं..इसलिए वो डब्बा नहीं ला रहा. एक बड़ा सा चार डब्बे  का टिफिन लानेवाला लड़का ऑफर करता है कि जबतक तुम्हारी मम्मी नहीं आ जाती...हम तुम्हारे साथ टिफिन शेयर करेंगे. "लेकिन वो खड़ूस "स्टेनली आशंका जताता है ( टीचर्स के  नाम रखने का सदियों से चलता आ रहा,  सिलसिला आज भी वैसे ही जारी है ) "  और बच्चे रास्ता निकाल लेते हैं कि वो क्लास में रहेंगे ही नहीं. अब शुरू होती है...उन वर्मा सर और बच्चों के बीच आँख मिचौली. रोज ही बच्चे अपने टिफिन खाने का स्थान बदल देते हैं...और वर्मा सर की पकड़ में नहीं आते. एक दिन वर्मा सर उन्हें टेरेस पे पकड़ लेते हैं...पर सारा गुस्सा स्टेनली पर निकलते हैं...कि "उसने डब्बा नहीं लाया...अब नो डब्बा नो स्कूल...अगर डब्बा नहीं लाया तो स्कूल भी नहीं आ सकता"


स्टेनली का स्कूल आना बंद हो जाता है...सारे दोस्त उदास हैं...अब  जाकर दर्शकों को पता चलता है कि स्टेनली डब्बा क्यूँ नहीं लाता है. क्यूंकि स्टेनली एक बाल-मजदूर है और शाम से देर रात तक , अपने चाचा के होटल में काम करता है. टेबल साफ़ करता है...लोगो को सर्व करता है...बड़ी-बड़ी कढाई-देगची साफ़  करता है , प्लेटें पोंछ कर रखता है...और सोने से पहले अपने माता-पिता की तस्वीर के आगे मोमबत्ती जला कर उनसे दो बातें करता  है,...जो एक एक्सीडेंट में मारे गए थे. इसीलिए स्टेनली की हर कहानी के केंद्र में 'माँ' होती है.
पता नहीं कितने दर्शक नोटिस करते हैं....पर फिल्म के पहले ही दृश्य में स्टेनली के चेहरे पर चोट के निशान होते हैं.

होटल में खाना बनाने वाला,अकरम उसका दोस्त है...और वो एक टूटे फूटे टिफिन का जुगाड़ करता है और उसमे होटल का बचा खाना भर कर फ्रिज में रख देता है. अब स्टेनली गर्व से वो टिफिन लेकर स्कूल जाता है..अपने दोस्तों को ...अपने टीचर्स को अपनी टिफिन के स्वादिष्ट व्यंजन  खिलाता है..और साथ में रोज एक कहानी भी कि कैसे उसकी माँ, ने सुबह चार बजे उठ कर आलूदम बनाए...पनीर, लाने वो इतनी दूर गयी...आलू  लाने दादर गयी क्यूंकि वहाँ आलू सस्ते मिलते हैं...आदि..आदि ..


दर्शकों के मन में सवाल उठ सकते हैं कि स्टेनली एक बाल-मजदूर  होते हुए भी इतने अच्छे  स्कूल में कैसे पढता है...अच्छी अंग्रेजी कैसे बोल लेता है. यहाँ मुंबई में कई कैथोलिक स्कूल हैं..जिनकी फीस आज भी ५,६ रुपये है....गरीब बच्चों को कॉपी किताब से लेकर स्कूल-ड्रेस...जूते तक स्कूल से मिला करते हैं. और इनकी पढ़ाई का स्तर इतना अच्छा है कि बड़े घर के बच्चे भी इसमें पढ़ते हैं.मेरी कॉलोनी में ही एक स्कूल है जिसमे कामवालियों के बच्चे, ऑटो चलाने वालों के बच्चों  के साथ मल्टीनेशनल कम्पनीज के  GM...CEO ' के बच्चे भी एक साथ पढ़ते हैं.(इसका  जिक्र मैने
इस पोस्ट में भी किया था )


इस फिल्म के लेखक -निर्देशक अमोल गुप्ते ने 'तारे जमीन पर' फिल्म की कहानी भी लिखी थी और उसके क्रिएटिव डायरेक्टर भी थे. 'वर्मा सर' के रूप में अमोल गुप्ते ने अच्छा अभिनय किया है..दिव्या दत्ता...राज़ जुत्शी...राहुल सिंह ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है...पर बाल कलाकार स्टेनली की भूमिका में पार्थो ने बहुत ही सहज अभिनय किया है.


पता नहीं..ऐसे कितने स्टेनली हमारे आस-पास हैं और वो फिल्म वाले स्टेनली जैसे भाग्यशाली भी नहीं कि स्कूल जा सकें. ऐसे ही एक स्टेनली का किस्सा डॉ. अमर कुमार जी ने अपने ब्लॉग कुछ तो है...जो कि  पर लिखा है. जिसे पढ़कर मुझे इस फिल्म की याद आई...और कुछ लिखने का मन हुआ.  हालांकि मन बहुत ही दुखी है...विक्षुब्ध है....हम देश की प्रगति पर गर्व करते हैं...बड़े बड़े मुद्दों  पर बहस करते हैं...पर जब अपने देश के इन मासूम-नाजुक  बिरवों की  ही साज-संभाल नहीं कर सकते फिर क्या फायदा इन सब बातों का.

आज
१२ जून है, बाल श्रम निषेध दिवस....पर क्या बदल जायेगा...आज या..आज के बाद

45 टिप्‍पणियां:

  1. .
    तो... मेरी पोस्ट किसी को प्रेरणा भी दे सकती हैं, अहाहा हा... किंम आश्चर्यम !
    दरसल मेरा पोस्ट भी स्टेनली को देखने के बाद स्वयँ लिपिबद्ध होने को मचल उठा ।
    मुझे स्टेनली का उत्तरार्ध .. उसका मैला-कुचैला टिफ़िन का डिब्बा.. वर्मा सर के सम्मुख एक एक कर व्यँजन परोसना, उनका शर्मिन्दगी से फूट पड़ना फ़िल्म को एक कृत्रिम ऑरा की ओर धकेल देता है... फिर भी बालश्रम का मुद्दा ज़्वलँत तो है ही । 1982 से 1991 तक मैंनें कई किशोरों ( लगभग 14 बच्चों ) को नाई की दुकान, परचून वेंडर शॉप , होटलों से उठाया... उनमें से 10 को ग्रेज़ुऎट स्तर तक ले गया, 2 अध्यापक हैं, 6 सरकारी और गैर-सरकारी सँस्थानों में कार्यरत हैं, शेष अपना स्वतँत्र व्यवसाय कर रहे हैं ।
    यह उदाहरण मैंने अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने को नहीं दिया है, बल्कि यह दर्शाता है कि व्यक्तिगत स्तर पर भी इनका उद्धार किया जा सकता है... इनके मध्य स्वतः ही बुक-क्लॅब बन जाता है.. थोड़ी भागदौड़ और प्रयास से अधिकाँश को फ़्रीशिप भी मिल जाती है ।
    अब आप इस उदाहरण से प्रेरणा लेकर किसी दो बच्चे को सहारा दे दें, इससे नेक और सँतोष देने वाला कार्य अन्य कोई नहीं ।

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  2. स्टेनली के चित्रण के साथ एक ऐसे वर्ग को उभारा है , जिस पर हम फब्तियां तो कास लेते हैं , पर अकरम नहीं बन पाते

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  3. बच्चों के शोषण का सीधा संबंध ग़रीबी से है..

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  4. पहले अमर जी को साधुवाद ...हम तो सिर्फ बातें करते रह जाते है उन्होंने वास्तव में कुछ किया ...

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  5. फिल्‍म की चर्चा तो सुन रहे हैं, पर देखने का संयोग नहीं बन पाया है। पर आपकी इस पोस्‍ट ने देखने के लिए इच्‍छा को और बलवती कर दिया है। स्‍टेनली के बारे में पढ़कर मुझे मेरी छोकरा कविता सीरिज के काम करने वाले बच्‍चे याद आ गए।
    *
    जे डे को याद करना न केवल प्रासंगिक है,बल्कि जरूरी भी। विनम्र श्रद्धांजलि के हकदार तो वे हैं ही।

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  6. पोस्ट में जे.डे और स्टेनली के बारे में पढ़ कर जितना विचलित हुए उतना डॉअमर की टिप्पणी ने सम्बल दे दिया..अपने आसपास ऐसा करने का एक भी मौका मिल जाए तो जीवन सफल हुआ लगता है...

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  7. @अमर जी,
    फिल्म में कई कमियाँ हैं...और कई उजले पक्ष भी...ये फिल्म सिर्फ डेढ़ महीने में हर शनिवार को पांच घंटे की शूटिंग कर के बनाई गयी है.

    वर्मा सर का किरदार इतना विश्वसनीय नहीं लगता....इतना बड़ा टिफिन भी कोई लेकर स्कूल नहीं जाता. ऑल स्कूल कंसर्ट पर भी ज्यादा मेहनत नहीं की गयी है... पर फिल्म पर इस मुद्दे के सिवाय और ज्यादा लिखने की इच्छा नहीं थी...

    सबसे पहले तो आपको साधुवाद ..इतने अच्छे कार्य के लिए...लोगों को प्रेरणा मिलेगी.

    आपकी सलाह पर अमल करने की जरूर कोशिश करुँगी. किसी बच्चे का पूरा भार तो नहीं लिया...कि उनकी पूरी जिंदगी सँवर गयी हो....पर अपने सामर्थ्यनुसार बच्चों के लिए कुछ करती हूँ...जब एक बार अरविन्द मिश्र जी ने पूछ लिया था "और सचमुच कुछ आप करना चाहती हैं तो आगे आयें और बतायें कि आपने अपने बच्चों के अलावा और किसी बच्चे /बच्चों के लिए क्या किया है"

    तो मुझे बताना पड़ा था ये रहा लिंक

    http://mishraarvind.blogspot.com/2010/11/blog-post_08.html

    अन्यथा..उस संस्था की शर्त ही है कि चर्चा ना की जाए

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  8. aapne bahut achha likha h........film bahut achhi h........sur sach me shoshad aur garibi sath sath chalte h........hume badalne ki zarurat h.......

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  9. स्टेनली का दर्द सहानुभूति व
    अमर जी का उदारपन बधाई के पात्र है

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  10. रश्मिजी
    यह फिल्म तो अभी नहीं देख पाई किन्तु टी. वि पर कुछ अंश देखे और आपकी पोस्ट पढ़कर वर्मा सर का किरदार पढ़कर मुझे मलाड के एक सरकारी स्कूल के शिक्षक का स्मरण हो आया बात बहुत पुरानी है सन १९७५ की जब मेरा देवर इस स्कूल में कक्षा ३रि में पढ़ता था स्कूल का समय १२ से ५ तक था तो टिफिन में रोटी वगैरह नहीं रखकर मै कभी बिस्किट .कभी सेवफल रख देती थी मिश्रा सर उसके शिक्षक थे जब भी सेवफल रखती वो ही पूरा खा जाते |अब सर से कौन कहे ?बेचारा बच्चा भी कुछ कह नहीं पातान ही घर में और नहीं अपने शिक्षक को एक दिन जब स्कूल उसे लेने गई तब उसके एक क्लास मेट ने बताया |तब से रोटी देना शुरू की उसके डिब्बे में |
    अमरकुमारजी के कथन से पूर्णत सहमत अगर हम व्यक्तिगत रूप से भी कुछ बच्चो को पढ़ा सकते है तो ये योगदान भी कम नहीं है|
    बाल श्रम कानून कहाँ है ?बाल श्रम गरीबो का ही शोषण नहीं कर रहा ?आये दिन विज्ञापनों में ,टेलीविजन के रियलिटी शो में में कम करने वाले बच्चे क्या बक श्रम के अंतर्गत नहीं आते ?
    मैंने भी २३ बच्चे जिनके माता पिता दोनों मजदूरी करते है गाँव से आकर शहर में जहाँ काम चलत है वहां झोप डी बना कर रहते है बच्चे दिन भर पास के मन्दिरों के बाहर बैठ जाते थे हाथ फैलाकर उन बच्चो को इकट्ठा कर एक साल तक अपने घर के आंगन में ही कुछ सिखाने की कोशिश की फिर उन्हें पास के सरकारी स्कूलों में दाखिला करवा दिया \और आज उनके से ९ बच्चिय औए ३ बच्चे कक्षा ८वि में आये है इस साल |और कुछ बच्चे क्रम्श्ह ५वि ६वि में है |

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  11. @डा० अमर कुमार

    स्टेनली के बहाने ही सही, जानकारी पाकर अच्छा लगा। बेशक़ व्यक्तिगत स्तर पर भी इनका उद्धार किया जा सकता है, और किया जा भी रहा है, परंतु समस्या इतनी बडी है कि और अधिक लोगों का जुडना बहुत ज़रूरी है - चेन ईमेल/एसएमएस जैसे जेओमैट्रिक प्रॉग्रैशन की ज़रूरत है। कैसे हो?

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  12. कल समीर जी की उपन्यासिका पढ़ते हुए ऐसे ही बच्चों का ख्याल आया और बालश्रम को लेकर दोहरी मानसिकता पर तरस भी ...
    हमारे देश में बच्चे जो कार्य करते हैं , वे मजबूरी में ,दो जून की रोटी के लिए जबकि विदेशों में अपने शौक पुरे करने के लिए ...फर्क बस कार्य करने के ढंग और उनके साथ व्यवहार का है ...

    बाल श्रम से ज्यादा वर्क कंडीशन पर बात होनी चाहिए अब ...

    फिल्म की कथा सड़क के बच्चों की मानसिक अवस्था को दिखाती है , जरा -सा प्रेम इनकी जिंदगी बदल सकता है ...

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  13. सच में बदलाव आना ही चाहिए..... बच्चो का शोषण रुकना ही चाहिए

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  14. बाल श्रम पर जितनी दिल को छूती फिल्म स्टैनली का डब्बा बनाई गयी है उतनी अच्छी दूसरी याद नहीं पड़ती. आपने जिस तरह से इसकी समीक्षा की है वह भी उतनी ही सुंदर है. बधाई.

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  15. अविभावक के सरपरस्ती न होने कुछ बच्चों का बचपन खो जाता है,गरीबी में घर चलाने के लिए काम करना पड़ता है। इससे वे शोषण का शिकार होते हैं।

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  16. बाल मजदूरी इस देश का कलंक है लेकिन अधिकांश बाल मजदूरी माता-पिता के कारण ही है। उदयपुर के आसपास जनजातीय क्षेत्र है। वहाँ के अधिकांश बच्‍चे मजदूरी करते हैं और उनके माता-पिता ही उन्‍हें भेजते हैं। बड़े शहरों में ऐसे ही गाँवों से गए बच्‍चे हैं। पिता की शराब का खर्चा जो उन्‍हें उठाना है। हालात बदल भी रहे हैं लेकिन इतना कम प्रतिशत है कि जितना सुधरता है उससे कहीं अधिक बिगड़ जाता है।
    हमने तो यह फिल्‍म देखनी तो दूर नाम भी पहली बार ही सुना है। सच है बहुत ही खराब ज्ञान है हमारे पास फिल्‍मों का।

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  17. इस पोस्ट स्टेनली का डब्बा के बहाने बहुत कठिन सवाल छोड दिया जी आपने हमारे दिमाग में

    प्रणाम

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  18. स्टेनली के डिब्बे से अवगत कराने के लिए बहुत आभार -इसे बहुत समय पर पोस्ट किया गया है !

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  19. हमारे कालोनी में पड़ोस के घर में एक नौकर था ''भुनेसर'' ... गर्मी के दिनों में हम रात को बाहर खुले में खाट पर सोते थे... मैंने उसे पूरा अक्षर ज्ञान करा दिया था.... लिखना पढना तक.... बाद में उसके बाबूजी गुज़र गए तो वो गाँव चला गया... फिर खबर नहीं उसकी... हाँ इतना पता है कि मैट्रिक की परीक्षा पास कर लिया है भुनेसर..... नेपाल से बहादुर आके कालोनी में पहरेदारी का काम करते थे.. उसमे एक लड़का था... कोई पंद्रह साल का.. यानि उस समय मेरे ही उम्र का... नाम अब याद नहीं उसका... उसे भी हिंदी अंग्रेजी का अक्षर ज्ञान करा दिया था.. थोडा थोडा हिंदी पढने लगा था... हम उसे पढने बैठा देते थे और उसके बदले हम कालोनी में पहरेदारी करते थे... हम तीन दोस्त थे इसमें... कन्हैया और शैलेश.... कन्हैया आज कल झारखण्ड में पत्रकार है और शैलेश एल आई सी का एजेंट... तो ऐसे कितने ही काम हैं जो चुपचाप करते हैं कई लोग.... हाँ हमारे दूध वाले का लड़का था.. उसे भी मैंने मैट्रिक पास करवाया.. आज आई टी आई करके किसी बड़ी कंपनी में मैकेनिक है... हाँ एक और लड़का था चंद्रभान... वो किसी दुकान में काम करता था.. मंगलवार को उसकी छुट्टी होती थी... वो मेरे लिए चीनी पूडी लाता बना के और मैं उसे धनबाद स्टेशन पर बैठ के पढ़ता था... एक बार मेरे लिए एक जींस अपनी दुकान से चोरी काके लाया था जो मैंने नहीं ली... उसने वापिस कर दी... पकड़ा गया... मैं दुकान के मालिक से मिला... मेरे सारी बात समझाने पर उसे वापिस नौकरी पर रखा गया... आज उसी दूकान पर वह मैनेज़र है... अब तो बी ए भी कर लिया है चंद्रभान ने...
    ... समीक्षा अच्छी है... आम आदमी जब तक कोशिश नहीं करेगा तब तक देश में कुछ नहीं बदेलगा...

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  20. @शोभना जी,
    बहुत ही नेक कार्य करती रही हैं आप....उन बच्चों की प्रगति देख जो ख़ुशी मिलती होगी वो अतुलनीय होगी.

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  21. @अजित जी,
    फ़िल्मी ज्ञान कम है..पर बाकी चीज़ों का जो ज्ञान आपके पास है वो असीम है.

    आपने सही कहा....गरीबी ही अभिशाप है...फिर भी कई बार लालच भी एक कारण हो जाता है
    माता-पिता पैसों की लालच में छोटे-छोटे बच्चों को काम पर लगा देते हैं.
    उन्हें दुनिया में ज्यादा बच्चे लाने से भी परहेज नहीं होता...क्यूंकि जितने हाथ...उतने काम...और उतना ही पैसा.
    एक बात और गौर की है...कि लोग लडको को तो पढ़ाते हैं...लड़कियों को काम पर लगा देते हैं...मेरी कामवाली बाई की बेटी अच्छी थी पढ़ने में...उसे स्कूल से हटाकर एक फैक्ट्री में काम पर लगा दिया क्यूंकि बेटों की ट्यूशन फीस देनी होती है. जब हमने उसकी पढ़ाई जारी रखने के लिए कहा...और पैसे देने की पेशकश की..तो कहने लगी..."उसकी शादी के समय देना आप पैसे...पढ़-लिख कर भी क्या करेगी..शादी ही तो करनी है...लड़के अगर नहीं पढ़े तो चोर-उचक्के बन जायेंगे "

    एक और तर्क..कि लडकियाँ नहीं पढ़ेंगी तब भी....सीधी सादी ही रहेंगी...या तो घरों में बर्तन मांजेंगी...या फैक्ट्री में काम करेंगी...पर अगर लड़के नहीं पढ़े तो गलत रास्ते पर चले जायेंगे.

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  22. कहानी को बहुत अच्छे तरह से बाँधा है इस समीक्षा में ... मैने भी देख ली ये पिक्चर भला हो नेट का नही तो दुबई के सिनेमा में तो ऐसी फिल्में नही आतीं ... फिल्म अपना प्रभाव छोड़ती है ....

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  23. maine ye film dekhi to nahi par ab kah sakti hun ki padh zarur li...

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  24. बहुत मार्मिक। यादें, संस्मरण और गुज़रे हुए पल-चाहे सिनेमा के ही क्यों ना हों-फिर समेटने में आपका सानी नहीं। मुबारक...

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  25. एक ज्वलंत मुद्दे को बखूबी उकेरा है।

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  26. स्टेनली का डब्बा बहुत अच्छी लगी,

    आभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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  27. मुझे भी डा० साब की पोस्ट याद आई. और अभी उनकी टिपण्णी. क्या कहें... कुछ समस्याएं मेरी समझ से ज्यादा जटिल होती हैं.
    बाल मजदूरी पर मुझे हमेशा यही दिखता है कि बिना किसी सपोर्ट के मजदूरी से छुड़ा देना समस्या बढ़ा तो नहीं देता !

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  28. बदलता है रश्मि जी , सब कुछ बदलता है । जागरूक लोग बाल-श्रम के खिलाफ हैं। गति धीमी भले ही हो , लेकिन बदलाव तो आ ही रहा है।

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  29. बहुत अच्छी प्रेरक पोस्ट असल मे नेताओं का शोर शराबा और आज के आवाज़ उठाने वालों को केवल कुर्सियाँ ही दिखती हैं बडे बडे बोल कहते उनके गले नही थक्ते लेकिन इन्हेँ जनता और गरीबों का खून चूसने मे कोई भी कसर नही छोडता।डा. अमर कुमार जी का कहना बिलकुल सही है। हम व्यक्तिगत तौर पर ही कुछ करें तो बडी बात है। सब को ऐसे बच्चों की पढाई के लिये योगदान देना चाहिये। शुभकामनायें।

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  30. फिल्म के माध्यम से बाल श्रम के ऊपर जो विमर्श आरम्भ हुआ है वह अधिक सार्थक लग रहा है ! इसी विषय पर मैंने भी एक पोस्ट लिखी थी ! शायद यह विषयान्तर समझा जाये लेकिन उसकी लिंक देना चाहती हूँ यदि आपको कोई आपत्ति ना हो तो !

    http://sudhinama.blogspot.com/2009/04/blog-post_13.html

    फिल्म की समीक्षा हमेशा की तरह दिलचस्प है ! कहानी मन में करुणा जगाती है और गहराई तक उदास कर जाती है ! देखने की इच्छा है कब पूरी होगी यह देखना शेष है ! सुन्दर समीक्षा के लिये आभार !

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  31. @साधना जी,
    आपत्ति कैसी....बहुत ही अच्छा आलेख है..आपने समस्या के हर पहलू पर प्रकाश डाला है.

    मेरे ब्लॉग-जगत में आने से पहले आपने पोस्ट की है....... मैने सितम्बर २००९ में ज्वाइन किया है...और आपने इसे ....अप्रैल २००९ में पोस्ट किया है. इसीलिए मेरी नज़र नहीं पड़ी...नहीं तो मैने इसका जिक्र जरूर अपनी पोस्ट में किया होता

    लिंक देने का शुक्रिया

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  32. विषय की गम्भीरता को आपने अपने समीक्षात्मक आलेख के ज़रिए बखूबी आगे बढ़ाया है।

    जिन हाथों में काग़ज़ कलम होना चाहिए उन्हें कप प्लेट धोते गुज़ारना पड़ता है। बड़े शर्म की बात है। देश का दुर्भाग्य न कहूं तो क्या कहूं?

    आपकी इस पोस्ट और अमर जी की बातों ने मुझे कुछ पुराने दिन याद दिला दिए।

    टिप्पणी में लिख देता हूं तो यह काफ़ी लम्बी हो जाएगी।

    इसी पोस्ट में क्लू है कि अमर जी की पोस्ट ने आपको प्रेरणा दी इस पोस्ट को लिखने की।
    अब ये पोस्ट मुझे प्रेरणा दे रही है कुछ लिखने को

    ... देखूं कब फ़ुरसत में लिख पाता हूं।
    तब तक कुछ आकडों पर ग़ौर कीजिए ...
    (ज़ारी...)

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  33. • सरकारी आंकड़ो पर यदि गौर करे तो बाल श्रमिको की संख्या लगभग 2 करोड़ हैं परन्तु निजी स्रोतों पर गौर करे तो यह लगभग 11 करोड़ से अधिक हैं .
    • सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक हर साल तक़रीबन साठ हजार बच्चे ग़ायब हो जाते हैं। इनमें से अधिकांश को तस्करी के ज़रिए दूसरे राज्यों और देशों में भेजकर जबरन मज़दूरी कराई जाती है।
    • अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ के मुताबिक दुनिया का हर छठा बच्चा बाल मज़दूर है।
    • पांच से सत्तरह साल की उम्र के तक़रीबन 21.80 करोड़ बच्चे कामगार हैं, जिनमें से 12.60 करोड़ बच्चे खतरनाक उद्योगों या बदतर हालात में काम कर रहे हैं।
    • सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में दो करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं, जबकि गैर सरकारी अंस्थाएं यह तादाद पांच करोड़ मानती है।

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  34. फिल्म नहीं देखी है अभी, और अगले कुछ समय में देख पाऊँगा ऐसे आसार भी नहीं लगते।
    लेकिन विचारणीय समस्या तो है ही, और कहने को वही है जो अभिषेक ओझा जी कह गए हैं।

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  35. सबसे पहले J Dey को हमारी विनम्र श्रद्धांजलि.


    -स्टेनली का डब्बा देखना बाकी है किन्तु अब जब यह स्टोरी पढ़ ली, तो देखने की इच्छा प्रबल हो गई...

    न जाने कितने स्टेनली सदियों से आस पास है...हालात देखकर लगता भी नहीं..कि निकट भविष्य में स्थितियों में कोई बहुत ज्यादा परिवर्तन आयेगा...निश्चित ही नज़रिया बदल रहा है...शायद भविष्य बेहतर हो....

    दिवस वगैरह तो सिम्बोलिक ही हैं...कम से कम याद दिला जाते हैं.

    कभी ऐसा ही एक बालक मिला था जिसका दर्द मैं साथ लाया था अपने:

    http://udantashtari.blogspot.com/2009/01/blog-post.html

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  36. पुनः देखने के लिये एक नयी फिल्म के लिये मन उद्यत हुआ। कथित त्रासदी तो है ही, बाकी आप द्वारा टीपोक्त लड़के-लड़की के अलगहे विश्लेषण पर चुप रहूँगा, तजुर्बा भी कम है अपन को! अमर जी की सुंदर पोस्ट तक गया! संपूर्ण के लिये धन्यवाद!!

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  37. बढिया समीक्षा और गम्भीर मुद्दे पर सच्ची चिन्ता.
    अभी १३ जून को ही छुट्टियां मना के लौटी हूं, काफ़ी कुछ छूट गया पिछले दिनों.तुम्हारी सारी पोस्ट्स पढनी हैं :) पढती हूं एक-एक करके.

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  38. रश्मि जी, बहुत मार्मिक लगी ये स्टेनली की कहानी.
    हमारे आसपास भी ऐसे बच्चे मिल जाते हैं...इनके लिए सोचना हम सबका नैतिक कर्तव्य है.

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  39. ’ज्योतिर्मय डे’ को हमारी तरफ़ से भी श्रद्धाँजलि।

    आप समीक्षा करती हैं तो ऐसा लगता है जैसे सामने पर्दे पर फ़िल्म चल रही है। महत्वपूरं विषय है, डाक्टर साहब के दिये उदाहरण से हमें प्रेरणा लेनी चाहिये। वैसे मेरा मानना है हम में से बहुत से ऐसे हैं, जो गुपचुप अय्र यथासाध्य ये काम करते भी हैं। हाँ, और प्रयत्नों की जरूरत जरूर है।

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  40. स्टेनली का डब्बा... एक बच्चे ले लिए माँ का दिया डब्बा काफी महत्वपूर्ण होता है | आपका यह लेख बधाई का पात्र है |

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  41. ये फिल्म मैंने अब तक नहीं देखा, लेकिन अब देखने का पूरा मन बन गया पढ़ के

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  42. sundar lekh...stenli ke bahane aapne desh ke kadve yatharth se rubaru karane ka umda prayas kiya hai...umeed yahi hogi ki desh ki ye fiza badle aur bachhe majdoori karte nahi balki shiksha ke mandiron me padte najar aaye......

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  43. पता नहीं कब तक स्टान्ली'ज को यह भोगते रहना होगा :(

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फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...