शनिवार, 17 जुलाई 2010

कितने युग और लगेंगे इस मानसिकता को बदलने में??


कोई भी घटना जब अपने चरम पर पहुंचती है तभी अखबारों की सुर्खियाँ बनती है. लेकिन उन सुर्ख़ियों तक पहुँचने की नीचे वाली पायदानों तक भी बहुत  कुछ घटित होता रहता है, समाज में. हम, अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में लिप्त,अपने समान विचारों वाले लोगों के बीच उठते बैठते,सीमित दायरे में क़ैद , यह जान ही नहीं पाते कि अभी तक कितनी ही कुरीतियों , उंच-नीच ,भेदभाव, और संकीर्ण मानसिकता से आप्लावित है हमारा ,दूसरे क्षेत्रों में तेजी से प्रगति करता समाज.

महानगरों की छोड़ दें तो बड़े शहरों में भी अभी तक 90% शादियाँ, अरेंज्ड ही होती हैं. और यहाँ वर पक्ष हमेशा विशिष्ट माना जाता है. लड़कीवाले उनके सामने बिछे जाते हैं और लड़के वालों के नखरों का अंत ही नहीं होता. कभी कभी तो ऐसी घटनाएं घटती हैं आँखों के समक्ष कि बार बार खुद को याद दिलाना पड़ता है कि यह किसी फिल्म का दृश्य नहीं...सच है.


करीब तीन साल पहले, मैं एक लड़की की शादी में शामिल हुई थी. लड़केवाले बहुत अमीर घराने से थे. लड़कीवालों ने पटना के सबसे अच्छे 'मौर्य' होटल में बहुत अच्छा इंतज़ाम किया था. बारात आई. बारात की सारी महिलायें लग रहा था अपना लॉकर पहन कर चली आई हैं. इतने सारे सोने के आभूषणों से लदी थीं. जयमाला हुई और अचानक चारों तरफ पुलिस मैन भर गए.पता चला उनके दो साथी नेता, अपने बौडी गार्ड एवं चमचों के साथ तशरीफ़ लाये हैं. तिल भर भी जगह नहीं बची हॉल में. हॉल के बाहर, पीछे, सब तरफ लोग ही लोग. लड़कीवाले दूसरे शहर से आकर शादी कर रहें थे,उनके मेहमान वैसे भी  काफी कम थे. जो थे, वो भी दीवारों से लग कर खड़े हो  गए.

जयमाल के बाद फोटो खिंचवाने का कार्यक्रम काफी देर तक चला. फिर बाराती, खाना खाने के लिए चल पड़े. हम महिलायें बैठकर बातें कर रही थीं. अचानक शोर सुनायी दिया. देखा दुल्हे के पिता एवं भाई गुस्से में दनदनाते हुए चले आ रहें हैं. पता चला,लड़के वाले 250  बाराती कह कर 500 बाराती ले आए और अब खाना कम पड़  गया है. जब लड़के के परिवार वाले खाना खाने गए, तब तक खाना ख़त्म हो चुका था.इसीलिए वे गुस्से में हैं...होटल वालों ने और खाना तैयार करने की मोहलत मांगी है और कुछ डिश बनाने में अपनी असमर्थता जताई  क्यूंकि उनके पास अब सामग्री नहीं थी.

पर ये लोग तो लड़के वाले थे. लड़के के पिता कह रहें थे ,बारात वापस जाएगी अब..दो-चार महीने बाद शादी की डेट फिक्स करेंगे. लड़की वाले सकते में आ गए. यहाँ दुल्हन मंडप में बैठी, रस्म का इंतज़ार कर रही थी. और लड़का उसी होटल के एक कमरे में (जो उन्हें आराम करने के लिए दिया गया था ) अपने दोस्तों के साथ बैठा था. कमरा अंदर से बंद था. मोबाईल का ज़माना है..शायद उसके पिता भाई ने मना कर दिया आने से. लड़की का भाई दरवाजा खटखटा कर परेशान, वहीँ सीढियों पर बैठ गया. लड़की के पिता एक तरफ सर पे हाथ धरे बैठे थे. लड़की की माँ ,रोती रोती बेहोश हो गयीं थीं. और लड़की के चाचा, उनके सामने हाथ जोड़ कर खड़े  थे और बाकी रिश्तेदार उन्हें मनाने  में जुटे थे.

होटल वालों ने आ कर खबर भी दे दी...कि खाना तैयार है.पर वे मानने को तैयार नहीं. यहाँ तक कि लड़के वालों की  तरफ से भी  एक बुजुर्ग उन्हें  समझा रहें थे. पर  वे लोग लड़कों वाले के गुरूर में इतने मदमस्त थे कि कुछ सुनने को तैयार नहीं.

यहाँ लड़की वालों की तरफ से एक बच्चे ने भी नहीं खाया था,कुछ भी. इस मान मनौव्वल  में रात के दो बज गए. उनकी  एक रिश्तेदार लन्दन से छुट्टियों में आई हुईं थीं, वे भी शादी में शामिल होने आई थीं और उसी होटल में रुकी हुई थीं. उनकी छोटी बेटी ने कहा, "मम्मा भूख लगी है.." और उसने अपनी बड़ी बेटी को बुला कमरे की चाबियाँ दीं और कहा,मेरे बैग में बिस्किट के दो पैकेट्स पड़े हैं वो ले आओ . फिर देखा रात के दो बजे, सजे-धजे दस-बारह बच्चे (मेरे बेटे भी शामिल थे,उनमे  ) एक गोल घेरा बना एक-एक बिस्किट खा रहें हैं. वो दृश्य जैसे स्थिर है, अब तक आँखों के सामने.

 3 बजे के करीब सबके मनाने  पर वे लोग माने और खाना खाने गए. बस एक पगड़ी नहीं रक्खी गयी, उनके पैरों पर, बाकी हर उपाय किए.(वो भी शायद इसलिए कि किसी ने पहनी नहीं थी वरना शायद वह भी रख देते.)  इसके बाद लड़के को बुलाया गया. और जल्दी जल्दी में सारी रस्मे निबटाईं गयीं. बाद में भी उनलोगों के बहुत नखरे रहें, जैसे लड़की  को मायके ना भेजना...उसी शहर के  रिश्तेदारों से ना  मिलने देना, वगैरह. पर सुकून की बात बस यही रही कि लड़की को कोई तकलीफ नहीं दी. क्यूंकि वह अब उनके घर की हो गयी थी.कम से कम इतना सोचना ही काफी था.

और ऐसा नहीं कि बिहार बहुत पिछड़ा प्रदेश है इसलिए वहाँ ऐसी घटना हुई. इस तरह की घटनाएं थोड़ा रूप बदल कर हर बड़े शहरों में देखने को मिल जाती हैं. ये "लड़के वाले " होने की मानसिकता इस युग में भी नहीं बदली.  आज तो लडकियां भी समान रूप से  शिक्षा ग्रहण कर रही हैं. माता-पिता उनकी शिक्षा में भी उतना ही खर्च करते हैं .पर जब दहेज़ और शादी में किए गए खर्च   की बात आती है , तो यह खर्च लड़की वालों को ही वहन करना पड़ता है.

और यह सब सिर्फ शादी तक ही नहीं सीमित नहीं रहता,आजीवन जैसे लड़कीवाले,लड़केवालों के कर्ज़दार होते हैं. इतनी सारी रस्में बनी हुई हैं, किसी ना किसी बहाने लड़कीवाले उनकी मांगे पूरी करते रहते हैं. शादी में दान-दहेज़ दिए, बच्चे के जन्म पर उपहार,बच्चे के अगर ऊपर के दांत आ गए तो मामा, चांदी की कटोरी में खीर खिलायेगा. गुजरात के एक सम्प्रदाय में  तो एक साल का होने तक बच्चा ननिहाल के कपड़े ही पहनता है. तीज-त्योहार पर कपड़े,पैसे भेजना.यहाँ तक कि शादी के 25 साल बाद भी बच्चों की शादी में , पूरे खानदान के कपड़े ननिहाल से आते हैं, जिसे यू.पी.में 'मामा का भात' कहते हैं. वृद्धावस्था  के कगार पर पहुंचे माता-पिता के लिए , अपने नाती-नातिनों की शादी में इतना कुछ जुटाना एक अतिरिक्त भार होता है,फिर भी लोग निभाते जाते हैं यह रस्म.

आखिर और कितने युग लगेंगे  इस मानसिकता को बदलने में??

37 टिप्‍पणियां:

  1. भगवान कि दया से उत्तरखंड में इस प्रकार कि कोई प्रथा नहीं है जिससे लड़की के माता पिता पर बोझ पड़ता हो हा पर अब दुसरे लोगों कि नक़ल से दहेज़ उत्पीडन जैसी समस्या कहीं कहीं दिखाई पड़ रही हैं पर वो भी अभी ना के बराबर ही है. जब दुसरे समाजों में ऐसी प्रथाएं देखता हूँ जिनमे लड़की के घर वालों को दबाया जाता है तो बड़ा दुःख होता है.

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  2. मुश्किल यही तो है कि युग बदल गये मगर सोच नही बदली……………और उसी का खामियाजा आज भी हमारी बहू बेटियाँ भुगत रही हैं दहेज नाम के दानव के नाम पर ……………इसके लिये पहल करनी होगी हम जैसे लोगों को और इन रूढिवादी संकीर्ण मानसिकता से खुद को आज़ाद कराना होगा ये संस्कार अपने बच्चों मे डालकर तभी युग बदलने के साथ परिवर्तन आयेगा।

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  3. इस मानसिकता ने समाज को बड़ा कमजोर कर दिया है। यह मानसिकता न ढही तो समाज ढह जायेगा।

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  4. मुझे नहीं लगता ये मानसिकता बदलने वाली है १०० सालों में नहीं बदली तो अब क्या बदलेगी ...बल्कि मुझे तो लग रहा है ये सब अब ज्यादा ही होने लगा है .बहुत दुःख होता है यह सब पढकर ,देखकर ..पर नयी पीडी चाहे तो ये सब सुधर सकता है ..पहल युवाओं को करनी होगी.

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  5. रश्मि जी,

    आज भी समाज के एक बड़े हिस्से में इस तरह की मानसिकता बची हुई है। शायद अभी समय लगेगा बदलने में । लोग जागरूक हो रहे हैं। पढ़े-लिखे लड़के - लडकियां अब दहेज़ के खिलाफ हो रहे हैं। माँ बाप तो मजबूर हैं , वो किसी भी तरह बेटी का ब्याह करना चाहते हैं, चाहे उसके लिए कितना भी कर्ज लेना पड़े। लेकिन लड़कियों को अपने माँ बाप का सहारा बनना चाहिए और ऐसी , दहेज़ की स्थिति में शादी से इनकार कर देना चाहिए। बहुत से अछे लड़के हैं जो बिना दहेज़ के शादी के फेवर में हैं.

    समय लगेगा , लेकिन बदलाव होना निश्चित है ।

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  6. सामाजिक परिवर्तन हो रहा है लेकिन मंथर गति से , जरुरत है इसमें तीव्रता की. ऐसे उदाहरण आये दिन देखने को मिलते है. हमारा समाज रुढ़िवादी रीति रिवाजो के बंधन से बंधा छटपटा रहा है , आपका आलेख समाज में जागरूकता लाने में उठाया गया एक धनात्मक कदम है.आभार.

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  7. मौत के समान है यह सब... क्या मान , क्या अभिमान !रिश्तों का बंधन या पैसों और दिखावे का? आपसी सम्बन्ध की गरिमा होती ही नहीं और गली....सिर्फ लड़की के हिस्से आती है

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  8. ऐसे लोगों को इतने जूते मारने चाहिए कि सर के सारे बाल झड जाएँ... बहुत गुस्सा आ रहा है ये घट्टना पढ़ कर.. खून खुला दिया इस सच्चाई ने.. ये यू.पी., बिहार में ही ज्यादा होता है..

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  9. समाज सदियों से ढोता आ रहा है यह मानसिकता .. भारतीय पुनर्जागरण जैसे प्रभावों में सती-प्रथा जैसी अमानवीयता पर क्षति पहुचाई पर मानसिकता बदलने में शायद उतना कारगर नहीं हो सका .. आज भी बदूस्तूर जारी है मानसिकता से ताल्लुक रखने वाला शोषण .. दो घटनाएं हैं - १. पैदा होने के साथ ही लडकी को लडकी जैसा ( नकारात्मक अर्थ में ) ट्रीट किया जाना और , २. परिवेश में लडकी को लेकर नैराश्य/समस्या/भार जैसी भावनाओं का मौजूद होना , इनकी वजह से अपेक्षित सामाजिक समरसता नहीं हो पाती .. गौर करने लायक है कि वही लडकी पक्ष वाला जब लड़का पक्ष बनता है ( लड़के की शादी में ) तो वह भी वैसे ही नखडे करता है ! .. व्यापक सोच का अभाव है क्योंकि शिक्षा व्यक्तित्व बदलने की भूमिका नहीं निभा पा रही है ! .. मानव-मन की ज्ञानात्मक मुक्ति न होना सबसे ज्यादा समस्या पैदा कर रहा है ! .. हिन्दी पट्टी में व्यापक स्तर पर यह समस्या है .. ! आभार !

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  10. Hi..

    Koi bhi kureeti ya kupratha tab smapt hoti hai jab smaaj ka har varg, har vyakti uske liye krut sankalp ho.. Samaj main sabhi ka dayitv hai ki wo samajik kureetion ka na sirf virodh kare balki apne ghar se hi us kureeti ko badalne ka anukarneey udaharan prastut kare..dheere log anukaran karenge aur karwan badta jayega..

    Yah theek hai ki bhaarat main adhikanshtah ladki walon ke hi naaj nakhre uthaye jaate hain par yah purn satya nahi hai..

    Bharat main hi kai vargon avon pradeshon main jahan eske ulat vyavastha lagu hai..matlab ladke valon ko ladki valon ke nakhre uthane padte hain.. Jaise sudoor purvottar rajyon main adhhkanshtah yahi hai..

    Vaise mera vichar hai ki shayad Hindi bhashi kshetron main chunki ladkiyon ko parental property main koi hissa nahi diye jaata shayad eski vajah se es kupratha ne janm liya hai..jo samay ke sath bigadta chala gaya..

    Vaise mera sankalp hai ki mere parivar main sabhi ladkon ke vivah adambar rahit aur bina dahej hi honge.. AAP LOG KYA KAHTE HAIN...

    DEEPAK SHUKLA..

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  11. रश्मि जी ,
    जब भी कोई महिला स्त्रियों के साथ ज्यादती की बात उठाती है पुरुष वर्ग आपत्ति जताने लगते हैं की अब ऐसा नहीं है ...या हमने ज्यादा कुछ लिख दिया .....पर असलियत यही है की अभी भी कुछ नहीं बदला है ....पिछले दिनों हिंद-युग्म में भी कुछ रचनाओं पर यही सवाल उठे .......शायद यही वजह है की आज घर घर में तलाक हो रहे हैं ......ऐसे में भविष्य क्या होने वाला है वैवाहिक रिश्तों का ......?
    शायद अगली पीढ़ी के स्त्री-पुरुषों का अलग अलग अपना अपना ठिकाना होगा .....!!

    आपकी पोस्ट आँखें खोलती है .....!!

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  12. रश्मि जी, जो प्रकाशित रचनाओं के स्कैन आपकी साइडबार में लगे हैं - क्या उन्हें अपलोड नहीं कर सकतीं आप? क्लिकेबुल इमेज फ़ो तो पढ़ने का और मज़ा आएगा।
    ठीक सोचा आपने, इस मुद्दे पर कुछ कहते नहीं बन रहा - इसीलिए मुद्दे से हट रहा था। नाले-कीचड़-गटर की, सड़न की और मवाद की बातें ख़ुश्बूदार अल्फ़ाज़ में करना मुश्क़िल है।
    हताशा घेरती है और हताश होना मेरा स्वभाव नहीं। मेरा मिज़ाज ही है पुनर्जन्म, पुनर्जागृति, रिवाइवल का या कहिए कि बार-बार कुचले दबाए जाने पर भी फिर से उठ खड़े होने का।
    मेरी राय भी वही है - कि सब को बहू लाने के साथ बेटी भेजनी भी होती है, तो बहू को बेटी समझने में क्या जाता है? बहू से दुर्व्यवहार न सही, सम्बन्धियों का अपमान आपकी कौन सी इज़्ज़त अफ़्ज़ाई करता है?
    इन छिछोरी और चिरकुट सोच वालों को ये भी नहीं याद रहता - कि जितने इस तरह के घमण्डी आततायी थे - सब ऐसे मिटे कि आज नामलेवा नहीं मिलता जबकि अक़बर को हिन्दुस्तान ने अपनाया इसी सम्बन्धी बनाने और सम्बन्धी का सम्मान रखने की नीति ने जो कूटनीति भी थी, राजनीति भी और व्यक्तिगत लोकव्यवहार का अंग भी।
    लड़कीवाला होना - यानी निचली पायदान पर होना।
    भुगतेंगे - वक़्त और हालात के हाथों।

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  13. शायद अभी भी लंबा वक्त लगेगा....

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  14. रश्मि ,
    पुरानी बातें और मान्यताएं हटते हटते ही जाएँगी...पर मात्र यह कहने से की कोई बदलाव नहीं आया है..तो बदलाव नहीं ही आएगा ना...मना की बहुत सी रस्में चलती चली आ रही हैं...उनके पीछे ज़रूर कोई गहरा मकसद रहा होगा...जो उनका स्वरुप है वो पहले जैसा नहीं रहा...अच्छा तो हुआ नहीं बिगड ही गया...पहले दहेज केवल इस लिए दिया जाता था की नवदम्पत्ति नयी गृहस्थी ठीक से जमा लें...पर मानव के मन के लालच ने इसे एक दानव का रूप दे दिया...मैं पुरे समाज की बात नहीं कर रही...पर एक बात निश्चित है की बदलाव कहने से नहीं आएगा...उसे लाने के लिए पहला कदम घर है...हर कोई यदि अपने घर से शुरुआत करे तो बदलाव लाना कोई बड़ी बात नहीं है...
    राम चन्द्र शुक्ल की बात याद आती है कि -- समाज व्यक्तियों से बना है ना कि व्यक्ति समाज से ..यदि हर व्यक्ति केवल अपने में सुधार ले आये तो समाज स्वयं ही बदल जायेगा.... मैं औरों कि नहीं जानती..पर मैंने अपने बेटे की शादी में कुछ नहीं लिया...जो वो चाहते भी देना तो मैंने मना कर दिया....शायद इसी का कुछ प्रताप होगा कि मेरी बेटी कि शादी में भी कोई मांग नहीं थी...यहाँ तक कि सारा इंतजाम वर पक्ष ने किया था और वो हमसे पूछ रहे थे कि कोई कमी तो नहीं रह गयी...हमारी तरफ के लोग पूछ रहे थे कि कौन से मोती दान करके आई हो जो बेटी की शादी में तुम बाराती लग रहे हो और बेटे वाले घराती...तो भाई बदलाव आपसे ही शुरू होता है....बहुत लंबा हो गया...बाकी फिर

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  15. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  16. अगर मेरी बेटी होती उस जगह.... तो मै उस बरात को बेरंग ही लोटा देता, पता नही यह लोग रिश्ता केसे निभाते होंगे.... लानत है इन लोगो पर

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  17. @संगीता जी,
    "पुरानी बातें और मान्यताएं हटते हटते ही जाएँगी...पर मात्र यह कहने से कि कोई बदलाव नहीं आया है..तो बदलाव नहीं ही आएगा ना."

    कब हटेंगी...और कितना समय लेंगी...??

    यह मात्र कहना नहीं है....सचमुच कई सारी चीज़ें नहीं बदली हैं....और यहाँ (ब्लॉग पर) तो हम सिर्फ सच्चाई कह ही सकते हैं,ना और यह कहना खासकर तब और जरूरी हो जाता है...जब लोगों के देखने का दायरा सीमित हो जाता है और सोचते हैं अब ये कुप्रथाएँ नहीं रहीं समाज में.

    आपकी बात से किसे इंकार है कि ,शुरुआत अपने घर से होती है. आज से 15 साल पहले मेरे दोनों भाइयों की शादी में पापा ने एक पैसा दहेज़ नहीं लिया. ऐसे इक्का दुक्का उदाहरण 50 साल पहले से मिलते आयेंगे फिर भी बहुत सारी कुरीतियाँ अब तक समाज में जड़े जमायें बैठी हैं.

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  18. इच्छा नहीं थी यह लिखने की फिर भी सोचा दिखा ही दूँ कि समाज कितना बदल गया है..इसी हफ्ते दो ख़बरें पढ़ी...
    एक महिला की दो साल की बेटी थी ,दहेज़ की बकाया रकम के लिए उसे काफी परेशान किया जा रहा था.उसने अपने माता-पिता को बुलाया, ड्राइंग रूम में मंत्रणा चल रही थी. ननद उसे किचन में लेकर आई
    और अब पुलिस को यह पता नहीं कि उसे किचन की खिड़की से धक्का दे दिया गया या उसने खुद ही छलांग लगा दी. यह महानगर के एक शिक्षित परिवार में हुआ.

    एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को घर में घुसने नहीं दिया.कहा कि अपने मायके से एक लाख रुपये लेकर आओ तब अंदर आने दूंगा क्यूंकि तुमने बेटी को जन्म दिया है.
    बाकायदा तस्वीर छपी थीं, उन महानुभाव की .

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  19. रश्मि ,
    यह बात सही है कि कुप्रथा है...और यह प्रश्न कि कब हटेंगी....तो हाताने वाले भी हम हैं...और इन प्रथाओं को पालने वाले भी हम...रस्में जो बनायीं गयी हैं वो हंसी मजाक और आपस में रिश्ते को मजबूत करने के लिए बनायीं गयी हैं...जैसे होस्टल में रैगिंग कि प्रथा थी ..जिससे नए विद्यार्थी पुराने विद्यार्थियों से जुडते थे...लेकिन इसका अर्थ बच्चों ने ऐसा ले लिया कि अब उस पर बैन लग गया है.....ऐसे ही यह रस्में थीं जिनका हमने लालच में दुरुपयोग कर विकृत रूप दे दिया है...यह ऐसा काम तो है नहीं कि झाड़ू मारी और कूड़ा हट गया ...इसके लिए दृढ संकल्प लेना होगा...ऐसे लोगों का बहिष्कार करना होगा जो इस कुरीति को पोसते हैं...और यह आज कल के पढ़े लिखों को करना होगा....गांव में अभी भी सारी बातें प्रचालन में हैं जैसे जैसे शिक्षा का प्रचार होगा लोगों की सोच भी बदलेगी...अब तुम्हारी कहानी में ही नमिता पुरानी परम्परा को तोडती दिखती है...पर विडंबना तो यह है की पढ़े लिखे लोग भी इन प्रथाओं को पोषित करने में लगे हैं...कह देते हैं किमाँ पापा जो कहें...असल में जब बिना मेहनत के लाभ हो रहा हो तो कौन नहीं उठना चाहेगा...आज कल एक विज्ञापन आता है कि लोग खाते हैं क्यों कि हम खिलाते हैं....क्ष हर लडकी के माँ बाप अपनी लडकी की शादी में दहेज देना बंद कर दें....अब जो किस्सा तुमने बताया..उसमें ही यदि गिडगिडा कर ना मनाया होता ..तो लड़के वाले अपना स मुँह ले कर रह जाते...उनको मालूम है की हमारी बहुत अहमियत है...इसी लिए सब अपना रौब दिखाते हैं ...किसी भी आन्दोलन की शुरुआत एक से ही होती है....और फिर कारवां बन जाता है....ऐसे बदलावों की कोई समय सीमा तय नहीं होती....तुम्हारे घर में बदलाव हुआ..मेरे घर में हुआ...और मेरे घर में आज का नहीं है ..१९६४ में मेरी बुआ की शादी हुई थी ..फूफाजी डॉक्टर हैं....उन्होंने एक रुपये से टीका करवाया था वो भी जब सबने समझाया कि भई यह रस्म है...यहाँ तक कि उन्होंने अंगूठी भी नहीं ली ...कोई एक कपडा भी नहीं लिया था ..हमारे यहाँ टीका करते हुए गोला रूमाल भी दिया जाता है...बस वो रूमाल लेने तक ही सहमत हुए...
    तो जैसे जैसे लोगों के विचार परिपक्कव होंगे वैसे ही बदलाव आएगा...और इसकी शुरुआत स्त्रियों को करनी होगी....बदलाव इसी कारण नहीं आ पा रहा क्यों कि अभी स्त्रियों तक शिक्षा का प्रसार नहीं हो पा रहा...
    जो बातें इतने साल में नहीं के बराबर बदलीं हैं उनको कैसे कहा जा सकता है कि २-४ साल में बदल जाएँगी....पर आज का युवा वर्ग काफी बदल रहा है...और उम्मीद पर दुनिया कायम है....इति

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  20. यह ख़बरें मैं भी रोज समाचार पत्र में पढ़ती हूँ....ऐसा करने वाले कौन हैं? समाज आखिर है क्या?
    हम तुम ही ना....

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  21. मैं राज भाटिया जी कि बात से पूरी तरह सहमत हूँ

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  22. ये सारी हरकते तो आम है यूपी बिहार जैसे राज्यों में आश्चर्य तो तब होता है जो पिता अपनी बेटी के विवाह में ये सब झेल चूका है वो अपने बेटे के विवाह में वही सब करता है | लोगों कि मानसिकता ये होती है कि हम लड़केवाले आप कि बेटी से विवाह करके उस पर और आप पर एहसान कर रहे है | युवाओ से अब उम्मीद नहीं दसको से ये उम्मीद कि जा रही है कि युवा समाज से दहेज़ प्रथा समाप्त करेंगे पर ये देख कर आश्चर्य होता है कि ये युवा तो प्रेम विवाह में भी दहेज़ लेते है | मुझे नहीं लगता कि ये तब तक समाप्त होने वाला है जब तक कि खुद लड़की वाले उन्हें जरुरत से ज्याद भाव देना न बंद कर दे |

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  23. जाने अनजाने हम सब भी तो इन कुप्रथाओ को बढ़ावा ही दे रहे है कभी इस डर से की बारात चली जावेगी तो क्या होगा ?इतने महंगे होटलों में शादी करना ?ऐसे अपठित दुल्हे को तोक्ना?पढ़ी लिखी लडकियाँ ,लड़के जब तक इन चीजो का विरोध नहीं करेंगे तब तक न तो उनकी पढाई की सार्थकता है नहीं ऐसी कुप्रथाओ में कमी आवेगी ?क्योकि जब कम पढ़े लिखे लोग ऐसी घटनाओ को देखते है तो वे भी अनजाने में ही उनका अनुसरण करने लगते है ये भावना लिए हुए की जब बड़े (शिक्षित )लोग ऐसा करते है तो हम क्यों नहीं ?एकऐसी व्यवस्था के खिलाफ अच्छा आलेख1 जिसके जिम्मेवार हर कोई है |

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  24. एक व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो अभी हमने लगभग ६५ वर्षों का सफ़र तय किया है....उसके पहले तो हमने गुलामी ही सही है. इधर बहुत बदलाव आया है कई स्थानों पर..इसमें भी आएगा...बस इंतज़ार करिए.
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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  25. बहुत समय में कम बदलाव हुआ है ..और होगा ... आज छोटा सा कमेन्ट ही झेल लो ...

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  26. रश्मि जी , खून खौल उठता है , लोगों की ऐसी नीच मानसिकता देखकर । हमारे यहाँ तो ऐसे लोगों की जमकर पिटाई की जाती है ।
    अब शहरों में तो लोग जागरूक हो गाये हैं । लड़कियां ही शादी से मना कर देती हैं । लेकिन आम जनता को इस स्तर तक आने में अभी बहुत समय लगेगा ।
    अच्छा मुदा उठाया है आपने ।

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  27. @ कोई भी घटना जब अपने चरम पर पहुंचती है तभी अखबारों की सुर्खियाँ बनती है. लेकिन उन सुर्ख़ियों तक पहुँचने की नीचे वाली पायदानों तक भी बहुत कुछ घटित होता रहता है, समाज में. हम, अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में लिप्त,अपने समान विचारों वाले लोगों के बीच उठते बैठते,सीमित दायरे में क़ैद , यह जान ही नहीं पाते कि अभी तक कितनी ही कुरीतियों , उंच-नीच ,भेदभाव, और संकीर्ण मानसिकता से आप्लावित है हमारा ,दूसरे क्षेत्रों में तेजी से प्रगति करता समाज.

    जबरदस्त पर्यवेक्षण !
    आभार।

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  28. ऐसी प्रथाओं को बड़ा,ने में बहुत वक़्त लगेगा अभी.... अभी भी यूं.पी. और बिहार में दुल्हों की मंडी लगती है... जहाँ आई.ऐ.एस. से लेकर मजदूर लड़कों की बोली लगती है... यह मंडी सिवान में लगती है... मेरा एक दोस्त आई.ऐ.एस. है.... अभी ऐसा ही सीन उसकी शादी में भी देखने को मिला था....

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  29. बहुत सही जगह चोट की है रश्मि. सामाजिक बदलाव की धीमी गति का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता था? कितनी ही शादियों में मैने जूता-चुराई में पैसे देने में आना-कानी और कुंवर-कलेवा जैसी रस्मों में दूल्हे को अपनी फ़रमाइश पर अड़ते और फिर इसी बात को झगड़े में बदलते देखा है.
    रश्मि, एक वाक्य हमेशा मैने किसी की भी शादी के बाद अनिवार्य रूप से सुना है- कि " चलो, शादी बिना किसी विवाद के अच्छे से निपट गई" मतलब शादियों में लड़के वालों का खराब रवैया अपेक्षित होता है.
    अपनी बात इस पोस्ट पर भी दोहराउंगी, कि बदलाव की प्रक्रिया इतनी धीमी है, कि वो दिखाई ही नहीं देती, केवल महानगरों की दम पर बदलाव नहीं हो सकता. ज़रूरत है मानसिकता बदलने की, लोग चाहे शहर के हों या गांव के.

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  30. यह संकीर्णमानसिकता देश को ड़ुबो रही है... जाने कब ये हालात सुधरेंगे... लाजवाब प्रस्तुति के लिये बधाई

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  31. यह खत्म तो नहीं होगा, हा मात्रा कम जरूर होती रहेगी। आप की लाकर पहन कर आने वाली बात , से आन्नद आ गया..

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  32. hmm, jab tak ham khud nahi badlenge, ham means ham sab, to mansikta kaise badlegi....

    Gayatri pariwar walo ka ek nara bachpan se sunte aaye hain aur shayad aage bhi sunte hi rahenge ki "Hum badlenge, Yug badlega"....

    lekin kab?

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  33. रश्मि, एक तरह से देखा जाए तो हम, हमारी बेटियाँ, अपना अपमान स्वयं करवाते हैं। ऐसे लोगों को दो लात मार बाहर करना चाहिए। अब लात क्यों नहीं मारते इसका कारण अपने ब्लॉग पर लिखूँगी।
    घुघूती बासूती

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  34. घुघुती जी के ब्‍लॉग से मैं आपके पोस्‍ट तक पहुंचे .. फोलोवर बनने की जगह ब्‍लॉग में दे दे .. ब्‍लॉगवाणी बंद होने के बाद महत्‍वपूर्ण आलेख भी आंख से ओझल हो जाते हैं .. मानसिकता तो बदल रही है हमारी .. पर बहुत ही धीमी गति से .. इसे तेज करना पडेगा !!

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  35. rashmi,

    bahut sahi ghatna ujagar kee hai. aise bahut se kisse saamane aate hain lekin ladaki vale bhi bichare kuchh soch kar aise smajhaute kar lete hain bagair ye soche ki ye kal kaise sabit honge.
    hamari maansikata dheere dheere badalegi. sirph isi ke liye nahin balki jab ham isa jaati ke bandhan ko todne lagenge tab jaldi hi badalegi. hamari ye kattarta hi ladake valon ke daam badha kr rakhate hain.

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  36. दी, सॉरी... देर से आने के लिए. मुझे डी.यू. के एक कोलेज में इंटरव्यू का कॉल लेटर आ गया था, उसी की तैयारी में लग गयी थी.
    इस पोस्ट पर मैं यही कहूँगी कि कि जब तक लड़कियों को सिर्फ ये समझकर पाला जाता रहेगा कि उन्हें एक दिन ससुराल जाना है...उनके आत्मनिर्भर बनने के लिए नहीं बल्कि शादी अच्छी जगह हो जाए इसलिए पढ़ाया जाएगा, तब तक यही होता रहेगा.

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  37. वास्तव मे बहुत क्रोध आता है यह सब देख सुन कर । वही लोग जो लड़की वाले होने पर तमाम तरह से दहेज और कुप्रथाओं का रोना रोते रहते हैं वही लड़के की शादी के समय "लड़के वाले" बनते देर नहीं लगाते। कई प्रकरण तो ऐसे देखे हैं जिनके लड़कों की शादी नहीं हो रही थी... जब किसी ने शादी तय करवा दी तो नखरे आसमान पर। यही प्रथा है जिसकी वजह से भ्रूण हत्या जैसी घृणित समस्या पसर रही है

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