सोमवार, 31 जनवरी 2011

आँखों में व्यर्थ सा पानी

कुछ व्यस्तताएं चल रही हैं...नया कुछ लिख नहीं पा रही...और ध्यान आया यह रचना पढवाई जा सकती है. ब्लॉगजगत में मेरी दूसरी पोस्ट थी यह...कम लोगो की  नज़रों से ही गुजरी होगी.....कभी कॉलेज के दिनों में लिखा था,यह  ...दुख बस इस बात का है कि आज इतने वर्षों बाद भी यह उतना ही प्रासंगिक है.इसकी एक भी पंक्ति पढ़ ऐसा नहीं  लगता कि यह तो गए जमाने की  बात है. अब नहीं होता  ऐसा..



"लावारिस पड़ी उस लाश और रोती बच्ची का क्या हुआ,
मत  पूछ  यार,  इस  देश  में  क्या  क्या  न  हुआ

जल गयीं दहेज़ के दावानल में, कई मासूम बहनें
उन विवश भाइयों की सूनी कलाइयों का क्या हुआ

खाकी  वर्दी  देख  क्यूँ  भर  आयीं, आँखें  माँ  की
कॉलेज गए बेटे और इसमें भला क्या ताल्लुक हुआ

तूफ़ान तो आया  बड़े  जोरों  का  लगा  बदलेगा  ढांचा
मगर चंद  पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ


हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
दि
ल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ

जब जब झलका आँखों में व्यर्थ सा पानी 'रविजा'
कलम  की  राह  बस  एक  किस्सा  बयाँ  हुआ

31 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर ग़ज़ल... व्यस्तता के बीच भी आप कुछ अच्छा पढ़ा गईं..

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  2. तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का लगा बदलेगा ढांचा
    मगर चंद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ

    सही कहा अब इन बेशर्म नेताओ को किसी आन्दोलन से कोई फर्क नहीं पड़ेगा पर दूसरो ने ही कौन सी कमी छोड़ी है | रविवार को भी ये हुआ था मिडिया ने ठीक से कवर तक करना जरुरी नहीं समझा | क्योकि कोई मसाले वाला नाम नहीं जुड़ा था इस आन्दोलन से कोई फ़िल्मी सितारा पहुच गया होता तो देखते कैसे कवर करते |

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  3. हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
    दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ

    याददास्त पर पैसा छ गया ।
    बहुत सुन्दर रचना ।

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  4. आने वाले कई वर्षों में भी यह रचना अप्रासंगिक नहीं होने वाली, रश्मि जी!

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  5. बड़े दमदार शब्दों में किस्सा बयाँ किया है।

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  6. हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
    दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ....
    वाह बहुत खुब जी धन्यवाद

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  7. तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का लगा बदलेगा ढांचा
    मगर चंद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ
    अच्छा शेर है रश्मि. यही सच्चाई है हमारे देश में आज के आन्दोलनों की.

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  8. सबसे पहले तो मैंने कविता को कॉपी पर नोट किया। आप नाराज तो नहीं ना।
    हर मुहँ को रोटी, हर तन को कपडे,वादा तो यही था, दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ।
    सही कहा आपने
    आज भी प्रांसगिक हैं एक-एक शब्द।
    पर मुझे जाने क्यों आभास हो रहा है। आने वाला समय शायद बदलाव भरा हो सकता है। काश ऐसा ही हो।

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  9. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  10. दिल्ली जाकर उनकी याददाश्त को क्या हुआ ...

    कहाँ रश्मि , आजकल याददाश्त भूलने के लिए दिल्ली जाने की क्या आवश्यकता है ...राज्य , जिला , ग्राम और सरकारी महकमों के संगठनों तक में भूलने की आदत हो गयी है ...जिस मकसद को लेकर वे साथ लड़ते हैं , सत्ता के शीर्ष पर पहुँचते ही उसे दफना देते हैं और सिर्फ अपने फायदे और स्वार्थ की लडाई ...मन उकता गया है इस राजनीति से !
    रविजा तखल्लुस से आपने कविता भी लिखी है , आश्चर्यम !

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  11. आदरणीया रश्मि रविजा जी
    सादर सस्नेहाभिवादन !

    राष्ट्र और पूरी मानवता के प्रति चिंताओं, संवेदनाओं, भावों को ले'कर सृजित
    कॉलेज के दिनों की आपकी रचना बहुत प्रभावशाली है ।
    निस्संदेह इस रचना की नियति सर्वकालिक प्रासंगिकता ही है ;
    हां, शायद कुछ वर्ष बाद शिक्षा के प्रसार, महिला जागृति और विषम पुरुष-नारी समीकरण के कारण
    दहेज और बहन-बेटियों को जलाने की घटनाएं बिल्कुल न हों ।

    आपकी प्रारंभिक दौर की रचना पढ़ कर अच्छा लगा ।
    और काव्य रचना होने के कारण और भी ज़्यादा …क्योंकि आपकी बड़ी बड़ी कहानियां एक ही बैठक में पूरी पढ़ना ,
    और फिर बात करना मेरे लिए हमेशा मुश्किल काम रहा ।

    आपके हिस्से की बहुत सारी प्रशंसा, सराहना मेरे पास बकाया है …

    ( मनोज कुमार जी ने अपनत्व के साथ जो बात कही … होना चाहिए हममें ऐसा संबंध भी ! )

    हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  12. वास्तविक चित्रण किया है आपने ...आज के समाज का ...बढ़िया लेखन

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  13. ज़िन्दगी की सच्चाइयों का सजीव चित्रण्।

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  14. रश्मिजी
    सच ,आज भी इस रचना की प्रासंगिकता बनी हुई है |वाणी जी ने जो कुछ कहा है मै भी वही सब कहना चाहती हूँ आपकी रचना पढ़ कर |अभी दो दिन पहले गाँव जाना हुआ वहा के लोगो से रिश्तेदारों से मिलना हुआ गली गली की राजनीती ने सबको संवेदना शून्य बना दिया है \हम ,मिडिया भ्रष्टाचार की बाते करते है उसे दूर करने की सोचते है पन्ने रंगते है कितु गाँव गाँव में इसे जीवन का आवश्यक अंग बना लिया है |उनको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता की एक सरकारी अफसर को कुछ देकर ही काम कराया जा सकता है \वहां कोई नियम ,कानून की बात नहीं होती |
    अच्छी रचना पढवाने का आभार |

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  15. जब जब झलका आँखों में व्यर्थ सा पानी 'रविजा'
    कलम की राह बस एक किस्सा बयाँ हुआ
    waakai rashmi ji , aaj bhi yahi sach hai

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  16. @रवि,
    अपनी इस रचना को इतना हिचकिचाते हुए पोस्ट किया और तुम इसे कॉपी में नोट करने की बात कर रहे हो....और मैं नाराज़ ना हो जाऊं ये भी पूछ रहे हो...:)

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  17. मनोज जी,
    जैसा कि मैने लिखा...बहुत ही हिचकिचाहट थी इसे पोस्ट करने में....क्यूंकि ब्लॉग में बड़े दिग्गजों की काव्य रचनाएं पढने को मिलती हैं...मुझे इलहाम था कि इसमें कमियाँ हैं...पर १७-१८ वर्ष की उम्र में लिखा था...ना तब तकनीकियों का ज्ञान था...ना अब है...पर रचना अपने raw स्वरुप में पसंद आई...बस यहाँ रखना सार्थक हुआ.

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  18. वाणी,
    ये 'रविजा' तखल्लुस...स्कूल के दिनों में रखा था...ग्यारहवीं में थी तब पहली रचना ,'रश्मि रविजा' नाम से ही प्रकाशित हुई थी.
    बीच के वर्षों में यह नाम कहीं खो गया था. अब ब्लॉगजगत में आकर वापस मिला है...आभार तुम सबका :)

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  19. राजेन्द्र जी,
    आपके इन स्नेहसिक्त शब्दों ने कुछ भी बकाया नहीं रखा. प्रशंसा कैसी...मेरा लिखा आपलोग पढना पसन्द करते हैं,बस इतना ही काफी है

    कहानियों के अलावा इस ब्लॉग पर भी बहुत कुछ इधर-उधर का भी लिखती रहती हूँ....आपके सुझाव अपेक्षित होंगे...

    मनोज जी की आभारी हूँ कि इतनी पुरानी बचपने भरी रचना को उन्होंने इतने ध्यान से पढ़ा और गंभीरता से लिया.
    मेरे लेखन पर किसी तरह के सुझाव का हमेशा ही स्वागत है . लेखन में सुधार का ये सुनहरा अवसर कैसे छोड़ दूँ

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  20. आपका लेखन सदैव मन को उद्वेलित करता है ! वह चाहे गद्य में हो या पद्य में ! नि:संदेह यह कालजयी रचना है और जैसे हालत हैं देश के फलक पर और हमारे समाज में आशंका है कि इसकी प्रासंगिकता आने वाले कई सालों तक बनी रहेगी ! इतनी सुन्दर रचना के लिये बधाई एवं आभार !

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  21. आपके स्पष्टीकरण के आलोक में अपना मत बदलना सही प्रतीत हुआ इसलिए मैं अपनी टिप्पणी बदल रहा हूं जो इस प्रकार है ..
    आपकी इस रचना के द्वारा यह स्पष्ट है कि आप पाठक के मर्मस्थल तक दबे पांव पहुंच कर यथार्थ के पेंच को अनायास उद्घाटित कर देती हैं।
    हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
    दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ

    इस रचना में समकालीन विसंगतियों और विद्रूपताओं का उद्घाटन अत्यंत संश्लिष्टता से इस तरह हुआ है कि अवांछित वृतांत से बचकर बातें प्रक्षेपित हो जाती है।
    खाकी वर्दी देख क्यूँ भर आयीं, आँखें माँ की
    कॉलेज गए बेटे और इसमें भला क्या ताल्लुक हुआ

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  22. पहली बार में रचना के ऊपर की पंक्तियां पढी नहीं थी।

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  23. हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
    दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ
    ...

    बहुत ही यथार्थपरक सुन्दर भावपूर्ण रचना..

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  24. कई बार उठते तूफ़ान से ये लगता तो है जैसे कुछ बदलेगा , लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात !

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  25. मनोज जी....thats not done
    आपने टिप्पणी क्यूँ हटाई....मुझे अच्छा लगता है जब कोई मेरी रचना ध्यान से पढता है...दो मिनट समय देता है....

    आपने आलोचना भी नहीं की थी...तारीफ़ ही की थी...कि तकनीकी खामियां होते हुए भी रचना इतनी अच्छी है...और अब टिप्पणी हटा ली :( :(...इतने भी serious मत हुआ कीजिए...

    अपनी इमेज वैसे ही झांसी की रानी वाली है... पोस्ट का शीर्षक सूझ नहीं रहा था...और बहुत जल्दी में थी...एक जनाब ने सलाह दी कि उपरोक्त शीर्षक रखूँ....लोगों को अच्छा लगेगा ये जान कि एक कड़क महिला की आँखों में भी पानी आता है...या रब्ब ऐसा सोचते हैं लोग मेरे बारे में :(:(

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  26. आंखों का पानी कभी व्‍यर्थ नहीं होता
    किसने कहा कि उसका अर्थ नहीं होता

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  27. हर नज़्म बेहतरीन....जिंदगी की सच्चाई बयां करती हुई.सुंदर प्रस्तुति.

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  28. ओये मनु कालेज के जमाने में भी बगावत के स्वर :)


    [ मुझे लगता है कि आंसू छलकने के बाद ही व्यर्थ होते होंगे ! उनके छलकने की मंशा पर सवाल उठाना शायद मुमकिन नहीं है ]

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  29. देरी से आने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं. उस समय का सच आज भी उतना ही सटीक और प्रासंगिक है. अपने परिवेश में निहित अंतर्विरोधों और विडंबनाओं को दर्शाती यथार्थपरक और सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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