जब सिवकासी में पटाखे बनाने वाले बाल-मजदूरों पर एक पोस्ट लिखी थी....उसके बाद ही 'ज़री उद्योग' में लगे बच्चों के विषय में भी लिखने की इच्छा थी...खासकर इसलिए भी कि कई लोगों का बाल-श्रम के सन्दर्भ में कहना है कि इस से बच्चों का पेट भरता है..वे परिवार की मदद कर पाते हैं...उनका दिमाग पूरी तरह विकसित हो चुका होता है...इसलिए उनका काम करना उचित है...अब शायद उन्हें पता नहीं कि किस तरह के हालातों में ये लोग काम करते हैं...या फिर इस तरह उनका काम करना उन्हें स्वीकार्य है या फिर वे उनकी दशा के सम्बन्ध में आँखें मूँद लेना चाहते हैं.
अक्सर अखबारों में खबरे आती हैं... फलां ज़री यूनिट से इतने बच्चे पकडे गए. ज़री यूनिट का मालिक फरार हो जाता है..और बच्चे अपने माता-पिता के पास गाँव भेज दिए जाते हैं, लेकिन तबतक दूसरे गाँवों से दूसरे बच्चों को....किसी गलीचे-बीडी - ईंटें -पटाखे' उद्योग के बिचौलिए बहला-फुसला कर उनके माता-पिता को उनके अच्छे भविष्य का लालच देकर शहर ले आते हैं और कई शिक्षित-समझदार लोग भी इसे उचित समझते हैं कि बच्चे का पेट तो भर रहा है...और वो गाँव में दर-दर की ठोकरें तो नहीं खा रहा.
मुंबई-दिल्ली-सूरत-कलकत्ता..करीब करीब हर बड़े शहर में कपड़ों पर ज़री की कढाई का काम किया जाता है और ज्यादातर बच्चे ही इस कढाई के के काम में लगे होते हैं. केवल दिल्ली में ही 5000-7000 ज़री यूनिट्स हैं..और हर यूनिट में ४० के करीब बच्चे काम करते हैं. बिहार-झारखंड-नेपाल-यू.पी-छत्तीसगढ़ -आंध्र प्रदेश के गाँवों में 'ज़री यूनिट' चलाने वालों के एजेंट घूमते रहते हैं और गरीब माता-पिता को यह दिलासा देकर कि शहर में वो काम करके पैसे भी कमा सकेगा और पढ़ाई करके एक अच्छी जिंदगी जी सकेगा' इन बच्चों को शहर ले आते हैं. ज्यादातर बच्चे यू.पी. के आजमगढ़ और रामपुर एवं बिहार के सीतामढ़ी और मधुबनी जिले से आते हैं. कई बच्चों ने अपने जीवन के आठ बसंत भी नहीं देखे होते और इन एजेंट के हाथों अपना बचपन..अपनी हंसी- ख़ुशी सब गिरवी रख देते हैं, सिर्फ दो सूखी रोटी के एवज में. क्यूंकि अक्सर काम सिखाने की बात कहकर इन बच्चों को पैसे भी नहीं दिए जाते. सालो-साल ये सिर्फ काम ही सीखते रह जाते हैं.
दस बाई दस के कमरे में जिसमे एक पीला बल्ब जलता रहता है....कोई खिड़की नहीं होती ..कहीं कहीं चालीस बच्चे एक साथ रहते हैं. ये बच्चे अठारह घंटे काम करते हैं. कमरे के ही एक कोने में बाथरूम होता है और दूसरा कोना....किचन का काम करता है.जहाँ बारी-बारी से ये बच्चे ही खाना बनाते हैं. खाने में सिर्फ चावल और दाल होता है. इन्हें कभी बाहर जाने की इजाज़त नहीं होती. बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास नहीं ले जाया जाता और बीमारी गंभीर हो जाने पर किसी रिश्तेदार को बुला सौंप दिया जाता है...कई बच्चे हॉस्पिटल भी नहीं पहुँच पाते और दम तोड़ देते हैं. बच्चों को चोटों के साथसाथ spinal injuries तक रहती है.
११ साल का सलीम बिहार के दरभंगा जिले से है और मुंबई के धारावी की एक ज़री यूनिट में सुबह आठ बजे से आधी रात तक काम करता है . दो साल हो गए हैं उसे काम करते पर अभी तक उसे उसकी पहली तनख्वाह नहीं मिली है,क्यूंकि वो अभी काम सीख रहा है. ज़री यूनिट में काम करने वाले तीन भाग में बंटे होते हैं, शागिर्द, कारीगर और मालिक. सारे बच्चे शागिर्द की कैटेगरी में आते हैं. जो कढाई सीखने के साथ-साथ , साफ़-सफाई, खाना बनाना, मालिक और कारीगर लोगो के पैर दबाना ..मालिश करना..सब करते हैं..और क्या क्या करवाए जाते होंगे....ये कोई भी कल्पना कर सकता है.
ज़री यूनिट से छुडाये गए बच्चे अपनी कहानी बताते हैं. दस साल के बज्यंत कुमार की माँ को एक एजेंट ने अप्रोच किया और अच्छी नौकरी का लालच दे शहर ले आया. आठ साल के श्याम और दस साल के गोविन्द के पिता ने उस एजेंट से दो हज़ार रुपये क़र्ज़ लिए थे . नहीं चुकाए जाने की दशा में पिता ने अपने दोनों बच्चे उसके हवाले कर दिए .( क़र्ज़ ...इसी मंशा से दिया ही गया होगा कि वो चुका ना पाए और फिर उसके दोनों बच्चे उठा लिए जाएँ.) दोनों के बाल शेव कर दिए गए. ताकि इनके पसीने से काम खराब ना हो. दिल्ली की ४२ डिग्री टेम्परेचर में सिर्फ अंडर पैंट पहने ये बच्चे बिना किसी खिड़की वाले कमरे में बिना किसी पंखे के १४ से १८ घंटे तक काम करते हैं. दो साल हो गए उन्हें एक पैसा भी नहीं दिया गया और ना ही वे अपने घर गए. दस साल के सादिक राम का कहना है," जब हमलोग बहुत थक जाते थे तो हमें पीटा जाता था ..और अगरबत्ती से हाथ जला दिए जाते थे.' ग्यारह साल का हसन छः साल से काम कर रहा है...यानि कि जब उसने शुरुआत की होगी वो सिर्फ पांच साल का होगा. पिछले तीन साल से वो घर नहीं गया. "नौ साल के अजय कुमार ने बताया कि ,'मारकर उसका हाथ फ्रैक्चर कर दिया गया' दस साल के कमलेश कुमार के पीठ पर चाक़ू के कई ज़ख्म देखने को मिले.' गलती होने पर मालिक और कारीगर बच्चों के बाल तक उखाड़ लेते थे. और लिखना मुश्किल हो रहा है. हर बच्चे के पास ऐसी एक कहानी है. अखबारों में पत्रिकाओं में...नेट पर....मालिकों के हैवानियत के किस्से बिखरे पड़े हैं.
तेरह-चौदह की उम्र के बाद तनख्वाह दी भी जाती है तो मुश्किल से 200 रुपये और फिर सिर्फ एक समय का ही खाना दिया जाता है. अगर कढाई करते सूई टूट जाए तो उन्हें अपने पैसे से सूई खरीदनी पड़ती है. एक सूई बारह रुपये की आती है...और हफ्ते में दो सूई तो टूटती ही है. लिहाज़ा कई-कई दिन उन्हें चाय-बिस्कुट भी नसीब नहीं होता और भूखे पेट काम करना पड़ता है.
कई NGO 1998 से ही इन बच्चों को इस दोज़ख से निकालने में लगे हुए हैं...कैलाश सत्यार्थी द्वारा स्थापित BBA (बचपन बचाओ आन्दोलन.)लगातार इन बच्चों की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयासरत है. NGO 'प्रथम' ने मालिकों से आग्रह किया कि वे बस काम से आधे घंटे का ब्रेक दें...उस ब्रेक में वे बच्चों को पढ़ना चाहते हैं. कुछ ज़री यूनिट के मालिक मान गए. उसी कमरे में उन्हें पढाया जाता है. नौ साल का 'मोहम्मद हकील' बार बार अपना नाम स्लेट पर लिखता और मिटाता है. पढ़ाई उसके लिए एक खेल है...क्यूंकि उसे काम से कभी कोई छुट्टी ही नहीं मिली कि कोई खेल खेल सके .
ये हालात सिर्फ ज़री यूनिट में काम करने वाले बच्चों के ही नहीं है....हर उद्योग से जुड़े, बाल मजदूर का यही हाल है. इन बच्चों के पेट में दो रोटी पहुँच जाती है और ये सडकों पर नहीं सोते. कहीं कहीं उनके माता-पिता को कुछ रुपये भी मिल जाते होंगे. तो क्या हमें संतुष्ट हो जाना चाहिए?? लोग शिकायत करते हैं कि गलीचे बनाने का काम बंद करवा कर गलत किया गया...क्यूंकि उन नन्ही उँगलियों से बने गलीचों की विदेशों में बहुत मांग थी. इसे सिर्फ ह्रदयहीनता ही कहा जा सकता है और कुछ नहीं.
जो लोग बाल श्रम को सही मानते हैं....वे कभी उसका उजला पक्ष भी दिखाएँ.
( सभी चित्र गूगल से साभार )
मर्मस्पर्शी आलेख... और कुछ कह नहीं पा रहा ...
जवाब देंहटाएंरश्मि जी
जवाब देंहटाएंबाल मजदूरी कानून अपराध हैं सब जानते हैं और फिर भी काम देते हैं .
कुछ तथ्य हैं जिनको सोचियेगा जरुर
पहला
अमूमन क़ोई भी एजेंट किसी भी अभिभावक से उनके बच्चे को ना तो झूठ बोल कर ला ता हैं ना अच्छे भविष्य के सपने दिखा कर लाता हैं वो पूरे साल की तनखा अडवांस दे कर लाता हैं . हाँ जितना वो फक्ट्री मालिक से लेता हैं उतना नहीं देता हैं क्युकी करार के अनुसार उसको फक्ट्री मालिक को कम करने वाला देना ही होगा अगर क़ोई बच्चा चला जाता हैं तो . इस भुलावे से सब लोग जितनी जल्दी बाहर आजाये उतना अच्छा हैं की बच्चो के माँ पिता को पता नहीं होता हैं की बच्चे से क्या करवाया जाएगा और अपवाद सब जगह हैं यहाँ भी
दूसरा
जो बच्चे घरो से भाग जाते हैं बहुत से उनमे से अपने आप यहाँ काम करते हैं और खाना पीना रहना और जेब खर्च पर काम करने को तैयार रहते हैं . कुछ पुलिस से बच कर रहने के लिये भी यही काम करते हैं
मैने यही बात अपनी पोस्ट में कही हैं की किसी भी काम करने वाले को अगर पूरी सहूलियत और तनखा पर रखना हैं तो बच्चे को रखना ही क्यूँ हैं और अगर बच्चो को लोग उस तनखा और सहूलियत पर रखेगे जितना वो बड़े को देते हैं तो बच्चो से काम भी लेगे
क्युकी एजेंट पैसा अडवांस में दे आया हैं इस लिये वो सब बच्चो को बंधक की तरह रखता हैं जो की गलत हैं , अमानविये हैं लेकिन इसके लिये ज्यादा कसूरवार माँ पिता हैं जो बच्चो को "अपनी परवरिश " के लिये इस्तमाल करते हैं और ज्यादा बच्चे पैदा करना उनकी नज़र में अपराध हैं ही नहीं क्युकी उनका बच्चा तो बिना किसी खर्चे के कमाना शुरू कर देता हैं
ठीक है अपने समस्या का बड़ा ही यथार्थ वर्णन कर दिया -अब बताईये आपके पास इन बच्चों के पुरवास की कौन कुआँ सी ठोस योजना है ? समस्या को उठाने से कहीं बड़ी जिम्मेदारी उसके हल की दिशा में सक्रिय होना है -अन्यथा ऐसे आर्म चेयर आर्टिकल से समाज का भला हो सकता है? या आपकी या लेखक की जिम्मेदारी केवल समस्याओं को उठाने की है बाकी का काम वेलफेयर स्टेट्स करने की मंशा होती है ?
जवाब देंहटाएंमुझे ऐसे स्वयं सेवी संथाओं के बारे में बताईये जिन्होंने ऐसे बच्चों के पुनर्वास -शिक्षा ,खान पान की दिशा में कोई ठोस काम किया हो ....मुझे तो ऐसे बच्चे जब एन जी ओ की अतार्किक और अदूरदर्शिता पूर्ण कार्यों से दर बदर होकर बाल सुधार घरों में दिख जाते हैं जहां उन्हें और भी अमानवीय स्थितियों का सामना करना पड़ता है ! आखिर विकल्प आपकी नजरों में क्या होना चाहिए ?
काम ज़री का हो या पटाखे बनाने का या कुछ और ।
जवाब देंहटाएंसब में बाल शोषण ही होता है । यह ग़ैर कानूनी होने के साथ साथ अमानवीय भी है ।
हालाँकि काम करने वालों की भी मजबूरी होती है ।
@अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंकुछ ऐसे ही सवाल आपने अपनी पोस्ट पर मेरी टिप्पणी के उत्तर में भी किए थे...उसी वक्त कुछ लिखने की सोची थी....जो बस टलता ही गया...मेरे अगले पोस्ट का विषय वही है..आपको वहाँ समुचित उत्तर मिल जायेंगे.
यह एक आर्म-चेयर आर्टिकल ही सही...पर कम से कम ये तो नहीं कहा जा रहा इसमें 'उन नाजुक उँगलियों से बने कारपेट की विदेशों में बड़ी मांग है, इसलिए बच्चों को ऐसे हालातों में रहकर भी कारपेट बनाते रहने चाहिए."
रचना जी,
जवाब देंहटाएं"अमूमन क़ोई भी एजेंट किसी भी अभिभावक से उनके बच्चे को ना तो झूठ बोल कर ला ता हैं ना अच्छे भविष्य के सपने दिखा कर लाता हैं वो पूरे साल की तनखा अडवांस दे कर लाता हैं "
ये आपकी बहुत बड़ी गलत फहमी है...एजेंट अक्सर माता-पिता को झूठी उम्मीद बंधा कर बच्चों को मजदूरी के लिए लेकर आते हैं. कई बार तो वे बच्चों को ही बहला-फुसला कर ले आते हैं...और कई बार अपहरण कर के भी.
@रश्मि जी ,
जवाब देंहटाएंकिस पोस्ट की बात आप कर रही हैं ..क्या मैंने इस विषय पर कभी लिखा है?
कृपया संदर्भ दें ?
स्थितियाँ बड़ी ही घातक हैं, यह सब देख कर बड़ी निराशा होने लगती है, देश के भविष्य के बारे में।
जवाब देंहटाएं@अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंआप खुद ही याददाश्त पर जोर डाल कर याद कर लें....
पूरा लेख शायद नहीं पढ़ पाउँगा ...क्षमा करें
जवाब देंहटाएं@मिश्र जी
जवाब देंहटाएंरश्मि दीदी और आपकी चर्चा मैंने भी पढी थी |
रश्मि जी,
जवाब देंहटाएंइसे आपकी पिछली ही पोस्ट का विस्तार मानते हुए इस मार्मिक स्थिति पर अपना खेद दर्ज़ करता हूँ!!यह स्थिति दुखद है और इसके लिए सभी एजेंसियां ज़िम्मेदार हैं!!
कोई इसका उजला पक्ष कैसे दिखा सकता है..कैसा व्यक्ति बाल-श्रम को उचित मानेगा, यही सोच रहा हूँ :(
जवाब देंहटाएंबहुत ही श्रम कर आपने इस शोधपरक लेख को लिखा है। स्थिति तो भयावह है ही। NGO ही इनका कुछ भला कर पाएं तो कर पाएं, वरना सरकार तो सिर्फ़ आंकड़े ही इकट्ठा कर सकती है ... देखिए सरकारी आंकड़ा ...
जवाब देंहटाएं• सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक हर साल तक़रीबन साठ हजार बच्चे ग़ायब हो जाते हैं। इनमें से अधिकांश को तस्करी के ज़रिए दूसरे राज्यों और देशों में भेजकर जबरन मज़दूरी कराई जाती है।
• अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ के मुताबिक दुनिया का हर छठा बच्चा बाल मज़दूर है।
• पांच से सत्तरह साल की उम्र के तक़रीबन 21.80 करोड़ बच्चे कामगार हैं, जिनमें से 12.60 करोड़ बच्चे खतरनाक उद्योगों या बदतर हालात में काम कर रहे हैं।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंरश्मि, इस विषय पर एक नहीं कई पोस्ट बनती हैं। बाल मजदूरी अपराध है। कुछ भी हो जाए यह नहीं करवानी चाहिए। बाल मजदूरी करवाने वाले मालिकों, एजेन्टों व काम पर भेजने वाले माता पिता सब सजा के अधिकारी हैं। सबसे अधिक माता पिता। शायद जब बच्चों को कोई काम नहीं देगा, उनसे भीख मँगवाने पर भी प्रतिबन्ध लग जाए, हर हाल में अपनी सन्तान का लालन पालन माता पिता को ही करना पड़े, पत्नी व बच्चों को छोड़कर भागे पिता से जबर्दस्ती भरण पोषण का खर्चा लिया जाए, जब सन्तान पैसा कमाने का साधन न रह जाए तो अपने आप बच्चों की जन्मदर घटने लगेगी। चाहे बच्चों को मुफ्त शिक्षा व भोजन मिले किन्तु किसी भी हाल में वे कमाई के साधन न बनें। घाटे का सौदा कोई नहीं करना चाहता, माता पिता भी नहीं। अचानक वे परिवार नियोजन केन्द्रों की तरफ खिंचने लगेंगे। इससे सबको ही लाभ होगा, जब बच्चे सस्ते में काम नहीं करेंगे तो मजदूरों को बेहतर मजदूरी मिलेगी।
जवाब देंहटाएंकार्य कठिन है किन्तु इसके सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं है। माता पिता से सहानुभूति करने से, उनके लिए बहाने बनाने से बच्चों का कल्याण नहीं होने वाला। कल्याण तभी होगा जब उनका शोषण बन्द होगा। सबसे पहला कदम माता पिता द्वारा शोषण रोकना होगा।
घुघूती बासूती
@अमूमन क़ोई भी एजेंट किसी भी अभिभावक से उनके बच्चे को ना तो झूठ बोल कर लाता हैं ना अच्छे भविष्य के सपने दिखा कर लाता हैं
जवाब देंहटाएंरचना जी,
कृपया ये दो लिंक्स देखें......
http://aajtak.intoday.in/story.php/content/view/57934/So-what-if-we-are-small-....html
http://anilattrihindidelhi.blogspot.com/2011/04/blog-post_18.html
वैसे मुझे मिश्र जी का तरीका ज्यादा सुविधाजनक लगा , क्योंकि सिर्फ एक कमेन्ट से उन्होंने साबित कर दिया है की हम इस विषय पर आपसे ज्यादा चिंतित हैं |
जवाब देंहटाएंकिसी भी हालत में बाल मजदूरी को सही नहीं ठाहराया जा सकता लेकिन इसका उपाय कहीं नजर भी तो नहीं आ रहा। हम लाख कहें कि ऐसा होना चाहिये, वैसा होना चाहिये लेकिन हम उन बच्चों के प्रति उनके अभिभावकों जितनी तो चिंता नहीं कर सकते। सुनने में यह बात अटपटी जरूर लगती है कि जो लोग अपने बच्चों को इस तरह बाहर भेजते हैं वो भला कैसे भावुक हो सकते हैं अपने बच्चों के प्रति, लेकिन सच्चाई यही है।
जवाब देंहटाएंवे अपने बच्चों को भेजते हैं तो इस आशा में, इस उम्मीद में कि घोर गरीबी में जीने से अच्छा है कुछ काम धाम सीख जाय। यहां रहेगा तो खेलने कूदने में लगा रहेगा....पढ़ाई आदि हो नहीं सकती...इन्ही सारी बातों को सोच बच्चों को भेज देते हैं।
वे मांए भी रोती होंगी अपने बच्चे को इस तरह बाहर भेजते हुए.....अंदर ही अंदर कलपती होंगी लेकिन मजबूरी जो न कराये।
और यह कहना कि बच्चे इसलिये पैदा किये जाते हैं कि कमाने वाले हाथ बढ़ेंगे तो यह पुरातन मानसिकता कब की अरराकर ढह चुकी है, हां अपवाद सब जगह होते हैं।
इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि कुछ साल पहले एक राज्य स्तर की सरकारी मिटींग में जहां एक ओर बड़े बड़े 'खंभेबाज बुद्धिजीवी' नैतिकता बूक रहे थे, वहीं जलपान ठेकेदार की ओर से जो चाय नाश्ता दिया गया उसकी तश्तरी बारह-तेरह साल के बच्चे उन तक पहुंचा रहे थे।
@ सभी मित्र
जवाब देंहटाएंकृपया ये भी पढ़ें ......
.......... लगभग 8 से 16 वर्ष के बीच के इन बच्चों को बाल मजदूरों के ठेकेदार उनके माता-पिता को तमाम तरह के हसीन सपने दिखाकर यहां ले आते हैं। मुंबई के कई छोटे-मोटे कारखानों में इन बच्चों से 16-16 घंटे काम लिया जाता है। खाने के लिए उन्हें आधा पेट खिचड़ी या रोटी दी जाती है। वेतन के नाम पर 16 घंटे के एक कार्यदिवस के लिए 20 से 25 रुपये दिए जाते हैं। घर जाने का नाम लेने पर पिटाई भी होती है। गांव से बच्चों को फुसलाकर लाने वाले ठेकेदारों को एक बच्चे के एवज में 500 रुपये कमीशन मिलता है।
http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_4536254/
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रश्मि दीदी ,
आपने जो स्थिति बतायी है, वो अक्सर देखने में आती है....
आपके अगले लेख की प्रतीक्षा रहेगी , आपकी सिवकासी वाली पिछली पोस्ट भी स्मृति में अंकित है , आवश्यकता पड़ने पर उसका सन्दर्भ भी देता रहा हूँ |
[व्यस्त होने की वजह से टुकड़ों में विचार व्यक्त कर पाया हूँ , अभी भी काफी कुछ है कहने को लेकिन जो भी है आपके लिखे से अलग नहीं है ]
सवाल बहुत ही संजीदा हैं और उसी संजीदगी से ये विषय काफी खोजबीन के बाद उठाया है.
जवाब देंहटाएं@ रश्मि जी ,
जवाब देंहटाएंबाल मजदूरी अगर कानूनन अपराध ना भी घोषित की गई होती तो भी अल्प आयु / अविकसित देह से हाड़ तोड़ मेहनत करवाने को कौन इंसान जस्टीफाई करने की हिमाकत करेगा ?
अब मुद्दा यह है कि बाल श्रम की समस्या अव्वल तो है ही क्यों , उसपर इतनी विकराल क्यों ?
यह तो बहुत सरलीकरण होगा जो अगर मैं कह दूं कि अभिभावक अपने शौक से बच्चों को काम पर भेज देते हैं या फिर व्यापारी पुण्य कमाने के लिए उन गरीबों को रोजी देता है ! है ना ?
मुनाफाखोरी की व्यवस्था में सस्ता श्रम यानि कि कम लागत और ज्यादा मुनाफे के आशय में उस 'बनिये' की 'कथित सदेच्छा' स्वयमेव प्रमाणित है :)
न्यूनतम रुपये पे मजदूरी करवाने और अधिकतम आउटपुट के आग्रह के साथ कोई 'पूंजीपति' बालक के घरवालों को अग्रिम वार्षिक भुगतान का पुण्यकर्म कर गुजरता होगा,गिनी चुनी पुण्यात्माओं के अपवाद को छोड़कर सामान्यीकृत रूप से इस तर्क को हजम करना ज़रा मुश्किल ही लगता है :)
बहरहाल यह तर्क उन्हें ज़रूर मुफीद होगा जो स्वयं
वणिक हों याकि बालकों को रोजी रोटी प्रदान करने वाली कथित समाज सेवा का आग्रह रखते हों :)
हमारे समाज में पूंजी पर एकाधिकार रखने वाली कौम के लिए यह कहना बहुत आसान है कि अभिभावक स्वेच्छा से अपने नौनिहाल इस भाड़ में झोंक देते हैं !
मेरा ख्याल ये है कि हमारा लोकतंत्र जनगण के सामाजिक आर्थिक हालात की इस असामान्यता (अब्नारामेलिटी ) से निपटने में या तो सर्वथा अक्षम है या फिर वो मुनाफाखोरों के एजेंट बतौर जानबूझकर उनके हक़ में काम करता है !
बहस लंबी है पर मेरा अभिमत यह है कि,वणिक मौका मौकापरस्त हैं , अभिभावक मजबूर हैं ,और सरकार नाकारा है ,कठपुतली है,जो मौकापरस्ती पर नकेल नहीं कस सकती और ना ही मजबूरों को उनकी मजबूरियों से उबारने का कोई ठोस यत्न करती है !
हालाँकि कानून बनाने का ढोंगकर और कल्याण योजनाएं चलाने के सैद्धांतिक उपक्रम की ओट में सरकार जनहितैषी होने की एक्टिंग में अच्छे अच्छों को पीछे छोड़ देती है :)
चुनी हुई सरकार का दायित्व है कि जनगण मजबूर ना हों और कोई उनका शोषण ना कर सके सो प्रथम द्रष्टया अपराधी वो ही है और दूसरे हम नागरिक भी जो उसके सरकार बने रहने का कारण हैं !
ह्रदय को छुता बहुत ही संवेदनशील आलेख....लाजवाब।
जवाब देंहटाएंमेरा छोटा भाई कई वर्षों तक " बचपन बचाओ आन्दोलन संगठन " का सक्रिय कार्यकर्त्ता रहा है और जरी उद्योग के साथ साथ अन्य कई उद्योगों की आँखों देखी उसने इतनी सुनाई है कि शब्द नहीं मेरे पास,उनपर कुछ कह पाने के लिए...
जवाब देंहटाएंमानव इतना क्रूर,इतना निर्दयी कैसे हो जाता है, समझ पाना मुश्किल लगता है...
पहली पोस्ट बिना टिप्पणिया पढ़े दी थी...अब उससे आगे...
जवाब देंहटाएंअपने विचार की कहूँ तो बाल मजदूरी पर चाहे कितने भी कठोर कानून बन जाए, अपने देश की जो जमीनी हकीकत है,इसमें इसके समूल समाप्त होने की नहीं सोची जा सकती...बल्कि मुझे तो लगता है कि भारत जैसे निर्धन, सुविधा और साधन हीन देश में अपना पेट भर पाने के लिए कर्मरत होने का अधिकार सबको मिलना चाहिए...भरे पेट से सोच पाना मुश्किल है कि माता पिता को अपने छोटे छोटे संतान को काम पर क्यों और कैसे लगाना पड़ता है...
हाँ,गलत यह है कि जो लोग भी इन छोटे बच्चों से काम कराते हैं,उनके साथ ऐसा व्यवहार न करें...उनपर नकेल चाहे जैसे हो जरूर कसनी चाहिए कि वे इनके साथ ऐसे अमानवीय जुल्म न कर सकें..
बचपन बचाओ आन्दोलन के आश्रम और कार्य मैंने बहुत नजदीक से देखें हैं,कैलाश सत्यार्थी जी जो कर रहे हैं, उसकी सराहना शब्दों में संभव नहीं...उद्योगों से गुलाम बनाये बच्चों को छुड़ा शिक्षित और रोजगारपरक ट्रेनिंग दे वे उन्हें उनके घरवालों को सौंप देते हैं और फिर ये बच्चे जब अपने गाँव जाते हैं तो जिस प्रकार से सार्थक सुधारवादी कदम गाँव के अन्य बच्चों के लिए उठाते हैं,क्या कहूँ... एक बच्चे ने तो अपने गाँव जाकर अपना संगठन बनाया और फिर धरना प्रदर्शन इत्यादि करके वहां से शराब के सारे ठेके ही ध्वस्त करवा गाँव को नशा मुक्त करवा दिया...
जरी बौर्डर पर ही नहीं कई उद्योंगों पर बाल श्रम के काले धब्बे लगे हैं। बाल श्रम को कोई जायज नहीं ठहरा सकता लेकिन विकल्प भी कोई दे नहीं पाता। यह बहुत बड़ी समस्या है। सभी के आँखों के सामने और कोई विरोध नहीं।
जवाब देंहटाएं..बहुत बढ़िया लिखा है आपने।
देश में हो रहे विकास की सच्चाई बताते हैं बच्चों के यह हालात ..... सच में बहुत दुखद स्थिति है....
जवाब देंहटाएंइन बच्चों की उचित शिक्षा और जरूरतों का ध्यान रखे बिना ही क्रूरतापूर्ण स्थितियों में कार्य करने के बाद उचित मेहनताना भी ना देना ,निश्चित रूप से गलत है ! मगर जब तक सरकारें या समाजसेवी संस्थाएं इनके लिए भोजन या शिक्षा का यथोचित प्रबंध नहीं कर पाती तो भीख मांगने के अलावा अन्य नारकीय स्थितियों से गुजरने से बेहतर विकल्प होने चाहिए . समीर जी ने भी अपने उपन्यास में इसका जिक्र किया है कि विदेशों में जहाँ बच्चे अपनी पौकेट मनी के लिए श्रम करते हैं , वहां इसे गुनाह नहीं माना जाता , जबकि भारत जैसे विकासशील देशों में यह कार्य पेट भरने के लिए किये जाते हैं. फर्क इतना ही है कि वहां दबाव में नहीं होते , मन किया तो काम किया ,नहीं किया तो नहीं !
जवाब देंहटाएंरश्मि जी,
जवाब देंहटाएंआपकी भावना और इस आलेख के लिये केवल आभार कहना शायद छोटी बात होगी। बाल शोषण करने वाले रोज़गार-दाता, उनका माल खरीदने, बेचने, विपणन, वितरण करने वालों के साथ-साथ इन गरीब मजबूर बच्चों और शोषकों के बीच पुल बनने वाले अमानवीय एजेंट, सभी बराबर के अपराधी हैं। लेकिन सबसे शर्म की बात यही है कि आज़ादी के इतने समय बाद भी ऐसे परिवार हैं जहाँ आज़ादी की जगमगाहट आज तक नहीं पहुँची है और उन्हें मजबूरी में अपने बच्चों को दुर्भाग्य के हवाले करना पड़ता है। आप लिखती रहिये, शायद किसी कान पर कभी जूँ रेंगेगी। कौन जाने हम पाठकों में से ही किसी का जमीर जग जाये।
rashmi
जवाब देंहटाएंi am in this industry for last 25 years and i know the truth much better then what media says
Parents themselfs come and ask us for a years salary for their child and want to leave them
there is a strict policy of no child labor it happens when the job work is given where the factory owner { the actual owner } does not come in picture
there are always 2 faces of the same coin
in the last post of mine you yourself wrote the middle class families dont provide facilities like separate room , clothes then
why does middle class always want to raise a hue and cry for law when they dont follow law themselfs
most homes employ woman as bai and what conditions they work ?? no one in the house will give them decent clothes to wear
their children are banned to enter the homes
where do they leave their children
its very simple to creat class divide and evade the issue
go ahead and look in all your homes and you will find each one us in some way or other are "abusers " of humanity
we give away what we dont need in charity and that also when its useless for us
majority of housewifes give stale food that is not fit for consumption to their servants
SIMPLE IS TO FOLLOW RULES
DONT EMPLOY CHILDREN
AND GIVE THE MAIDS AND YOUR SERVANTS THE SAME BASIC SALARY THAT THE GOVERNMENT SAYS
I WOULD LIKE TO KNOW IN HOW MANY HOMES MAIDS ARE GIVEN THAT BASIC SALARY
HOW MANY PEOPLE OPEN PF ACCOUNTS FOR THEIR MAIDS
HOW MANY PEOPLE GIVE FRESH FOOD THAT THEY EAT TO THEIR SERVANTS
COMMON
CHARITY BEGINS AT HOME DO IT AND WHOLE SYSTEM WILL IMPROVE
FACE THE TRUTH TODAY THAT THOSE WHO ARE POOR WILL REMAIN POOR TILL THEY ARE NOT PUNISHED FOR USING THEIR CHILDREN FOR THEIR UPKEEP WHAT EVER THE REASONS
And the best option is to leagalise child labour make rules for them so that they are not exploited
जवाब देंहटाएंif the system can regularise illegal colonies structures and make new laws to protect those who do scams
why cant we regularize child labour and give them a life with dignity
children abroad work and study and we are forced to make our children go hungry why ???
today all the european nations who started this campaign against child labour are facing the music of economic turbulence
it was they who let their children work part time and earn money but who forced us to let our children go without work and face hunger
we need to make laws suitable for our country
बाल श्रम चाहे बच्चों के माता-पिता की मर्जी से करवाया जाए या उनको अँधेरे मे रखकर, हर हालत में गलत है. मेर एक दोस्त ने 'बचपन बचाओ आंदोलन' के साथ काम किया है. ये लोग पूरी निष्ठा से काम करते हैं, लेकिन इनके पास इतने संसाधन नहीं कि ये बच्चों के पुनर्वास की व्यवस्था कर सकें. इस समस्या के समाधान के विषय में मैं घुघूती बासूती और अली जी की बातों से सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंमैं क्या कहूँ सारा दोष तो पूरी सामाजिक व्यवस्था का है. इसके लिए केवल व्यापारियों, बच्चों के माँ-बाप या समाज के कुछ ऐसे लोग जो बच्चों की मदद करने के नाम पर उनसे काम लेते हैं, को दोष नहीं दिया जा सकता. इस बात के लिए सभी ज़िम्मेदार हैं. यहाँ तक कि इसे देखकर चुप रह जाने वाले हम भी. जब तक पूरी व्यवस्था सुधर नहीं जाती ये समस्या भी दूर नहीं होगी. लेकिन उस समय तक इंतज़ार नहीं किया जा सकता. गरीबी जब तक रहेगी, बाल श्रम भी रहेगा. इसे इतनी जल्दी पूरी तरह मिटाया नहीं जा सकता, पर कम से कम बच्चों को ऐसे काम करने से रोका जा सकता है, जिससे उनके शारीरिक और मानसिक विकास मे बाधा उत्पन्न होती है.
अंततः मुझे लगता है किसी भी समस्या को दूर करने के लिए ज़रूरी है कि हम जैसे लोग इसे समस्या मानें और उसके लिए आवाज़ उठायें.
सबके अपने अपने अनुभव .. सबके अपने अपने निष्कर्ष [इसी दुनिया में रहने की वजह से ऐसी कईं सच्ची कहानियां मैंने भी करीब से देखी सुनी] .... नए पहलू सामने आना तो अच्छी बात है लेकिन आश्चर्य तो तब होता जब कोई किसी और के ओबजर्वेशन को भ्रम बताये | मीडिया की यही रिपोर्ट / सर्वे हमारे लिए ख़ास / कड़वा सच हो जाते जब ये वो कहें जो हम कहना चाहते हैं और तब बेकार जब ये हमारी सोच से मेल ना खाएं , ये रवैया ठीक नहीं | ........ अब सोच रहा हूँ अपने हिस्से का देखा सच कोई कैसे साबित करे ?
जवाब देंहटाएंरश्मिजी इस दुनिया का सत्य बहुत ही कटु है। जितना देखेंगे उतना ही विद्रूप चेहरा दिखायी देगा। बहुत सारे चेहरे हैं इस समाज के, आपने दिखाया वह भी सच है और इसके विपरीत खुद माता-पिता भी बच्चों को बेच देते हैं। बस इसके विपरीत कुछ कार्य करने की आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएंरचना जी,
जवाब देंहटाएंआपने जो देखा-जाना....सच सिर्फ उतना ही नहीं है...उस से कहीं बड़ा है...और उसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता.
माता-पिता अगर अपने बच्चों को काम पर भेजने के लिए तैयार भी होते हैं...और अगर ये मान भी लें कि उन्हें इसके पैसे मिलते हैं फिर भी उनके बच्चे इन हालातों में काम करते हैं....यह भी उन्हें पता होता है....ये मानना जरा मुश्किल है.
हाँ, जब आपने अपनी पोस्ट में लिखा था कि एक maid को रखने में 6000 रुपये खर्च होते हैं तो मैने लिखा था, कि इतने पैसे खर्च नहीं होते क्यूंकि उनके लिए अलग कमरे -बिजली-पानी की व्यवस्था नहीं की जाती और ना ही ,हर महीने दो सेट कपड़े दिए जाते हैं.
पर उस कथन का इस पोस्ट से क्या ताल्लुक?? अक्सर लिखने वाले...इन सबका विरोध करने वाले मिडल क्लास से ही होते हैं...पर इसका अर्थ ये तो नहीं कि वे भी बच्चों के ऊपर अत्याचार करते हैं...या अगर उनके फेलो मिडल क्लास वाले ऐसा करते हैं तो उन्हें इस समस्या के बारे में चर्चा करने का कोई हक़ नहीं.
घरों में काम करने वाली बाइयों की भी अपनी समस्याएं हैं...वो एक अलग मुद्दा है...और छोटे-छोटे बच्चों का इस तरह के उद्योगों में अमानवीय स्थिति में रहकर काम करना बिलकुल अलग मुद्दा है.
फिर भी इतना कह दूँ कि बाइयों को पुराने कपड़े और बासी खाना देने वाली मिडल क्लास महिलाएँ अगर हैं तो ऐसी महिलाएँ भी कम नहीं...जो उनके बच्चों की ट्यूशन फीस भरती हैं...कोचिंग क्लासेस के पैसे देती हैं...किताबें खरीद कर देती हैं...बीमार पड़ने पर अस्पताल ले जाती हैं...और हर तरह से उनका ख्याल रखती हैं...कई ऐसी महिलाओं को मैं व्यक्तिगत रूप से जानती हूँ.
@वाणी
जवाब देंहटाएं" फर्क इतना ही है कि वहां दबाव में नहीं होते , मन किया तो काम किया ,नहीं किया तो नहीं !"
ये फर्क सिर्फ इतना सा नहीं है..बहुत बड़ा फर्क है...यहाँ बच्चे बंधुआ मजदूर की तरह..महीनो बाहर का उजाला देखे बगैर....आधा पेट खाकर तरह तरह के अत्याचार सह कर काम करते हैं जबकि विदेशों में अपनी पॉकेट मनी के लिए काम करना उनकी इच्छा पर निर्भर है.
अजित जी,
जवाब देंहटाएंजब किसी समस्या की चर्चा होती है तो बहुसंख्यक जनता /बच्चे जो झेल रहे हैं...उसकी बात होती है....बच्चों को बेच देनेवाले माता-पिता का प्रतिशत बहुत कम ही होगा.
Its a very sad situation. rashmi - thanks for writing about all this - hopefully SOMEONE will wake up. I am proud of u :)
जवाब देंहटाएंrespected rachna ji, respected arvind sir, it is very easy and boastful to say "यह गलत है पर ऐसा ...... और .... यह होना चाहिए पर वैसा .... " the first step to improvement in these situations is spreading awareness - and rashmi is spreading that. we are blessed and fortunate that neither we nor our kids / loved ones have suffered this, but lets not belittle other kids' pain. lets try to do something - if not - lets at least not prevent another one from writing about it.
हम में से हर एक को अपना योगदान देना है - जो रश्मि ने किया | यदि हर उस व्यक्ति पर - जो यह बात कहने की कोशिश करे - उसे हम cross question करें कि - "तुम क्या कर रहे हो " तो इससे तो यही हासिल हो पायेगा कि criticism के डर से शायद वह बोलना बंद कर दे | और उसकी खिंचाई होते देख कर और भी कुछ लोग - जो शायद इस पर लिखना चाहते - वे भी लिखने से झिझक जाएँ |
रचना जी - आपने कहा कि आप इसे अपने आस पास देखती हैं - तो हमसे बेहतर जानती हैं | हो सकता है | लेकिन यदि जिन बच्चों के बारे में आप जानती हैं - उनका केस अलग है - तो इससे उन बच्चों की या दूसरे बच्चों की स्थिति सुधर नहीं जाती | जितने ज्यादा लोग इस awareness को बढाने आगे आयें - उतना बेहतर है | एक अकेले के करने से कितने बच्चों का भला हो पायेगा ? शायद रश्मि जी की यह पोस्ट पढ़ कर १० बच्चों की भी ज़िन्दगी सुधार सके ? तब भी यह एक सफलता ही हुई ना ?
@ रश्मि जी,
जवाब देंहटाएंये सब पढते हुए कुछ मासूम बच्चे याद आये जो शतरंज खेल रहे थे ! अपनी जय के प्रति अनाश्वस्त एक बच्चा अचानक पूरा बोर्ड हिला के सारे मोहरे गडमड कर देता है :)
हमारे यहां परिणाम को बाधित करने वाली इस प्रवृत्ति को सान देना / बिलोर देना / कीचड़ कर देना कहते हैं :)
@रश्मि जी और ग्लोबल अग्रवाल,
जवाब देंहटाएंआपसे अनुरोध है मेरी मदद करें मैं खोज नहीं पाया हूँ और रश्मि जी
संदर्भ आपने दिया है इसलिए आपकी नैतिक और आफिसियल जिम्मेदारी बनती है न ?
प्लीज प्लीज !
बाकी कहना नहीं होगा बच्चों के या किसी भी के श्रम का शोषण बहुत निंदनीय है मगर गरीबी से उबरने के क्या ठोस प्रस्ताव हैं हमारे पास ? क्या कालाहांडी या अफ्रीकी -युगांडा की बच्चों की तस्वीरें आपने नहीं देखीं ? और वह सच कहीं ज्यादा क्रूर और भावनाओं को चोट पहुँचाने वाला है.......
एक सार्थक पोस्ट के लिए साधुवाद !
जवाब देंहटाएंअरविन्द जी,
जवाब देंहटाएं"क्या कालाहांडी या अफ्रीकी -युगांडा की बच्चों की तस्वीरें आपने नहीं देखीं ? और वह सच कहीं ज्यादा क्रूर और भावनाओं को चोट पहुँचाने वाला है....... "
जरूर देखी हैं....वहाँ का सच ज्यादा क्रूर है...उस से कुछ प्रतिशत कम क्रूर है, इन उद्योगों में काम करनेवालों का सच.......इसलिए यह सब स्वीकार्य होना चाहिए??
आपका बार-बार ये कहना कि गरीबी से उबरने की कोई ठोस योजना नहीं है...इसलिए बच्चों को इन हालातों में काम करते रहना चाहिए....मैं इसका समर्थन कभी नहीं कर सकती. सिवकासी में पटाखे बनाने का हो..या जरी उद्योगों में काम करने का या गलीचे बुनने का....किस अमानवीय स्थिति में बच्चे ये काम करते हैं...यह सब मैने लिख ही दिया है...ख़ास आपलोगों के लिए ही तस्वीरें भी लगा दी हैं .यकीन मानिए...मेरे लिए ये सब लिखना और तस्वीरें लगाना बहुत मुश्किल था...पर हमारे आँखें मूँद लेने से सच्चाई छुप नहीं जायेगी.
बहुत अच्छा लगता है जानकर...बच्चे अमुक जगह काम करने जाते हैं...और वहाँ से मुलायम गलीचे और चमकदार कपड़े बन कर निकलते हैं..पर अंदर किन स्थितियों में इनका निर्माण होता है...ये किसी को पता नहीं चलता...
(ये रहा लिंक...मैने ढूंढ दिया) link
आपने भी अपनी इस पोस्ट में लिखा था......
मेरे बगल के जिले भदोही जिसे भारत का गलीचा शहर (कारपेट सिटी ) कहा जाता है ,में करीब एक दशक पहले एक बड़े आन्दोलन में बच्चों को कारपेट उद्योग से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था ...जबकि उनके हाथ से बुने गलीचों की गल्फ देशों में बड़ी डिमांड थी ..क्योकि उनकी बुनाई बड़ी महीन और काम साफ होता था ...मगर तब यह फितूरबाजी हुई थी कि खेलने खाने के उम्र के बच्चों के श्रम का शोषण हो रहा है"
इस पर हमारे और आपके बीच कुछ टिप्पणियों का आदान-प्रदान हुआ था....मैने तब भी लिखा था...और आज भी उसी पर कायम हूँ..
"धूल भरी सडकों पर बच्चों का घूमना..कंद-मूल खाना , खेत से ईख चुरा कर...आम तोड़कर खाना मुझे मंजूर है बशर्ते इसके कि वही गाँव का बालक, १६-१८ घंटे महीनो तक बंद हो, जरी की कढाई का काम करे, पटाखे बनाए या फिर गलीचे."
आपने मुझसे कुछ तल्ख़ सवाल भी किए थे..और मैने जबाब भी दे दिया था...टिप्पणियाँ देख लीजिये एक बार फिर...
मेरी गुजारिश भी यही है कि इन बच्चो को श्रम से दूर रखने की बजाय बेहतर वर्क कंडीशन देकर नारकीय जिंदगी से बचाया जा सकता है ,हल्के श्रम के रास्ते बंद कर उन्हें भिक्षावृति के लिए मजबूर नहीं किया जाए जब तक कि हमारी सरकारें प्रत्येक व्यक्ति के लिए पेट भरने और रोजगार की व्यवस्था नहीं कर पाती !
जवाब देंहटाएं@रश्मि जी ,आभार,ओह लगता है बुढापा अब प्रभाव डालने लगा है :(
जवाब देंहटाएंहाँ बहस/विचार पढ़े -कितना आश्वस्तिदायक है कि दोनों अपने अपने वैचारिक स्टैंड पर जमे हैं ...
नहीं यहाँ तो गिरगिटी रंग बदलने वालों का जलवा है ...
आपकी संस्था के कार्य कैसे चल रहे हैं -हम कोई समझौता बिंदु तलाश नहीं सकते?
meanae bhi wahii kehaa haen jo vani keh rahee haen
जवाब देंहटाएंaur padhnae kae ichchuk naari blog par aakar detail me padh saktae haen
link haen http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2011/11/blog-post_12.html
रश्मि जी देर से आ पाया। सचमुच यह विषय मेरे दिल के पास का ही । आपका यह आलेख पढ़ते हुए मुझे 90 के आसपास इसी विषय पर चकमक में लिखा आलेख और उसके फोटो याद आ गए। इतने सालों में कुछ भी नहीं बदला है।
जवाब देंहटाएं*
सैद्धांतिक रूप से बालश्रम के मैं भी खिलाफ हूं। आपके इस आलेख में विभिन्न उघोगों में काम करने वाले बच्चों की काम की स्थितियों की भयावयता को उभारा गया है। मेरे ख्याल से अगर ये स्थितियां सुधर भी जाएं तो भी बालश्रम को उचित तो नहीं ठहराया जा सकता। मैं समझता हूं आपका भी यह आशय नहीं है। पर यह भी हकीकत है हर शहर कस्बे में बच्चे काम करते हुए मिल जाते हैं। हम धरना देकर,विरोध करके उनका काम छुड़वा भी दें, तो वे क्या करें। क्या हमारे पास उनके लिए विकल्प है।
*
सच्चाई तो यह है कि ऐसे तमाम उघोगों में जो वयस्क काम करते हैं उनकी स्थितियां भी ऐसी ही होती हैं। अपने काम के सिलसिले में मुझे कई सारी प्रिटिंग प्रेसों में जाने का मौका मिला है। वहां भी यही हालत होते हैं। कहने को शौचालय होता है, लेकिन उसकी हालत इतनी खराब कि हम तो वहां एक मिनट भी खड़े नहीं हो सकते।
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समस्या की असली जड़ सबके लिए रोजगार से जुड़ी है। भूख से जुड़ी है। मुझे यह भी लगता है सब अपने तई इन समस्याओं से लड़ रहे हैं। और लड़ना ही एक मात्र विकल्प है।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमन को द्रवित करने वाला और गहरी चोट पहुँचाने वाला आलेख है रश्मि जी ! हालात बदतर हैं और उनके बेहतर होने के आसार भी दिखाई नहीं देते हैं इसी विषय पर मैंने भी एक आलेख कल 'सुधीनामा' पर डाला है ! समस्या का समाधान कौन सा बटन दबाने से निकलेगा समझ में नहीं आता ! नेताओं का ज़मीर जाग जाये और भ्रष्टाचार से निजात मिल जाये तो बच्चों के लिये दी जाने वाली सब्सीडी बिना इधर उधर लीक हुए उन्हें मिल जाये, सरकारी गोदामों में सड़ने वाला अनाज उनके भूखे पेट की आग को बुझाने के काम आ जाये, कारखानों के मालिकों के हृदय पसीज जायें तो उनके कार्यस्थलों के हालात सुधर जायें और वे बेहतर स्थितियों में काम कर सकें, सरकारी स्कूलों में शिक्षक मुफ्त की तनख्वाह लूटने के साथ यदि अपने कर्तव्य के प्रति भी सचेत हो जायें तो बच्चों को शिक्षित होने के उनके बुनियादी अधिकार से वंचित ना होना पड़े और यदि सामाजिक संस्थाएं अपने लक्ष्य और उद्देश्य के प्रति वास्तव में निष्ठावान हो जायें तो ऐसी जगहों पर रहने बच्चों को अमानवीय एवं बर्बरतापूर्ण वातावरण को ना झेलना पड़े ! लेकिन इन सारी बातों के साथ इतने सारे अगर मगर जुड़े हैं कि निकट भविष्य इन हालातों के सुधरने के कोई आसार नज़र नहीं आते ! इस संवेदनशील आलेख के लिये आभार !
जवाब देंहटाएंअफसोसजनक स्थितियाँ..
जवाब देंहटाएंपता नहीं समाज अपनी ज़िम्मेदारी कब निभायेगा...
जवाब देंहटाएंरश्मि जी, बहुत अच्छा विषय उठाया है आपने...