जब हम दिल्ली से बॉम्बे,आए (हाँ! उस वक़्त बॉम्बे,मुंबई नहीं बना था) तो पाया यहाँ पर लोग बड़े शौक से थियेटर में फिल्में देखा करते थे. एक दिन पतिदेव ने ऑफिस से आने के बाद यूँ ही पूछ लिया--'DDLJ देखने चलना है?' (जरूर ऑफिस में सब DDLJ की चर्चा करते होंगे ) अब आपलोग गेस कर ही सकते हैं...मेरा जबाब क्या रहा होगा....हाँ,सही गेस किया...:) हमलोग झटपट तैयार होकर थियेटर में पहुंचे. नवनीत ने डी.सी.का टिकट लिया क्यूंकि हमारी तरफ वही सबसे अच्छा माना जाता था. जब थियेटर के अन्दर टॉर्चमैन ने टिकट देख सबसे आगेवाली सीट की तरफ इशारा किया तो हम सकते में आ गए. चाहे,मैं कितने ही दिनों बाद थियेटर आई थी.पर आगे वाली सीट पर बैठना मुझे गवारा नहीं था. यहाँ शायद डी.सी.का मतलब स्टाल था. मुझे दरवाजे पर ही ठिठकी देख नवनीत को भी लौटना पड़ा. पर हमारी किस्मत अच्छी थी,हमें बालकनी के टिकट ब्लैक में मिल गए.
फिर तो पतिदेव को मन मार कर,जबरदस्ती फिल्मो के लिए साथ चलना ही पड़ता. बच्चे छोटे थे पर कभी तंग नहीं किया...बस Titanic देखते हुए चार वर्षीय किंजल्क ने हिचकियाँ भरनी शुरू कर दीं थीं. मैने दबे स्वर में डांटा, "पता है ना...ये सब झूठ होता है..नकली है सब" दोनों हाथों से आँखे -नाक पोंछते कहता, "हाँ, मम्मा... पता है......पर 'रोज़' का क्या होगा?" {पूत के पाँव ,पालने में ही दिख रहे थे...तभी से 'रोज़' की चिंता ज्यादा थी :)}और ये लड़के, थियेटर में हमेशा एम्बैरेस करते हैं..चाहे वो छोटा भाई हो या बेटा
फिल्म 'कुछ कुछ होता है' देखने के बाद...Three men in my life इतने निराश हुए कि मैने फैसला कर लिया..अब और सजा नहीं देनी इन्हें. गोद में चढ़े , छोटे बेटे, कनिष्क ने भी मुहँ बनाते हुए कहा, "बौक्छिंग नहीं थी " किंजल्क ने तुरंत समर्थन किया 'कितनी बोरिंग फिल्म थी..' पतिदेव को फिल्म के बीच -बीच में बाहर के चक्कर लगाते देख ही चुकी थी.
हालांकि मुझे इनलोगों की पसंद की फिल्मे अब तक उनके साथ देखनी पड़ती हैं. चाहे वो पतिदेव की मनपसंद.."सत्या ' हो या "शूट आउट इन लोखंडवाला "..बच्चों के साथ भी ढेर सारी एनीमेशन फिल्मे.."हैरी पॉटर "..जय हनुमान "..सब देखनी पड़ीं. हैरी पॉटर तो मुझे भी पसंद है..पर 'जय हनुमान ' में मैं सचमुच सो गयी थी. {अब शायद मुझे लोग, नास्तिक कहना शुरू कर दें :)}
कुछ ही दिनों बाद ,पास के फ़्लैट में ही शिफ्ट हुई ,'सीमा दुधानी '. मेरी तरह फिल्मो की शौक़ीन. बस बड़े बेटे किंजल्क को को स्कूल बस पर चढ़ा , (आफ्टरनून शिफ्ट थी उसकी) हम फिल्मे देखने चले जाते... दिल तो पागल है..बौर्डर ,गुप्त ..परदेस,चाची 420 आदि उसके साथ देखी. उसका डेढ़ साल का बेटा बहुत तंग करता, वह आधी फिल्म में हॉल से बाहर ही रहती..फिर भी फिल्म देखने से बाज़ नहीं आती. मेरे दो साल के बेटे ने तो 'जख्म' जैसी फिल्म भी चुपचाप देखी थी. (आखिर माँ का असर तो पड़ेगा )आज बताने पर जरूर कहता है,"'जख्म' दिखा कर कितना जख्म दिया, मुझे"
फिर कई फ्रेंड्स बनी..रूपी, सोना, शशि, पद्मजा, शम्पा...इन सबके साथ फिल्मावलोकन चलता रहा. अक्सर मॉर्निंग वाक में ही प्लान बन जाता. एक बार मैने और रूपी ने डिम्पल कपाडिया की फिल्म "लीला " देखने का प्लान किया..साथ टहलती एक और फ्रेंड ने भी साथ आने की इच्छा जताई. हॉल जाकर पता चला, ये फिल्म तो इंग्लिश में है. तीसरी फ्रेंड को बिलकुल ही अंग्रेजी नहीं आती थी. हमें बहुत ही गिल्ट महसूस होने लगा. हमें लगा, बेचारी के पैसे बर्बाद हो गए. पर डिम्पल की ख़ूबसूरत कॉटन साड़ियों ने क्षतिपूर्ति कर दी होगी. वो उन साड़ियों पर ही फ़िदा हो गयी.
इन सब फ्रेंड्स में शम्पा की पसंद मुझसे बहुत मिलती थी. उसके साथ मैने कई कला फिल्मे देखीं, खामोश पानी, , मीनाक्षी, १५, पार्क एवेन्यू, चमेली,अनुरणन ...आदि .
'खामोश पानी' की शूटिंग पकिस्तान के रियल लोकेशन पर की गयी है. इस फिल्म को देखकर जाना ,आज भी पकिस्तान के छोटे शहरों में आम पुरुषों का लिबास 'पठानी सूट'(घुटनों तक की कमीज़ और शलवार ) ही है .वरना वीर-ज़ारा में कहीं भी असली पकिस्तान के दर्शन नहीं हैं.(किरण खेर को इस फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड मिला है...निर्देशिका साबिहा सुमर और ज्यादातर कलाकार पकिस्तान के हैं )
फिल्म , मीनाक्षी में हमलोग सिर्फ पांच लोग थे हॉल में, एक जोड़ा तो खाली हॉल मिलेगा, यही सोचकर आया था. एक व्यक्ति,अकेला था...जो थोड़ी देर बाद ही उठ कर चला गया. इंटरवल में चाय तक नहीं मिली. 'फ़ूड स्टॉल ' बंद ही रहा. पर मैं कुछ लकी लोगों में से हूँ, जिन्होंने मीनाक्षी देखी. फिल्म रिलीज़ होने के बाद उसके एक गाने को लेकर कुछ कंट्रोवर्सी हुई और दस दिनों के अंदर ही नकचढ़े मकबूल फ़िदा हुसैन साहब ने फिल्म ही उतार ली थियेटर से (फिल्म कुछ ख़ास नहीं थी...पर छायांकन गज़ब का था .एकदम ख़ूबसूरत पेंटिंग की तरह.)
"अनुरणन' देखते वक्त तो टिकट -विंडो पर ही बता दिया कि और दो लोग भी आ जाएंगे तो फिल्म शुरू होगी, अन्यथा हमारे पैसे वापस हो जाएंगे. (वैसे पहली बार , राहुल बोस-रीमा सेन-रजत कपूर की कोई इतनी बोरिंग कला फिल्म देखी....कोई और नहीं आता तो अच्छा ही होता ,हमारे पैसे बच जाते पर सबसे क्लासिक था ..फिल्म देखने के बाद, शम्पा का कमेन्ट.."ये राहुल बोस मर क्यूँ गया...लास्ट में.??..फिर खुद ही जबाब दे दिया.."इतना बोर हो गया था,इस फिल्म में काम करके कि मर गया (अब फिर लोग ,एतराज करेंगे ...कहानी क्यूँ बता दी :)} इस फिल्म में हाथ से फेंट कर बनाई गयी कॉफी का उल्लेख है...जो अब शायद ही कोई बनाता हो...लेकिन उस कॉफी के स्वाद के आगे क्या बरिस्ता...क्या CCD..सबकी कॉफी फेल है
'चमेली ' फिल्म देखने के बाद मुंबई का शुक्रिया अदा किया. ये मुंबई ही है,जहाँ दो महिलाएँ , हाउसफुल में 'चमेली' जैसी फिल्म देख कर आ गयीं. दर्शकों में बस एकाध महिलाएँ और थीं.
और फिर ,शम्पा के पति का ट्रांसफर हो गया और वो मुंबई छोड़कर चली गयी . इस बीच कुछ और फेंड्स तो बन गयी थीं...जिनके साथ, मैं मॉर्निंग वाक के लिए जाती थी पर फिल्म, मैं शम्पा के साथ ही देखती और डिस्कस...राजी और वैशाली के साथ करती.
शम्पा के जाने के बाद इनलोगों ने अपने ग्रुप के साथ चलने के लिए कहा.पर मुझे जबरदस्ती किसी ग्रुप में शामिल होना , अच्छा नहीं लगा...टालती रहती. आखिर राजी ने धमकी दी...." मिक्स्ड डबल्स " {ये कोंकणा सेन और रणवीर शौरी अभिनीत hilarious फिल्म है, कोई टेनिस मैच नहीं :)}) देखने के लिए ,ग्यारह बजे निकलना है तैयार रहना."
मैने ना कह दिया...ठीक १०.४५ में राजी का फोन आया...".तैयार हो"?? ..और मेरे ना कहने पर उसने कहा, "पंद्रह मिनट टाइम है...तैयार होकर नीचे आओ..वरना इतनी जोर-जोर से गाड़ी का हॉर्न बजाउंगी कि बिल्डिंग वाले तुम्हे नीचे भेज देंगे. "
सो मुझ बिचारी ने बिल्डिंग वालों का ख्याल करके इन लोगो के साथ फिल्मे देखना शुरू कर दिया. :)
राजी,मेधा,वैशाली,शर्मीला, अनीता...इनलोगों के साथ इतनी अच्छी जमी कि लगा ही नहीं कभी मैं, इनके ग्रुप का हिस्सा नहीं थी.....आजकल फिल्मे इनके साथ ही देखी जाती हैं. (जिनके बारे में यदा- कदा यहाँ लिखती रहती हूँ ) कभी-कभी पैसे बचाने के चक्कर में हमलोग सुबह दस बजे के शो के लिए भी जाते हैं {मल्टीप्लेक्स में मॉर्निंग शो के टिकट के पैसे कम होते हैं.:)} . पर बिल्डिंग से निकलते, सब फ्रेंड्स मनाते रहते हैं..".ईश्वर करे...कोई ना मिले..".वरना सुबह-सुबह फिल्म के लिए जा रहे हैं,कहना अच्छा नहीं लगेगा.{बचपन से ही लड़कियों को जो डरने की आदत पड़ जाती है...ताउम्र साथ नहीं छोडती :)}
पता नहीं क्यूँ...जिन लोगो को फिल्मो का शौक नहीं है...वे लोग फिल्म देखना...समय और पैसे की बर्बादी ही समझते हैं...
इन सारी सहेलियों के सरनेम 'मेनन' 'अय्यर', 'शेट्टी' , 'चाफेकर', 'मोटवाणी' हैं. जाहिर है, ज्यादातर दक्षिण भारतीय हैं पर हिंदी कला फिल्मो में इनकी रूचि देख सुखद आश्चर्य होता है. बस एक बार हद हो गयी जब ये लोग जबरदस्ती मुझे अपने साथ सुपरहिट तमिल फिल्म ' आर्यन' दिखाने ले गईं . उसके हीरो 'सूर्या' की सब जबरदस्त फैन हैं. ( हिंदी वाले सूर्या को बस नगमा की बहन ज्योतिका (साउथ की टॉप हिरोइन ) के पति के रूप में ही जानते हैं )
मैंने भी उनलोगों से कहा 'मेरे साथ अब तुमलोगों को हमारी भाषा की एक भोजपुरी फिल्म भी देखनी पड़ेगी'.
सबने समवेत स्वर में कहा 'वी वोंट माईंड' पर भोजपुरी फिल्म तो हमने ही नहीं देखी..शायद 'अस्सी ' रिलीज़ हो तो कुछ फ्रेंड्स को ले जाऊं ...पर पहले फीडबैक देखकर. :)
फिर तो पतिदेव को मन मार कर,जबरदस्ती फिल्मो के लिए साथ चलना ही पड़ता. बच्चे छोटे थे पर कभी तंग नहीं किया...बस Titanic देखते हुए चार वर्षीय किंजल्क ने हिचकियाँ भरनी शुरू कर दीं थीं. मैने दबे स्वर में डांटा, "पता है ना...ये सब झूठ होता है..नकली है सब" दोनों हाथों से आँखे -नाक पोंछते कहता, "हाँ, मम्मा... पता है......पर 'रोज़' का क्या होगा?" {पूत के पाँव ,पालने में ही दिख रहे थे...तभी से 'रोज़' की चिंता ज्यादा थी :)}और ये लड़के, थियेटर में हमेशा एम्बैरेस करते हैं..चाहे वो छोटा भाई हो या बेटा
फिल्म 'कुछ कुछ होता है' देखने के बाद...Three men in my life इतने निराश हुए कि मैने फैसला कर लिया..अब और सजा नहीं देनी इन्हें. गोद में चढ़े , छोटे बेटे, कनिष्क ने भी मुहँ बनाते हुए कहा, "बौक्छिंग नहीं थी " किंजल्क ने तुरंत समर्थन किया 'कितनी बोरिंग फिल्म थी..' पतिदेव को फिल्म के बीच -बीच में बाहर के चक्कर लगाते देख ही चुकी थी.
हालांकि मुझे इनलोगों की पसंद की फिल्मे अब तक उनके साथ देखनी पड़ती हैं. चाहे वो पतिदेव की मनपसंद.."सत्या ' हो या "शूट आउट इन लोखंडवाला "..बच्चों के साथ भी ढेर सारी एनीमेशन फिल्मे.."हैरी पॉटर "..जय हनुमान "..सब देखनी पड़ीं. हैरी पॉटर तो मुझे भी पसंद है..पर 'जय हनुमान ' में मैं सचमुच सो गयी थी. {अब शायद मुझे लोग, नास्तिक कहना शुरू कर दें :)}
कुछ ही दिनों बाद ,पास के फ़्लैट में ही शिफ्ट हुई ,'सीमा दुधानी '. मेरी तरह फिल्मो की शौक़ीन. बस बड़े बेटे किंजल्क को को स्कूल बस पर चढ़ा , (आफ्टरनून शिफ्ट थी उसकी) हम फिल्मे देखने चले जाते... दिल तो पागल है..बौर्डर ,गुप्त ..परदेस,चाची 420 आदि उसके साथ देखी. उसका डेढ़ साल का बेटा बहुत तंग करता, वह आधी फिल्म में हॉल से बाहर ही रहती..फिर भी फिल्म देखने से बाज़ नहीं आती. मेरे दो साल के बेटे ने तो 'जख्म' जैसी फिल्म भी चुपचाप देखी थी. (आखिर माँ का असर तो पड़ेगा )आज बताने पर जरूर कहता है,"'जख्म' दिखा कर कितना जख्म दिया, मुझे"
फिर कई फ्रेंड्स बनी..रूपी, सोना, शशि, पद्मजा, शम्पा...इन सबके साथ फिल्मावलोकन चलता रहा. अक्सर मॉर्निंग वाक में ही प्लान बन जाता. एक बार मैने और रूपी ने डिम्पल कपाडिया की फिल्म "लीला " देखने का प्लान किया..साथ टहलती एक और फ्रेंड ने भी साथ आने की इच्छा जताई. हॉल जाकर पता चला, ये फिल्म तो इंग्लिश में है. तीसरी फ्रेंड को बिलकुल ही अंग्रेजी नहीं आती थी. हमें बहुत ही गिल्ट महसूस होने लगा. हमें लगा, बेचारी के पैसे बर्बाद हो गए. पर डिम्पल की ख़ूबसूरत कॉटन साड़ियों ने क्षतिपूर्ति कर दी होगी. वो उन साड़ियों पर ही फ़िदा हो गयी.
इन सब फ्रेंड्स में शम्पा की पसंद मुझसे बहुत मिलती थी. उसके साथ मैने कई कला फिल्मे देखीं, खामोश पानी, , मीनाक्षी, १५, पार्क एवेन्यू, चमेली,अनुरणन ...आदि .
'खामोश पानी' की शूटिंग पकिस्तान के रियल लोकेशन पर की गयी है. इस फिल्म को देखकर जाना ,आज भी पकिस्तान के छोटे शहरों में आम पुरुषों का लिबास 'पठानी सूट'(घुटनों तक की कमीज़ और शलवार ) ही है .वरना वीर-ज़ारा में कहीं भी असली पकिस्तान के दर्शन नहीं हैं.(किरण खेर को इस फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड मिला है...निर्देशिका साबिहा सुमर और ज्यादातर कलाकार पकिस्तान के हैं )
फिल्म , मीनाक्षी में हमलोग सिर्फ पांच लोग थे हॉल में, एक जोड़ा तो खाली हॉल मिलेगा, यही सोचकर आया था. एक व्यक्ति,अकेला था...जो थोड़ी देर बाद ही उठ कर चला गया. इंटरवल में चाय तक नहीं मिली. 'फ़ूड स्टॉल ' बंद ही रहा. पर मैं कुछ लकी लोगों में से हूँ, जिन्होंने मीनाक्षी देखी. फिल्म रिलीज़ होने के बाद उसके एक गाने को लेकर कुछ कंट्रोवर्सी हुई और दस दिनों के अंदर ही नकचढ़े मकबूल फ़िदा हुसैन साहब ने फिल्म ही उतार ली थियेटर से (फिल्म कुछ ख़ास नहीं थी...पर छायांकन गज़ब का था .एकदम ख़ूबसूरत पेंटिंग की तरह.)
"अनुरणन' देखते वक्त तो टिकट -विंडो पर ही बता दिया कि और दो लोग भी आ जाएंगे तो फिल्म शुरू होगी, अन्यथा हमारे पैसे वापस हो जाएंगे. (वैसे पहली बार , राहुल बोस-रीमा सेन-रजत कपूर की कोई इतनी बोरिंग कला फिल्म देखी....कोई और नहीं आता तो अच्छा ही होता ,हमारे पैसे बच जाते पर सबसे क्लासिक था ..फिल्म देखने के बाद, शम्पा का कमेन्ट.."ये राहुल बोस मर क्यूँ गया...लास्ट में.??..फिर खुद ही जबाब दे दिया.."इतना बोर हो गया था,इस फिल्म में काम करके कि मर गया (अब फिर लोग ,एतराज करेंगे ...कहानी क्यूँ बता दी :)} इस फिल्म में हाथ से फेंट कर बनाई गयी कॉफी का उल्लेख है...जो अब शायद ही कोई बनाता हो...लेकिन उस कॉफी के स्वाद के आगे क्या बरिस्ता...क्या CCD..सबकी कॉफी फेल है
'चमेली ' फिल्म देखने के बाद मुंबई का शुक्रिया अदा किया. ये मुंबई ही है,जहाँ दो महिलाएँ , हाउसफुल में 'चमेली' जैसी फिल्म देख कर आ गयीं. दर्शकों में बस एकाध महिलाएँ और थीं.
और फिर ,शम्पा के पति का ट्रांसफर हो गया और वो मुंबई छोड़कर चली गयी . इस बीच कुछ और फेंड्स तो बन गयी थीं...जिनके साथ, मैं मॉर्निंग वाक के लिए जाती थी पर फिल्म, मैं शम्पा के साथ ही देखती और डिस्कस...राजी और वैशाली के साथ करती.
शम्पा के जाने के बाद इनलोगों ने अपने ग्रुप के साथ चलने के लिए कहा.पर मुझे जबरदस्ती किसी ग्रुप में शामिल होना , अच्छा नहीं लगा...टालती रहती. आखिर राजी ने धमकी दी...." मिक्स्ड डबल्स " {ये कोंकणा सेन और रणवीर शौरी अभिनीत hilarious फिल्म है, कोई टेनिस मैच नहीं :)}) देखने के लिए ,ग्यारह बजे निकलना है तैयार रहना."
मैने ना कह दिया...ठीक १०.४५ में राजी का फोन आया...".तैयार हो"?? ..और मेरे ना कहने पर उसने कहा, "पंद्रह मिनट टाइम है...तैयार होकर नीचे आओ..वरना इतनी जोर-जोर से गाड़ी का हॉर्न बजाउंगी कि बिल्डिंग वाले तुम्हे नीचे भेज देंगे. "
सो मुझ बिचारी ने बिल्डिंग वालों का ख्याल करके इन लोगो के साथ फिल्मे देखना शुरू कर दिया. :)
राजी,मेधा,वैशाली,शर्मीला, अनीता...इनलोगों के साथ इतनी अच्छी जमी कि लगा ही नहीं कभी मैं, इनके ग्रुप का हिस्सा नहीं थी.....आजकल फिल्मे इनके साथ ही देखी जाती हैं. (जिनके बारे में यदा- कदा यहाँ लिखती रहती हूँ ) कभी-कभी पैसे बचाने के चक्कर में हमलोग सुबह दस बजे के शो के लिए भी जाते हैं {मल्टीप्लेक्स में मॉर्निंग शो के टिकट के पैसे कम होते हैं.:)} . पर बिल्डिंग से निकलते, सब फ्रेंड्स मनाते रहते हैं..".ईश्वर करे...कोई ना मिले..".वरना सुबह-सुबह फिल्म के लिए जा रहे हैं,कहना अच्छा नहीं लगेगा.{बचपन से ही लड़कियों को जो डरने की आदत पड़ जाती है...ताउम्र साथ नहीं छोडती :)}
पता नहीं क्यूँ...जिन लोगो को फिल्मो का शौक नहीं है...वे लोग फिल्म देखना...समय और पैसे की बर्बादी ही समझते हैं...
इन सारी सहेलियों के सरनेम 'मेनन' 'अय्यर', 'शेट्टी' , 'चाफेकर', 'मोटवाणी' हैं. जाहिर है, ज्यादातर दक्षिण भारतीय हैं पर हिंदी कला फिल्मो में इनकी रूचि देख सुखद आश्चर्य होता है. बस एक बार हद हो गयी जब ये लोग जबरदस्ती मुझे अपने साथ सुपरहिट तमिल फिल्म ' आर्यन' दिखाने ले गईं . उसके हीरो 'सूर्या' की सब जबरदस्त फैन हैं. ( हिंदी वाले सूर्या को बस नगमा की बहन ज्योतिका (साउथ की टॉप हिरोइन ) के पति के रूप में ही जानते हैं )
मैंने भी उनलोगों से कहा 'मेरे साथ अब तुमलोगों को हमारी भाषा की एक भोजपुरी फिल्म भी देखनी पड़ेगी'.
सबने समवेत स्वर में कहा 'वी वोंट माईंड' पर भोजपुरी फिल्म तो हमने ही नहीं देखी..शायद 'अस्सी ' रिलीज़ हो तो कुछ फ्रेंड्स को ले जाऊं ...पर पहले फीडबैक देखकर. :)
हद है देखने की……………अब तक शौक बरकरार है और फिर याद भी रहती हैं ………………कभी था ऐसा ही शौक कि क्लासिक मूवी भी देख लेती थी मगर आज तो कोई भी देखने का मन नही करता……………वैसे तुम से बचकर रहना चाहिये क्या पता जब मिलो तो कहो चलो मूवी देखने चलते हैं……………और ले जाओ किसी तमिल मूवी मे तो हमारा क्या होगा……………हा हा हा………वैसे संस्मरण अच्छे चल रहे हैं और हम भी भ्रमण कर रहे है तुम्हारे साथ्।
जवाब देंहटाएंअगर ना देखी हो तो भले ही घर पर सही ३ फिल्मो के नाम बता रहा हूँ जरुर देख लीजियेगा ... 'गुलाल' , 'कार्तिक calling कार्तिक' और 'शौर्य' !
जवाब देंहटाएंशायद आपको पसंद आयें यह फ़िल्में ! इन में से 'शौर्य' 'A FEW GOOD MEN' नाम की एक अंग्रेजी फिल्म से प्रभावित है !
वैसे मान गए आपके इस शौक को ... यही दुआ है यह शौक बना रहे !
@शिवम जी,
जवाब देंहटाएंतीनो फिल्म देखी हुई है....गुलाल की तो dvd घरमे ही है...अक्सर देखी जाती है.A FEW GOOD MEN' , Zee Studios पर कई बार दिखाई गयी है. शौर्य में राहुल बोस का अभिनय काबिल-ए-तारीफ है.
बिल्डिंग वाले तो आपका अहसान मानते नहीं अघाते होंगे, कितना ख्याल रखा आपने उनका:)
जवाब देंहटाएंआपके साथ यह फ़िल्मी सफ़र रोचक, मनोरंजक और लाजवाब रहा। इतनी सारी मन की बतें न निकलतीं यदि ये किस्सा फ़िल्मों का न होता। है ना?
जवाब देंहटाएंफ़िल्म होती ही है यही। और यही तो फ़िल्मी है।
एक संस्ममरण की सबसे बड़ी सफलता मेरे अनुसार यह है कि पाठक उससे अपने को जुड़ा महसूस करे। और इस पूरी श्रृंखला में हम भी आपके साथ टिकट कटाते, बचते बचाते फ़िल्मेंं देखते, गाते-गुनगुनाते हॉल से बाहर भीतर करते रहे। कभी ७० वें दशक में, कभी ८० वे तो कभी उसके बाद में।
एक बहुत अच्छी पोस्ट के लिए बहुत-बहुत बधाई।
1986 से अब तक...सिनेमाहॉल पर शायद गिनती की फिल्में देखी होगी...यहाँ सिनेमाहॉल हैं नहीं..:( जब कभी दुबई या दिल्ली जाओ तो कभी एकाध मौका मिला...
जवाब देंहटाएं"अच्छे घर की बहुए सुबह सुबह फिल्म देखने जाती है राम राम ...घोर कलजुग है "
जवाब देंहटाएं:-)
एक तो इत्ती सारी फिल्मे देख ली और अब जला रही है ...मैं नहीं जा पाती हूँ ना ..
पर आपके अनुभव पढ़कर मज़ा आता है ....
एक शौकिन संस्मरण!!
जवाब देंहटाएंशानदार!!
मस्त है। मजा आ रहा है। फिल्मों का इतना दीवानापन।
जवाब देंहटाएंआपका नाम तो गिनिज बुक में दर्ज होना चाहिए। किसी भी फिल्म का सीन आते ही झट से नाम बता देती होंगी। क्यों ठीक कहां ना दी।
हमने तो इनमें से अधिकांश के नाम भी नहीं सुने हैं। सारी ही देख डाली हैं क्या? अरे बाप रे तुम्हें तो थीसिस लिख देनी चाहिए। लेकिन दोस्त मिल रहे हैं और साथ में फिल्म देखी जा रही है, इससे बड़ा सुख जीवन में और कुछ नहीं है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया संस्मरण.. अच्छा लग रहा है आपका फिल्म प्रेम देखकर..
जवाब देंहटाएंजितने नाम लाल में दिख रहे हैं उनमें 'मीनाक्षी'' और 'जय हनुमान' को छोड़ सारी मेरी भी देखी हुई हैं. इसका माने ये है कि आपके अलावा भी कुछ लोग ऐसी फिल्में देखते हैं :)
जवाब देंहटाएंऔर मेरा भी मानना है की ये लडकियां थियेटर में हमेशा एम्बैरेस करेंगी..चाहे वो बहन हो या मम्मी. करेंगी इसलिए क्योंकि दोनों का ही अनुभव नहीं है. :)
जिनका अनुभव है वो बोर नहीं करती :P
आप की दीवानगी की कोई हद नहीं है, लगे रहो, हम भी तैयार है,
जवाब देंहटाएंshauk aur kramvaar yaaden ...wo bhi dilchasp andaaj me , maan gaye
जवाब देंहटाएंलगभग सारी फिल्में देखी हैं, बाकी भी निपटाते हैं।
जवाब देंहटाएंओह ...बड़ी सारी फ़िल्में देखी हैं आपने..... सबसे जुड़ी जानकारियां भी याद हैं.... :) एक समर्पित फ़िल्मी शौकीन
जवाब देंहटाएंरश्मि जी,
जवाब देंहटाएंयादगार बन गया ये फ़िल्मों की यादों का सफ़र.
सबकी अपनी अपनी पसंद होती है,ये आपने परिवार के सदस्यों के माध्यम से बखूबी बता दिया.
बाप रे.... इतनी फ़िल्मे? .... मैने तो इन मे एक भी नही देखी फ़िल्म क्या टी वी नही देखा कई सालो से समाचारो को छोड कर, लेकिन मेरे पास करीब दो तीन हजार फ़िल्मे हे, रखने का शोक तो हे, देखने का नही...
जवाब देंहटाएंआपसे (आपके ब्लॉग से) मेरा पहला परिचय सिनेमा के कारण ही हुआ था..जिसमें आपने चोरी चोरीफिल्म देखी और बाद में घर के लोंग उसी फिल्म की टिकट ले आये और आपको दुबारा देखनी पड़ी थी फिल्म!!ये सफर भी सुहाना रहा!
जवाब देंहटाएंक्या खजाना निकल रहा है...गज़ब शौक है फिल्मों का.
जवाब देंहटाएंबढि़या फिल्मी अपडेट, शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंआपकी गिनाई हुयी सारी फिल्में देखी हैं, फिल्मों का ये दीवानापन ही है जो आपकी पूरी पोस्ट एक सांस में पढ़ गया.... वैसे मुझे अनुरणन अच्छी लगी थी...
जवाब देंहटाएंवैसे कुछ फिल्में मैं भी गिना दूं क्या ????
फिल्म परजानिया का जिक्र नहीं दिख रहा .... ऐसे ही "मुखबिर, गाँधी माय फादर, फिराक" आदि भी हैं....शायद इनका ज़िक्र आपने पहले की पोस्ट में किया हो या आगे करने वाली हों...
वैसे तेलगु फिल्मों के बारे में आपके क्या ख्याल हैं ??
बोमारिल्लू, कोठा बंगारू लोकम, गोदावरी, ओय, विनायाकदु आदि फिल्में भी मस्त हैं...मौका मिले तो ज़रूर देखिएगा....
बहुत दिलचस्प संस्मरण चल रहे हैं ! कोई हमशौक ब्लॉग पर ही मिल जाये तो कितनी खुशी होती है यह बताना संभव नहीं है ! बीते दिनों में हमने भी कई बेहतरीन, खूबसूरत और यादगार फ़िल्में देखी है जिनकी खुमारी अभी तक दिलोदिमाग पर तारी है लेकिन अब यह शौक समय की भेंट चढ़ चुका है ! शानदार श्रृंखला चल रही है ! जारी रखिये !
जवाब देंहटाएंगज़ब यादें है ...देखी तो हमने भी अनगिनत है , मगर इस तरह यादें संजोयी हुई नहीं हैं ...हजारों ख्वाहिशें ऐसी नहीं देखी ?
जवाब देंहटाएं@जिन लोगो को फिल्मो का शौक नहीं है...वे लोग फिल्म देखना...समय और पैसे की बर्बादी ही समझते हैं...
समय के साथ प्राथमिकतायें बदल जाती हैं , शौक़ और जरुरत का फर्क भी समझ आ जाता है !
@संजय जी
जवाब देंहटाएंऔर देखिए एक हम हैं कि...बिल्डिंग वालों पर इतना बड़ा अहसान किया और जताया भी नहीं...:)
@मीनाक्षी जी एवं सोनल
जवाब देंहटाएंसचमुच अफ़सोस है कि अब आपलोग इतनी फिल्मे नहीं देख पातीं...पर फिर वही है...कुछ खोया कुछ पाया.
और सोनल वो दास्तान फिर कभी....जब एयर कंडीशंड हॉल में रिक्लाईनर पर अधलेटे होकर कोई ऑस्कर विनिंग फिल्म देखने के बाद घर पर आकर झाडू-पोंछा-बर्तन-कपड़े सब करने पड़ते हैं क्यूंकि...कामवाली बाई थोड़ा सा काम निबटा बड़ा जोर देकर कह गयी होती है..."आप जाओ...मैं बाद में आती"...और फिर वो पलट कर नहीं आती..:(
@ अभिषेक
जवाब देंहटाएंजिनका अनुभव है वो बोर नहीं करती :P
आशा है...आप भी उन्हें एम्बैरेस...आई मीन बोर नहीं करते होंगे ..:):)
@शाहिद जी,
जवाब देंहटाएंलगे हाथ आप अपनी पसंद भी बता जाते...:)
@सलिल जी,
जवाब देंहटाएंमैने उस पोस्ट में लिखा था...कि " फिल्म की नायिका ऐश्वर्या थी इसलिए कई सहेलियों के पति मेहरबान हो गए थे...""
यानि कि आप भी पोस्ट पर ऐश्वर्या की तस्वीर देख खींचे चले आए ...हम्म....हम्म..ह्म्म्म...:)
और चोरी-चोरी नहीं देखी थी वो फिल्म...अचानक प्लान बना था....बच्चे पिकनिक के लिए गए थे...और पतिदेव मीटिंग में व्यस्त थे...इसलिए,उन्हें इन्फौर्म नहीं कर सकी थी...और वे शाम को इसी फिल्म की टिकट लेकर आ गए थे :)
@शेखर सुमन
जवाब देंहटाएंमैने फिल्मो के नाम नहीं गिनवाए..(.फिर तो तीन पोस्ट तक बस फिल्मो के नाम ही लिखती रह जाती )
संस्मरण के दौरान...जिन फिल्मो के साथ कुछ रोचक घटना घटी...या कुछ वजहें रहीं..तभी उनका नाम लिखा..
आजकल तो बस इंग्लिश-हिद्नी फिल्मे ही देखती हूँ.....पहले टी.वी. पर sub titles के साथ किसी भी भाषा की फिल्म देख लेती थी....अब ब्लॉग्गिंग इजाज़त ही नहीं देती.
@वाणी ,
जवाब देंहटाएं'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' देखी है...और उसमे चित्रागंदा बेहद अच्छी लगी थीं....और खासकर उनकी कॉटन चेक की साड़ियाँ....शाइनी आहूजा भी बहुत फ्रेश लगे थे...फिल्म तो खैर अच्छी थी ही...और बोल्ड भी.
तुमने कहा,
समय के साथ प्राथमिकतायें बदल जाती हैं , शौक़ और जरुरत का फर्क भी समझ आ जाता है !
वाणी, ऐसा नहीं है कि हम कोई जरूरी काम छोड़कर फिल्म देखने चले जाते हैं....या किसी और काम के ऊपर फिल्म को तरजीह दे देते हैं...कैसे कैसे फिल्मो के प्लान करते हैं..वो अगर लिखती तो ऐसा लगता जैसे कोई सफाई दे रही हूँ..:)
बात शौक की..और एक जैसी रूचि वाले दोस्तों के मिलने की है..वक्त निकल ही आता है..:):)
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (04.06.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंचर्चाकार:-Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
स्पेशल काव्यमयी चर्चाः-“चाहत” (आरती झा)
ये भी एक किस्म का जुनून है :)
जवाब देंहटाएंबाप रे आप तो जबरदस्त फ़िल्मी फैन रहीं हैं
जवाब देंहटाएंऐसे शौक हैं तो अच्छा है, और आप उन्हें जिस तरीके से सहेज के रखती हैं वो तो कमाल है।
जवाब देंहटाएं@अली जी,
जवाब देंहटाएंशायद, शौक जब हद से बढ़ जाए तो जुनून बन जाता है...
यहाँ जुनून जैसा कुछ नहीं....हाँ शौक बरकरार है.
दरअसल अक्सर कॉलेज को विदा कहने के बाद लोगो का फिल्मो के प्रति शौक भी अलविदा हो जाता है...कई वजहें होती हैं...और लड़कियों/महिलाओं का तो खासकर ...बस मैं थोड़ी सी लकी हूँ कि मुझे सामान रूचि वाले फ्रेंड्स मिलते गए और फिल्म देखना जारी रहा.
यहाँ मैने पिछले दस,बारह सालों के दरम्यान देखे गए फिल्मो का जिक्र किया है...जिन्हें एक ही पोस्ट में पढ़ने से लग रहा है...ओह!! इतनी सारी फिल्मे देख लीं...
जबकि कई बार तीन महीने में एक भी फिल्म नहीं देखी जाती और कभी एक ही महीने में तीन...पसंद भी थोड़ी सी जुदा है...हर फिल्म नहीं देख सकती...जुनून या दीवानगी होती..तो फिर सारी फिल्मे ही देखी जातीं.:)
बडी तकलीफ़ भरी दास्तान है :-)
जवाब देंहटाएंआर्या अच्छी मूवी है.. आर्या-२ भी आयी थी.. रेडी का धिंचक धिंचक गाना उसी फ़िल्म के रिंगा रिंगा गाने की कॉपी है...
लगता है अब आपका नाम रश्मि फिल्मीजा रखना पड़ेगा।
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बहरहाल मैंने पिछले दिनों 404 एरर नॉट फाउंड देख ली गलती से। हिन्दी है। आपने नहीं देखी हो तो जरूर देखिए। नसीरउद्दीन शाह के बेटे इमदाद की पहली फिल्म है। समीक्षा लिखनी शुरू की थी, फिर रह गई।
@राजेश जी
जवाब देंहटाएंइमाद शाह काफ़ी समय से काम कर रहे हैं.. नसीरुद्दीन शाह की डायरेक्टेड फ़िल्म ’यूं होता तो क्या होता’ में भी उन्होने काम किया है.. उसके अलावा दिल, दोस्ती ईटीसी में भी थे..
यह दास्ताँ भी उम्दा रही. संस्मरण श्रंखला बढ़िया चल रही है. आपके लेखन में भी करिश्मा है. बधाई.
जवाब देंहटाएं* दो साल और चार साल के बच्चों की फिल्मों पर ऐसी प्रतिक्रिया , अच्छा है ।
जवाब देंहटाएं* अंग्रेज़ी फिल्म देखने के लिए अंग्रेज़ी का ज्ञान कतई ज़रूरी नहीं है ,इसलिये कि फिल्म श्रव्य के साथ दृश्य माध्यम भी है ।
हमने तो अपने मूक- बधिर व नेत्रहीन मित्रों के साथ भी फिल्मे देखी हैं वे उसी तरह फिल्मों का आनन्द लेते हैं जैसे हम ( यह अनुभव कभी शेयर करेंगे )
* सिर्फ " जय हनुमान " में नीन्द लेने की वज़ह से आपको कोई नास्तिक नहीं कहेगा । नास्तिक कहलाने के लिये बहुत मशक्कत करनी होती है ।
*अंतिम बात .. मुम्बई में फिल्म देखे हमे भी बरसों हो गए , बचपन में माटुंगा में मामाजी के घर के पास बादल बिजली बरखा तीन थियेटर थे ,वहाँ देखी फिल्मों की याद आ गई ( वैसे हम अकेले ही देखते थे )
* आपकी पोस्ट पढकर यह तय हुआ कि अगली बार मुम्बई में फिल्म देखना ही है ।
आपका शौंक तो जबरदस्त है ... कला फिल्में देखना बहुत ही भारी काम लगता है मुझे वो भी अगर लंबी हों तो बाप रे बाप ... हो गया कांड .... पर आपका संस्मरण पढ़ कर ज़रूर मज़ा आ रहा है ...
जवाब देंहटाएंwaah ji wah...ye to achchi khasi sameeksha ho gayi filmo ki! aur aapki friends ke baare mein bhi pata chal gaya!
जवाब देंहटाएंab achhi movie mushkil se dekhneko milti hai.
जवाब देंहटाएंhttp://shayaridays.blogspot.com