होली पास है...लोगो में उमंग और उत्साह है...वहीँ कुछ घर ऐसे हैं...जिनकी होली अब कभी भी पहले जैसी नहीं रहेगी.
(जापान पर आई प्राकृतिक आपदा तो सदियों तक मन दुखायेगी. पता नहीं कितने लोगो ने अपना सब कुछ खो दिया और कितने लोगो ने अपनों के साथ अपनी ज़िन्दगी भी खो दी...हम उनका दुख महसूस कर बस अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं )
यहाँ मुंबई में ही दो दिन के अंतराल पर घटी दो घटनाओं की खबर ने अंतस को झकझोर डाला है. और सामने कई सवाल ला खड़े किए है. (होली पर संस्मरण वाली दो पोस्ट और लिखने की योजना थी...पर अब सारा मूड गया )
इस वक्त ऐसी ग़मगीन पोस्ट, शायद नहीं लिखनी चाहिए....पर हमारे तो कुछ पल ही उदासी में गुजरेंगे...पर उन आँखों का क्या जहाँ उदासी ने ही घर बना लिया...और जो अब शायद कभी मुस्कुरा ना सकें.
इकतीस वर्षीया एक महिला, निधि गुप्ता ने अपने सात वर्षीय बेटे और तीन वर्षीया बेटी के साथ, उन्नीसवीं मंजिल से छलांग लगा दी. निधि CA थी. और एक कॉलेज में लेक्चरर भी. संयुक्त परिवार में रहती थी. शादी के बाद , उसने ससुराल वालों की मर्जी से नौकरी छोड़ दी और सिर्फ घर की देखभाल करने लगी..पति शराबी था और बिजनेस में ध्यान नहीं देता था....फिर वो पति के साथ सूरत शिफ्ट हो गयी...पति ने नया बिजनेस शुरू किया...निधि ने भी नौकरी कर ली...ज़िन्दगी पटरी पर आ ही रही थी कि बड़े भाई को मुंबई में बिजनेस में घाटा हुआ और उसके माता-पिता ने जोर डाला कि निधि का पति,सूरत का अपना बिजनेस बेच कर ,मुंबई आ,अपने भाई की सहायता करे. यहाँ सारा फाइनेंस बड़े भाई की पत्नी के हाथों में था और निधि अपनी जरूरतों के लिए उन पर ही निर्भर थी. (जरूर उसके लेक्चरर की तन्खवाह इतनी नहीं होगी कि वो अपने बच्चों की सारी जरूरतें पूरी कर सके ) पति भी अपनी फ्रस्ट्रेशन उस पर निकालता ....जेठानी..और सास भी उसे मानसिक रूप से परेशान करती थीं. निधि के माता-पिता भी मुंबई में रहते थे...उनसे निधि की रोज बात होती थी. आज उसके पिता कहते हैं...."हमने बेटी की परेशानी नहीं समझी" . अगर समझते भी होंगे तो हिन्दुस्तान के हर पिता की तरह यही निर्देश दिया होगा.."निभाओ...अब वही तुम्हारा घर है...." जबकि चाहते तो निधि की परेशानी जानकर उसे अपने साथ रहने को कह सकते थे. पढ़ी -लिखी थी....माता-पिता के स्नेहिल छाया में शायद उसे जीने का संबल मिल जाता. लेकिन पिताओं को अपनी इज्जत प्यारी होती है..समाज में साख की चिंता होती है. कुछ-कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजरती लड़की को उसके पिता ने एक कोटेशन सुनाया था (इसपर मैंने एक पोस्ट लिखी थी) " धी धरणी को धीरज धरना ही पड़ता है" निधि के पिता ने भी शायद यही समझाया हो.
आज उनकी धी...धरणी में मिल गयी...और उन्होंने धीरज धरा हुआ होगा.
आज वे अफ़सोस कर कहते हैं..."We failed to see the signs ,We let down our daughter " निधि के पिता अब शायद इस पश्चाताप से कभी ना उबरें...कि उन्होंने समय रहते अपनी बेटी की मदद नहीं की.
निधि बेशक कमजोर थी...चाहती तो हालात का सामना कर सकती थी.....हालांकि मुंबई जैसे शहर में सिर्फ अपनी लेक्चरर की तनख्वाह पर दो बच्चों के साथ सर पे छत जुटाना, उनकी अच्छी शिक्षा- दीक्षा ,पालन-पोषण संभव नहीं.....हाँ, वो ससुराल वालों के ताने...उनकी उपेक्षा सहते हुए ,उस दमघोंटू वातावरण में ,अपने बच्चों को बड़ा कर सकती थी. आखिर सदियों से अब तक कितने ही घरों में ऐसी स्थितियों का सामना स्त्रियाँ करती ही आई हैं. पर सबके दुख सहने की और परिस्थितयों का सामना करने की क्षमता अलग होती है..इसका अर्थ ये नहीं कि उसे मर जाना चाहिए. शायद इस घटना से बाकी पिता भी सबक लें...और समय रहते अपनी बेटी की मदद के लिए आगे आएँ....क्यूंकि निधि की बड़ी बहन ने भी कहा.."निधि बहुत ही well behaved और सब कुछ सह कर मुस्कुराते रहने वाली लड़की थी...उसके ससुराल वाले उसे फॉर ग्रांटेड लेने लगे और यही समझते रहे...'यह तो बिना प्रतिवाद किये सब कुछ सह लेगी"
दूसरी खबर भी कम दिल दहला देने वाली नहीं ..छठी कक्षा में पढनेवाली, एक ग्यारह वर्षीया लड़की ने अपने क्लास के एक लड़के के लिए अपनी फीलिंग एक डायरी में लिखी थीं. उसकी अनुपस्थिति में उसकी माँ ने वह डायरी देख ली. उस से भी जबाब तलब किया होगा...फिर इसकी शिकायत...उसकी क्लास टीचर और प्रिंसिपल से करने स्कूल गयीं. क्लास टीचर से तो शिकायत कर दी..लेकिन माँ प्रिंसिपल से भी मिलने के लिए अड़ी हुई थीं. बेटी बार-बार उन्हें प्रिंसिपल से मिलने को मना कर रही थी...जब माँ, प्रिंसिपल से मिलने के लिए स्कूल में ही रुकी रही तो बेटी स्कूल से घर आ गयी और पंखे से....
दूसरी खबर भी कम दिल दहला देने वाली नहीं ..छठी कक्षा में पढनेवाली, एक ग्यारह वर्षीया लड़की ने अपने क्लास के एक लड़के के लिए अपनी फीलिंग एक डायरी में लिखी थीं. उसकी अनुपस्थिति में उसकी माँ ने वह डायरी देख ली. उस से भी जबाब तलब किया होगा...फिर इसकी शिकायत...उसकी क्लास टीचर और प्रिंसिपल से करने स्कूल गयीं. क्लास टीचर से तो शिकायत कर दी..लेकिन माँ प्रिंसिपल से भी मिलने के लिए अड़ी हुई थीं. बेटी बार-बार उन्हें प्रिंसिपल से मिलने को मना कर रही थी...जब माँ, प्रिंसिपल से मिलने के लिए स्कूल में ही रुकी रही तो बेटी स्कूल से घर आ गयी और पंखे से....
माँ को इतने सेंसेटिव इशु को बहुत ही कुशलता और संवेदनशीलता से हैंडल करना चाहिए था पर माँ ने भी शायद बदले हुए समय को नहीं समझा और उनके जेहन में अपने समय की ही किसी घटना की कोई स्मृति होगी और उन्होंने बस एक बने बनाये ढर्रे की तरह एक्शन ले डाला.
इसी से मिलती जुलती एक घटना मेरे स्कूल होस्टल में घटित हुई थी. मुझसे सीनियर एक लड़की ने अपनी सहेली के भाई को एक ख़त लिखा था .उस वक्त उनकी उम्र चौदह-पंद्रह की होगी . उनके ही कमरे की एक लड़की ने सोने का बहाना कर दोनों सहेलियों को बातें करते,ख़त लिखते देख लिया था. उसने मेट्रन से ये शिकायत कर दी. जब वह ख़त एक डे स्कॉलर को पोस्ट करने के लिए वो दे रही थी...तभी, उस लड़की के साथ मेट्रन ने उसे पकड़ लिया.(हमारे होस्टल में हर ख़त पहले मेट्रन की आँखों से सेंसर होकर गुजरता था...घर से आए पत्र भी हमें खुले हुए मिलते थे...उन्हें पहले मेट्रन पढ़ती थीं )
प्रिंसिपल को भी इसकी सूचना दी गयी....और पूरे हॉस्टल की लड़कियों के सामने उसकी बहुत बेइज्ज़ती की गयी. उस लड़की के पिता को बुलवाया गया और उसे स्कूल से निकाल दिया गया. आज भी वो दृश्य आँखों के सामने है...वो रोते हुए मेट्रन का पैर पकडती,...वे जोर से पैर झटकतीं तो वो प्रिंसिपल का पैर पकडती....पिता के सामने भी उसे बहुत खरी-खोटी सुनायी गयी.
पिता ने उसे दूसरे स्कूल के हॉस्टल में डाल दिया....वहाँ भी उसकी गाथा लोगों को पता चल गयी...यहाँ तक कि दो साल बाद उनकी छोटी बहन भी हमारे हॉस्टल में ही आई ,उस पर भी गाहे-बगाहे अपनी बड़ी बहन के कृत्य को लेकर छींटाकशी की जाती. उस वक्त तो मुझे भी उनका ये कृत्य ,अक्षम्य अपराध की श्रेणी में लगा था . पर बाद में अक्सर ये घटना मुझे याद आती...और मैं सोचती, किशोरावस्था में एक ऐसे निर्दोष से कृत्य की इतनी बड़ी सजा सुनायी गयी उन्हें.
पर तब और अब की घटना तो एक जैसी है...पर इसके बाद लड़की द्वारा उठाये गए कदम में जमीन-आसमान का अंतर है.
इतनी जिल्लतें उठाने के बाद भी हमारी वो सीनियर आज कहीं बाल-बच्चे ..पति के साथ एक सुखी वैवाहिक जीवन बिता रही होगी...और इस लड़की ने मात्र इसकी आशंका से अपनी इहलीला ही समाप्त कर ली.
आखिर क्यूँ सबकी सहनशक्ति शून्य से भी कम हो गयी है. क्या पहले लडकियाँ/औरतें इसे अपना नसीब समझ लेती थीं? वे ये सोचती थीं...कि वे इसी काबिल हैं...उनके साथ ऐसा ही होना चाहिए और चुपचाप सब सह लेतीं थीं. और आज वे अपने साथ किए गए ऐसे व्यवहार को गलत मानती हैं...लेकिन उस गलत को सही नहीं कर पातीं और पलायन का रास्ता अख्तियार कर लेती हैं ?
इसी विषय से सम्बंधित मेरी और दो पोस्ट
दूसरी घटना मैंने आज अखबार में पढ़ी ,बहुत दुःख हुआ !
जवाब देंहटाएंआपने सही लिखा है थोड़ी सी सहशीलता और संवाद से ऐसी घटनाएं टाली जा सकती हैं !
आभार !
Kaun kis haalaat me tha ye sirf akhbaaron ki khabar se anumaan nahin laga sakte. nadi kinaare baith bhanwar ko dekhna aur usme fansna dono alag-alag baaten hain. kai baar sach me aise haalaat aate hain ki vyakti ko saamne se aati ummeed ki kiran bhi nahin dikhti aur maut jindagi se kai guna behtar lagne lagti hai.
जवाब देंहटाएंओह दोनों ही घटनाएं बेहद पीड़ादायक है। पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी कई बार कमजोर बन जाता है जब उसे लगता है कि मेरे साथ कोई नहीं है। लेकिन जो माता-पिता तटस्थ बने रहते हैं उनपर बड़ा गुस्सा आता है।
जवाब देंहटाएंरश्मि जी आज जैसे जैसे संवेदना खत्म हो रही है.. हम अतिसंवेदनशील भी हो रहे हैं... एक सी ए यदि आर्थिक और पारिवारिक उलझनों से अपना और अपने बच्चों का जीवन समाप्त कर ले तो इसे समाज में बढ़ रही कुंठा का द्योतक ही माना जायेगा... सी ए को तो मैंने डूबते व्यापार को उबरते देखा है.... इस से लगता है कि समय कितना भी बदल गया हो मानसिक रूप से हम कमजोर ही हुए हैं....
जवाब देंहटाएंकिशोरावस्था में बच्चों के साथ माता -पिता को बहुत सोचसमझ कर व्यवहार करना चाहिए , उस समय कोमल मन होता है , जरा -जरा सी बातें उन्हें बहुत बड़ी लगने लगती हैं ! अभिभावक उन्हें बच्चा ही समझते हैं मगर बच्चे खुद को बड़ा ...सच तो ये है की आजकल लोगों में सहनशक्ति की कमी है , उन्हें कठिन परिस्थितियों का मुकाबला करना सिखाया नही जा रहा या वे सीख नहीं पा रहे !
जवाब देंहटाएंनिधि के मामले में मुझे आत्महत्या के कारणों पर शक है , मन नहीं मानता की एक आत्मनिर्भर महिला इन कारणों से आत्महत्या कर लेगी वो भी आज के हालात में !
रश्मि जी
जवाब देंहटाएंपहली बात ससुराल या पूरी दुनिया कुछ भी कहे पत्नी सह लेती है यदि पति उसे समझे लेकिन जब पति ही उसका साथ न दे तो ये पत्नी के लिए असहनीय दुःख होता है | दूसरी की जब तक महिला अकेले है वो हर किसी से लड़ा कर हर हल में जीना सिखा ज=ही जाती है किन्तु जब उसे अपने बच्चो का वर्त्तमान और भविष्य बिगड़ता दिखता है तो वो थोड़ी कमजोर भी हो जाती है और वो बर्दास्त भी नहीं कर पति है | हम दूसरो के हालातो का बस अंदाजा ही लगा सकते है दुसरे उन परिस्थितियों से कैसे उलझे है हम नहीं समझ सकते है वास्तव में कई बार ऐसा होता है की हर दरवाजा बंद दिखता है | फिर परिस्थितियों से सामना करना और उससे लड़ने के लिए हर व्यक्ति की अपनी सोच होती है वो उसे ही लेकर जीता है और उसे ही लेकर- - -
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (17-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
आत्महत्या कहीं न कहीं व्यक्तित्त्व में कमज़ोरी दर्शाता है ।
जवाब देंहटाएंबेशक बदलते ज़माने के साथ सोच में भी बदलाव ज़रूरी है । जो समय के साथ नहीं बदलते , उन्हें इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ जाता है ।
दोनों घटनाएँ बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं ।
Dono ghatnayen bahut hi marmik aur dukhad hai. Bahut hi vicharniya aalekh. Sach agar sahi samay par uchit kadam uthaya gaya hota to ye roka ja sakta tha.
जवाब देंहटाएंदोनों घटनायें पढ़ कर मन भारी हो गया।
जवाब देंहटाएंमैं बस इतना ही कहूँगा कि
फिर भी जीवन में कुछ तो है, हम थकने से रह जाते हैं..
मन दुखी हो जाता है ऐसी घटनायें जान सुन कर.
जवाब देंहटाएंआराधना (मुक्ति ) की मेल से प्राप्त टिप्पणी
जवाब देंहटाएं" अपनी ज़िंदगी में हर कोई परिस्थितियों से आजिज आकर एक-दो बार सुसाइडल ज़रूर होता है. ऐसे में अगर कोई एक भी उसे समझने वाला हो तो वो सारे कष्ट झेल लेता है, लेकिन अगर कोई भी उसका दुःख-दर्द समझने वाला ना हो, तो किसी भी कमज़ोर पल में सुसाइडल होकर आत्महत्या कर लेता है.
पता नहीं उस औरत पर क्या गुजरती है, जिसके ससुराल वाले उसे इस्तेमाल कर रहे हों और मायके वाले सब सहने की सीख दे रहे हों.
दी, ये तो सही है कि औरतें अब ससुराल में उनके साथ होने वाले बुरे बर्ताव को नियति मानकर सब सहती नहीं हैं, लेकिन वो प्रतिवाद करती हैं. आत्महत्या की नौबत तभी आती है, जब कोई एक भी उसके साथ ना खड़ा हो."
क्या लिखूं?
जवाब देंहटाएंदुखी हूं, स्तब्ध हूं।
पाबंद आज हम नहीं रीति-रिवाज़ के,
थोथे उसूल रह गए अपने समाज के।
पैसों की भूख से भरें, बोरे-तिजोरियां,
भण्डारे ख़ाली रह गये, घर में अनाज के।
इस दुनिया मे हर पल ऎसी घटनाये होती हे, ओर जब हम इन के बारे जान जाते हे इन्हे पढते हे, तो मन दुखी हो जाता हे, लेकिन इन्हे अपने दिमाग मे ना रख कर हमे इन घटनाओ से सबक लेना चाहिये कि कही हम भी कोई ऎसी गलती ना कर दे....
जवाब देंहटाएंबाकी बाते तो सब ने लिख ही दी .
धन्यवाद
निधि वाली खबर पढी थी अखबार में. बहुत दर्दनाक घटना है. परिस्थितियां कितनी भी मुश्किल क्यों न हों, आत्महत्या का फ़ैसला कभी भी सही नहीं होता. दो बच्चों की हत्या और खुद की आत्महत्या का हक़ नहीं था निधि को.
जवाब देंहटाएंबच्ची के मामले में मां दोषी है.
मुझे लगता है कि दुखों का मुकाबला करने के लिये खुशियों की मात्रा बढानी होगी, वरना जिजीविषा ही खत्म हो जायेगी. जितनी खुशी दे सकें देने की कोशिश करें, तो शोक कुछ कम हो. वरना ऐसी घटनाएं तो अब इतनी बढ गईं हैं कि हम चाहें तो जीवन भर शोकमग्न रह सकते हैं.
आपने सही लिखा है थोड़ी सी सहशीलता और संवाद से ऐसी घटनाएं टाली जा सकती हैं|धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंदूसरी घटना पर तो मेरे फेसबुक वाल पर बहुत लम्बी चर्चा रही...
जवाब देंहटाएंशायद माता-पिता को पैसे कमाने से थोडा ध्यान हटाकर अपने बच्चों पर लगाना चाहिए....
अगर एक ११ साल की बच्ची आत्महत्या कर रही है तो बहुत चिंता की बात है... इस उम्र में तो ज़िन्दगी के मायने भी समझ नहीं आते हैं...
अभी कुछ दिन पहले ही मेरे इंजीनियरिंग कोलेज के फर्स्ट इयर के छात्र ने आत्महत्या कर ली.... कहीं न कहीं तो कुछ गलत हो रहा है....
आत्मसम्मान की पैकिंग में अहंकार की शिक्षा दी जा रही है। बच्चों में सहनशीलता पैदा करने की कोशिशें तो लुप्तप्राय ही हो गई हैं।
जवाब देंहटाएंप्रणाम
स्थिती मनस्थिति के प्रति असंवेदनशीलता ऐसी घटनाओं को जन्म देती है...दूसरी घटना में बच्ची की माँ का समस्या के समाधान का तरीका बिलकुल सही नहीं रहा .....मुझे ऐसा लगता है की माँ अपनी कमी छुपाने के लिए अन्य का दोष उछालने के प्रयास में थी ...मगर वो भूल चुकी थीं की विषय उनकी बच्ची बन रही है ....बहुत समझाने की भी आवश्यकता नहीं थी एक बार खुल कर बात करना काफी होता ....सभी को सुधरने का मौका मिलना चाहिए ....मेरे दादा जी कहते थे कि "अगर कमरे में बिल्ली आ जाये और आप उसे भागना चाहते हें तो कम से कम एक खिड़की खोल कर उसे डरना चाहिए "अन्यथा डरी हुई बिल्ली कोई रास्ता ना पाकर आपको घायल कर सकती है....जीवंत पोस्ट
जवाब देंहटाएंदोनों घटनाएँ बेहद दुर्भाग्यपूर्ण हैं ।
जवाब देंहटाएंघटनाओ से सबक लेना चाहिये
जवाब देंहटाएंदोनों ही घटनाओं ने अंदर तक हिला दिया....
जवाब देंहटाएंदोनों घटनाएं हमारे समाज का आईना हैं।
जवाब देंहटाएं*
यह भी उतना ही सच है कि न जाने ऐसी कितनी घटनाएं सचमुच में संवाद और सहनशीलता के कारण घटते घटते रह जाती हैं। हमें उनका शुक्र मनाना चाहिए।
*
मैं आत्महत्या का पक्षधर नहीं हूं। पर निधि को कमजोर कहना उचित नहीं होगा। इस कदम के लिए अपने को बहुत मजबूत बनाने की जरूरत होती है। मैं स्वयं विभिन्न परिस्थितियों में चार बार ऐसा कदम उठाते उठाते पीछे हट गया हूं। मेरे पिताजी कहा करते थे,' आत्महत्या समस्या को खत्म नहीं करती है,वह आपको खत्म करती है। अगर समस्या को खत्म करना है तो जिंदा रहा और उससे लड़ो।' हर बार उनकी यही उक्ति मुझे वापस ले आई।
aap yuhi jagatee rahae shyaad kabhin savera ho hi jaaye
जवाब देंहटाएं@वाणी गीत
जवाब देंहटाएंमन ना माने..पर सच तो यही है.....पूरी तरह आत्मनिर्भर होती तो शायद ऐसा कदम नहीं उठाती..प्राइवेट कॉलेज में लेक्चरर की तनख्वाह कितनी होगी?...अखबार में आया है कि सुबह बेटे के स्कूल में सौ रुपये देने थे...उसकी जेठानी ने देने से मना कर दिया...ऐसे वाकये पहले भी हुए होंगे...और ख्याल आ गया होगा उसके मन में....कि बेटे को सौ रुपये भी ना दे पाए...ऐसे जीने से तो मर जाना अच्छा...
@मुक्ति
जवाब देंहटाएंवैसे कई जीवट वाली महिलाओं कोई साथ ना हो फिर भी , इस से भी भीषण त्रासदी हंस कर झेलते हुए देखा है. शायद औरत सारे जुल्म सह जाती है...अगर सिर्फ मानसिक और शारीरिक अत्याचार उस अकेले को झेलने पड़ें. और उसके बच्चों पर आंच ना आए....पर पता नहीं यहाँ शायद बच्चों की भी सही तरह से परवरिश ना कर पाने पर दुखी होगी....
@अरशद.
जवाब देंहटाएंमेरे दादा जी कहते थे कि "अगर कमरे में बिल्ली आ जाये और आप उसे भागना चाहते हें तो कम से कम एक खिड़की खोल कर उसे डरना चाहिए "अन्यथा डरी हुई बिल्ली कोई रास्ता ना पाकर आपको घायल कर सकती है..
दादाजी ने बहुत ही पते की बात कही थी....आशा की किरण के लिए कम से कम एक सूराख भी होना चाहिए...वरना चारो तरफ से बंद दरवाजे ऐसे अंजाम की ओर ही ले जाते हैं.
@राजेश जी,
जवाब देंहटाएंआपने तो डरा ही दिया. शुक्र है कि सही समय पर आपको पिताजी की कही हुई उक्ति का ध्यान आ गया...सच है...जिंदा रहकर समस्या का सामना करना चाहिए...
मुझे निधि के माता-पिता से पूरी सहानुभूति है...पर लगता है...शायद उन्होंने निधि को मानसिक सहारा दिया होता...आगे बढ़कर कहा होता...अगर वे लोग बुरा व्यवहार कर रहे हैं...तो हमारे साथ रहो... निधि सक्षम थी...brilliant student थी. बी.कॉम और सी.ए. की परीक्षा एक साथ पास की....जबकि पहली बार में बहुत कम लोग क्लियर कर पाते हैं. वो जी तोड़ मेहनत कर बच्चों को पाल लेती...अगर माता-पिता ने बच्चों की देखभाल की जिम्मेवारी ली होती. और शायद इसीलिए उसे ज्यादा निराशा हुई क्यूंकि वो ऐसा कर सकती थी...पर कर नहीं पा रही थी...
ऐसी पोस्ट पर अपनी हंसती हुई तस्वीर भी अच्छी नहीं लग रही....सो बदल दी.
जवाब देंहटाएंदोनों ही घटनाएँ हालांकि एक जैसी ही हैं परंतु परिस्थितियाँ अलग अलग हैं..
जवाब देंहटाएंक्या हम संवेदनाहीन हो चले हैं कि अपने अलावा और कुछ अच्छा ही नहीं लगता है.. पता नहीं पर अभी मैंने भी इस प्रकार की कुछ घटनाएँ बहुत करीब से देखी हैं और उन्हीं को सुलझाने के समीकरण बैठा रहा हूँ..
आज जरुरत है समझदारी से काम लेने की.. आत्मबल की..
दोनों घटनाएं अंतस को झकझोरती हुई घटनाएं हैं !
जवाब देंहटाएंआपने सही लिखा है थोड़ी सी सहशीलता और संवाद से ऐसी घटनाएं टाली जा सकती हैं|
सुनामी .... प्रकृति का प्रकोप , निधि - जब किसी ने सुना ही नहीं तो क्या कहना है ! दो बच्चों को खुद के साथ ले जाने का फैसला कितना दुखद होगा ! स्वर, चेहरा सबकुछ परेशानी बता देते हैं - नहीं समझना हो तो अनुभवों को मासूम बनने में कितना वक़्त लगता है ! अपनी इमेज के लिए ! क्या है यह इमेज ? जिसके आगे दम घुटता है , चिताएं जलती हैं , रात सवाल बन भयावह हो जाती है ...
जवाब देंहटाएंबहुत हृदय विदारक घटनाएँ हैं दोनों रश्मि जी ! स्त्री अपने ही घर में अपनों से ही उपेक्षित होकर किस घुटन को जीती है, पराश्रित होने पर किस तरह अपने अरमानों और इच्छाओं की बलि चढ़ाती है और पल पल किस अपमान का सामना कर अपने जीवन और व्यक्तित्व को टूटता हुआ देख कर खून के घूँट पीती है इसका यदि वास्विक आकलन किया जाये तो सातों सागर भी उसकी पीड़ा के आगे छोटे पड़ जायेंगे ! लेकिन फिर भी मैं यही कहना चाहूँगी कि परिस्थतियाँ कितनी भी विपरीत और विषम थीं निधि को ऐसा आत्मघाती कदम नहीं उठाना चाहिये था ! उससे भी अधिक दो अबोध बच्चों के सुन्दर जीवन को इस तरह नष्ट करने का उसे कोई अधिकार नहीं था ! वह स्वयं पढ़ी लिखी थी कामकाजी भी थी ! ऐसे घटिया लोगों से स्वयं को असम्पृक्त कर उसे अपने बलबूते पर अपनी पहचान बनानी चाहिये थी जो वह बना सकती थी यदि ठान लेती तो !
जवाब देंहटाएंदूसरी घटना अमानवीयता की पराकाष्ठा है ! जिस स्थति में माँ को बेटी के साथ अतिरिक्त संवेदनशीलता, सहानुभूति और समझदारी से पेश आने की आवश्यकता थी वहाँ वही अपनी ही बेटी की प्रबलतम शत्रु बन बैठी ! ११-१२ वर्ष की उम्र ही क्या होती है ! इस उम्र में बच्चे बहुत भावुक होते हैं और भावनाओं के ज्वार में सहज ही बह जाते हैं ! यहीं पर अभिभावकों की भूमिका में अतिरिक्त सतर्कता, जागरूकता और मित्रवत भावना का समावेश होना चाहिये ! धमकाने और प्रिंसीपल का खौफ दिलाने की जगह माँ को बच्ची को प्यार से समझाना चाहिये था तब शायद ऐसी दुखद स्थति पैदा न होती ! आपकी पोस्ट उदास कर गयी लेकिन इसे पढ़ कर यदि चंद अभिभावक सचेत हो जायें तो इससे बड़ी उपलब्धि और कोई नहीं होगी ! सार्थक आलेख के लिए बधाई एवं होली की अनंत शुभकामनायें !
@ निधि ,
जवाब देंहटाएंउसके पिता ने उसे आत्मनिर्भर ज़रूर बनाया पर विवाह उस परिवार में किया जिसने सबसे पहले उसकी आत्मनिर्भरता पे हमला किया !
उसके लिए शराबी और गैरजिम्मेदार पति चुन लिया गया है यह पहचान होने के बाद भी निधि के पिता उसे ससुराल में निबाह करना है वाली मानसिकता में जीते रहे ! और अब अफ़सोस या पछतावा !
कथित सामाजिकता के प्रदर्शन /मर्यादा के नाम पर अपने ही अंश के प्रति कोई ठोस कारगर निर्णय लेने में झिझकते रहे ! शर्म की बात !
निधि ने जीवन से पलायन का अंतिम विकल्प चुना ,निश्चय ही वह अत्यधिक तनाव में रही होगी ! ससुराल के हालात और मायके की अनिर्णय वाली स्थिति में संभव है उसे प्रतिरोध की तुलना में पलायन चुनना पड़ा हो ! दुखद है !
निधि का पति एक किस्म का पशु है जिसे सेक्स की दरकार तो है ...जिसके लिए उसने शादी भी की पर उसके आगे की जिम्मेदारियां उसकी होने का ( अपराध )बोध उसे नहीं है क्योंकि इसे वह शराब के साथ घोल कर पी गया है ! मेरे विचार से अपने बच्चों और पत्नी की असामयिक मृत्यु का सबसे बड़ा गुनहगार वो ही है !
@ ११ वर्षीय बेटी ,
अब 'मां' भी बच्चों को समझ पाने /स्पेस देने में असमर्थ हो गई हैं ? भावनात्मक संबंधों /जुड़ाव की सबसे सशक्त डोर मां ?
निर्मला कपिला जी की इ -मेल से प्राप्त टिप्पणी
जवाब देंहटाएंदोनो घटनायेण बेहद दर्द नाक हैं मगर दो क्या देश मे हाजारों ऐसी घटनायें हो रही हैं। मगर उपाय कुछ नही। मर्ज़ बढता ही गया ज्यों ज्यों दवा की। इस देश मे नारी केवल भगवान भरोसे है।। होली की सपरिवार हार्दिक शुभकामनायें।
स्तब्ध हूँ .... कई बार इस पोस्ट को पढ़ चुकी हूँ लेकिन समझ नहीं पा रही कि क्या प्रतिक्रिया दूँ... .......मानव मन के झंझावात को समझ पाना आसान नहीं....
जवाब देंहटाएंdi jab se dono dhatna akhbaar me padhi man itna vyathith hai...aajkal sahanshakti jaise shunay hoti ja rhi hai...kya pratikiya du kuch samjh me bhi nahi aa rha lekin koi bhi itna bada kadam yun hi nahi utha leta aur bachcho ko to aaj kal unke friend ban kar hi pala ja sakta hai...
जवाब देंहटाएंदोनों घटनाएं पढ़कर मन उदास हो गया । ग्यारह साल की बच्ची तो बहुत छोटी होती है , उसकी माँ तो समझदार थी , फिर शिकायत करने की इतनी जिद क्यूँ पकड़ ली।
जवाब देंहटाएंपहले तो ये बताइए की आपकी तस्वीर ने ज्यादा होली खेल ली थी जो हटा दी .....?
जवाब देंहटाएंऔर पोस्ट की तो क्या कहूँ बड़े संजीदा प्रश्न उठती हैं आप ......
जवाब तो आपने स्वयं दे दिया है .....
पहले यही नियति मानी जाती थी अब टी वी भी है राह दिखने वाला .....
रश्मि जी,बहुत भारी मन से लिख रहा हूँ. पहली घटना के लिये उस महिला के लिये मेरे मन मे अपार क्रोध है जिसने अपने बच्चो को मारा या इसके लिये उकसाया. हालात जो भी रहे हो उनका सामना करती. धरती के किसी भी कोने मे एक सी ए के लिये जीवन निर्बाह लायक कमाना मुश्किल होगा इस पर सिर्फ हंस सकता हू.
जवाब देंहटाएंदूसरे मामलो मे बच्चो को सही गलत का अंतर आसानी से समझाया जा सकता था. हम लोग माता पिता के रूप मे कब समझदार होंगे ?
so tragic ,even then we claim ourselves being progressive.we dont know parenting,dont know to care and share other's feelings and sentiments and pose to be very thoughtful and social reformer,may god good sense prevail upon these sort of stuff...
जवाब देंहटाएंदोनों घटनाएँ सुनी थी मैंने :(
जवाब देंहटाएंमुड एकदम खराब हो जाता है ये सब पढ़ सुन कर :(
होली पर आपको सपरिवार शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंPurely materialistic society...
जवाब देंहटाएंव्यक्ति का आई.क्यू. बढ़ रहा है तेजी से। उस अनुपात में ई.क्यू. (Emotional Quotient) और एस.क्यू. (Spiritual Quotient) नहीं तालमेल बना पा रहा। :(
जवाब देंहटाएंबहुत ही संवेदन शील पोस्ट , हम सब को अध्यात्मिक रियलाइजेशन की जरुरत होती है , जब तक हम परिस्थितियों को गुजर जाने वाले शो की तरह न देख पायेंगे , तब तक तूफ़ान से हिलते ही नजर आयेंगे ....भला बताओ , इंसान महत्त्व-पूर्ण है या ये बाधाएं ...?
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