शुक्रवार, 17 जून 2011

दूसरों की खातिर शहीद होने की राह पर : शर्मीला इरोम

अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के अनशन से पूरा देश हिल उठा...आम जनता....मिडिया..व्यस्त हो उठे  और प्रशासन.....राजनेता...त्रस्त हो गए

बाबा रामदेव का अनशन ख़त्म करवाने के लिए क्या क्या उपाय और तिकड़म लगाए गए...इस से सब वाकिफ हैं. वहीँ  साधू निगमानंद  ने ११५ दिनों  के अनशन  के बाद दम तोड़ दिया....और किसी को सुध नहीं आई. अब उनकी मौत के पीछे एक साज़िश थी....इस तरह की खबरे आ रही हैं.पर किसी स्वार्थवश सरकार की उदासीनता भी एक वजह तो थी ही.

पर एक और महिला पिछले ग्यारह साल से अनशन पर हैं....और आम जनता को खबर तक नहीं है. शर्मीला इरोम,
भारतीय सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम 1958 को हटाये की मांग को लेकर  11 सालों 
 से भूख हड़ताल  बैठी हैं.11 सितम्बर, 1958 को भारतीय संसद ने सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून [आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (ए.एफ.एस.पी.ए)]  पारित किया . शुरू में इसे 'सात बहनों' के नाम से विख्यात पूर्वोत्तर के सात राज्यों असम, मणिपुर, अरुणांचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में लागू किया गया . 1990 में इसे जम्मू कश्मीर में भी लागू कर दिया गया. बेकाबू आतंरिक सुरक्षा स्थिति को नियंत्रित करने केलिए सरकार द्वारा सेना को यह विशेषाधिकार दिया गया.

इम्फाल से 10 किलोमीटर मालोम (मणिपुर) गाँव के बस स्टॉप पर बस के इंतज़ार में खड़े 10 निहत्थे नागरिकों को उग्रवादी होने के संदेह पर गोलियों से निर्ममतापूर्वक मार दिया गया. मणिपुर के एक दैनिक अखबार 'हुयेल लानपाऊ' की स्तंभकार और गांधीवादी 35 वर्षीय इरोम शर्मिला 2 नवम्बर 2000 को इस क्रूर और अमानवीय क़ानून के विरोध में सत्याग्रह और आमरण अनशन पर अकेले बैठ गई.  6 नवम्बर 2000 को उन्हें 'आत्महत्या के प्रयास' के जुर्म में आई.पी.सी. की धारा 307 के तहत गिरफ़्तार किया गया और 20 नवम्बर 2000 को जबरन उनकी नाक में तरल पदार्थ डालने की कष्टदायक नली  डाली गई.  पिछले 11 साल से उनका सत्याग्रह जारी है. शर्मीला का कहना है कि जब तक भारत सरकार सेना के इस विशेषाधिकार क़ानून को पूर्णतः हटा नहीं लेती तबतक उनकी भूख़ हड़ताल जारी रहेगी.

शर्मिला के समर्थन में कई महिला अधिकार संगठनों ने इम्फाल के जे. एन. अस्पताल के बाहर क्रमिक भूख़ हड़ताल शुरू कर दी है, यानी कि समूह बनाकर प्रतिदिन भूख़ हड़ताल करना.  शर्मिला के समर्थन में मणिपुर स्टेट कमीशन फॉर वूमेन, नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन, नेशनल कैम्पेन फॉर दलित ह्यूमन राइट्स, एकता पीपुल्स यूनियन ऑफ़ 
ह्यूमन राइट्स, ऑल इंडिया स्टुडेंट्स एसोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आदि शामि
ल हैं...विदेशों से भी कई संगठन उनका समर्थन कर रहे हैं...पर अपने देश के सरकार के कान पर जून नहीं रेंगती.
      
उनकी मांग सही है या नहीं.......वे पूरी की जा सकती हैं या नहीं....ये एक अलग विषय है. पर शर्मीला को अपना अनशन तोड़ने के लिए तैयार तो किया जा सकता है...क्या उनकी जान की कोई कीमत नहीं है? उन्हें भी जीने को एक ही जिंदगी मिली है. पिछले ग्यारह साल से उन्होंने मुहँ में कुछ नही डाला...किसी चीज़ का स्वाद नहीं जाना....ये सब उनके मौलिक अधिकार का हनन है..सरकार की जिम्मेवारी नहीं कि वो अपने एक नागरिक के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करे??
  बाबा रामदेव के स्वास्थ्य की पल-पल खबर मिडिया में प्रसारित हो रही थी. उनके स्वास्थ्य बुलेटिन जारी किए जा रहे थे. सिर्फ नौ दिन के उपवास में उनके अंग-प्रत्यंगों पर होने  वाले दुष्प्रभावों की चर्चा की जा रही थी. १० साल के उपवास से ,शर्मीला के लीवर-किडनी-ह्रदय पर क्या असर हुआ है...इस से किसी को सरोकार नहीं. इसलिए कि वो एक  आम इंसान हैं?? यानि कि किसी आम इंसान को अपनी आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं?? 

जबतक हज़ारों-लाखों की तादाद में उनके समर्थक ना हों...किसी को अपनी बात  कहने का हक़ नहीं...और अगर किसी ने कहने की कोशिश की भी  तो उसका कोई असर किसी पर नहीं पड़ेगा. उसका सारा प्रयास व्यर्थ जाएगा... चाहे वो अपनी जान भी क्यूँ ना दे दे. और हमें गर्व है कि हम एक जनतांत्रिक देश में रहते हैं...जहाँ का शासन जनता के लिए और जनता के द्वारा है.

शर्मीला के अनशन को बिलकुल ही नज़रंदाज़ किया जा रहा है...क्या इसलिए कि वे जिन मुद्दों के लिए लड़ रही हैं..उस से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जिन मुद्दों को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं...उस से कहीं ना कहीं हमें भी लाभ होनेवाला है. इसीलिए हम भी उनका साथ दे रहे हैं....इसका अर्थ है..इतने स्वार्थी हैं हम.


मणिपुर के वासियों  की भाषा-रीती-रिवाज-रहन-सहन हमसे अलग हैं...पर है , तो वो  हमारे ही देश का एक अंग. वहाँ, भी उसी उत्साह से स्वतंत्रता दिवस..गणतंत्र दिवस मनाये जाते हैं...राष्ट्रगीत गाया जाता है. क्रिकेट विश्व-कप जीतने पर खुशियाँ मनाई जाती हैं...हिंदी फिल्मे देखी जाती हैं. फिर  वहां  की समस्याओं से...हमारी ही एक बहन के इस आमरण अनशन से हम यूँ निरपेक्ष कैसे रह सकते हैं??


वहाँ के मुख्यमंत्री...अन्य मंत्रीगण..सांसद क्यूँ नहीं प्रयास करते कि समझौते की कोई राह निकले...और शर्मीला अपना  अनशन ख़त्म करे. शायद केंद्र सरकार पर वहाँ की  उथल-पुथल से कोई दबाव नहीं पड़ता. इसलिए भी सरकार यूँ उदासीन है.


और मिडिया को भी शायद ये अहसास है कि शर्मीला इरोम के आन्दोलन को प्रमुखता देकर वह सरकार पर कोई दबाव नहीं बना सकती ,इसीलिए  वो भी चुप है.

यानि एक और निगमानंद ..अपने लोगो के हक़ के लिए लड़ते हुए
शहीद हो जाने की राह पर हैं...और हम सब चुपचाप, उसका यूँ  पल-पल मौत के मुहँ में जाना देखते रहेंगे.

84 टिप्‍पणियां:

  1. छह नवम्बर २००० को, यानी हड़ताल शुरु करने के तीसरे दिन ही पुलिस ने उन्हें आत्महत्या के प्रयास के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया। तभी से जेल भेजी जाती हैं, छूटती हैं, फिर जेल भेज दी जाती हैं। जेल में नाक से नली लगाकर उन्हें जबरदस्ती भोजन दिया जाता है। उनका संघर्ष नायाब है। गांधीजी के सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत पर चलकर इनका संघर्ष बेमिसाल है।
    *** आपके आलेख में उठाए गए प्रश्न पर यह कहना है कि ऐसे संघर्ष करने वाले की सुध सरकार को शीघ्र लेनी चाहिए, उनके स्वास्थ्य के ऊपर भी अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए।

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  2. रश्मि जी

    मिडिया बिलकुल नहीं भुला है साल दो साल में एक बार उन्हें शर्मिला जी की याद आ जाती है, उनकी फोटो दिखा कर चीख चीख कर उनके लिए न्याय की मांग की जाती है और शाम तक फिर भुला दिया जाता है आगे के कुछ सालो तक के लिए लोगो को भी उनके साथ सहानभूति होती है ओए बदफ में वो भी उसको भूल जाते है | जिस लोकतंत्र की बात हो रही है असल में वो भीड़ तंत्र है यहाँ भीड़ का राज चलता है और भीड़ की ही सुनी जाती है इसलिए बाबा और अन्ना दोनों के आन्दोलन को समर्थन दे कर उसे जिन्दा रखना चाहिए ,हमें मुद्दों का समर्थन करना चाहिए न की व्यक्ति का क्योकि यदि अकेला कोई व्यक्ति खड़ा हो कर कुछ कहेगा तो सरकार तो दूर की बात खुद अपने लोग भी उसकी बात नहीं सुनते है किन्तु जब वही बात समूह में कही जाये सभी मिल कर कहे तो जरुर सुनी जाती है | वरना अकेले का हाल वही होता है जो शर्मीला जी का हो रहा है और कई अन्यो का हो चूका है | इसलिए जब आज की तारीख में हम अपनी ६० साल से ऊपर की चिरनिद्रा से जागे है तो इस आन्दोलन को किसी एक अंजाम तक पहुंचा कर दम लेना चाहिए न की उसे बिच में ही छोड़ कर फिर सोने के लिए चले जाना चाहिए | यदि ये आन्दोलन सफल रहा तो निश्चित रूप से शर्मीला जी के साथ भी बहुत लोग आगे आएंगे और एक दिन उन्हें भी अपने आन्दोलन में सफलता मिलेगी |

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  3. सोच ही रहा था कि ब्लाग-संसार अन्ना-रामदेव के इस शोर में इस रिचुअल से अलग तपस्विनी को क्यों बिसराया है, इस बीच आपका यह इरोम पर लिखा लेख अनिवार्य भूमिका को निबाह रहा है! आभार!!

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  4. क्या हम काठ के हो गए है ..नहीं हमारा राजा काठ का है

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  5. किसी आम इंसान को अपनी आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं..... आम तो आम ही होता है न , कई फाइलों के नीचे दबा पड़ा

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  6. शर्मिला के सत्याग्रह और उसके उद्देश्य से पूरी सहमति होते हुए भी यही निवेदन करूँगा कि उनका अनशन रुके और वे शीघ्र ही स्वस्थ और सामान्य हों। स्वामी निगमानन्द प्रकरण के बाद यह और भी स्पष्ट हुआ है संघर्ष के दूसरे प्रभावकारी, समंवयात्मक (बहुजन-सहयोगात्मक) और गैर-आत्मघाती मार्गों के विकल्प ढूंढे जायें। विशेषकर समाजशास्त्री यह देखें कि कैसे आन्दोलन सफल हुए, उदाहरण के लिये "चिपको" और उनकी शक्ति क्या थी।

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  7. जरुरी है यह मुद्दा उठाना वरना मार्केटिंग के इस जमाने में .......संवेदना भी उसी के साथ जाती हैं जो अपने दर्द/मुद्दे की मार्केटिंग सफलता से कर ले.

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  8. संवेदनहीन समाज, गूंगी बहरी सरकार, और सत्ता की हड्डियां चाटता मीडिया... ऐसे में इन शहीदों की कोइ गिनती नहीं.. शहीदों ने तो जमुना का पूरा किनारा कब्ज़ा कर रखा है.. किसी ने ठीक कहा था कि राजधानी का बड़ा हिस्सा मुर्दों ने घेर रखा है और बाकी का बड़ा हिस्सा उनकी मूर्तियों ने.. लिहाजा इन शहीदों के लिए, जिनका आपने ज़िक्र किया फुटपाथ ही बचा है, अनशन करने और गुमनामी की मौत पाने के लिए!!

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  9. पिछले कुछ दिनों की घटनाएँ देखकर तो यही लगता है कि इस देश में अनशन का कोई महत्व नहीं है ! सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता ! कंठ तक भ्रष्टाचार और स्वार्थ में डूबी सरकार से उम्मीद भी क्या की जा सकती है ! जब तक हम सिस्टम को नहीं बदलते कुछ नहीं हो सकता !
    शर्मीला जी एक नेक मकसद को लेकर लड़ रही हैं मिडिया को यह बात लोगो तक पहुँचानी चाहिए !

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  10. बेहद उम्दा आलेख है ... पर आप मिडिया की बात ना करें ... अब मिडिया में कोई दम नहीं रह गया ... कोई भी चैनल खोल कर देख लीजिये ... खबरे कम और आईटम सोंग ज्यादा दिखने को मिलते है ... ऐसा एक और क्या एक लाख सत्याग्रही दम तोड़ दे उनकी बला से ... मिडिया से तो बढ़िया किन्नर है जो कम से कम किसी की मौत पर खुशियाँ मनाने तो नहीं आते ... मिडिया का क्या है ... उनको तो सिर्फ़ मसाला चाहिए ... राम लीला मैदान में आंसू गैस छोड़े जाने के बाद एक बदहवास महिला से पुछा जा रहा था ... क्या आपका दम घुट रहा है ... कैसा लग रहा है आपको ??? हद है कमीनेपन की !

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  11. आज ही मेरे मुँह से निकला... बाबा, बाबा, बाबा.... अब बस भी करो, बाबा !
    और आपकी पोस्ट मेरे सामने है । पर ऎसा नहीं है रश्मि जी, कि लोग उन्हें भूल गये हैं... इरॉम चानु शर्मिला जिन्हें मनिपुरी प्यार से मेंघौबि ( साफ सुथरा व्यक्तित्व ) भी कहते हैं, को भूलना एक धृतराष्ट्रीय अति होगी । बस इतना है कि उन्हें सामूहिक हिस्टीरिया ( Mass Hysteria, Mass frenzy ) पैदा करने का गुर नहीं आता । मीडिया किसी भी आम आदमी को बाँस की फुनगी पर चढ़ा कर खास आदमी में तब्दील कर देती है... उसकी यह मज़बूरी बाज़ारवाद से जुड़े होने की वज़ह से है ।
    मिट्टी को सोना साबित करके बेचना ही उनका पेशा है.. दूसरे पलड़े पर भारतीय जनमानस आता है, भारत के मुख्य-भूमि के लोग कुछ हद तक कश्मीर और बहुत हद तक पूर्वोत्तर को अब तक अपने को अलग रख कर देखते हैं, यही वज़ह है, उनकी तक़लीफों और सँघर्ष की कहानी हमारे लिये कोई मायने नहीं रखती ।
    इन दोनों पलड़ों को सँतुलित करने वाला बँदर भारत सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था है... नवम्बर 2004 के आस पास मैं मिज़ोरम और नागालैंड को देखने समझने गया था.. तो कई जगह पर मुझे इँडियन कह कर सँबोधित किया गया.. क्योंकि मुख्यभूमि ( MainLand ) से वहाँ पहुँचने वाले को परमिट लेना पड़ता है, यह बात हमें उनसे अलग करती है ! सिक्किम तक में छँगपा झील को देखने के लिये मुझे अस्थायी अनुमतिपत्र लेना पड़ा... दो जगह सघन तलाशी हुई ( तलाशी लेने वा्ले जवान झाँसी और आगरा के थे ! )
    इन सभी परिप्रेक्ष्य में हिन्दी मीडिया के लिये पूर्वाचँल की खबरों की टी.आर.पी. ( राम जाने यह क्या होता है ) नगण्य है । और मीडिया.... बाज़ारवाद से जुड़े होने की वज़ह से मिट्टी को सोना साबित करके बेचना ही उनका पेशा रह गया है । और जनता... मीडिया के समक्ष वह एक तमाशबीन से अधिक की हैसियत नहीं रखती.. वह जो पढ़ायेंगे हम वही गायेंगे ।
    इस माहौल में इरॉम चानु शर्मिला को स्मरण करने के लिये आपका आभार ! 2 नवम्बर 2000 को वह वृहस्पतिवार के अपने नियमित धार्मिक उपवास पर थीं.. उस दिन के घटनाक्रम नें उन्हें उन्हें इस कदर हिला दिया कि उन्होंनें हताशापूर्ण क्षोभ में यह प्रण ले लिया कि इस बर्बर कानून के हटने पर ही उनका व्रत टूटेगा ... आगे की कहानी क्या कहें ?

    वैसे तो Comment moderation भी हमारी अभिव्यक्ति स्वतँत्रता पर छायी हुई धुँध है, इसके उस पार आम पाठक देख ही कहाँ पाता है । यहाँ दर्ज़ करा दिया, ताकि सनद रहे और सोचने के काम आवे :(

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  12. मीडिया केवल सनसनी और सेलिब्रिटी वाली खबरों को हायिलाईट करती है -दुखद दास्ताँ !

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  13. यानि कि किसी आम इंसान को अपनी आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं??

    बिल्कुल सही कह रही हो …………आम इंसान को खास कैसे बनाया जा सकता है वरना इस सरकार की क्या खासियत रह जायेगी।

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  14. अपने अपने व्यथित संसार, विश्व का क्या होगा?

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  15. रश्मि जी,

    नींव के पत्थर हमेशा अंधेरे में रहने को अभिशप्त होते हैं जबकि उन्हीं नींव के पत्थरों की बदौलत इमारत खड़ी होती है। इस तरह के प्रत्येक प्रयास नींव के पत्थर की तरह ही हैं। जिनके थोड़े थोड़े प्रयासों के कारण ही कुछ सुधार, कुछ नये तरह का प्रतिफल नजर आये।

    रही बात मीडिया में हाइलाइटेड होने की या फिर मीडिया हाईप की तो आज उसी का जमाना है। यदि भगवान भी स्वंय आकर इस धरा पर अपने को लोगों से परिचित कराना चाहें तो उन्हें भी प्रचार तंत्र का सहारा लेना पड़ेगा क्योंकि जनता ज्यादातर वही जानती मानती है जो सामने येन केन दिखाया बताया जाता है, अमूमन अपनी सोच समझ लगाना जनता ने कब का छोड़ दिया है वरना मजाल है जो कि कोई कंपनी का नमक सिर्फ इस बात के लिये खरीदवाये क्योंकि ऐसा टीवी पर दिखाया गया है कि फलाना नमक जरर्र से गिरता है....अब जर्रर से गिरने में और न गिरने में नमक के स्वाद में क्या फर्क आ जाता है सो वही लोग जानें ।

    पूर्वी क्षेत्र के समाचारों को वैसे भी कम दिखाया जाता है। मीडिया वाले वहां की खबरें नहीं के बराबर दिखाते हैं। जब देखो तब दिल्ली, यू.पी, हरियाणा आदि छाये रहते हैं। मानों सारा गड़बड़ झाला, सारी खराबी इन्हीं प्रदेशों में छाई है। इस वजह से हिंदी प्रदेशों की क्या छवि बनी है सो जगजाहिर है जबकि अपराध हर जगह होते हैं।

    इस अनशन के बारे में आपके ब्लॉग पर ही जाना। जाने कब लोग इनकी सुध लेंगे।

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  16. aapne bahut mehnat se sharmila ji ke anshan ke mudde ko blog jagat ke saamne rakhaa hai, adhiktar prashansaa ke swaro ke beech mai thodee sa mat apna rakhne kaa dussaahas kar rahaa hoon.


    11 सितम्बर, 1958 को भारतीय संसद ने सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून [आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (ए.एफ.एस.पी.ए)] पारित किया . शुरू में इसे 'सात बहनों' के नाम से विख्यात पूर्वोत्तर के सात राज्यों असम, मणिपुर, अरुणांचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में लागू किया गया .

    bahas pahle is par ho ki ye kaanoon bharat rashtra ke hit mai hai ya in saat bahno ke naam se vikhyaat saath raajyo ke prati party vishesh kee saajish hai. agar rashtra hit mai hai to phir iskaa virodh rashtra hit mai nahe hai.

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  17. मणिपुर के एक दैनिक अखबार 'हुयेल लानपाऊ' की स्तंभकार और गांधीवादी 35 वर्षीय इरोम शर्मिला 2 नवम्बर 2000 को इस क्रूर और अमानवीय क़ानून के विरोध में सत्याग्रह और आमरण अनशन पर अकेले बैठ गई. 6 नवम्बर 2000 को उन्हें 'आत्महत्या के प्रयास' के जुर्म में आई.पी.सी. की धारा 307 के तहत गिरफ़्तार किया गया और 20 नवम्बर 2000 को जबरन उनकी नाक में तरल पदार्थ डालने की कष्टदायक नली डाली गई.

    ek galat ghatna hui uskee nindaa honee chahiye aur satta ke sheersh par baithe logo ko iskee punraavritti naa ho aise kadam uthane ke liye vivash kiya jaanaa chaahiye. lekin uskaa tareekaa kyay ho. vo patrakaar thee. kalam kee taakat se unhe sarkaar par ahaadna chahiye tha. apne saathee patrakaaro ko saath lekar ek aandolan chhedna chahiye tha. desh hit ko sarvopari rakhte hue kya sudhaar ho saktaa hai iske liye ladai ladnee chahiye thee. sarkaar unke mudde se sahamat nahee thee. aamaran anshan bhee ek tarah kee aatm hatyaa hee hai aur prashasan ne anshan tudwaane ke liye jo prayaas kiye vo unkee jimmedaree thee. varnaa prashasan kee naak ke neeche hone wali atm hatyaa keliye prashaasan bhi samaan doshee hotaa.

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  18. शर्मीला का कहना है कि जब तक भारत सरकार सेना के इस विशेषाधिकार क़ानून को पूर्णतः हटा नहीं लेती तबतक उनकी भूख़ हड़ताल जारी रहेगी.

    yah bataane kee jaroorat nahee ki desh hit me kaanoon bananaa sansad kaa kaam hai naagriko kaa nahee. aise agar kaanoon vaapis liye jaane lage to ipc mai koi dharaa nahee bachegee.

    शर्मिला के समर्थन में कई महिला अधिकार संगठनों ने इम्फाल के जे. एन. अस्पताल के बाहर क्रमिक भूख़ हड़ताल शुरू कर दी है, यानी कि समूह बनाकर प्रतिदिन भूख़ हड़ताल करना. शर्मिला के समर्थन में मणिपुर स्टेट कमीशन फॉर वूमेन, नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन, नेशनल कैम्पेन फॉर दलित ह्यूमन राइट्स, एकता पीपुल्स यूनियन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स, ऑल इंडिया स्टुडेंट्स एसोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आदि शामिल हैं...विदेशों से भी कई संगठन उनका समर्थन कर रहे हैं...पर अपने देश के सरकार के कान पर जून नहीं रेंगती.

    itne bhaaree bharkam sangathan jis mudde par samarthan dene kee baat kar rahe hain (shayad mook samarthan) vo sab milkar delhi mai kyu nahee is anshan ko apne uchit anzaam tak pahuchane ke liye sangharsh karte ya ki unka kaam mude ko naitik samarthan dene se chal jata hai.

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  19. उनकी मांग सही है या नहीं.......वे पूरी की जा सकती हैं या नहीं....ये एक अलग विषय है. पर शर्मीला को अपना अनशन तोड़ने के लिए तैयार तो किया जा सकता है...क्या उनकी जान की कोई कीमत नहीं है?

    saraakaaree prayaas unkaa anshan todne ke liye hue hee hai isiliye unhe jail lejakar kuchh khilaane kee koshish kee jatee hai. darasal unkaa anshan jo kisi parinaam tak pahuchne kee koi sambhaavnaa nahe hai use khatm karaane ke liye prashaasan aur unke shubh chintako dono ko vehatar prayaas karne chahiye.

    जबतक हज़ारों-लाखों की तादाद में उनके समर्थक ना हों...किसी को अपनी बात कहने का हक़ नहीं...और अगर किसी ने कहने की कोशिश की भी तो उसका कोई असर किसी पर नहीं पड़ेगा. उसका सारा प्रयास व्यर्थ जाएगा... चाहे वो अपनी जान भी क्यूँ ना दे दे. और हमें गर्व है कि हम एक जनतांत्रिक देश में रहते हैं...जहाँ का शासन जनता के लिए और जनता के द्वारा है.

    yah jeevan kee sachaai hai iskaa loktaantrik desh hone na hone se koi matlab nahee hai

    शर्मीला के अनशन को बिलकुल ही नज़रंदाज़ किया जा रहा है...क्या इसलिए कि वे जिन मुद्दों के लिए लड़ रही हैं..उस से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जिन मुद्दों को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं...उस से कहीं ना कहीं हमें भी लाभ होनेवाला है. इसीलिए हम भी उनका साथ दे रहे हैं....इसका अर्थ है..इतने स्वार्थी हैं हम.

    duniyaa ke kisee bhee kone mai yaa bharat ke kisee bhee kone mai bhaarat ke kaanoon ke khilaaf jan samarthan haasil kiye bina koi use samarthan dega. mera mat hai ki sirf pragatisheeltaa ke mugaalte mai ham aise muddo ko kabhee samartha de dete hai par us din bhee ham kaam pe nasthaa karke hee jate hain. aur ismai swarth jaisee koi baat nahe hai.

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  20. और मिडिया को भी शायद ये अहसास है कि शर्मीला इरोम के आन्दोलन को प्रमुखता देकर वह सरकार पर कोई दबाव नहीं बना सकती ,इसीलिए वो भी चुप है.

    mediya ko media ka kaam karne de jab yah vyaktigat satyaagarh hai to media ke liye yah ek khabar maatra hai.


    ant mai meraa maannaa hai ki duniyaa ke kisi bhi satyaagarh ka parinaam in baat par nirbhar kartaa hai ki satyaagrahee ke anuyaayee kitne hain. gandhi se lekar anna tak yahee baat laagoo hotee hai. gandhi par anyaay tab hua jab unhe train se fenka gaya lekin unhone ittezar kiya aur lekh likhe afrika mai base bhaarteeyo ke dil mai jagah banaayee aur tab satyagarh tak pahuche. kya dosto apko nahee lagtaa ki sharmila bahan ne ek vichar man mai aate hee satyagarh kee anant ladaai shuru kar dee aur parinaam vahee hai jo ki aise mai hona hota hai.

    mein chaahta hoo ki sharmila ji ka anshan toore vo swasth rahe aur sarkaar yuktipoorvak vichar kare ki yah kaanoon jaare rahna chahiye ya nahee.

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  21. अनशन से मांग पूरी होने की कोई गारंटी नहीं और मारकेटिंग तो जरूरी है ही.

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  22. ग्यारह साल से अनशन ! कुछ ज्यादा ही है ।
    माना कि देश में बहुत सी समस्याएं हैं लेकिन हार बात की एक सीमा होती है ।
    कहाँ तक लड़ेंगे ?
    क्या सारे मुद्दे अब एक साथ ही सुलझाने होंगे ?
    शर्मीला इरोम की हिम्मत का ज़वाब नहीं । लेकिन गली गली में अनशन होने लगा तो अनशन की अहमियत ही ख़त्म हो जाएगी ।

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  23. शर्मीला जी के अनशन के बारे में पहले भी पढ़ा था ! इतनी असंवेदनशील सरकार से क्या उम्मीद की जा सकती है ! ११ साल के बाद भी वे नहीं पसीजे तो अब क्या आशा की जा सकती है ! ऐसे हृदयहीन लोगों को अपना नुक्सान करके और मानवीयता का वास्ता देकर नहीं झुकाया जा सकता क्योंकि मानवता इसके सदस्यों में शेष बची ही कहाँ है ! स्वामी निगमानंद का दुखद अंत हमारी आँखें खोलने के लिये पर्याप्त होना चाहिये ! शर्मीला को यह आत्मघाती प्रयास छोड़ देना चाहिये क्योंकि मीडिया भी उनके मामले में चुप है ! वरना जिस बात के पीछे मीडिया पड़ जाती है वह सुर्खियों में तो आ ही जाता है ! और तब जनता से भी प्रतिक्रया आती है फिर चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक !

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  24. ऊपर बड़ी तफ़सील से एक बात कही गई है कि यह एक व्यक्तिगत सत्याग्रह है। और क़ानून बनाने का अधिकार संसद को है। ... वगैरह वगैरह।

    *** इस आलेख की लेखिका का यही तो कहना है कि हम कब तक निर्विकार रहेंगे। “यानि एक और निगमानंद ..अपने लोगो के हक़ के लिए लड़ते हुए शहीद हो जाने की राह पर हैं...और हम सब चुपचाप, उसका यूँ पल-पल मौत के मुहँ में जाना देखते रहेंगे.”

    *** क्या देश में लोगों के आन्दोलन से नियम-क़ानून में संशोधन नहीं हुए हैं, ... कितने००० उदाहरण दूं। ... कोई तो पहला क़दम बढ़ाए ... शर्मिला ही सही।

    *** अर्म्ड फ़ोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट, 1958 --- यह क़ानून नागरिक व्यवस्था के नाम पर सशस्त्र बलों को बिना किसी पुख्ता कारण के भी किसी को मार डालने का अधिकार देता है।

    (और कितने लोग इसके शिकार हुए हैं, जो निर्दोष थे। इसके ख़िलाफ़ लड़ रही है वह देवी! ...)

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  25. क़ानून बनाने का हक संसद को है...ज़ाहिर तौर पर है. लेकिन यह संसद किसके प्रति जवाबदेह है? इस देश की जनता के प्रति ही न...जनता के लिए ही हैं न इस देश की संसद, सेना, क़ानून सब? फिर? ऐसा क्यूँ होता है कि इस देश के एक हिस्से में औरतें मिलेट्री हेडक्वार्टर के सामने नग्न प्रदर्शन करने पर बाध्य होती हैं? अपनी बहनों की बेइज्जती से इस कदर दुखी होती हैं कि हाथ में बैनर ले लेती हैं कि 'Indian Army Rape us?'...यह परायापन क्या सिर्फ जनता का दोष है?

    ऐसा क्यूँ होता है कि रामदेव या अन्ना का अनशन हफ्ते भर के अंदर 'राष्ट्रीय खबर' बन जाता है और इरोम का ११ साल के बाद भी नहीं? संसद के ऊपर एक तानाशाह की तरह लोकपाल बिठाने की मांग भी तो संसद का निषेध ही है न? फिर कैसे वह मांग राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन जाती है और एक उत्पीडक क़ानून पर कोई बहस दिखाई नहीं देती? मांग मानना, न मानना अलग बात है..लेकिन क्या सरकार के एजेंडे में कोई इरोम है? क्यूँ नहीं कभी कोई मंत्री जाकर उससे बात करता है? क्यूँ दिल्ली से उसे एक बाहरी की तरह भगा दिया गया? क्यूँ सत्ता की नज़र में वह एक नान इनटाईटी है?

    सच तो यह है कि देश का वह हिस्सा सिर्फ नक़्शे भर में हमसे जुड़ा नज़र आता है...वरना तो वह बस एक कब्ज़ा की हुई टेरिटरी लगती है, जहाँ के नागरिकों को दोयम दर्जे की नागरिकता मिली हुई है...

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  26. रश्मि जी, कुछ ऐसी ही व्यवस्था पर मरहूम हफ़ीज़ मेरठी साहब एक शेर कह गए है-
    इल्तजा तो कोई भी सुनता नहीं
    क्या करें हम बेअदब हो जाएं क्या?

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  27. ऊपर कुछ कमेंट्स लेख की स्थापना से असहमति रख रहे हैं, उनकी असहमति का पूर्ण सम्मान करते हुये कुछ कहना चाहता हूँ:

    १- सारी सोच की विस्म्गति इस अतिशय राष्ट्रवादी स्म्स्कार में है, जिसमेम हिन्दी पट्टी का व्यक्ति कुछ ज्यादा ही धंसा रहता है।

    २- राष्ट्रवाद से मुझे समस्या नहीं है पर राष्ट्रवाद मानवाधिकार का हनन नहीं कर सकता, मानवाधिकार राष्ट्रवाद से ज्यादा व्यापक/आधुनिक/उपयोगी/उदार संकल्पना है, भले ही आदर्श रूप में यह बात लगे।

    ३- राष्ट्रवाद और राष्ट्रहित के हननकर्ता जिन्हें आज आप समझ रहे हैं, वे नहीं हैं। इतिहास गवाह है कि भार्तत की करप्ट राजनीतिक संस्था इसकी ज्यादा दोषी है।

    ४- बड़े रष्ट्रप्रेमी थे तो साठ साल की अजादी के बाद आज तक राष्ट्र की चौहद्दी काहे नहीं मजबूत किया, जन-विश्वास जीतकर! उल्टे दमन का सहारा लिया। याद रहे कि याद रहे कि इमेरजेंसी में इसी देश की स्त्ता ने इसी देश के जन पर जुल्म किया, जब सत्ता जिसे सौंपी जाय वह राष्ट्र को भूल जाय तो जनता क्यों मजबूर हो भला?? संसद कितना देश-प्रेमी या राष्ट्रवादी है, जो उसे हम राष्ट्र का भविश्य लिखने की छूट दिये रहें, और उससे आने वाली सरकार जनहित नाशक नंगा नाच किये रहे??

    ५- ऊपर चर्चा हुई कि गली गली में अनशन क्यों? प्रश्न यह है कि यह सब किस धैर्य के कारण रुका रहा अभी तक? सब क्यों अचानक होने लगा है? अब जागरूकता आयी है, धार्मिक मुद्दा इतना फेल हो चुका है कि संन्यासी भी राज्य सत्ता का विरोध करने पर आ गये हैं, तो गृहस्थ तो काहे न आये, संवेदनशील पत्रकार(शर्मीला) काहे नहीं? ६३ साल में जिन्होंने देश के बैंक में टैक्स न देकर स्विस का सहारा लिया, वे कितने देशभक्त हैं, एक परिवार की हीजेमनी कायम रही जिसका एकाउंट स्विस-लोडित है, स्वाल क्यों नहीं इधर होता ? राष्ट्रवादी मानस इतना अंधा क्यों होता है? राष्ट्रवाद का झुनझुना बजाकर ऐसी जेनुइन मांगों को दबाना अमानवीयता है, जिसे सर्कार ने किया है, करती आयी है, सरकार के इस काम में नागरिकों का सहायता देना और उसकी तरफ से संसद-समर्थक तर्क भी अमानवीय कहलायेगा, तब जबकि कोई गाढीवाली ढ़ंग से अपनी माँग रख रहा/रही हो, नहीं तो माओवाद का ही रास्ता बचता है!!

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  28. सुधार:

    @तब जबकि कोई गाढीवाली ढ़ंग से अपनी माँग रख रहा/रही हो, नहीं तो माओवाद का ही रास्ता बचता है!!

    -- तब जबकि कोई गान्धीवादी ढ़ंग से अपनी माँग रख रहा/रही हो, नहीं तो माओवाद का ही रास्ता बचता है!!

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  29. शुक्रिया रश्मि जी और शु्क्रिया शर्मा जी। रश्मि जी की पोस्‍ट और शर्मा जी की बहुत हद तक संतुलित प्रति‍क्रिया ने इस पोस्‍ट को एक संपूर्णता प्रदान की है। बहुत संभव है हममें से कुछ रश्मि जी की बात से सहमत न हों और कुछ शर्मा जी की बात से। पर सहमति और असहमति व्‍यक्‍त करने का यह तरीका हम सबको सीखना चाहिए।
    *
    शर्मिला की हिम्‍मत और जज्‍बे का मैं आदर करता हूं। पर सच तो यह है कि जिस कानून का वे विरोध कर रही हैं, उसके बारे में बहुत नहीं जानता हूं। हम सबको शायद सबसे पहले यही करना चाहिए कि उस कानून के बारे में जानें।
    *
    बाबा और अन्‍ना द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों से शायद किसी को असहमति नहीं होगी। पर बहुत ध्‍यान से सोचने पर ऐसा लगने लगा है कि शायद उनका तरीका उचित नहीं है।
    *
    इन सब बातों पर पार्टी विशेष के होने से शायद बहुत फर्क नहीं पड़ता। सत्‍ता की अपनी मजबूरियां और खूबियां होती हैं। अन्‍यथा जहां फरवरी से अनशनरत निगमानंद अपनी जान गंवा बैठे,वहां सरकार भाजपा की है।

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  30. नार्थ ईस्ट की बात पर भी लिख देना चाहिये कि शेष भारत(सरकार) उसके प्रति असंवेदनशील रही है, सबसे पहले नार्थ-ईस्ट को समझना होगा, कम-से-कम इस लेख तक तो जाकर लोग पढ़ें ताकि काफी कुछ स्पष्ट हो सके, बजाय भावुक होकर अपनी लीक पीटने के! यह लिंक देखे जाने की अपेक्षा करूँगा टीपकारों से:

    शीर्षक = ” देस - वीराना : पूर्वोत्तर भारत ”

    http://samalochan.blogspot.com/2011/06/blog-post_16.html

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  31. इन रियल हीरोज की किसी को सुध नहीं.....

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  32. @एच. पी. शर्मा ,जिन विषयों के बारे में जानकारी न हो उनके बारे में टिपण्णी नहीं की जानी चाहिए|संसद कोई सुप्रीमो नहीं है देश में लोकतंत्र है और जनता सर्वोच्च है |कानून तो आपातकाल का भी है ,आप उसे स्वीकार करेंगे ?
    और जहाँ तक शर्मीला का सवाल है आप और आप जैसे तमाम सरकारी मुलाजिम सिर्फ आठ घंटे की नौकरी करके चाय या बियर पीते हुए सिर्फ सरकार की गा सकते हैं(ये आपकी मज़बूरी भी है ) आपमें हिम्मत है तो लिख कर देखिये शर्मीला के समर्थन और आफ्प्सा के विरोध में अपने नाम से |और लिखने के बाद अपने बेंक का पता दीजिए देखिये क्या करती है सरकार ? शर्मीला के संघर्ष को बयां करने और उसका समर्थन करने के लिए बड़े साहस की जरुरत है उसका संघर्ष किसी भी लेख ,भाषण या फिर कविता कहानी से नहीं मापा जा सकता और नहीं किसी टिपण्णी से कम किया जा सकता है |
    उत्तर -पूर्व में आफ्प्सा की वजह से स्थिति बेहद खराब हुई है ,शर्मीला के एकल संघर्ष के अलावा उन ल के समर्थन में खास तौर से हिंदी पट्टी से आवाज उठाने वाला कोई नहीं है ,ये शर्मनाक है

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  33. मिडिया हो या सरकार ...या फिर आम आदमी.... संवेदनशीलता की सोच बची ही नहीं है......

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  34. देश में गांधी जी के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि अनशन इतना डिमांड में है...

    और अब जब अनशन का नाम आता है तो शर्मिला इरोम का नाम भी ज़ुबां पर आना लाज़मी है...

    आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट को हटाने की मांग को लेकर शर्मिला इरोम ग्यारह साल से अनशन पर हैं...ज़ाहिर हैं वो अनशन तभी तोड़ेंगी जब ये एक्ट हटेगा...इनसानियत के नाते देश में ऐसा कोई इनसान नहीं होगा कि जो ये नहीं चाहेगा कि शर्मिला अनशन तोड़ दें...लेकिन वो मानें तब ना...अब एक्ट को हटाने के अलावा और कौन सा तरीका है जिसके ज़रिए शर्मिला को समझाया जा सके...ये भी साफ़ होना चाहिए...

    शर्मिला की सुध लेने का मतलब फिर क्या यही रह जाता है कि सरकार इस एक्ट को हटा दे...

    चलिए मान लीजिए सरकार नार्थ-ईस्ट से ये एक्ट हटाने को तैयार हो जाती है...

    और कल को यही एक्ट हटाने की मांग लेकर कश्मीर में भी कोई अनशन पर बैठ जाए...मांग करने लगे कि भारतीय फौज को कश्मीर से पूरी तरह हटा दिया जाए...कश्मीर को आज़ाद कर दिया जाए...तब भी क्या सरकार को उसका अनशन तुड़वाने के लिए इस तरह की मांगों को मांगना पड़ेगा...ऐसे में अरुंधति राय कश्मीर में अलगाववादियों का समर्थन करती हैं या स्वामी अग्निवेश अमरनाथ यात्रा को ही धोखा बता देते हैं तो फिर तो वो भी कोई गलत काम नहीं करते...मेरा दावा है कि शर्मिला के लिए हमदर्दी जताने वाले कश्मीर का नाम आते ही राष्ट्रहित, देशप्रेम की बात करने लगेंगे...आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर एक्ट का दुरुपयोग अगर नार्थईस्ट में होता है तो ऐसे ही आरोप कश्मीर में भी भारतीय सैनिकों के ख़िलाफ़ लगते रहते हैं...मैं ये नहीं कह रहा कि आरोप हमेशा झूठे होते हैं...लेकिन मैजोरिटी में हमारे सैनिक आज भी दुनिया के सबसे अनुशासित और चरित्रवान सैनिक हैं...

    मेरी पूरी सहानुभूति शर्मिला के साथ है...इनसान के नाते दिल से चाहता हूं कि वो सामान्य ज़िंदगी जल्दी से जल्दी जीना शुरू करें...लेकिन शर्मिला हो या मैं या फिर कोई और नागरिक, इतना अहम नहीं हो सकता कि देशहित को नज़रअंदाज़ कर उसके लिए कोई फैसला कर लिया जाए...हां, इस बहाने ये बहस ज़रूर हो जानी चाहिए कि आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट जैसे कानूनों की देश को ज़रूरत है भी या नहीं...अगर नहीं तो फिर ये न नार्थईस्ट में होना चाहिए और न ही कश्मीर में...फिर किसी शर्मिला को अनशन की ज़रूरत ही क्यों पड़ेगी...

    जय हिंद...

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  35. इरोम शर्मीला जैसे व्यक्तित्व सदियों में एक ही पैदा होते हैं। उनका आन्दोलन भी व्यर्थ नहीं जाएगा। लेकिन उन्हें भी स्वस्थ्य होकर लौटना होगा शीघ्र ही , ताकि नयी रणनीति के साथ आन्दोलन किया जा सके।

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  36. dosto, jab mein post par apne comment likh raha tha tab theek se pata tha ki mere mat se khoob asahmati hogi. aawesh ke aawesh se bhe poorn parichit hoo par chunauti dekar sarkar ke khilaaf ya samarthan mai likhne kee chunauti samajh nahee ayee. jis din mujhe ye kam karna hoga us din naukri bhee chhod dunga. maine sharmila ke maksad par sandeh nahee kiya parantu bina badaa andolan kiye is tarak ke prayaas kee safaltaa par prashn chinh lagayaa hai. meri dost rashmi ji kee post ka mool swar bhee yahe hai ki aise prayas ko na media hype milta hai na sarkar sudhi letee hai. mera mat yahee hai ki anshan se pahle rastra vyapi jaagruktaa ka prayaas hona chahiye tha. maine yathaarthvaadee baat kahee hai. mera likha galat bhi ho saktaa hai. maine bin bahas se bhatke binduvaar apne vichaar rakhne kee koshish kee hai. meree har baat se aap asahmat ho sakte hain. mujhmai aawesh utnaa nahee hai thande diomaag se sochtaa hoo. kriya aur pratikriya dono mai sabhya bane rahne kee koshish jaare rahegee.

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  37. @ aawesh,blog saadharan logo ka manch hai aap patrakar log asaadharan gyaan rakhte hai maantaa hoo. doosro kee buddhi aur himmat par shak naa kiya kare. antarjaal par padhne se jo samay bachjataa hai us samay naukri kar letaa hoo. kise kis par comment karna chahiye ye kisi ko mat sikhaaiye. mei to mitra hoo bura nahee man raha. abhi tak bear ka swad nahee chakha hai, shayad kabhee aapke offer pe peeni pade to ye pahla mauka hoga. blog saadharan logo ka manch hai aap patrakar log asaadharan gyaan rakhte hai maantaa hoo.

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  38. इस पोस्‍ट और टिप्‍पणियों के माध्‍यम से ज्ञानवर्द्धन हुआ .. इरॉम चानु शर्मिला को स्मरण करने के लिये आपका आभार !!

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  39. सत्‍याग्रह और अनशन लोकतंत्र को मानने वालों के लिए हैं या मानवता के लिए हैं लेकिन जो तानाशाही या राजशाही में विश्‍वास रखते हैं उनके लिए ये प्रयोग बेकार हैं। जनता को दूसरे विकल्‍प तलाशने चाहिएं।

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  40. एक बारगी तो यकीन ही न हुआ ..क्या ऐसा भी हो सकता है की कोई नौ साल तक अनशन पर जिन्दा भी रह सकता है ...और ये अगर सच है .तो हम बेहद असंवेदन शील हैं ....जिन्दगी को हर हाल में तवज्जो दी जानी चाहिए ....कोई पूछे उस से की क्या क्या गुज़री ...क्या जिन्दगी के मानी भी कोई अब शेष हैं ...

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  41. hil gyi mai to ye padh kar...11 saal se anshan...salam hai sharmila ji ko...

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  42. @ हरि शर्मा जी,
    शुक्रिया आपने इस पोस्ट पर अपने विचार रखे...असहमति ही किसी आलेख को पूर्णता देती है..

    आपने कहा...पहले इस बात पर बहस होनी चाहिए कि यह कानून देश हित में है या नहीं. 2000 में 'शर्मीला इरॉम' ने अपना अनशन शुरू किया..2004 में सरकार ने जस्टिस जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में कमिटी गठित की जिसके सदस्य थे, Lt. Gen (Retd.) V.R. Raghavan, P.P. Shrivastava, a former special secretary in the Union Home Ministry, Dr. S.B. Nakade, a former Vice-Chancellor of the Marathwada University, and senior journalist Sanjoy Hazarika.

    २००५ में इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट समिट की जिसमे कहा, "The Act is too sketchy, too bald and quite inadequate in several particulars"...."the Act, for whatever reason, has become a symbol of oppression, an object of hate and an instrument of discrimination and high-handedness."
    मनमोहन सिंह की सरकार ने इस रिपोर्ट को ना तो स्वीकार किया है ना ही अस्वीकार....ठंढे बस्ते में डाल दिया है....क्यूंकि इस से उनकी कुर्सी को कोई खतरा महसूस नहीं होता.

    lekin uskaa tareekaa kyay ho. vo patrakaar thee. kalam kee taakat se unhe sarkaar par ahaadna chahiye tha. apne saathee patrakaaro ko saath lekar ek aandolan chhedna chahiye tha.

    क्या उन्होंने ये सब नहीं किया था?....इस तरह की ये कोई पहली घटना नहीं थी...वे लगातार इसके विरोध में लिखती रही थीं...(ऐसा नहीं था कि कमरे में बंद हो टी .वी.देख रही थीं और अचानक अनशन करने पहुँच गयीं ) पर उस दिन की घटना ने जिसमे मृतकों में एक साठ साल की महिला और अठारह साल का एक लड़का भी था जिसे bravery award मिल चुका था. उन्हें इतना द्रवित किया कि उन्होंने सोच लिया...सिर्फ आलेख लिखने से सरकार नहीं सुन रही...कुछ कंक्रीट करना चाहिए. आखिर अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने भी अनशन का सहारा लिया ना.

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  43. २. vo sab milkar delhi mai kyu nahee is anshan ko apne uchit anzaam tak pahuchane ke liye sangharsh karte ya ki unka kaam mude ko naitik samarthan dene se chal jata hai.

    आपको शायद जानकारी नहीं है...दिल्ली में भी प्रदर्शन हो चुके हैं...जंतर-मंतर पर भी वे अनशन के लिए बैठी थीं. २००६ में राजघाट पर पत्रकारों से उन्होंने कहा था, “I want to tell the people of India that if Mahatma Gandhi were alive today, he would have launched a movement against the Armed Forces (Special Powers) Act. My appeal to the citizens of the country is to join the campaign against the army act,

    पर प्रशासन ने उन्हें गिरफ्तार कर AIMS में डाल दिया. और उनके कमरे के बाहर सिक्योरिटी गार्ड खड़े कर दिए...जिस से कोई भी उनसे नहीं मिल सके.

    2000 से ही यह नियम सा बन गया हैं...उन्हें एक-दो दिन के लिए रिलीज़ किया जाता है और फिर गिरफ्तार कर लगभग एकांतवास में रखा जाता है.

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  44. १२० करोड़ नागरिकों के इस देश में लाखों नागरिक,शर्मीला जैसे जिद्दी हैं ! अगर सरकार आमरण अनशन के भय से, कानून बनाने और हटाने लगे तो किसी भी देश का सम्मान दुनिया में नहीं हो सकता !

    जिद्दी अथवा हठयोगियों की अलग ही दुनिया है ऐसे लोग किसी भी फैसले को करवाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं ! कोई मनमोहन सिंह को चोर कहता हुआ अनशन करेगा तो कोई अडवाणी जी के खिलाफ अनशन करेगा !
    आमरण अनशन का रास्ता एक बार खोल दीजिये फिर देखिये कितने लोग बैठते हैं अनशन पर !
    लोकतंत्र में सरकार चलाने की एक विशेष प्रक्रिया है जो किसी भी व्यक्ति विशेष को कोई विशेष स्थान प्रदान नहीं करती !

    सरकार की इस प्रक्रिया में हर घटना को जांच करने का एक तरीका लिपिबद्ध है उसे आसानी से बदला नहीं किया जा सकता ... इस प्रक्रिया को समझे बिना मानवाधिकार का नारा लगाना उचित नहीं है और न ही हर अनशन करने वाले व्यक्ति को महात्मा का दर्ज़ा दिया जा सकता है !

    हाँ उन्हें और उनकी परिस्थितियों पर खेद अवश्य व्यक्त किया जा सकता है, मगर आमरण अनशन जैसे हथियारों का उपयोग जननेता द्वारा, बेहद विशेष परिस्थितियों में ही होना चाहिए !
    शुभकामनायें !!

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  45. @ हरि शर्मा जी,
    maine sharmila ke maksad par sandeh nahee kiya parantu bina badaa andolan kiye is tarak ke prayaas kee safaltaa par prashn chinh lagayaa hai.

    बड़ा आन्दोलन कैसे हो?...आप बताएँ....मणिपुर में दिल्ली की तरह स्थिति नहीं है...कि देश के किसी भी कोने से कंधे पर एक बैग डाले, आन्दोलन का समर्थन करने हज़ारों लोग एकत्रित हो जाएँ. डा. अमर जी ने अपने अनुभव बताये हैं कि हर जगह तलाशी होती है...जगह जगह पुलिस का पहरा है...कड़े नियम-कायदे हैं...फिर भी जहाँ जितनी भी छूट मिलती हैं..वहाँ की जनता प्रदर्शन कर रही है...

    अगर पूरे भारत के जनमानस के जुड़ने का सवाल है तो पहले की तरह यही कहूँगी कि हम सब स्वार्थी हैं. हमें कोई फर्क नहीं पड़ता...इसलिए हमारी कोई रूचि भी नहीं है.

    वर्ना शुरुआत अक्सर कोई अकेला ही करता है....जनसमूह जुटता जाता है...और एक बड़े आन्दोलन का रूप ले लेता है. छोटा सा उदाहरण है..मुंबई में आतंकी हमले के खिलाफ फेसबुक पर एक लड़के ने लिखा.."मैं हमले की जगह पर .मोमबत्ती जलाने जा रहा हूँ " उसके दोस्त ने समर्थन किया...और दो दिन में दस हज़ार लोग जुड़ गए इस मुहिम से.

    मिश्र की क्रान्ति में 'आसमा महफूज़' की अगुवाई को कैसे भूल सकते हैं...उन्होंने कहा था,"मैं अकेली २५ जनवरी को 'तहरीर स्क्वायर' जा रही हूँ और गली-गली में पर्चे बाटूंगी. मैं आत्मदाह नहीं करुँगी.अगर सिक्युरिटी फ़ोर्स मुझे जलाना चाहे बेशक जलाए .लेकिन मैं चुप नहीं बैठूंगी.अगर आप एक सच्चे मर्द हैं तो मेरे साथ आइये."

    इनलोगों ने पहले से कोई जमीन तैयार नहीं की..फिर भी कामयाब रहे..

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  46. @खुशदीप भाई,

    "देश में गांधी जी के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि अनशन इतना डिमांड में है..."

    शर्मीला इरोम ने ११ साल पहले अनशन शुरू किया था....उनके अनशन को इस 'डिमांड' के प्रचलन से अलग ही रखना चाहिए.

    "शर्मिला अनशन तोड़ दें...लेकिन वो मानें तब ना...अब एक्ट को हटाने के अलावा और कौन सा तरीका है जिसके ज़रिए शर्मिला को समझाया जा सके...ये भी साफ़ होना चाहिए."

    हज़ार तरीके हैं....मंत्रीगण...पत्रकार....लेखक ...समाज सेवी सबके दल अलग-अलग मिलकर, उन्हें समझा सकते हैं....आखिर बाबा रामदेव को मनाने धार्मिक गुरुओं ..राजनेताओं के जत्थे कैसे पहुंचते रहे.
    शर्मीला को समझाने,...आश्वासन देने कौन पहुंचा?? उस एक्ट को मत हटाइये...उसमे संशोधन तो कर सकते हैं....ऐसी बर्बर कार्यवाई करने वाले को सजा तो दी जा सकती है...कि आगे से उस एक्ट के तहत ऐसी कोई कार्यवाई करने से पहले सतर्क हो जाएँ कि परिणाम भुगतने पड़ेंगे.

    अगर हम मानते हैं कि हमारा देश एक परिवार है...और उसका एक सदस्य किसी अलभ्य वस्तु की मांग के लिए ही सही...अनशन कर रहा है, फिर भी हम सबका कर्तव्य है कि उसे समझा कर...आश्वासन देकर....उसका अनशन तुडवा कर..उसे एक सामान्य जिंदगी जीने का अवसर प्रदान करें ना कि बस उसके साँसों का आना-जाना जारी रख...अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें.

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  47. @सतीश जी,
    १२० करोड़ नागरिकों के देश में....शर्मीला इरोम जैसे कितने और लोगो ने ऐसे आमरण अनशन का सहारा लिया??

    "आमरण अनशन का रास्ता एक बार खोल दीजिये फिर देखिये कितने लोग बैठते हैं "

    रास्ता बंद कब हुआ..पर कितने लोगो ने शर्मीला जैसी जीवटता दिखाई??

    "सरकार की इस प्रक्रिया में हर घटना को जांच करने का एक तरीका लिपिबद्ध है उसे आसानी से बदला नहीं किया जा सकता ... इस प्रक्रिया को समझे बिना मानवाधिकार का नारा लगाना उचित नहीं है और न ही हर अनशन करने वाले व्यक्ति को महात्मा का दर्ज़ा दिया जा सकता है !"

    बिलकुल लिपिबद्ध है....2006 में ही जस्टिस रेड्डी की कमिटी ने अपनी रिपोर्ट पेश भी कर दी है . सरकार ने उस पर चुप्पी क्यूँ साध रखी है??
    यहाँ शर्मीला को महात्मा का दर्ज़ा नहीं दिया जा रहा...वे एक आम जीवन जीवन नहीं जी पा रही...इस पर सवाल उठाये जा रहे हैं. उन्होंने अपने जीवन के इतने साल क्यूँ खोने पड़े??
    मेरी पोस्ट का मूल भाव है कि जब बाबा रामदेव के नौ दिन के अनशन पर इतनी चिंता व्यक्त की गयी और उनके अनशन तुडवाने के प्रयास किए गए तो शर्मीला के क्यूँ नहीं???

    जिद्दी अथवा हठयोगियों की अलग ही दुनिया है ऐसे लोग किसी भी फैसले को करवाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं !

    ऐसे ही कई जिद्दी और हठयोगियों के प्रयास से हम आज़ाद देश की फिजां में सांस ले रहे हैं...ये हमें नहीं भूलना चाहिए.

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  48. कुलदीप जी ,भाई अजीब हाल है मुझे लगता है आपके लिए देश सिर्फ यहीं इंटरनेट के इर्द गिर्द है |आफ्प्सा के बारे में पढ़ लें उसके बाद निर्णय लें कि ये सही है कि गलत है ,रश्मि जी की इस पोस्ट को पढ़ने वालों को बता दूँ कि ये कानून अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया है ,और निश्चित तौर पर इसका सर्वाधिक दुरुपयोग कश्मीर में होता रहा है |मिस्टर कुलदीप हथियारों के बल पर देशभक्त नै पैदा किये जा सकते |यहाँ एक बात जोड़ना जरुरी है कि जब कभी कोई कानून चाहे वो आपातकाल हो या अफ्प्सा लागू किया जाता है तो इसका पहला शिकार महिलायें होती हैं |
    मणिपुर में असं राइफल्स के जवानों द्वारा महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार और उसके बाद मनोरमा की हिरासत में हुई मौत के बाद एक तरफ जहाँ शर्मीला अनशन पर बैठ गयी वहीँ दूसरी तरफ सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के जज जीवन रेडी की अध्यक्षता में इस एक्ट की विवेचना को लेकर एक आयोग बना दिया ,कुलदीप जी ये कमीशन सरकार ने बनाया था और कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि the report stating that "the Act, for whatever reason, has become a symbol of oppression, an object of hate and an instrument of discrimination and high handedness." The report clearly stated that "It is highly desirable and advisable to repeal the Act altogether, without of course, losing sight of the overwhelming desire of an overwhelming majority of the [North East] region that the Army should remain (though the Act should go)|
    आपको शर्मीला को सहानुभूति दिखाने की कोई जरुरत नहीं है ,हमारी सहानुभूति आपके साथ जरुर है कि कल को अगर आपके शहर गाँव मोहल्ले की महिलाओं के साथ बलात्कार हो ,युवाओं को अकारण घर से बाहर निकलकर गोली मार दिया जाए उस वक्त्भी आप यही कहेंगे कि " मैं या फिर कोई और नागरिक, इतना अहम नहीं हो सकता कि देशहित को नज़रअंदाज़ कर उसके लिए कोई फैसला कर लिया जाए..."|

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  49. सतीश जी, कभी अपनी गाड़ी उत्तर प्रदेश या देश के किसी भी राज्य के किसी मंत्री या फिर उसके किसी प्यादे की गाडी में ठोंक दीजिए |फिर यही बात दुबारा लिखियेगा " लोकतंत्र में सरकार चलाने की एक विशेष प्रक्रिया है जो किसी भी व्यक्ति विशेष को कोई विशेष स्थान प्रदान नहीं करती ! "

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  50. किसी कारणवश ब्लॉग़ नहीं देख पा रही लेकिन यहाँ देर से आना भी सोच को और विस्तार दे गया..राजतंत्र में होते अत्याचारों की तो बात समझ आती है लेकिन लोकतंत्र में भी ऐसा होने लगे तो समझिए जनक्रांति को कोई रोक न पाएगा.. बस अभी किसी पल भी आ जाए... शर्मील इरोम के बारे में इसी ब्लॉग़ पर जाना लेकिन सोच रही हूँ ऐसी नींव की जाने कितनी ईंटे खप चुकी है और अभी कितनी ही बाकि है खपने को...

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  51. शर्मा जी ,ये आपसे किसने कहा ब्लॉग साधारण लोगों का मंच है ?ये कहिये कि हिंदी ब्लागिंग में साधारण लोग अतिसाधारण लेखन कर रहे हैं ,हाँ ये जरुर है कि इधर बीच हिंदी ब्लागिंग में सगेदारी और सगेदारी की विषबेल उग आई है |लोग अपने अपने कुनबों के लिए लिख रहे हैं उन्हें पढ़ा रहे हैं उनसे टिप्पणियां पा रहे हैं और खुश हो रहे हैं |इन सबके बीच जो कुछ स्तरीय है वो पढ़ा नहीं जा रहा और न सामने आ पा रहा है |आपको ये बता दूँ मैं पत्रकार बाद में हूँ पहले ब्लॉगर हूँ |
    शर्मा जी पहले आप ये उत्तर दें आंदोलन किसे कहते हैं ?क्या अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की तरह हजारों की भीड़ दिल्ली में बुलाकर रामलीला
    करना ही आंदोलन कहलाता है ?
    काहें की जागरूकता का प्रयास करना चाहिए ?मरे हुए आप जैसे लोगों को शर्मीला जगाएं फिर हम कहें कि भैया हमारे लिए लड़ो ,और कोट पेंट टाई पहनकर आप अपना समर्थन जताए और ९ से ५ डयूटी करके बीबी बच्चों और ब्लागिंग में व्यस्त हो जाए |शर्मा जी जागो ,दुनिया सिर्फ आपके घर ,दफ्तर या यहाँ अंतरजाल तक नहीं है |
    "लोहे का स्वाद लोहे से न पूछो ,उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है "|
    शर्मा जी ,मैं खुद को असभ्यों में गिनता हूँ और कम से कम जो आधी दुनिया और खास तौर से मेरी बहन शर्मीला के विर्रुद्ध है उसके लिए तो मैं किसी भी स्तर पर उतर सकता हूँ|

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  52. @kuldeep ji ,the Armed Forces (Special Powers) Act, 1958 (AFSPA) in parts of the Northeast is endless. Based on a 1942 British ordinance to quell the Indian independence movement during the World War II

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  53. @khushdeep ji aapko kuldeep likh gaya ,nischit taur par aap kuldeep bhi honge

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  54. @आवेश
    प्लीज़ थोड़ा संयम रखें...अपने विचार तो व्यक्त करें....पर जरा संयम के साथ.

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  55. रश्मि जी ,किस बात पर संयम रखने की बात कर रही हैं |शायद ,आपके लिए आपकी पोस्ट महज एक पढ़ कर भुला दी जाने वाली चीज होगी ,मेरे लिए इरोम से जुड़ा कुछ भी नितांत व्यक्तिगत है |आपसे निवेदन है कि मुझसे संयम की उम्मीद न करें अन्यथा कि स्थिति में मैं टिपण्णी नहीं करना चाहूँगा |

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  56. sharmila jaise log hamare samaj ke beech bachi kuch umeed ki kirane hain jinpar humen garv hona chahiye

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  57. @ रश्मि जी ,
    सोचा था कि पोस्ट के साथ डाक्टर अमर कुमार की टिप्पणी पर भी आंख कान दिया जायेगा पर ...

    मित्र हरी शर्मा जी भी गजब इंसान निकले उन्होंने क़ानून पर बहस की बात तो की पर बहस शुरू भी नहीं की :)

    कम से कम उनकी जुबानी हम भी इस क़ानून की अच्छाइयां जान लेते और ये भी कि लोकतांत्रिक देश के किसी हिस्से में सेना को फ्री हैण्ड दिये जाने का क्या अर्थ होता है ? और ये भी कि अपनी ही धरती के एक टुकड़े और अपने ही भाई बहिनों से मार्शल ला नुमा तौर तरीके से निपटना राष्ट्रीयता और देशहित को कैसे बढ़ावा देता है ?

    अपनी बात कहने के लिए दिल्ली में लाखों की भीड़ जुटाना भव्य पंडाल लगाना अनशन की अनिवार्यता होगी हमें तो ये भी पता नहीं था :)

    आवेश तिवारी जी के आलेख मैंने पहली भी पढ़ें हैं लोकतांत्रिक सरोकारों के लिए उनके उत्साह से प्रभावित भी हूं और शतप्रतिशत सहमत भी ! किन्तु असहमत लोगों के लिए उनकी प्रतिक्रियाओं के शाब्दिक उबाल से ज़रा सा असहमत भी हूं ! उन्हें यह स्वीकारना होगा कि कुछ इंसान कुंठाग्रस्त भी हो सकते हैं और मानव मूल्यों /लोकशाही तथा जनगण की स्वतंत्रता के विरोधी भी किन्तु उनके साथ शाब्दिक सैन्य व्यवहार भी उनकी असहमति के अधिकार और लोकतांत्रिक अधिकार का हनन ही माना जायेगा :)

    @ भाई सक्सेना जी,
    शायद शर्मिला इरोम के पास ब्रांडेड अनशन करने लायक पैसे नहीं हैं वरना मीडिया... :)
    बहरहाल आपकी प्रतिक्रिया का कारण बूझने की कोशिश कर रहा हूं ! मुझे लगता है कि क़ानून केवल लोकहित के लिए होते हैं और आपकी इंसानियत प्रियता पर अब तक कोई शक भी नहीं रहा है सो ...?

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  58. @ रश्मि जी ,
    सोचा था कि पोस्ट के साथ डाक्टर अमर कुमार की टिप्पणी पर भी आंख कान दिया जायेगा पर ...

    मित्र हरी शर्मा जी भी गजब इंसान निकले उन्होंने क़ानून पर बहस की बात तो की पर बहस शुरू भी नहीं की :)

    कम से कम उनकी जुबानी हम भी इस क़ानून की अच्छाइयां जान लेते और ये भी कि लोकतांत्रिक देश के किसी हिस्से में सेना को फ्री हैण्ड दिये जाने का क्या अर्थ होता है ? और ये भी कि अपनी ही धरती के एक टुकड़े और अपने ही भाई बहिनों से मार्शल ला नुमा तौर तरीके से निपटना राष्ट्रीयता और देशहित को कैसे बढ़ावा देता है ?

    अपनी बात कहने के लिए दिल्ली में लाखों की भीड़ जुटाना भव्य पंडाल लगाना अनशन की अनिवार्यता होगी हमें तो ये भी पता नहीं था :)

    आवेश तिवारी जी के आलेख मैंने पहली भी पढ़ें हैं लोकतांत्रिक सरोकारों के लिए उनके उत्साह से प्रभावित भी हूं और शतप्रतिशत सहमत भी ! किन्तु असहमत लोगों के लिए उनकी प्रतिक्रियाओं के शाब्दिक उबाल से ज़रा सा असहमत भी हूं ! उन्हें यह स्वीकारना होगा कि कुछ इंसान कुंठाग्रस्त भी हो सकते हैं और मानव मूल्यों /लोकशाही तथा जनगण की स्वतंत्रता के विरोधी भी किन्तु उनके साथ शाब्दिक सैन्य व्यवहार भी उनकी असहमति के अधिकार और लोकतांत्रिक अधिकार का हनन ही माना जायेगा :)

    @ भाई सक्सेना जी,
    शायद शर्मिला इरोम के पास ब्रांडेड अनशन करने लायक पैसे नहीं हैं वरना मीडिया... :)
    बहरहाल आपकी प्रतिक्रिया का कारण बूझने की कोशिश कर रहा हूं ! मुझे लगता है कि क़ानून केवल लोकहित के लिए होते हैं और आपकी इंसानियत प्रियता पर अब तक कोई शक भी नहीं रहा है सो ...?

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  59. सोच रहा हूँ कि क्या कहूँ,
    डा० अमर कुमार जी कि टिप्पणी से पूर्ण सहमत

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  60. पोस्ट पढ़ी और पूरी टिप्पणियां भी ...

    शर्मीला इरोम का संघर्ष अपनी जगह सही है , मगर उनकी स्थिति बाबा रामदेव के लकदक अनशन की सार्थकता स्वयं ही बयान करती है ...आम इंसान की बात सुनना चाहता कौन है ...कलयुग में सतयुगी राम की अपेक्षा व्यर्थ है ...

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  61. आज अनशन और धरने का भी बाजारीकरण हो गया है.यदि आपके पास संसाधन और प्रभुता नहीं है तो आपका अनशन कार्यान्वित हो जायेगा,अर्थात अनशनकारी मर जायेगा पर उसकी कोई सुध लेने नहीं आएगा !

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  62. सार्थक लेखन हेतु बधाई
    आज हर इंसान अपने अपने स्वार्थ में इस तरह लीन है. की शायद त्याग की परिभाषा ही भूल गए हैं

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  63. आज हर चीज़ के लिए मीडिया-प्रायोजकों का होना बहुत ज़रूरी है वर्ना कोई कितना ही भाड़ झोंक ले कोई नहीं सुनने वाला...

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  64. mujhse asahamt ho rahe sabhi dosto ko naman. aawesh ke awesh ko punah naman.

    dosto mujhe ye sujhaab do ki ab sarakr to jaisi hai vaisi hai ham log sarkaar ko ye kaanoon vaapis lene aur sharmila ji ke is andolan ko sahee disha dene ke liye kya karne jaa rahe hain. dibeties ka mareej hoo. pooree raat karaahte hue kaatee hai. sawere pata chala ki sugar ekdam se neeche aa gai aur sif sanyog hai ki bach gaya nahee to yahaa naman karne ko bhi jinda nahe rahta. mei jantaa hoo ki 11 saal nahee 11 ghante ke upvaas se phir yahee haal ho saktaa hai. phir bhi aaj rat se parso sawere tak kuchh nahee khaaunga. mei is tarah sharmila ke paavan aandolan ko apna pratham samarthan dene kaa vadaa kartaa hoo. iske aage aap is andolan ka praroop tyaar kariye. aapko bhai kahta rahaa hoo vaisaa hee samarthan bhi dunga. aap tay keejiye ki aage kya karne ja rahe hain. aapne kaha ki blogger pahle hoo patrakaar baad mai ye tathyatmak roop se sahee nahee hai. apne blog par ane kee date aur patrakarita shuru karne kee date phir se jaanch le. duniya mai har koi pet paalne ke liye koi na koi kaam kar raha hota hai.

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  65. अरे वाह.. यहाँ तो गर्मा-गरम बहस चल रही है...
    स्वतः ही पक्ष और प्रतिपक्ष बन गये हैं, लगता है हम शैशवास्था से उबर रहे हैं ।
    यह एक सुखद सँकेत है.. एच.आर. शर्मा पर कुछ कहने से बचने के बावज़ूद , खुशदीप सहगल और सतीश सक्सेना की टिप्पणी निराश करती है । उनके द्वारा इस पोस्ट को और इसमें निहित मूल भावना को इतने हल्के में लिया जाना आश्चर्यजनक है ।
    @ भाई खुशदीप जी :
    यह ठीक है कि ऎसे एक्ट देश की आँतरिक सुरक्षा ( ? ) के लिये आवश्यक हैं, पर इसमे सँतोषप्रद तरीके के सँशोधन तो किये ही जा सकते हैं, ज़्यादती की शिकायतों की ज़वाबदेही तो तय की जा सकती है ।
    "The Act is too sketchy, too bald and quite inadequate in several particulars". the Act, for whatever reason, has become a symbol of oppression, an object of hate and an instrument of discrimination and high-handedness." It is highly desirable and advisable to repeal the Act altogether, without, of course, losing sight of the overwhelming desire of an overwhelming majority of the [North-East] region that the Army should remain (though the Act should go) फिर आखिर क्या वज़ह है कि सरकार इस रिपोर्ट को ठँडॆ बस्ते में डाल कर सो गयी ?
    रही बात कश्मीर की... तो यह एक थोथी दलील है... यह कौन नहीं जानता कि इस एक्ट के नाम पर उठाये गये कदमों ने अविश्वास के माहौल को पुख़्ता किया है, वहाँ का आम आदमी इनके होने से अपने को सुरक्षित के बजाय असुरक्षित अधिक महसूस करता है । चूँकि वह भारत की केन्द्रीय सरकार का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसलिये ज़ाहिर है आम जन का गुस्सा दिल्ली पर ही अधिक होगा ।
    जब सरकार ने इस एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आड़ में टालू बयान देना चाहा.. तो रेड्डी कॅमेटी के माननीय सदस्यों में प्रमुख लेफ़्टिनेन्ट जनरल ( से.नि. ) वी.आर. राघवन और गृह मँत्रालय के पूर्व विशेष सचिव पी.पी. श्रीवास्तव ने इसे स्पष्ट किया कि.. Acknowledging that the Supreme Court had upheld the constitutional validity of the Act, the Committee said that judgment "is not an endorsement of the desirability or advisability of the Act." The apex court may have endorsed the competence of the legislature to enact the law. But "the Court does not — it is not supposed to — pronounce upon the wisdom or the necessity of such an enactment." ( The Hindu, Repeal Armed Forces Act: official panel 8 ocober 2006 )

    @ भाई सतीश सक्सेना जी
    वाकई इन अनशनकारियों की अलग दुनिया है... क्यों ?
    आपको स्मरण होगा कि देश में पहला आमरण अनशन क्राँतिकारी यतीन्द्रनाथ दास ( Jatin Das ) ने लाहौर जेल में किया जिसमें 64 वें दिन वह अपनी जिद ( ? ) के कारण शहीद होगये.. किन्तु बाद में अँग्रेज़ सरकार को कैदियों से समान व्यवहार की उनकी माँग पर झुकना ही पड़ा ।
    शर्मिला चारु भी अपने कारणों को स्पष्ट करते हुये कहती हैं, कि...My fast is on behalf of the people of Manipur. This is not a personal battle – this is symbolic. It is a symbol of truth, love and peace”, ( http://manipurfreedom.org )
    गाँधी की की सामूहिक अवज्ञा की परिकल्पना क्या थी, Nationwide Disobedience ! किन्तु इसमें अराजकता की सँभावनायें भाँप कर उन्होंने चतुराईपूर्वक इसे सविनय अवज्ञा ( Civil Disobedience ) का नाम दिया... सत्याग्रह की मूल भावना यही है न कि रामदेव का सरकस, जिसे मीडिया ने लाइव कवरेज़ देकर विकृत प्रहसन का रूप दे दिया ।



    Comment moderation has been... promugulated under BSPA ?
    Blogger's special power act ... he he he :)

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  66. @अमर जी,
    बस कुछ मजबूरी है, मॉडरेशन की....ताकि पोस्ट के विषय से ध्यान हट कर
    बेकार की टिप्पणियों पर ना उलझ जाए....
    उलटी-सीधी टिप्पणी करनेवाले की यही कोशिश होती है...और उसकी कोशिश कामयाब होते देखने में कोई दिलचस्पी नहीं.

    दरअसल आज तक...टिप्पणी मॉडरेट करने की जरूरत भी नहीं पड़ी...पर जब-जब मॉडरेशन हटाया...टप्प से वाहियात सी टिप्पणी टपक पड़ती है.

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  67. डॉक्टर अमर कुमार के सामने मेरे तर्क-वितर्क की सभी सीमाएं खत्म हो जाती हैं...उनका कहा, एक-एक शब्द मेरे लिए पत्थर की लकीर है...

    मेरा निवेदन यही है कि अगर क़ानून बुरा है तो वो पूरे देश के लिए बुरा है...नार्थईस्ट के लिए भी और कश्मीर के लिए भी...

    जय हिंद...

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  68. "उनकी मांग सही है या नहीं.......वे पूरी की जा सकती हैं या नहीं....ये एक अलग विषय है. पर शर्मीला को अपना अनशन तोड़ने के लिए तैयार तो किया जा सकता है...क्या उनकी जान की कोई कीमत नहीं है?"
    आपकी इन पंक्तियों से अक्षरष: सहमत। रही बात एक आम और एक खास के अंतर की, सिखों के नवम गुरू श्री तेगबहादुर जी महाराज की शहादत की पृष्ठभूमि को ध्यान में लायें तो यह एक सर्वकालिक सत्य है कि अन्याय का विरोध यदि किसी विशिष्ट शख्सियत द्वारा किया जाये तो वह ज्यादा प्रभावी होता है, अब बेशक ही आधुनिक विद्वान और बुद्धिजीवी इसे मार्केटिंग फ़ंडा कहें या कुछ और।

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  69. यकीनन शर्मीला इरोम के मामले को, वह दर्ज़ा नहीं दिया गया जिसके वह सर्वथा योग्य हैं !

    स्वामी निगमानंद का वलिदान देश जान ही नहीं पाता अगर वह उस अस्पताल में न होते जहाँ बाबा रामदेव भर्ती थे, यह दोनों घटनाएं कलंकित करने वाली हैं !

    अगर यह एक्ट अनुपयुक्त और जन विरोधी है तो निस्संदेह इस पर सरकार को गौर करना चाहिए और शर्मीला जनहित में वन्दनीय हैं !

    मगर हमें यह न भूलना चाहिए कि अक्सर इस प्रकार का सख्त कानून लोकप्रिय नहीं होते मगर देशहित में यह आवश्यक हैं !

    एक वर्ग अथवा सोंच विशेष के खिलाफ बनाए गए, ऐसे कानून के कट्टर विरोधी होते रहे हैं और आगे भी होंगे ! मगर कानून जिस कारण भी बनाया गया वह कारण अभी बाकी है या नहीं , इस पर फैसला बाकी है !

    देशहित की व्यापक समस्यायों पर समझ के बिना, बहस सिर्फ बेमानी होती है काश लोग अप्रिय व नापसंद बातों के पक्ष को समझने का प्रयत्न भी करने लगें तो परिवार और देश की बहुत सी समस्याओं का निदान हो जाये !

    डॉ अमर कुमार को बहुत बार समझ पाना, हम जैसे अल्पबुद्धि के लिए मुश्किल होता है !
    उनके लिए शुभकामनायें !

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  70. @संजय जी..
    ये कोई जरूरी नहीं कि कोई महान शख्सियत आन्दोलन करे तब ही प्रतिफल प्राप्त हो...
    हमारे स्वतात्न्त्रता संग्राम में आम लोगो ने ही भाग लिया था जो अपने कर्मो से ख़ास बन गए.

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  71. @सतीश जी,

    मगर कानून जिस कारण भी बनाया गया वह कारण अभी बाकी है या नहीं , इस पर फैसला बाकी है !

    तो ये फैसला कब होगा??...और कैसे होगा??...अगर जांच कमिटी की रिपोर्ट पर ही कोई ध्यान ना दे और उसे भुला दे....

    काश लोग अप्रिय व नापसंद बातों के पक्ष को समझने का प्रयत्न भी करने लगें तो परिवार और देश की बहुत सी समस्याओं का निदान हो जाये !

    वे बातें अप्रिय और नापसंद क्यूँ बन जाती हैं....पहले इसे समझने का प्रयत्न करना चाहिए

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  72. कई बार सोचता हूं कि क्या वे हमारे राष्ट्र / देश का अटूट हिस्सा हैं और हमारी तरह से उन्हें भी खुलकर सांस लेने और नागरिक अधिकारों का उपयोग करने का अधिकार है या फिर उपनिवेश / शत्रु क्षेत्र हैं जो उन्हें सेना के हवाले कर दिया जाना चाहिए ?

    फिर यह भी सोचता हूं कि अनोखे हैं वे लोग जो डंडे के जोर पर देशभक्त बना सकते हैं और राष्ट्रीयतावाद की अलख जगा सकते हैं ?

    और यह भी कि क्या हम स्वयं भी इन हालात में रह सकते हैं ?

    वैसे कड़े और नर्म कानूनों पर कभी एक आलेख लिखा था उसकी चर्चा फिर कभी :)

    जवाब देंहटाएं
  73. रश्मि जी,
    मनोज जी का बहुत शुक्रिया कि मेरे ब्लॉग 'साझा-संसार' तक आपको लेकर आये|
    इरोम शर्मिला का संघर्ष आम हिन्दुस्तानी का संघर्ष है, जिसे हर हिन्दुस्तानी को जानना और समझना चाहिए| आपके आलेख और लोगों की प्रतिक्रिया और प्रतिक्रिया पर प्रतिक्रिया पढ़ी| अच्छा है ऐसे बहस से कुछ और भी बातें उजागर होती है और लोगों की सोच का पता भी चलता है| मेरा मानना है कि यह कानून चाहे पूर्वोत्तर के लिए हो या कश्मीर के लिए कहीं केलिए भी जायज़ नहीं है| पूरा देश एक है और पूरे देश का एक कानून होना चाहिए| पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति के बारे में 'अमरेन्द्र जी' द्वारा दिए लिंक से और भी जानकारी मिली| यूँ मुझे लगता है कि ये मुद्दा ऐसा है जिसपर दो मत नहीं हो सकता, भले हीं कहने और सोचने का तरीका अलग अलग हो|
    जन जन तक शर्मिला की बात पहुंचे, इस कानून के बारे में लोग जाने, सरकार इसके खात्मे केबारे में निर्णय ले, इसी आशा के साथ आपको धन्यवाद कि आपका और आपके माध्यम से लोगों का समर्थन शर्मिला को मिल रहा है|
    अच्छे आलेख के लिए आपको बहुत बधाई|

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  74. क्या हम इतने मूर्ख हो गए हैं की सोचें कि इस तरह से हम उन्हें भारत का अभिन्न अंग बना सकते हैं? दिल्ली में उन्हें चिंकी कहकर, उनके प्रदेशों में सेनाएँ भेजकर? छोटी जनसंख्या वाले इन प्रदेशों में जितने लोग शेष भारत में मुट्ठी भर लगते हैं वे वहाँ की सामाजिक संरचना बदल सकते है. किन्तु हम वहाँ की demography बदल अपने लिए एक वोट बैंक खड़ा करने का लालच नहीं छोड़ पाते.
    हम में से कितने लोग पूर्वोत्तर के लोगों को अपने बीच पाते हैं? अपने पडोस में, हस्पताल में डॉक्टर के रूप में, सरकारी अधिकारियों के रूप में? मैं सदा कारखानों की ऐसी बस्तियों में रही हूँ जिन्हें हम मिनी भारत कहते थे. लगभग सब प्रान्तों के लोग होते हैं सिवाय पूर्वोत्तर के.

    सेना के जवान भी इस स्थिति को जीते जीते परेशान हो चुके होंगे.शायद यह थकान भी उनसे कई गलत कम करवा लेती होगी.

    शर्मीला इरोम जो कर रही हैं वह कोई विरला ही कर सकता है.
    घुघूती बासूती

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  75. इरोम के संघर्ष के बारे में पढ़कर अच्छा लगा लेकिन दुःख भी हुआ.
    साथ में सुधी जनों के कमेंट्स ने एक सार्थक चर्चा का रूप ले लिया.
    सरकारों की उदासीनता को देखते हुए लगता है कि सत्यग्रह को कोई नया रूप लेना होगा.

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  76. सब को पढ रही हूँ सोच रही हूँ ऐसे अनशनों के दौर कब तक खत्म होंगे? क्या कोई भी ऐसी सरकार आयेगी जो अनशन करने का अवसर न दे? शायद नही इस लिये शर्मीला जी से सिर्फ सहानुभूति ही रख सकते हैं। उनके साहस के आगे नत मस्तक तो हैं लेकिन कहीं तक खुशदीप की बात मे भी दम है। अब पंजाब मे देखो अकाली एक आतंकवादी की फाँसी की सजा माफ करवाने के लिये यू एन ओ के दर तक जाने वाले हैं कल अनशन के लिये भी ब्क़ैठ सकते हैं। अगर ऐसा सिलसिला संविधान को चुनौती दे रहा हो तो सरकार तो उसकी रक्षा करेगी ही। सही गलत मे सब की सोच एक जैसी नही हो सकती। किसी को माँह स्वादी तो किसी को वादी। एक बात सही है शर्मीला ने बाबा जैसी नौटंकी नही की इस लिये देश के सामने उसका मामला नही आया।

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  77. इरोम के जज्बे और उनके संघर्ष को नमन है ...
    हो सकता है कुछ लोग प्रयास कर भी रहे हों उनको समझाने का पर जब तक कोई प्रभावी प्रस्ताव या सरकार ये पहल न करे तो इतना लंबा संघर्ष शायद व्यर्थ जायगा ... पता नहीं ऐसे कितने बलिदान और लेने हैं समाज ने ...
    धीरे धीरे हमारी व्यवस्था ऐसा रूप ले रही है जहां आम आदमी को कुछ कहने का हक सिर्फ चुनाव के वक्त मिलने वाला है ... और वो इस चुनावी व्यवस्था में सुधार के लिए भी वो कुछ नहीं कर सकता ...
    पिछले कई दिनों से सरकार और अन्ना टीम/रामदेव टीम मीडिया के वार्तालाप से ये बात कुछ कुछ स्पष्ट होती जा रही है ...

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  78. आप ने सही कहा रश्मि जी,मैं यहाँ पहले नहीं आ सका। आप का ब्लाग फॉलो कर लिया है अब गलती न होगी।

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