फर्स्ट अप्रैल से ही युवाओं की शरारतों के किस्से पोस्ट करने शुरू किए थे...अभी श्रृंखला जारी ही थी कि क्रिकेट में विश्व कप की जीत और अन्ना हजारे के जन आन्दोलन जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं घट गयीं...और सामयिक पोस्ट लिख डाला. पर मूर्ख दिवस भले ही बीत गया...उसके किस्से तो सालो भर लिखे -पढ़े जा सकते हैं . पहले प्रस्तुत है 'अरशद अली' के शरारती कारनामे और अब उनका साथ देने को किसी और का संस्मरण था नहीं सो खुद के ही लिख डाले :)
मुझे याद है जब मै बहुत छोटा था तो तो प्यार से मुझे छोटू बुलाया जाता था ..मुझमे और मेरे बड़े भाई में मात्र एक वर्ष का अंतर था और हम दोनों आस-पड़ोस के सबसे सुन्दर बच्चों में सुमार थे ...पापा जब भी बाज़ार जाते तो हम दोनों के लिए कोई न कोई फल ज़रूर लाते...मगर फलों की पूरी जानकारी उस वक़्त हम दोनों के पास नहीं थी ...मै झोला में कोई फल ढूंढने में माहिर था..यहाँ तक की इतना उतावला रहता था की पापा के आने का इंतजार करते हुए कई बार मम्मी से पूछ लेता था "पापा कब आयेंगे ".एक बार नाना के घर पर नाना बाज़ार से सब्जी लेकर जैसे पहुंचे ...अपनी आदत के अनुसार मै दौड़ कर उनके झोले में झाँकने लगा....मुझे अच्छे से याद नहीं मगर कोई सब्जी जो मुझे बार बार अपने फल होने का आभास करा रही थी ..क्योंकि वास्तव में नाना जी कोई फल नहीं लाये थे..(उन्हें पता ही नहीं था कि उनके नाती फल के दीवाने हैं)..नाना खड़े होकर सारे शैतानियों को देख रहे थे ..इसी बीच मै उस फल जैसी सब्जी को लेकर माँ-माँ चिल्लाते हुए यही पूछा कि "माँ या खाने का है या पकाने का" ये नाना जी को अचम्भे में डालने के लिए काफी था ...क्योंकि नाना के घर मै, भाई मम्मी पापा के साथ देर रात पहुंचा था और नाना मेरे मुख से पहली चालाकी भरे वाक्य सुन रहे थे ...उसके बाद तो फल खाते खाते मै तंग रहा क्योंकि नाना जी मेरे फल की दिवानगी को समझ चुके थे.....इसी क्रम में एक बार माँ ओल काट कर किचन में सब्जी बनाने के लिए रखी थी...और मै जैसे किचन में गया तो मुझे वो एपल (कटे हुए सेव ) के जैसा लगा और मै उनसे बिना ये पूछे की "ये खाने का है या पकाने का "दो-तीन टुकड़े खा लिया .फिर तो पूछिये मत मेरा पूरा चेहरा सूज गया...मम्मी-पापा आस-पड़ोस सभी परेशान हो गए ...जाने कितने निम्बू के आचार को खिलाया गया..तब जाकर मुझे आराम मिला ...
उम्र के हर मोड़ पर की गयी कुछ शरारतें
पिछली बार जब बाल-दिवस पर और इस बार मूर्ख दिवस पर लोगो को परिचर्चा का आमंत्रण भेजा तो कुछ लोगो का उत्तर आया..."मैं तो बड़ा सीधा- साधा था...पढ़ने-लिखने वाला...अनुशासनबद्ध छात्र...कभी कोई शरारत की ही नहीं." और फिर मैं सोचने लगी...मैं भी पढ़ने में अच्छी ही थी {अब मौके का फायदा उठा कर बता ही दूँ कि हमेशा क्लास में फर्स्ट आती थी....दो बार स्कॉलरशिप भी मिली :)} कभी अनुशासन भी नहीं तोडा..पर शरारतें तो खूब कीं....सबने किए होंगे....शायद फर्क ये है कि..मैने याद रखे हैं वे लोग जरूर भूल गए होंगे.
जब पांचवी या छठी कक्षा में थी..तभी मुझे पहली बार फर्स्ट अप्रैल की खासियत पता चली. उन दिनों पापा, लंच टाइम में ऑफिस से घर खाना खाने आया करते थे. उन्होंने खाना शुरू ही किया था कि पड़ोस वाली आंटी का नौकर साफ़ कपड़ों से बंधी एक नई मिटटी की हांडी लेकर आया और बोला...कि "उनके गाँव से ताज़ा दही आया है". पापा खुश होकर मम्मी से बोले.."एकदम सही समय पर लाया है जल्दी से कटोरी में डाल, ताज़ा दही ले आओ" पर उस मिटटी की हांडी में था चावल का मांड और सब्जियों के छिलके. मम्मी ने फिर से हांडी के मुहँ पर कपड़ा बाँध 'रामबिहारी' के हाथों दूसरी आंटी के यहाँ भिजवा दिया...और फिर तो वो हांडी शाम तक घर-घर घूमती रही.
बड़ों की ये शरारत देख मुझे भी एक आइडिया आया. उन दिनों क्रीम बिस्किट इतना आम नहीं हुआ था. पापा जब पास के बड़े शहर जाते, तब लेकर आया करते थे. मैने बड़ी सफाई से उन बिस्किट्स का क्रीम निकाल कर उसपर मिटटी का लेप लगा कर रख दिया. शाम को कॉलोनी के सारे बच्चे इकट्ठे होकर खेलते थे और किसी ना किसी के घर पानी पीने के लिए जाया करते. उस शाम मैने उन्हें घर पे क्रीम बिस्किट की बात बतायी और सब बड़े खुश-खुश चले आए...पर एक बाईट लेने के बाद ही उनकी थू थू करती हुई अजीब सी मुखाकृति और अपना पेट पकड़ कर हँसना अब तक याद है...(पता नहीं अब वो रीता,अक्षय, मिथिलेश, सीमा, अनीता, मोहन,प्रतिमा, कहाँ होंगे .)
फिर मैं हॉस्टल में चली आई. हॉस्टल में हमलोगों को नाश्ते में रोज़ अलग-अलग चीज़ें मिलती थी. उस फर्स्ट अप्रैल को शायद बुधवार था और उस दिन हमें कुरमुरे और जलेबी मिला करते थे. मैं किसी काम से बाहर आई तो देखा मेट्रन दी, प्यून को ...जलेबी लाने के लिए पैसे दे रही हैं. प्यून के गेट से बाहर जाते ही मुझे शरारत सूझी और मैने जाकर नाश्ते की घंटी बजा दी . मेस से महाराज और प्रमिला, कामख्या (मेस में काम करने वालीं ) निकल कर देखने आयीं कि जलेबी तो अभी आई नहीं...घंटी कैसे बज गयी. मैने उन्हें चुप रहने का इशारा करते हुए बताया कि आज पहली तारीख है,..आज के दिन लोगो को बुद्धू बनाते हैं. सारी लडकियाँ खुश होते हुए बातें करती हुई आ रही थीं कि आज तो जलेबी है नाश्ते में. पर जब इंतज़ार करना पड़ा तो सबने कटोरी चम्मच बजा और मेज़ थपथपा कर इतना शोर मचाया और 'रश्मि जलेबी लाओ...' का इतना नारा लगाया कि मेट्रन आ गयीं. पर उन्होंने भी sportingly लिया और मुझे डांट नहीं पड़ी.
लेकिन हमारी कॉलेज की लेक्चरर इतनी sporting नहीं थीं. बी.ए. में इंग्लिश के लेक्चर में दो सेक्शन एक साथ क्लास अटेंड करते. पहली मंजिल पर क्लास होती थी. मुझे और मेरी फ्रेंड प्रियदर्शिनी ने एक आइडिया सोचा जिस से लेक्चरर और स्टुडेंट्स दोनों को एक साथ बुद्धू बनाया जाए. हमने मेज पर चढ़कर ऐलान कर दिया कि मैडम के पैरों में दर्द है...वो सीढियाँ नहीं चढ़ पाएंगी...इसलिए क्लास नीचे लेंगीं. सारी लडकियाँ गिरती-पड़ती नीचे भागीं. थोड़ी देर बाद हमने पिलर के पीछे से छुपकर देखा, मैडम बड़ा सा रजिस्टर उठाये उपरी मंजिल की तरफ जा रही हैं. पर पूरी क्लास खाली देखते ही उनका पारा चढ़ा गया और लौटती हुई उनकी तेज चाल ने ही उनके मूड का रहस्य खोल दिया. काफी देर इंतज़ार करने के बाद दो लडकियाँ स्टाफ रूम में देखने गयीं कि मैडम क्यूँ नहीं आ रहीं? बाद में पता चला,उन्हें बहुत डांट पड़ी...लेकिन हमारी एकता ऐसी थी कि उनलोगों ने हम दोनों का नाम नहीं बताया.
स्कूल-कॉलेज के बाद घर- गृहस्थी में जुट गयी...पर पुरानी आदत तो आसानी से जाती नहीं. कुछ साल पहले जब टाटा स्काई और डिश टी.वी. का चलन नहीं था..सबके यहाँ केबल टी.वी ही था. यहाँ मुंबई में पाइरेटेड सी..डी. के लिए बहुत ही सख्त नियम हैं. अगर केबल पर नई फिल्म दिखाई गयी तो पुलिस केबल वाले को पकड़ कर ले जाती है. फिर भी हमारा केबल वाला दर्शकों के डिमांड पर रिस्क लेकर कभी-कभी फ़िल्में दिखा दिया करता था. उन दिनों 'ब्लैक' रिलीज़ ही हुई थी. और हम सब सहेलियों का देखने का मन था. पास की ही एक बिल्डिंग में मेरी कई फ्रेंड्स रहती हैं..सोना, रेखा, शशि, सुष्मिता, कविता...मैने ग्यारह बजे के करीब सबको फोन करके कहा कि "टी.वी. ऑन करो....केबल पर 'ब्लैक' आ रही है " सोना की बेटी आनंदिता ने फोन उठाया और ख़ुशी से चीख पड़ी..और अपने भाई को डांटने लगी..."जल्दी चैनल चेंज करो " सुष्मिता ने अफ़सोस से कहा.."मेरा खाना नहीं बना नहीं बना रे अभी तक "...मैने कहा "अरे बाहर से मंगवा लो...ये मौका निकल जाएगा.." हाँ, ऐसा ही कुछ करुँगी..." कहते फोन रख दिया उसने. शशि की बेटी तो तुरंत फोन पटक कर बगल में अपनी सहेली को बताने के लिए भाग गयी. कुछ देर बाद सबके फोन भी आए..."नहीं आ रहा.." मैने कहा.."अभी हटा दिया है ...थोड़ा इंतज़ार करो फिर से लगाएगा"
शाम को वे सारी सहेलियाँ अपनी बिल्डिंग के गार्डेन में मिलती हैं...जब शाम को मिलीं तो पता चला कि सबके पास ही मेरा फोन गया था. वे सब मेरे घर पर धावा बोलने वाली थीं कि अब कहीं से भी सी.डी. मँगा कर दिखाओ...पर रहम करके मुझे छोड़ दिया.
{ अब बच्चे और पतिदेव कैसे बाकी रहते बेवकूफ बनने से....पर उनलोगों को बनाने की जरूरत पड़ती है क्या?? :):) ....लिख तो दिया ये, अब प्रार्थना कर रही हूँ कि ये पंक्तियाँ वे लोग ना पढ़ें }
अगली पोस्ट में वे अनुभव
स्मार्ट दिखने की कोशिश और फलों के प्यार ने क्या हाल किया अरशद अली का.
सपत्नीक अरशद |
दूसरी एक घटना जो मै भुलाए नहीं भूलता ...मेरे पापा बेहद सलीके से रहने के कारण पूरे आस पड़ोस में सबसे स्मार्ट दीखते थे
मै और मेरे भाई में हमेशा पापा जितना स्मार्ट दिखने की होड़ लगी रहती थी...मुझे पापा ने इतना प्रभावित कर रखा था की उनके सभी हरकत पर मै नज़र रखता था जैसे वो कब नहाते है कपडे कैसे पहनते हैं आदि आदि ....पापा रोज़ दिन शेविंग करते थे ..और अभी भी करते हैं ..उन्हें मै दो चार दिनों से नोटिस कर रहा था ..मुझे उनके स्मार्ट दिखने का कारण उनका शेविंग करना लगने लगा ...फिर क्या था एक मौके की तलाश में रहने लगा ...कुछ ही दिनों के बाद मुझे मौका मिल गया ,माँ पड़ोस की आंटियों के साथ बाहर बातें कर रही थी ..मै घर पर अकेले था ...पापा का शेविंग किट उठाया ,रेजर में ब्लेड लोड किया ..शेविंग क्रीम गालों पर लगाया ...और जैसे हीं गाल पर रगडा मुझे वो आवाज़ (किर-किर ) नहीं मिली जो पापा के शेविंग करने पर आती थी...मुझे लगा मुझसे कोई गलती हो गयी है शायद ब्लेड काम नहीं कर रहा ...चेक करने के लिए मैंने रेजर को अपने सर के दाहिने तरफ के बाल पर रगडा..और रगड़ते हीं कुछ बाल बाहर आ गए ...किसी तरह आईने में अपने चेहरे को देखा और बहुत डर गया...मुझे लगने लगा अब मेरे सर के इस हिस्से पर बाल कभी नहीं आएगा....दौड़ कर पापा के टेबल से गोंद निकाल कर बाल को सर पर साटने का अथक प्रयास किया मगर विफल रहा ....धीरे धीरे ये बात मम्मी से पापा ...और बढ़ते बढ़ते पुरे आस पड़ोस में फ़ैल गयी ....पापा बड़े प्यार से समझाते हुए मेरे पुरे बाल को हज़ाम से उतरवा लाये....अब मै पूरा टकला था और कई महीनों तक पापा जैसा स्मार्ट भी नहीं दिखा ....
जाने ऐसी कितनी और बातें है ...मगर ये दो घटनाएं हमेशा मुझे गुदगुदा जाती हैं ....पापा-मम्मी भी हँसे बिना नहीं रह पाते.
सरिता, मैं, सोना और रेखा |
उम्र के हर मोड़ पर की गयी कुछ शरारतें
पिछली बार जब बाल-दिवस पर और इस बार मूर्ख दिवस पर लोगो को परिचर्चा का आमंत्रण भेजा तो कुछ लोगो का उत्तर आया..."मैं तो बड़ा सीधा- साधा था...पढ़ने-लिखने वाला...अनुशासनबद्ध छात्र...कभी कोई शरारत की ही नहीं." और फिर मैं सोचने लगी...मैं भी पढ़ने में अच्छी ही थी {अब मौके का फायदा उठा कर बता ही दूँ कि हमेशा क्लास में फर्स्ट आती थी....दो बार स्कॉलरशिप भी मिली :)} कभी अनुशासन भी नहीं तोडा..पर शरारतें तो खूब कीं....सबने किए होंगे....शायद फर्क ये है कि..मैने याद रखे हैं वे लोग जरूर भूल गए होंगे.
जब पांचवी या छठी कक्षा में थी..तभी मुझे पहली बार फर्स्ट अप्रैल की खासियत पता चली. उन दिनों पापा, लंच टाइम में ऑफिस से घर खाना खाने आया करते थे. उन्होंने खाना शुरू ही किया था कि पड़ोस वाली आंटी का नौकर साफ़ कपड़ों से बंधी एक नई मिटटी की हांडी लेकर आया और बोला...कि "उनके गाँव से ताज़ा दही आया है". पापा खुश होकर मम्मी से बोले.."एकदम सही समय पर लाया है जल्दी से कटोरी में डाल, ताज़ा दही ले आओ" पर उस मिटटी की हांडी में था चावल का मांड और सब्जियों के छिलके. मम्मी ने फिर से हांडी के मुहँ पर कपड़ा बाँध 'रामबिहारी' के हाथों दूसरी आंटी के यहाँ भिजवा दिया...और फिर तो वो हांडी शाम तक घर-घर घूमती रही.
बड़ों की ये शरारत देख मुझे भी एक आइडिया आया. उन दिनों क्रीम बिस्किट इतना आम नहीं हुआ था. पापा जब पास के बड़े शहर जाते, तब लेकर आया करते थे. मैने बड़ी सफाई से उन बिस्किट्स का क्रीम निकाल कर उसपर मिटटी का लेप लगा कर रख दिया. शाम को कॉलोनी के सारे बच्चे इकट्ठे होकर खेलते थे और किसी ना किसी के घर पानी पीने के लिए जाया करते. उस शाम मैने उन्हें घर पे क्रीम बिस्किट की बात बतायी और सब बड़े खुश-खुश चले आए...पर एक बाईट लेने के बाद ही उनकी थू थू करती हुई अजीब सी मुखाकृति और अपना पेट पकड़ कर हँसना अब तक याद है...(पता नहीं अब वो रीता,अक्षय, मिथिलेश, सीमा, अनीता, मोहन,प्रतिमा, कहाँ होंगे .)
फिर मैं हॉस्टल में चली आई. हॉस्टल में हमलोगों को नाश्ते में रोज़ अलग-अलग चीज़ें मिलती थी. उस फर्स्ट अप्रैल को शायद बुधवार था और उस दिन हमें कुरमुरे और जलेबी मिला करते थे. मैं किसी काम से बाहर आई तो देखा मेट्रन दी, प्यून को ...जलेबी लाने के लिए पैसे दे रही हैं. प्यून के गेट से बाहर जाते ही मुझे शरारत सूझी और मैने जाकर नाश्ते की घंटी बजा दी . मेस से महाराज और प्रमिला, कामख्या (मेस में काम करने वालीं ) निकल कर देखने आयीं कि जलेबी तो अभी आई नहीं...घंटी कैसे बज गयी. मैने उन्हें चुप रहने का इशारा करते हुए बताया कि आज पहली तारीख है,..आज के दिन लोगो को बुद्धू बनाते हैं. सारी लडकियाँ खुश होते हुए बातें करती हुई आ रही थीं कि आज तो जलेबी है नाश्ते में. पर जब इंतज़ार करना पड़ा तो सबने कटोरी चम्मच बजा और मेज़ थपथपा कर इतना शोर मचाया और 'रश्मि जलेबी लाओ...' का इतना नारा लगाया कि मेट्रन आ गयीं. पर उन्होंने भी sportingly लिया और मुझे डांट नहीं पड़ी.
लेकिन हमारी कॉलेज की लेक्चरर इतनी sporting नहीं थीं. बी.ए. में इंग्लिश के लेक्चर में दो सेक्शन एक साथ क्लास अटेंड करते. पहली मंजिल पर क्लास होती थी. मुझे और मेरी फ्रेंड प्रियदर्शिनी ने एक आइडिया सोचा जिस से लेक्चरर और स्टुडेंट्स दोनों को एक साथ बुद्धू बनाया जाए. हमने मेज पर चढ़कर ऐलान कर दिया कि मैडम के पैरों में दर्द है...वो सीढियाँ नहीं चढ़ पाएंगी...इसलिए क्लास नीचे लेंगीं. सारी लडकियाँ गिरती-पड़ती नीचे भागीं. थोड़ी देर बाद हमने पिलर के पीछे से छुपकर देखा, मैडम बड़ा सा रजिस्टर उठाये उपरी मंजिल की तरफ जा रही हैं. पर पूरी क्लास खाली देखते ही उनका पारा चढ़ा गया और लौटती हुई उनकी तेज चाल ने ही उनके मूड का रहस्य खोल दिया. काफी देर इंतज़ार करने के बाद दो लडकियाँ स्टाफ रूम में देखने गयीं कि मैडम क्यूँ नहीं आ रहीं? बाद में पता चला,उन्हें बहुत डांट पड़ी...लेकिन हमारी एकता ऐसी थी कि उनलोगों ने हम दोनों का नाम नहीं बताया.
श्रावणी, बबिता, कविता और सुष्मिता |
शाम को वे सारी सहेलियाँ अपनी बिल्डिंग के गार्डेन में मिलती हैं...जब शाम को मिलीं तो पता चला कि सबके पास ही मेरा फोन गया था. वे सब मेरे घर पर धावा बोलने वाली थीं कि अब कहीं से भी सी.डी. मँगा कर दिखाओ...पर रहम करके मुझे छोड़ दिया.
{ अब बच्चे और पतिदेव कैसे बाकी रहते बेवकूफ बनने से....पर उनलोगों को बनाने की जरूरत पड़ती है क्या?? :):) ....लिख तो दिया ये, अब प्रार्थना कर रही हूँ कि ये पंक्तियाँ वे लोग ना पढ़ें }
अगली पोस्ट में वे अनुभव
are baap re ol kha liya ... kya halat hogi ! bilkul dayniy aur aap to khair hamesha hi gr8 hain
जवाब देंहटाएंकभी शिकारी भी शिकार हो जाते हैं -ऐसा भी कुछ सुनाईये न:)
जवाब देंहटाएंपढ़ कर आनंद आ गया...
जवाब देंहटाएंकितना मज़ा आता है ना एप्रिल फूल बनाने में ! आप लोगों के संस्मरण पढ़ कर दिल खुश हो गया ! ढेर सारी शरारतें मन में कौंध गयीं ! बहुत ही आनंदवर्धक पोस्ट ! आभार एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएं@अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंदरअसल बहुत याद किया...मुझे भी लग रहा था...तभी पोस्ट बैलेंस्ड होगी...पर कुछ ख़ास घटा ही नहीं...अब पता नहीं मैं ज्यादा सतर्क रहती हूँ...या बाकी लोग इतनी कोशिश नहीं करते :)
एक रोचक अनुभव था, जहां मैं बेवकूफ बनी.... होली के मौके पर वंदना दुबे द्वारा आयोजित परिचर्चा में वंदना के "अपनी बात" ब्लॉग पर लिख चुकी हूँ.
रोचक एवं मजेदार ! अच्छा लगा पढ़कर।
जवाब देंहटाएं:) मजेदार.
जवाब देंहटाएंऔर जो पढने में तेज होने का बहाना बना रहे हैं वो तो पक्के से झूठ ही बोल रहे हैं. बात ऐसी है कि... छोडिये अब क्या अपनी बड़ाई बार-बार की जाय :)
रश्मि जी आप जिसे शरारत कह रही हैं वह मुझे दिलचस्प और रोचक संस्मरण लगा आपको ढेरों बधाईयाँ और शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंयही शरारतें याद आती हैं, बड़े होकर।
जवाब देंहटाएंक्या बात है..क्या बात है!! "मज़ी" आ गई आपके और अरशद जी के कारनामे पढ के. कुछ ऐसा ही मिट्टी वाला मामला मैने भी किया था ज्योति सिंह(काव्यांजलि), जो मेरी पड़ोसन, और करीबी दोस्त भी हैं, को सपरिवार मिट्टी की टॉफ़ियां खिला के.मिट्टी की टॉफ़ियां बनाईं, उन्हें एक्लेयर के रैपर में रैप किया, ज्योति और बच्चों को दीं, और बातों में कुछ इस तरह लगाया कि जब तक वे टॉफ़ी खोलें, उसे मुंह में रखें, तब तक उनका ध्यान बंटा रहे :) पूरा घर थू-थू करने लगा :), तब उन्हें याद आया कि उस दिन एक अप्रैल था.
जवाब देंहटाएंशरारतें और मसखरी तो साल भर चलनी चाहिए। यही तो जीवन के कड़वे, कसैले अनुभवों में मिठास भरती हैं।
जवाब देंहटाएंआपका यह प्रयास वंदनीय है।
मस्त, मस्त, मस्त, मस्त पोस्ट है।
जवाब देंहटाएंसही में बहुत अच्छा अंत किया पोस्ट का।
वैसे बहुत सारे किस्से कॉपी करके रखने वाले हैं। बाद में आजमाए जा सकते हैं।
बहुत मजेदार.... :)
जवाब देंहटाएंआप लोग इतने शैतान क्यों हैं? हम जैसे सीधे-सादे क्यों नहीं है? इतनी शैतानी अच्छी बात नहीं है।
जवाब देंहटाएंलो जी हमने तो वो पंक्तियां भी पढ़ ली जो हमें नहीं पढ़नी चाहिए थी। चलो सच का पता तो चला कि आपका पति जाति के बारे में क्या ख्याल है।
जवाब देंहटाएंदी, आप तो शक्ल से ही एक नंबर की शैतान लगती हो. आपके किस्से मजेदार थे और अरशद जी के भी. भई वाह, मज़ा आ गया.
जवाब देंहटाएं@मुक्ति
जवाब देंहटाएंनॉट फेयर यार....इस बार प्रोफाइल में कितनी शांत-गंभीर सी फोटो लगाई है.....पर पता नहीं क्यूँ मुझे अच्छी नहीं लग रही है....सोच रही थी चेंज कर दूँ...पर अब नहीं करुँगी...:)
रोचक किस्से....शरारत करने का जब भी मौका मिले..छोड़ना नहीं चाहिए... :)
जवाब देंहटाएंएक मुस्कराहट फ़ैल गई चेहरे पर!! आनंद की अनुभूति!!
जवाब देंहटाएंमेरा वोट मुक्ति को देना चाहता हूं पर उसमें से 'दी' हटाकर और दुष्ट कहीं की जोड़ कर :)
जवाब देंहटाएंबाकी सब शब्दशः वही :)
लालच बुरी बाला है , अच्छा हुआ अरशद जी ने बचपन में ही सीख लिया ...:)
जवाब देंहटाएंतुम्हारी शैतानी का तो क्या जवाब है ...पता नहीं लोग इतनी शरारतें कैसे कर लेते हैं :):)
्बहुत शरारती हो……………अरशद जी की कारस्तानियां भी मन को भा गयीं।
जवाब देंहटाएंbahut accha lga aapke शरारती कारनामे"
जवाब देंहटाएंकहा जाता है, आदमी तीन जगह हमेशा बेवकूफ साबित होता है- पत्नी के सामने, बच्चे के सामने और आइने के सामने.
जवाब देंहटाएंवो किस्सा मस्त लगा..बाल तो गोंद से सर पे साटने का अथक प्रयास :) हा हा ..
जवाब देंहटाएं{अब मौके का फायदा उठा कर बता ही दूँ कि हमेशा क्लास में फर्स्ट आती थी....दो बार स्कॉलरशिप भी मिली :)} --अच्छा???? हा हा हा!!
जवाब देंहटाएंमुझे इंतज़ार था ही आपके इस पोस्ट का...अब तक की सबसे अच्छी शरारतें हैं आपके पोस्ट में...
और आप बेंच पे चढ़ के चिल्लाती थी?? :) क्या दीदी..:)
अजितजी से मै बिलकुल सहमत हूँ |
जवाब देंहटाएंसीधे सादे गम्भीर बनके भी तो रहा करिए 1st अप्रैल को ? हमारे जैसे |
अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ....
जवाब देंहटाएंThanks didi,aapne meri aur apni yaadon ko logon ke bich rakha...
जवाब देंहटाएंmai thode der se aaya...bloging se thod kata rahta hun magar judaw hamesha mahsus hoti hai..