मेरी कहानी की नई किस्त में बाबूजी की मृत्यु के बाद सजने संवारने का शौक रखनेवालीपर क्या सचमुच समय बदल गया है?? पति को खोने के बाद स्त्रियों की स्थितियों में कोई परिवर्तन आया है? मुझे तो नहीं लगता. जबकि मैं खुद महानगर में रहती हूँ. मेरे बहुत सारे रिश्तेदार बड़े शहरों में हैं. ढेर सारी सहेलियां हैं उनके रिश्तेदार हैं. पर अगर कहीं भी किसी स्त्री ने अपना पति खोया है तो ये सारी पाबंदियां उसके साथ लागू हो जाती हैं.
अम्मा जी का जीवन बिलकुल. बदल जाता है.शादी -ब्याह में भाग लेना,चूड़ियाँ,बिंदी, रंगीन कपड़े पहनना ..सब बंद हो जाता है. उस किस्त पर एक मेरी बहुत ही प्यारी सहेली (जो मेरे लेखन की नियमित पाठिका है और तारीफ की ऐसी गंगा बहाती है कि मुश्किल होता है उसकी तेज धार में बहने से खुद को रोकना :)) के कमेन्ट के एक अंश ने कुछ सोचने को मजबूर कर दिया.
उसने लिखा था ,"हाँ आज समय बदल गया है ...अपने आस पास इतने तलाक और पुनर्विवाह के किस्से देख रही हूँ ...मगर तुम्हारी कहानी जिस समय के लिहाज़ से है ...पति पत्नी के रिश्ते की यही तुलना ठीक लग रही है "
इस 31 मई 2010 की एक घटना का जिक्र करती हूँ. मेरी एक सहेली की बेटी की मेहंदी की रस्म थी. लेडीज़ संगीत भी था. खूब नाच-गाना चल रहा था. उसकी ससुराल में उसकी ननदों को बहुत शौक है इन सब का. 4,5 साल पहले उसकी एक छोटी ननद के पति गुजर गए.वो भी वहाँ थी. काले बौर्डर वाली ग्रे कलर की साड़ी में. गले में पतली चेन, छोटे से टॉप्स कानो में, जैसे हम बाज़ार जाते वक़्त तैयार होते हैं.बाकी सारे लोग चमचमाती लाल-नीली-गुलाबी साड़ियों में थे, गहनों से लदे. उसके आस-पास बैठी सभी औरतों को परिवारवाले खींच कर डांस करने के लिए ले जा रहें थे.पर उसे कोई नहीं बुला रहा था. जबकि सहेली ने बताया था,वह बहुत अच्छा नाचती थी. वहीँ कुर्सी पर बैठी वह बच्चों को दिखा रही थी..ऐसे डांस करो....क्या उसका मन नहीं हो रहा होगा?
जब हम सहेलियों को सब बुलाने लगे तो हम लोगों ने उसे भी जबरदस्ती उठाया और अपने साथ ले गए.पर वह जरा सा हिल कर वापस चली गयी.वहाँ मौजूद उसकी भाभियों,बहनों, भतीजियों ,भाइयों ने कोई इसरार नहीं किया कि नहीं तुम भी हमारे साथ डांस करो. जब मायके में ये हाल है तो ससुराल की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते. और यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है.
पिछले साल मैं अपने एक रिश्तदार की बेटी की शादी में पटना गयी थी.वहाँ मटकोर की रस्म के लिए सारी औरतें,बाहर जा रही थीं. एक जिठानी और ननद को एक तरफ बैठे देख ,मैने उन्हें भी चलने को कहा,पर उनलोगों ने जब इशारे से मना कर दिया तब मुझे ख़याल आया कि इनका तो किसी रस्म में भाग लेना वर्जित है.मैं भी यह कहती वहीँ बैठ गयी..."बहुत भीड़ है..मैं भी नहीं जाउंगी "...लेकिन कुछ औरतों ने पलट कर मुझे देखा और मुझे जबरदस्ती साथ में ले गयीं. जिठानी लन्दन में अपने बेटे के साथ रहती हैं और वो ननद एक स्कूल की प्रिंसिपल हैं. पर जब किसी ब्याह शादी में शामिल होने की बात आती है तो पुरानी परिपाटी ही निभायी जाती है.
ये महिलायें भी खुद से शामिल नहीं होना चाहतीं,एक तो समाज का डर और फिर दूसरा अंधविश्वास. किसी विधवा माँ को देखती हूँ, कितनी दौड़ धूप करके, कितनी परेशानी से वो बेटी या बेटे की शादी ठीक करती है,सारे इंतज़ाम करती है.पर रस्मे सारी कोई चाचा -चाची निभाते हैं. ये लोग भी हिम्मत नहीं करती किसी चीज़ को हाथ भी लगाने की, अगर शादी के बाद वर -वधु को जुकाम भी हुआ तो इसका दोष, उन बेचारी महिलाओं के सर जायेगा.
जबकि पत्नी की मृत्यु हो जाए तब भी पुरुष के किसी भी रस्म में भाग लेने की कोई मनाही नहीं है. जिस रस्म में माता-पिता दोनों की जरूरत होती है, वहाँ पत्नी की जगह एक लोटा रख दिया जाता है और सारी विधि निभाई जाती है. यानि की स्त्री का अस्तित्व एक निर्जीव लोटे से ज्यादा कुछ नहीं??
पति के जाते ही, जैसे उनकी ज़िन्दगी रुक सी जाती है. बनना-संवारना नहीं, चूड़ियाँ,बिंदी,लिपस्टिक, लाल-गुलाबी,पीले-नारंगी रंग..सब अलविदा हो जाते हैं उनकी ज़िन्दगी से. आज जमाना बदल गया है.स्त्रियाँ हर जगह पति के साथ ही नहीं जातीं. नौकरी करती हैं, घर के सौ काम निपटाती हैं. बच्चों के स्कूल ,बैंक सब जगह जाना पड़ता है पर वही महिला, इन सारी जगहों पर इतने बन संवर कर जाती थी अब हलके, धूसर रंग के कपड़े, हाथों में एक कड़ा,और एक छोटी सी काली बिंदी. इस से ज्यादा श्रृंगार मैने किसी विधवा स्त्री का नहीं देखा.(यह शब्द भी मुझे लिखने का मन नहीं होता...पूरी कहानी में मैं लिखने से बचती रही) उन्हें भी तो एक ही ज़िन्दगी मिलती है. पर उन्हें अपनी सारी इच्छाओं का गला घोंटना पड़ता है. यह समाज क्या अब भी यही सोचता है कि स्त्री का श्रृंगार सिर्फ पुरुष को लुभाने के लिए होता है. अपनी संतुष्टि के लिए उसे सजने संवारने का कोई अधिकार नहीं?
पति को खोने का दुख तो उसे हर पल रहता है, और रोम रोम से महसूस करती है. पर जैसे खाना-पीना नहीं छोड़ सकती तो ख़ुशी ख़ुशी जीना छोड़ने पर उसे क्यूँ मजबूर किया जाता है??
उनके खाने पीने पर भी रोक लग जाती है. नौन-वेज़ की कितनी भी शौक़ीन हों पर अब नहीं खा सकतीं. बंगालियों में मछली के बिना उनके एक शाम का खाना नहीं होता पर विधवा स्त्री मछली नहीं खा सकती. एक बुजुर्ग महिला ने अपने अनुभव बांटे थे. संयुक्त परिवार था, बता रही थीं, जैसे ही मटन-चिकन बनने लगता, उसकी सुगंध से ,उनमे तीव्र इच्छा जगती, खाने की. फिर उन्होंने साईं बाबा की शरण ली. और रो रो कर बाबा से कहा, "इतना बड़ा आधार छीन कर, इस तुच्छ इच्छा को क्यूँ नहीं छीन रहें" और उनका कहना था ,साईं बाबा ने उबार लिया. उनकी आराधना में मन रम गया और अब उनकी इच्छा नहीं होती. मैं चुपचाप उनकी बातें सुन रही थी.पर सोच रही थी,यह तो सहज स्वाभाविक है. कल तक जो महिला इतने शौक से बनाया करती थी, शौक से खाया करती थी. अचानक छोड़ देना कितना मुश्किल है.
पुनर्विवाह की अगर सोची भी जाती है तो बस उन महिलाओं के लिए ,जिनकी शादी को मुश्किल से एकाध साल हुए हों.और जिनकी कोई संतान ना हो.
यह सही है,इतना परिवर्तन तो आया है कि अब दुर्व्यवहार नहीं होते, उनके साथ .वैसे ऊपर से ऐसा दिखता है..अंदर की बातें तो भुक्त-भोगी महिला ही बता सकती है कि रोज कैसे कहाँ, वह अपमान झेलती है और कैसे रोज मर मर कर जीती है.
और अगर उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं भी होता...दुख नहीं दिए जाते फिर भी दुख की अनुपस्थिति ,सुख की गारंटी तो नहीं है??
कुछ बदलाव तभी आएगा ,जब हम अपने परिवार में ,पड़ोस में, रिश्तदारों में किसी भी ऐसी महिला को देखें तो पूरी कोशिश करें कि वे एक सामान्य जीवन बिताएं और उनके होठों की हंसी कायम ही ना रहें बल्कि वो हंसी होठों से चलकर आँखों में झलके.
रश्मि
जवाब देंहटाएंबहुत ही सही मुद्दा उठाया है…………आज ये पहल तो करनी ही होगी तभी बदलाव आयेगा और इसके लिये नारी को खुद आगे आना होगा।
"दुख की अनुपस्थिति ,सुख की गारंटी तो नहीं है??"
जवाब देंहटाएंमैंने हरे में किए हुए अंश नहीं पढ़े। बाकि जो पढ़ा उसमें पंक्ति जबरदस्त लगी। यह कहानी जब छपे तो हमें भी बताएं। पूरी कहानी को कम्प्यूटर पर पढ़ना रूचता नहीं।
यानि कि स्त्री का अस्तित्व एक निर्जीव लोटे से ज्यादा कुछ नहीं??
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही बात है उनके साथ दुर्व्यवहार होते हैं और होते रहेंगे कितना भी सुख क्यों न हो मगर जो उसकी अपनी संवेदनायें हैं आपनी यादें हैं आपनी सुखमय जिन्दगी को खो जाने का दर्द है उसके आगे भौतिक सुख कुछ भी नही। कहीं कुछ नही बदला है औरत के लियेुसे अब भी पति की मौत का जिम्मेदार ठहरा कर घर से निकाल दिया जाता है अगर घर मे रहे तो भी क्या बुरा नही होता उसके साथ। कहीं कुछ नही बदला सही बात है। शुभकामनायें। पता नही कब तक उसकी सहन शक्ति को " औरत अब आज़ाद है ,उसकी स्थिती मे बहुत सुधार हुया है आदि कह कर खुद को सान्तवना देते रहेंगे। बहुत अच्छी पोस्ट है। शुभकामनायें
रंगनाथ जी, पता नहीं कैसे वो बॉक्स बन गए...समझ ही नहीं आ रहा...और अब ठीक भी नहीं हो पा रहा...कुछ लोगों से पूछा भी ....पोस्ट डिलीट करके वापस पोस्ट करूँ तो उनलोगों ने कहा रहने दो...ठीक है..
जवाब देंहटाएंइसीलिए छोड़ दिया.... कुछ ख़ास अंश को हरे रंग में नहीं लिखा है..
एक एक बात सच कही है रश्मि ! कितने किस्से तो मेने देखे हैं अपनी आँखों से ,पड़े लिखे परिवारों में ..कुछ नहीं बदला.
जवाब देंहटाएंआज भी कुछ लोग पहल करते भी हैं तो काम तो हो जाते हैं पर पीछे से आई खुसुर - फुसुर से मन तो आहत होता ही है .
इसकी कोई जरूरत भी नहीं। हम वैसे ही पढ़ लेते हैं।
जवाब देंहटाएं@-यानि की स्त्री का अस्तित्व एक निर्जीव लोटे से ज्यादा कुछ नहीं??...
जवाब देंहटाएंBilkul sahi paribhasha di hai aapne.
If a woman wants to live with dignity, she has to realize her worth and take some courage and pains to fight such battles of life. Otherwise women are destined to live like this for centuries ahead.
मैंने ये कमेन्टस रश्मि की कहानी पर लिखे थे उनके आदेश पर अब यहाँ भी पेस्ट कर रही हूँ.
जवाब देंहटाएंआजतक पति की मृत्यु के बाद रस्मो के नाम पर को काम कराये जाते हैं ( मेने खुद अपने पापा की मृत्यु के समय देखा )उन्हें याद कर आज भी मेरी आँखे क्रोध और क्षोभ से भर आती हैं.हम अपने घर के कामो में तो इन कुसंगातियों से लड़ सकते हैं पर कहीं और विरोध करना बहुत ही मुश्किल होता है.
आपको एक आँखों देखा किस्सा बताती हूँ दिल्ली जैसी जगह का .एक घर में कुछ पूजा थी जहाँ बेटी की विधवा माँ को बेटी की सभ्य सास ने कहा कि आइये अपनी बेटी के साथ पूजा में बैठिये ..तो उनके पास बैठा उनका ( सास ) भतीजा जो एक पढ़ा लिखा ,मल्टीनेशनल कम्पनी का हेड है ये कहता पाया गया .."पागल हो गई हो क्या? क्यों बुला रही हो उन्हें चुपचाप अपनी पूजा करो".कुछ नहीं बदला रश्मि मंजिल अभी बहुत दूर है
रश्मिजी
जवाब देंहटाएंआपकी कहानी भी बहुत अच्छीजा रही है ,और यह पोस्ट भी बहुत ही सार्थक है कीक्या कही कुछ बदला है ?
हम अपनी बचपन से देखि हुई चीजो के इतने आदि हो जाते है की वो हमारे मन में स्थायी घर कर लेती है यही बात हमारे रीती रिवाजो पर भी लागू होती है बिंदी, सिदूर चूड़ी को सौभाग्य की निशानी मानते है |और स्त्री का सौभग्य उसके पति से ही माना जाता है (ऐसा मै नहीं कहती )आज कितनी शादी शुदा महिलाये इन रीती रिवाजो का पालन करती है सब ने अपनी सुविधानुसार इन्हें अपनाया है या बदल लिया है चाहे पहनावा हो? या सोभाग्य सूचक सामग्री |
उसी तरह अपने पति के न रहने पर भी महिलाओ ने परिस्थियों काल और समय के अनुरूप अपने आप में परिवर्तन कर लिया है ये बात अलग है की कुछ लोग अपने अहम के कारण इसे स्वीकार नहीं कर पाते| वो ये नहीं जानते की किसी के साथ भी यह दुर्घटना घट सकती है ?
रीती रिवाज कही पर लिखे नही होते ?इनको बदलने की पहल हमें खुद ही करनी होती है |दूसरे को प्रताड़ित करने में जो लोगो को सुख मिलता है उसके चलते ही( मै भी इस शब्द का इतेमाल नहीं करूंगी )वो ही ऐसे नियमो को महत्व देते है |
कुछ लोग समाज में अपनी महत्ता बनी रहे इसलिए नियम कानून बताते रहेगे ऐसे अवसरों पर जबकि उनका कोई सिधांत नहीं होता |
अभी -अभी मेरी एक सगी बहन और एक फुफेरी बहन दोनों के पति की मात्र दो महीने के अन्तराल में म्रत्यु हुई |उनके दुःख को हम क्या कोई भी भर नहीं सकता ?हम सब ने मिलकर दोनों को ऐसे कोई रीती रिवाज नहीं करने दिए जिससे वो अपने को अपमानित महसूस कर सके | दोनों की साँस भी है /उनका गम कौन बाँट सके ?वो भी पुराने विचारो की थी किन्तु जब हम सब एक साथ हो गये तो वो भी चुप ही रही |
और जो लोग चमकीले भड़कीले वस्त्रो को अपना सोभाग्य का सूचक मानते है ?उनकी मानसिकता कितनी परिपक्व होगी ?शुभ और अशुभ हमने ही तो बनाये है |
सिर्फ और सिर्फ सोच बदलनी है |
तुम्हारी कहानी पर आई टिप्पणी पर आज यह मुद्दा उठाया है....मैं भी समाज में बहुत जगह ऐसा ही आचरण देखती हूँ....पर यह बदलाव घर से ही शुरू करना होगा....सबसे पहले पहल स्त्रियों को ही करनी होगी...क्यों कि शादी में ज्यादातर रस्में स्त्रियां ही निबाहती हैं....माना कि बदलाव अधिक नहीं है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि बदलाव हुआ ही नहीं है...बदलाव स्वयं की सोच पर निर्भर है ...
जवाब देंहटाएंमेरे घर का किस्सा है...मेरी बुआ के लड़के की शादी थी...और मेरे पापा एक साल पहले स्वर्ग सिधार गए थे....मेरी बुआ ने मेरी माँ को शादी की सारी ज़िम्मेदारी दे रखी थी...यहाँ तक की बहू के आगमन पर हमारे यहाँ सात स्त्रियां बहू को मीठे चावल खिलाती हैं...तो मेरी बाजी ने मेरी माँ से ही सबसे पहले बहू को मीठे चावल खिलवाए...हर जगह उनको सबसे आगे रखा....
लेकिन यह सोच सब जगह शायद नहीं होती....लेकिन बदलाव आ रहा है और ज़रूरत है कि स्त्री ही स्त्री के अस्तित्व को समझे....
तुमने मुद्दा तो सही उठाया है ...
जवाब देंहटाएंलेकिन अगर मैं ऐसा लिखती हूँ की मैंने बदलाव देखा है तो सच ही कह रही हूँ ...मेरी बुआ सास विधवा हैं , मगर रंगीन वस्त्र , पाजेब , बिछिया सब पहनती हैं ...मेरी एक पड़ोसन की छोटी देवरानी जो सरकारी सेवा में हैं, मेरी एक कजिन , मेरी कालोनी की एक महिला भी , इन सब का जीवन इनके पति के जाने के बाद रुका नहीं है ...और सच कहूँ तो उन्हें इस तरह देख कर अच्छा ही लगता है ..
तलाक के बाद पुनर्विवाह के मेरी अपनी बिरादरी क्या रिश्तेदारी में ही बहुत सारे हैं ...तुम चाहो तो नाम पता भेज दूं ...()
संगीता जी से सहमत हूँ की शुरुआत अपने घर से होनी चाहिए ...मगर उनपर दुसरे रिश्ते थोपने नहीं चाहिए ,लड़की या स्त्री की इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए ...
तुम मुंबई में नहीं देख रही हो यह सब ...मुझे ताज्जुब है ...!
तुम्हारी तारीफ़ में लेश मात्र भी झूठ नहीं है ...तुम सचमुच इतना अच्छा लिखती हो ...!
बहुत नाजुक और संवेदनशील मुद्दा उठाया है आपने ...कुछ भी कहने में मुश्किल आ रही है मगर इतना तो जरूर कहूँगा की ऐसी महिला को अपना जीवन अपने तरीके से जीने का पूरा हक़ होना चाहिए ..और लिखती तो आप लाजवाब हैं ही ! कहिये तो लिख कर दे दूं ?
जवाब देंहटाएंशुक्रिया,शोभना जी,
जवाब देंहटाएंआपकी टिप्पणी इस पोस्ट की पूरक बन गयी है...लोगों की ऐसी मानसिकता का बहुत अच्छा विश्लेषण किया आपने...सदियों से चले आ रहें रीती रिवाज़ को बदलने की हिम्मत लोग नहीं कर पाते...खासकर अंधविश्वास में जकड़ी औरतें...पर जैसे जैसे शिक्षा का प्रसार होगा...ये कुरीतियाँ समाप्त होती चली जाएँगी.
यही है कि मंजिल दूर ही नज़र आ रही है क्यूंकि बस साक्षर होने का मतलब शिक्षित होना नहीं है..
सार्थक और उचित। कमेण्ट में पहले ही लगभग वह सब लिखा जा चुका है - जो मन में आता है।
जवाब देंहटाएंकहानी अभी पढ़ी नहीं - मगर पढ़ूँगा और तब लिखूँगा उस पर।
अभी सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ कि ज़रूरत है पहल करने की - करना ज़रूरी है।
परिस्थितियों में ज्यादा बदलाव नहीं है, कमोबेश अपने जो लिखा है वो अभी भी समाज के कुष्ठ के रूप में विद्यमान है . काश कोई दूसरा राजा राम मोहन राय पैदा होता.. छुटपुट बदलाव का अर्थ ये नहीं हो सकता की समाज की मानसिकता में बदलाव आया है , लेकिन वो अभी नगण्य है.
जवाब देंहटाएं@संगीता जी ,सच...तसल्ली हो गयी ...आपकी टिप्पणी पढ़कर ...बहुत छोटे स्तर पर ही...पर बदलाव शुरू हो गए हैं...रफ़्तार धीमी ही सही...शुरुआत तो हुई है...सही कहा स्त्रियों को ही आगे बढ़ने की जरूरत है क्यूंकि रस्म-रिवाज़..तीज़-त्योहार स्त्रियाँ ही निभाती हैं तो उन्हें ही ध्यान रखना है कि उनकी ये बहनें भी उस हंसी ख़ुशी में शामिल हों.
जवाब देंहटाएंमै भी वह कहानी ज़रूर पढ़ना चाहूंगा…इस पोस्ट ने उत्सुकता बढ़ा दी है…
जवाब देंहटाएंऐसी घटनायें हम रोज़ ब रोज़ अपने अगल-बगल देखते हैं और उस पर चुप रह कर अपनी सहमति भी जाने-अनजाने में दे ही देते हैं…आपने एक बार फिर एक गंभीर और ज़रूरी मुद्दा उठाया।
सवाल बहुत ही मौजूं है....काश ज़हन बदले लोगों का.लेकिन उम्मीद है और सच भी है कि धीरे धीरे मानसिकता अब बदल रही है.
जवाब देंहटाएंshahroz
@वाणी,
जवाब देंहटाएंअब क्या कहूँ...तुमने जो देखा..तुमने लिखा...मुझे जो नज़र आता है..उस से कैसे आँखें बंद कर लूँ.?..दरअसल...मैने दो अपने बहुत करीब लोगों की ज़िन्दगी देखी है कि कैसे बदल गयी ??
मेरी ममी के पड़ोस में एक आंटी हैं,उनकी बहू ने करीब १० साल पहले अपने पति को खो दिया.और उनके पास रहने आ गयी.एक बेटा है. बहू सिर्फ खाना बनाती है, सीरियल्स देखती है,बस. किसी भी फंक्शन में अंकल आंटी,स्कूटर पर सवार हो चले जाते हैं. रिश्तेदारी में भी वही लोग जाते हैं. बहू घर अगोरती है. दुर्वयवहार कोई नहीं है? पर क्या सुख है,बोलो?
उन्होंने संगीत सीखा हुआ था.मैं जब जाती हूँ,इतना जोर डालती हूँ "भाभी एक म्युज़िक स्कूल खोल लीजिये".कहती हैं,"संगीत ही रूठ गया अब?" पर और कोई भी उनपर जोर नहीं डालता,सब समझते हैं..रोटी,कपडा,छत तो है...किस बात की कमी है?
एक मेरे बचपन की सहेली थीं,प्रतिमा दी. पड़ोस में रहती थीं,बहुत चंचल. (कहानी में नमिता का चरित्र बहुत कुछ उनसे मिलता है) पति को खोकर, गाँव में ससुराल में रहने आ गयीं. बेटे को एक जेठ ले गए,बेटी को दूसरे जेठ. वे अकेली गाँव में हैं.क्या सुख है उनकी ज़िन्दगी में? वे फिर से नए सिरे से अपनी ज़िन्दगी शुरू करें...किसी ने कोई कोशिश की?
और सही कहा...मुंबई में रहकर भी ..कोई विधवा विवाह देखना,मुझे अभी भी बाकी है. कभी देखा तो जरूर उस खबर को जरूर यहाँ बाटूंगी. वादा.
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जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंयानि की स्त्री का अस्तित्व एक निर्जीव लोटे से ज्यादा कुछ नहीं?? ?????????????????
जवाब देंहटाएंबहुत गर्व करते हैं हम अपनी संस्कृति पर लेकिन इसके विद्रूप रूप को देखकर शर्म से सिर झुक जाता है
रश्मि जी,इतना सब कुछ खो जाए किसी स्त्री के जीवन से और बाक़ी बचे रंग हम छीन लें ये कोई न्याय तो नहीं,लेकिन इस अन्याय की सब से ज़्यादा ज़िम्मेदार हम महिलाएं ही हैं ,
जवाब देंहटाएंहां ये सच है कि समय बदलने लगा है परंतु इन रीति रिवाजों को बदलने में अभी भी बहुत वक़्त लगेगा
बसी है दिल में मेरे इक यक़ीन की ख़ुश्बू
कभी तो फूल खिलेंगे बबूल के बन में
पति की मृत्यु के बाद पत्नी का जीवन बदल तो जाता है। एक अधूरापन सा तो रहता ही है । उससे उभरने में समय भी लगता है । लेकिन अब धीरे धीरे हालात बदल रहे हैं । महिलाएं अब पहले से ज्यादा स्वतंत्र हो रही हैं । इसकी वज़ह है , पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ा होना । अब वह किसी की आश्रित होकर जीना नहीं चाहती ।
जवाब देंहटाएंसही दिशा में बदलाव है ।
कहानी सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि कई समस्याओं को उठाने का काम भी करती है उनको लोगों के सामने लाकर उनका समाधान भी मांगती है.. यही सब ये कहानी कर रही है दी.. राजा राममोहन राय का काम अधूरा ही रहा.. अभी बहुत कुछ है पूरा करने को
जवाब देंहटाएंbahut sahi mudda uthaya aapne
जवाब देंहटाएंhum logon ko hi pahal karna hogi
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
देर से आया , इसका अफ़सोस भी है ! आपकी कहानी इस 'तंत्र' की सटीक समीक्षा कर रही है !
जवाब देंहटाएं.. और हाँ रंगनाथ जी की बात से मेरा भी इत्तेफाक है कि कहानियों को प्रिंट में पढने में ज्यादा सुख पहुंचता है , ज्यादा तोष !
इसे क्या कहा जाय ? इसे मैं आदर्श और यथार्थ का द्वैत कहूंगा , एक जगह तो कहा जाता है ' जिय बिनु देह नदी बिनु वारी , तैसे नाथ पुरुष बिनु नारी' , सीता के अभाव में सोने की सीता के साथ राम पूजा पर बैठते हैं ..
बड़ा कौतूहल है आपकी कहानी को देखने का ! आभार !
जीवन में स्वच्छंदता रहे, हल्कापन रहे और गति बनी रहे।
जवाब देंहटाएंयदि किसी विधवा का विवाह हो भी जाता है .. तो पुनर्विवाह के बाद रस्म वगैरह के समय उन्हें विधवा ही माना जाता है .. उन्हें सुहाग की चीजों को छूने की मनाही होती है .. सच कहा आपने कुछ भी नहीं बदला है !!
जवाब देंहटाएंकहने को तो कुछ नही बचा है पर पता है बिना कहे निकलना भी तो मुश्किल है. शब्द शब्द सही कहा है रश्मि जी आपने लेकिन हा वाणी जी से सहम्त है कि विधवा विवाह अब हो रहे है. मेरे तो एक प्यारे दोस्त ने तब एक बच्चे की मा से विवाह किया जब वो अविवाहित था और य़ूनीवर्सिटी मे प्रोफ़ेसर था. ऐसे अपवाद कम ही देक्घने को मिलते है लेकिन यह भी हो रहा है. इन हालातो को बदलने के लिये एक तो महिलाओ को जीवन के बारे मे अपने नज़रिये को विवाह से आगे भी ले जाना होगा और दूस्रे ऐसे मामलो मे महिलाओ को ऐसी विधवा महिल को सकारात्मक सहयोह देना होगा.
जवाब देंहटाएंरश्मि जी एक ऐसा सवाल उठाया है आपने , जिस मैं बदलाव अब ज़रूरी है. इस समस्या का सही इलाज पुनर्विवाह है. तलाक हो या विधवा , पुनर्विवाह से ही ख़ुशी दी जा सकती है. स्त्री का श्रृंगार भी उसको वोह ख़ुशी नहीं दे सकता जिस श्रृंगार को कोई अपना सराहने वाला या देखने वाला ना हो. इन समाजी ढकोसले हैं यह की विधवा सफ़ेद कपडा पहने, शादी मैं ना जाए, और बहुत से कुप्रथाएँ हैं. इसको तोडना होगा और औरतों को पहल करनी होगी. शायद मेरी बात बुरी लगे किसी महिला को लेकिन इस मसले मैं एक औरत ही दूसरी औरत की दुश्मन है. मैंने बहुत से घरों मैं देखा है, सास या मान चाह के भी विधवा बेटी या बहु को लाल, पीले कपडे नहीं पहना पाती, समाज के दर से. यह हम कैसे ज़ालिम समाज मैं रह रहे हैं? यह ज़ुल्म है की किसी औरत को जो अपना पति खोने का दुःख सहन कर रही है, उसको और ऐसे दुःख दो. उसको हंसाओ, उसके दुःख को कम करो.ना जाने कब हमारी आँख खुलेगी?
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ बदला है,पर नहीं लगता कि खत्म होगी यह पिछड़ी मानसिकता, दुखद ...विचारणीय तत्थ
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी बात कही आप ने इस मुद्दे पर मै shikha varshney से सॊ प्रतिशत सहमत हुं, मै भी एक शादी पर ऎसा ही देखा था तो मैने जवर्दस्ती से उस नारी को वहां बिठाया था, बस हमे ही पहल करनी होगी
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंआपने वही देखा है, जो आप दिखाना तय कर चुकी थीं । मैं घृष्ठतापूर्ण यह कह सकता हूँ कि आपका आलेख एकाँगी सामान्यीकरण है.. मैं बिहार के एक पुरातनपँथी मध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार से हूँ, पर मेरे यहाँ ऎसी कुप्रथायें पिछले 20 वर्षों में दम तोड़ चुकी हैं । लोग क्या कहेंगे का सँकोच त्याग कर तर्कहीनता से उबरने की इच्छाशक्ति होनी चाहिये ।
आदरणीय अमर कुमार जी,
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो आपका शुक्रिया अदा करूँ कि आप मेरे ब्लॉग पर आए ,और टिप्पणी करने की भी जहमत मोल ली....बहुत बहुत शुक्रिया.
बहुत अच्छा लगा जान कि आप बिहार से हैं ,और बीस वर्ष पहले से आपके घर,जैसा कि आपने कहा है,("पर मेरे यहाँ ऎसी कुप्रथायें पिछले 20 वर्षों में दम तोड़ चुकी हैं । ") में पति को खोने के बाद भी स्त्रियाँ, लाल-पीले कपड़े,रंगीन चूड़ियाँ,बिंदी,गहने पहनती हैं...शादी ब्याह की रस्मो में भाग लेती हैं और उनके पुनर्विवाह हो चुके हैं. सच ये सुन अपने एक बिहारी होने पर गर्व हो आया.
पर यहाँ मैने बात पूरे समाज की की थी, इक्का-दुक्का घर की नहीं,यहाँ भी टिप्पणियों में कुछ लोगों ने अपने घर के उदाहरण दिए हैं कि उनके वहाँ ऐसी घटना होने पर उनलोगों ने कुप्रथा का विरोध किया है , पर पूरे समाज में हर घर मे ऐसा होता है,यह तो नहीं कहा जा सकता.ज्यादातर लोगों ने टिप्पणियों में भी स्वीकार किया है कि ये कुप्रथाएँ,समाज में कुष्ठ की तरह विद्यमान हैं. और आपका अकेला आदर्श घर पूरे बिहार का प्रतिनिधित्व नहीं करता. क्यूंकि मैं खुद बिहार की हूँ और मैने भी बहुत परिवार देखे हैं,जहाँ इस तरह के भेदभाव किए जाते हैं.
अन्यथा ना लें तो कहती हूँ कि अधिकतर आप पुरुषों को इन भेद-भाव का पता भी नहीं चलता. जो दो उदाहरण मैने लिखे हैं, मेहंदी में डांस ना करने का और शादी की रस्मों में भाग ना लेने का ,वहाँ कोई पुरुष मौजूद भी नहीं था. जैसा कि संगीता स्वरुप जी ने कहा है, अधिकतर इस तरह की रस्मे स्त्रियाँ ही निभाती हैं,इसलिए उन्हें ही जागरूक होने की जरूरत है. एक स्त्री को क्या क्या झेलना पड़ता है और उसकी जीवन की रोज़ की कठिनाइयों को वही बारीकी से देख सकता है जो उसके करीब हो. पुरुषों का वैसे भी इन स्त्रियों के आस-पास प्रवेश वर्जित हो जाता है. इसलिए मैं भी घृष्ठतापूर्वक यह कह सकती हूँ की मेरा लेख एकांगी नहीं है. इस तरह की मान्यताएं अभी भी समाज में विद्यमान हैं.
और विधवा-पुनर्विवाह तो माफ़ करें,इतने कम हुए हैं कि उँगलियों पर भी नहीं गिने जा सकते.
जरूरत है ,जागरूकता लाने की और समाज के हर घर से ,ऐसी कुप्रथाओं की समाप्ति की चेष्टा की , ना कि यह सोच ऑंखें मूँद लेने की कि मेरे घर में सब ठीक है,इसलिए अन्यत्र भी सबकुछ सामान्य ही होगा.
सुन्दर लेख। बड़ी अच्छे कमेंट भी देखे। बहुत अच्छा लगा। आप बहुत अच्छी कहानियां लिखती हैं। अपनी कहानियों के पात्रों के माध्यम से बदलाव की बातें करिये। जैसा होना चाहिये वैसा अपने पात्रों के माध्यम से कहिये। सुखद परिवर्तन की बात पढ़कर कोई पाठक बदलाव के लिये अपना मन तैयार करेगा।
जवाब देंहटाएंमेरे मित्र गोविन्द उपाध्याय की एक कहानी अभी प्रकाशित हुई है। उसमें एक विधवा की स्थिति का वर्णन है। उसमें उनकी लड़की इस तरह के भेदभाव करने पर बड़े-बुजुर्गों को टोंकती है, धिक्कारती है। यह भी उनके विधवा होने के बाद उनका घर क्यों नहीं बसाया दुबारा।
"दुख की अनुपस्थिति ,सुख की गारंटी तो नहीं है??"
सुन्दर बात है।
रश्मि जी , आपसे सहमत हूँ , आज सती-प्रथा जैसी चीज तो नहीं है पर इतनी भी तरक्की नहीं आयी है , मेरे गाँव में दो विधवाएं हैं , आपकी पोस्ट पढ़ते हुए उनका स्मरण हो रहा था , उलटे पीठ पीछे इन विधवाओं को संबोधन का जो शब्द होता है उसे यहाँ लिखने में भी शर्म आ रही है ! ऐसे खयालात अभी भी हैं समाज में ! किसी एक कुल / घर / मोहल्ला में अगर यह स्थिति नहीं है ( जो कि निस्संदेह खुशी की बात है ) तो यह व्यापक तौर पर नहीं कहा जा सकता कि समस्या नहीं है ! यह तो समस्या का ही सतही साधारणीकरण होगा !
जवाब देंहटाएंहाँ अनूप जी ने भी एक अच्छी बात कही और वह है ऐसी समस्या में फंसे व्यक्तियों के सामने एक प्रेरणा-प्रद 'नायक चरित्र' की सर्जना ! इसे कहानीकार या उपन्यासकार बखूबी कर सकता है , अपने कथासाहित्य में ऐसे ताकतवर चरित्र की योजना करके ! इससे समस्याओं में घिरे लोगों की आँखों में बदलाव के सपने जगेंगे !
जवाब देंहटाएं@अनूप जी,
जवाब देंहटाएंआप मेरी कहानियां पढ़ते कहाँ हैं ? चलिए आपकी सुविधा के लिए कहानी की इसी किस्त से....मैं ही उद्धृत कर दे रही हूँ,कुछ उद्धरण...
"लड़के के चाचा,भाई,नाराज़ होकर बारात वापस ले जाने लगे. लड़का ,उनकी आवाज़ सुन झट से खड़ा हो गया,बाहर जाने को. पर अम्मा जी ने उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, "चुपचाप बैठिये मंडप में...बिना फेरा लिए और लड़की की मांग में सिन्दूर भरे आप आँगन नहीं टप सकते."
""ई त नहीं होगा...आप जबरदस्ती दुसर बियाह करोगे दिलीप का..तो गाँव का कोई सामिल नहीं होगा...जाओ सहर में कागज़ी बियाह करो...और फिर सहर में ही बसा दो उनको. ई घर में तो इहे दुलहिन मलकिनी रहेगी...." मलकिनी ने ने फैसला सुना दिया.
"बाद में , अम्मा जी ने सिवनाथ और उसकी बहू को बुला कर बहुत डांटा और उन्हें उस झोपडी से निकालने की धमकी भी दी अगर उन्होंने अपनी माँ का ठीक से ख़याल नहीं रखा. "
" उन्होंने मन ही मन प्रण लिया उन्होंने, चाहे जो हो जाए...गाँव वाले कुछ भी कहें, दोनों पोते और पोतियों के ब्याह में अम्मा जी हर रस्म करेंगी. उनको बिलकुल भी वे दूर नहीं रहने देंगी."
ये सब लिखने के साथ,मुझे समाज में व्याप्त कुरीतियों,कुप्रथाओं के बारे में भी लिखना पड़ता है...हम उस से मुहँ नहीं मोड़ सकते.
वैसे तारीफ का शुक्रिया...बिना पढ़े ही सही :)
@अमरेन्द्र जी, शुक्रिया
जवाब देंहटाएंनिर्मला जी,संगीता जी,राज जी, शिखा आदि की तरह आप भी सहमत हैं, कि समाज अभी पूरी तरह बदला नहीं है. इसमें बहुत सुधार की जरूरत है.
और मैं इतनी बड़ी कहानीकार तो नहीं...अभी अभी लिखना शुरू किया है....अपने तईं कोशिश जारी है.
रश्मिजी
जवाब देंहटाएंआपकी कहानी के माध्यम से बहुत ही अच्छा और स्वस्थ चर्चा का वातावरण निर्मित हुआ सभी लोगो ने अपने आसपास हुए बदलाव के उदाहरन देकर इस चर्चा को आगे बढाया |समाज में परिवर्तन हो रहे है इसकी चाल अवश्य धीमी और काँटों भरी है |इसके लिए अनूप शुक्लजी जी ने किलकुल सही कहा है की जो हम चाहते है अपने पात्रों द्वारा करवा सकते है |
बंगाल में तो पूर्व में कितनी कट्टरता थी कितु उस समय ठाकुर रामकृष्ण परमहंस ने कहा था माँ शारदा को -मेरे जाने बाद भी तुम कभी हाथ से कंगन नहीं उतारनाऔर सदा लाल किनारी वाली साड़ी पहनना |
शोभना जी,
जवाब देंहटाएंसही कहा मुझे भी संतोष हुआ कि मैने यह पोस्ट लिखी . इतने लोगों के विचार सामने आए.
संगीता जी, साधना जी,वाणी, के अनुभवों को सुन बहुत अच्छा लगा.
42 साल पहले,साधना जी के श्वसुर जी द्वारा उठाये गए कदम की जितनी सराहना की जाए, कम है. अगर समाज का हर व्यक्ति इतना साहस कर लेता तो आज मैने यह पोस्ट नहीं लिखी होती.
इंदु पुरी गोस्वामी जी ने भी एक मेल भेजकर बताया है कि कैसे उन्होंने अपने भतीजे के गुजर जाने के बाद उसकी पत्नी को नौकरी के लिए प्रेरित किया और वेशभूषा में कोई बदलाव नहीं आने दिया, अपने बेटे की शादी की रस्मे भी उस से करवाईं.
बस शिकायत यही है कि ऐसे उदाहरण पर्याप्त क्यूँ नहीं हैं? टेबल फैन से ए.सी. की दूरी, रेडिओ से सैटेलाईट चैनल्स की दूरी, टेलिग्राम से सेल-फोन की दूरी तो हम छलांग लगा कर पूरी कर रहें हैं लेकिन सामाजिक सुधार की गति अति धीमी है.
कोई भी परिवर्तन अपने और अपने परिवार की ताकत से शुरू होता है...अगर हम स्वयं शुभ कार्यों से उस व्यक्ति को अलग कर दें, जिसका ह्रदय आशीषों से भरा है, तो परिवर्तन कहाँ और कैसे ! दूसरे को कहने, बोलने से कुछ नहीं होता और यह सब केवल अंधविश्वास है , जिससे पुरुषों को अलग नहीं किया है....
जवाब देंहटाएंरश्मि जी, बहुत भावुक कर गई आपकी ये पोस्ट.मेरे सगे ताऊ जी की लड़की यानि मेरी दीदी की बेटी की शादी अभी फरवरी में पूना में थी जीजा जी की मृत्यु हुए कोई तीन साल हुए हैं हम तो यू पी के है और लड़के वाले मराठी हैं. शादी की सारी विधियाँ उनकी देवरानी ने की और कन्या- दान भी देवर देवरानी ने किया.पूरी शादी में पीछे ही बैठी रहीं हर बात में मुझे ही आगे करती रहीं बता रही थीं की लड़के वालों को पसंद नहीं है की वो सामने आयें. हमने तो भरपूर कोशिश की कि जहाँ तक हो उन्हें आगे भी करते रहे पर जब लड़के वाले होते हम भी चुप हो जाते कि बाद में लड़की को कुछ न कहा जाए.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया पोस्ट व चर्चा, विचार विमर्श!
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
रश्मि, सबने सब कह दिया. मेरे कहने लायक कुछ बचा ही नहीं. देर से आने के कुछ सटीक कारण हैं, खैर देर तो हो ही गई, वरना हम भी बहुत कुछ कहते....अभी तो केवल इतना ही कि बदलाव की गति बहुत धीमी है इसलिये यदि कुछ बदल भी रहा है तो उसका पता ही नहीं चलता. ज़रूरत है बदलाव की गति को तेज़ करने की. गांव जहां ये कुप्रथाएं जमी हुई हैं, के युवा यदि अपने बुजुर्गों की मानसिकता में परिवर्तन का जिम्मा लें तो शायद कुछ गति बढ सके, वरना तो पचासों साल लग जायेंगे बदलाव आते-आते.
जवाब देंहटाएंविधवा महिलाओं की क्या स्थिति है इसे कौन नहीं जानता ! अब कोई किसी टापु में रहता है तो उसकी बात और होगी।
जवाब देंहटाएं"बस शिकायत यही है कि ऐसे उदाहरण पर्याप्त क्यूँ नहीं हैं? टेबल फैन से ए.सी. की दूरी, रेडिओ से सैटेलाईट चैनल्स की दूरी, टेलिग्राम से सेल-फोन की दूरी तो हम छलांग लगा कर पूरी कर रहें हैं लेकिन सामाजिक सुधार की गति अति धीमी है."
जवाब देंहटाएंThree claps for you!!
samay tejee se badal rahaa hai. asha hai hamaare baad kee peedhee is sabko samool nasht kar de
जवाब देंहटाएंhaan tab ham bujurg honge
tab ham unhe roke nahee
रश्मि जी...नमस्कार...
जवाब देंहटाएंमैं आपकी पोस्ट पर एक दिन के विलम्ब से आया और देखिये विलम्ब से आने की वजह से इस सामयिक चर्चा के हर अंश को वस्तुतः पढ़ पाया..
आपने एक ज्वलंत विषय उठाया है...आपका कहना बिल्कुल सही है की आज भी हमारे समाज मैं ये विसंगति मौजूद है...और जो इसे नहीं मानते हैं वो वस्तुतः पर्याप्त modrate हो चुके हैं..यह कहने मैं मुझे कोई संकोच नहीं है... ईश्वर उनकी तरह की सोच हमारे समाज, हमारे आस पास भी लाये...जिस से हम इस दर्द को साँझा कर सकें...
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है...मेरे पिता का स्वर्गवास तब हुआ था जब मैं मात्र १६ साल का था.. मेरी माँ जी को मैंने भी ऐसे कई सामाजिक कार्यक्रमों से दूर रहते देखा है और तब मैं खुद ही विरोध करता था की माँ आप क्यों नहीं चलतीं हमारे साथ.. और धीरे धीरे उनके न आने के रहस्य मेरे बालमन को भी पता चल गए.. आप स्वयम महसूस कर सकती हैं की उस समय मुझे किस दर्द का अनुभव हुआ होगा...और जब मुझे इतना दर्द था तब मेरी माँ किस वेदना से गुज़र रही होंगी इसकी कल्पना करते ही मेरे रोंगटे आज भी खड़े हो जाते हैं... पर जैसे की श्रीमती साधना वैद जी ने कहा है की बदलाव घर से ही आते हैं... सो मेरे घर के सभी कार्यों मैं आज भी मेरी bhabhi joki स्वयम विधवा हैं, मेरी माँ जी unhen ही hamesha aage rakhti हैं...
humara samaaj abhi इतना udaar नहीं हुआ है...एक से एक padhe likhe log भी en kuprathaon मैं pade हुए हैं... पर जैसे sati pratha का एक समय aakar ant हुआ है...समाज की हर ku pratha एक न एक दिन dam avashya tod degi...यही humari shubhkamna भी है और यही humari Eshwar से prarthna भी है...
Bahut ही bhavnatmak आलेख...
दीपक...
net slow hone के कारन hindi नहीं ban paayee
sry....
Deepak
दीपक...
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं@दीपक शुक्ल जी,
जवाब देंहटाएंआपके कमेंट्स दो बार पब्लिश हो गए थे,इसलिए एक कमेन्ट डिलीट कर दिया.
der se aaya, par shayad durust aaya, agar jaldi hi aa jata to shayad comment ke roop me is pure vichar vimarsha se vanchit rah jata...
जवाब देंहटाएंaapne is post me bahut hi sahi aur satik mudde uthaye hain.....
khastaur par is rasm nibhane ke samay vidhwao ki bhumika wale mudde par, ise ham bachpan se dekhte aa rahe hain aur aaj bhi mehsus karte hain, han yah jarur hai ki bachpan ke samay aur aaj ke samay me kaafi parivartan bhi dekhne ko mil rahe hain is tarah ke muddo par, lekin abhi bhi ek vyapak sudhar ki jarurat to hai hi.
dekhiye rangnatha ji aur amrendra ji ke is baat se to sehmat hu ki kahaniyan chaape hue form me padhna jyada accha lagta hai... lekin apni baat karu to itne saalon me aadat se hi ho gai ki jo kahani mann ko bhaa jaaye use har hafte online blog par hi padhna. ab aakhir Hans, aur naya gyanoday jaisi patrikayein aakhir download kar ke PDF formate me computer par hi to padhte hain har bar....
ab jata hu aapki kahani ki pichhli kisht padhne, jyada hi vyast rahne ke karan taza kisht nahi padh paya hu abhi tak...
@ रशिम रविजा, अरे मैं इस कहानी के बारे में नहीं कह रहा भाई। सामान्य बात कह रहा हूं। लेख पढ़कर ही तो कहा बहुत अच्छा लिखती हैं।
जवाब देंहटाएंवैसे तारीफ का शुक्रिया...बिना पढ़े ही सही :)
बिना पढ़े तारीफ़ करता होता तो अब तक आपकी सब पोस्टों पर टिपिया चुका होता।
यूं तो आपके लम्बे लेख पढ़ता ही हूं
जवाब देंहटाएंबहुत लम्बा लिखती हैं आप
मगर मैं टिप्पणी दिए बगैर ही पढ़ लेता हूं
और आपकी हर कहानी दिल को छू लेती है इसी लिए पढ़ता हूं
और आज पहली बार टिप्पणी कर रहा हूं।
आप एक बढ़िया लेखक हैं अच्छा लिखती हैं पढने को मन करता है।
"पत्नी की जगह लोटा " बस इसे ही बदलने की ज़रूरत है ।
जवाब देंहटाएंरश्मि जी आपकी इस पोस्ट की जीतनी तारीफ करूँ कम है ....स्त्री से जुड़े कितने ही सवाल आपने उठा लिए ...ऐसे कई सवाल मेरे पास भी हैं ...जिनके जवाब नदारद होते हैं ......सच न तो मायका उसका रह जाता है न ससुराल ......आपकी पोस्ट से कई बीते किस्से याद आ गए और आखें नम हो गयी .....बहुत वक़्त लगेगा अभी पुरुष को ये बातें समझने के लिए और अपने आप को बदलने के लिए ....वरना हर घर में तलाक तलाक ही नज़र आयेंगे ...अपने आस पास तो हर रोज़ यही दिख रहा है ....!
जवाब देंहटाएंआपकी कहानी अभी पढ़ी नहीं ...पढ़ती हूँ.....!!
Rashmiji, aapne ek jaroori mudda uthaya hai. Par muze bhee lagta hai ki samay badal raha hai aur humare ghron men ye bdlaw aaya hai. mai apne bhbiyon ko ( mere do Bhaee ab nahee hain ) rngeen sadiyan uphar me deti hoon unhe bindi lagane ke liy prtsahit karati hoon. Iska asar dikhaee dene men der lag sati hai par shurwat ho chuki hai Widhwa hone se kisika insan hone ka hak nahee chala jata.
जवाब देंहटाएंदी, पहले तो देर से आने के लिए माफी चाहती हूँ... इतनी महत्त्वपूर्ण पोस्ट मैं कुछ व्यस्तता और कुछ तकनीकी कारणों से नहीं पढ़ पायी. आपने बहुत गंभीर मुद्दे पर बात छेड़ी है. सचमुच "औरत की हैसियत एक निर्जीव वस्तु से अधिक कुछ नहीं है" आपने जैसा बताया पढ़े-लिखे घरों में भी यह प्रवृत्ति अब भी जारी है... हम सब उसके भागीदार हैं और सभी बदलेंगे तभी कुछ बदलेगा.
जवाब देंहटाएंरश्मि जी, मुझे अफ़सोस है कि पहले क्यों नहीं आता था आपके ब्लॉग पर।
जवाब देंहटाएंलगता है लोग सिर्फ़ कपोल कल्पना में ही खोए रहते हैं।
मैं भे बिहार का ही हूं, और जो सत्य देखता हूं वह अगर बताने लगूं तो लोगों के आंसूं नहीं थमेंगे और टिप्पणी बक्स खाली नहीं बचेगा।
एक एक उदाहरण देकर निपटाता हूं।
१. मेरी शादी में मेरी नानी को मड़वा पर इसलिए नहीं आने दिया गया कि वो विधवा थीं, और अगर वह आती तो नवविवाहित जोड़े को .... पता नहीं शायद वैधव्य का शाप लग जाता।
---- हमने पकड़ कर उनका आशीष लिया।
२३ वीं सालगिरह मनाऊंगा, फ़रवरी में।
२. एक परिचित लड़की जब अपने २९ वें वर्ष में विधवा हो गई, और जब उसका अपना ससुराल पक्ष ताड़ दिया और जब उसका अपना मयाका पक्ष साथ नहीं दिया तो उसकी ज़िन्दगी सम्भालने का बीड़ा उठाया।
नतीज़ा, यह समाज जिसमें मेरे परिवार के क़रीबी रिश्तेदार भी शामिल थे, मुझपर ही उंगली उथाने लगे।