उम्र के इस मोड़ पर भी....किसी को नमस्ते कहती हूँ...और वे आशिर्वादस्वरूप मेरी हथेली पर कभी कोई टॉफी..लेमनचूस...खट्टी-मीठी गोलियाँ तो कभी दो बेर रख देते हैं. मेरे ये कहने पर..."क्या काका....हम बच्चे थोड़े ही हैं..." वे मुस्कुरा कर कहते हैं...."अरे खा लो"..या फिर कहते हैं..."बच्चों को दे देना" . ये हैं हमारी कॉलोनी के काका. उनकी जेबें हमेशा इन चीज़ों से भरी रहती है...और बच्चों को ..रुक कर उनसे दो बातें करने वालों की हथेली पर वे कुछ रखना कभी नहीं भूलते. इनका नाम है, 'श्रीनिवास रा. तलवलकर' . सत्तासी (87 ) वसंत देख चुके औसत कद के दुबले-पतले पर स्फूर्तिवान काका सुबह साढ़े छः बजे ऑटो के इंतज़ार में खड़े मिलते हैं. रोज, सुबह की चाय पी वे ऑटो ले लाइब्रेरी जाते हैं. सीनियर सिटिज़न की लाइब्रेरी की चाबी उनके पास ही रहती है. लाइब्रेरी में छः अखबार आते हैं...उनपर स्टैम्प लगाते हैं. पत्रिकाओं को करीने से रखते हैं. लोगो से मिलजुलकर वे घर लौटते हैं. नाश्ता कर, लेखन कार्य करते हैं. फिर खाना खाकर थोड़ा आराम और दो बजे से वे बच्चों को मराठी पढ़ाने के लिए निकल पड़ते हैं.
मुझसे भी काका की पहचान इसी क्रम में हुई. जब मेरा बड़ा बेटा किंजल्क चौथी कक्षा में गया उसके पाठ्यक्रम में एक नया विषय जुड़ गया, 'मराठी'. मैने सोचा, लिपि देवनागरी है...थोड़ी-बहुत समझ में आ ही जाती है. मैं उसे पढ़ा लूंगी . एक दिन मैं उसे एक कविता में समझा रही थी ,"तूप रोटी खा'...का अर्थ है.."दूध रोटी खा' और पोछा लगाती मेरी काम वाली बाई ने कहा...'नहीं भाभी 'तूप' का मतलब होता है..'घी' यानि 'घी रोटी खा'...ऐसे ही एक दिन एक पाठ में "गवत काढतो" का अर्थ मैं समझाने लगी...कि 'कुछ लोग..पेड़ के नीचे बैठ..गप्पे हांक रहे थे .'...फिर से मेरी बाई ने सुधारा..."गवत काढतो' का अर्थ 'गप्पे हांकना' नहीं......'घास निकालना' है. अब मुझे चिंता हुई...ऐसे तो मेरा बेटा फेल हो जाएगा...एक सहेली से चर्चा की और उसने 'काका' के बारे बताया...और काका ने मेरे दोनों बेटों को इतनी अच्छी मराठी की शिक्षा दी कि बोर्ड में किंजल्क को ८६ और कनिष्क को ८१ नंबर मिले...अफ़सोस बस ये रहा कि हिंदी में कम मिले..:(..आज काका की शिक्षा के बदौलत दोनों इतनी धाराप्रवाह मराठी बोलते हैं कि ट्रैफिक पुलिस...कुली वगैरह हमें भाव ही नहीं देते, मेरे बेटों से ही बात करते हैं.
हमारी कौलोनो के ज्यादातर बच्चों को काका ने ही मराठी पढाया है. और गौर करने की बात ये है कि काका, शिक्षक नहीं हैं. वे पोस्टमास्टर के पद से रिटायर हुए हैं. मराठी साहित्य पढना-पढ़ाना उनका शौक है. उन्हें लिखने का भी शौक है और अक्सर अखबारों में पत्रिकाओं में उनके आलेख प्रकाशित होते रहते हैं. वे हमेशा कहते हैं, मुझे जो पेंशन मिलती है...उसमे मेरा खर्च निकल आता है...लेकिन मैं चाहता हूँ...ज्यादा से ज्यादा लोग मराठी पढना-लिखना सीखें. इसीलिए काका को पैसे का भी आकर्षण नहीं. आज के युग में ,घर पर आ कर पढ़ाने का वे मात्र दो सौ रुपये लेते थे. मैने और मेरी सहेली ने उनसे जबरदस्ती ये राशि तीन सौ रुपये करवाई. पर काका संकोचवश किसी से पैसे के लिए नहीं कहते और कई लोग इसका फायदा उठा...उन्हें समय पर पैसे नहीं देते या फिर कम देते हैं...काका फिर भी कुछ नहीं कहते. पर जब कई लोग उन्हें मान-सम्मान नहीं देते तो उन्हें जरूर दुख होता. कई घरों में माता-पिता नौकरी पर होते..और बच्चे अकेले घर पर,रहकर अपनी मनमानी करते.....जब भी मैं चाय लेकर जाती...काका ये सब बातें शेयर करते...बातों -बातों में काका के जीवन के पन्ने भी खुलते चले जाते...मुश्किल , बस ये होती कि बातें करते काका भूल जाते कि मुझे मराठी नहीं आती और वे हिंदी से कब मराठी में स्विच कर जाते,उन्हें भी पता नहीं चलता. जो बातें समझ नहीं आती मुझे बाद में बच्चों से पूछना पड़ता.
काका की जीवन-कथा भी कम दिलचस्प नहीं. उनका जन्म ३० जुलाई १९२४ को महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के अक्कलकोट नामक गाँव में हुआ. काका दस भाई बहन में सबसे बड़े थे. थे. घर में बहुत गरीबी थी. काका पढ़ने में बहुत तेज थे.पर उनके गाँव में उस वक्त सिर्फ प्राइमरी स्कूल ही था. उनके पिताजी के रिश्ते की एक बहन उन्हें आगे पढ़ने के लिए अपने गाँव लेकर गयी. वहाँ काका सात दिनों में सात घर में खाना खाया करते थे और सबका काम कर देते थे. इस तरह से उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा प्राप्त की. उसी वक़्त उनके पिताजी गुजर गए. काका को सोलापुर में राशनिंग ऑफिस में चालीस रुपये के वेतन पर नौकरी मिली. बीस रुपये वे घर भेज देते थे..दस रुपये खुद के लिए रखते थे और दस रुपये अपनी नानी को भेजते थे. इसके बाद उन्हें अहमदनगर में पोस्ट ऑफिस में इकसठ रुपये के वेतन पर दूसरी नौकरी मिली. घर के हालात सुधरने लगे. छोटे भाई-बहन पढ़ने लगे. बहनों की शादी भी कर दी. काका की शादी १९४५ में हुई. महाराष्ट्र में ही उनके तबादले होते रहे. कई बार नौकरी में उनके सीधेपन का फायदा उठा..उनके सहकर्मियों ने उन्हें धोखा भी दिया...फिर भी काका का बहुत ज्यादा नुकसान नहीं कर पाए वो.
अपने झोले में से मेरे लिए कोई हिंदी पत्रिका ढूंढते हुए |
१९८२ में काका रिटायर होकर बॉम्बे आ गए क्यूंकि उनके सारे भाई-बहन बॉम्बे में ही थे. काका के बड़े लड़के की नौकरी भी बॉम्बे में ही थी. काका के दो पुत्र और एक पुत्री हैं. पर काका,काकी के साथ अकेले ही रहते हैं. हमारे समाज के हर वृद्ध की तरह काका की कहानी भी अलग नहीं है. उनके बड़े बेटे काका के घर से कुछ ही दूरी पर रहते हैं. परन्तु माता-पिता के पास बिलकुल ही नहीं आते-जाते. हाल में ही काका ने बहुत दुखी होकर बताया कि उनके बेटे की पचासवीं वैवाहिक वर्षगाँठ थी..क्लब में बड़ी सी पार्टी दी..परन्तु माता-पिता को कोई सूचना या आमंत्रण नहीं मिला. उनकी बिल्डिंग के लोग...आस-पड़ोस ही अब उनका परिवार है.
काका मराठी साहित्य के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं. अभी हाल में ही उनकी लिखी मराठी लोक कथाओं की एक पुस्तक प्रकाशित हुई है. परन्तु मराठी प्रकाशन की स्थिति भी हिंदी प्रकाशन से इतर नहीं है. इस पुस्तक के प्रकाशन में काका के सत्रह हज़ार रुपये खर्च हो गए. बड़े मन से हर जान-पहचान वालों को काका ने वो पुस्तक भेंट की. अभी काका एक दूसरी पुस्तक के प्रकाशन की तैयारी में लगे हुए हैं. कहते हैं...कुछ एरियर्स मिलने वाले हैं...उन पैसों को इनमे लगा दूंगा. जब बच्चों को पढ़ाने आते थे...अक्सर काका किसी पत्रिका में छपे अपने किसी आलेख की चर्चा करते. एक दिन मैने यूँ ही पूछ लिया..."काका आपको..कुछ पारिश्रमिक भेजते हैं ..वे लोग"?...काका ने कहा...' नहीं..वे पत्रिका ही भेज देते हैं...{आज मेरे साथ भी ऐसा ही होता है...पारिश्रमिक की जगह मैं पत्रिका पाकर ही खुश हो जाती हूँ..:)}
काका कोई भगवान तो हैं नहीं...एक आम इंसान हैं...इसलिए इंसान जनित कमजोरियां उनमे भी हैं. वे घर में बिलकुल ही नहीं टिकते. घर से बस सोने खाने -लिखने-पढ़ने का ही सरोकार रखते हैं. खाली वक़्त में अक्सर गेट के पास रेलिंग पर बैठे होते हैं. हमेशा कहते हैं.."घर में काकी किट-पिट करती है...इसलिए घर में रहने का नई...बस पैसे काकी के हाथों में रख देता हूँ..." अब इतने बुजुर्ग हैं..उनसे कैसे कहूँ.."काकी को भी तो इस उम्र में साथ चाहिए...कोई बोलने- बतियाने वाला चाहिए...आप सारा दिन घर से बाहर रहेंगे तो वे किट-पिट तो करेंगी ही. " कई बार अपनी झुकी कमर के साथ काकी...किसी बाई के साथ...अकेली दुकान में खरीदारी करती हुई दिख जाती हैं.
परन्तु काका सही मायनों में एक कर्मयोगी हैं. और सबसे अच्छी बात...उन्हें शुगर...ब्लड- प्रेशर..कोलेस्ट्रौल ..किसी तरह की कोई बीमारी नहीं. मेरे बच्चों का कैरियर अभी शुरू भी नहीं हुआ..पर वे काका को देखकर कहते हैं..." अपनी रिटायर्ड लाइफ तो बिलकुल काका की तरह जीनी है"
काका के प्रेरणादायक जीवन का परिचय कराने का शुक्रिया. आपका मराठी शिक्षण लाजवाब रहा. मैंने तो जब तकनीक शब्द के लिए कहीं यंत्रणा का प्रयोग देखा तभी समझ गया था की मराठी उतनी आसान नहीं जितनी हम समझते थे.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा जानकर। इस अवस्था में मन की ऊर्जा सप्रयास बनाये रखना कठिन कार्य है।
जवाब देंहटाएंकाका से मिलकर अच्छा लगा... उनकी किताब के बारे में लिखिए ... हिंदी अनुवाद उपलब्ध करिए... उनपर आई टिप्पणियों की प्रिंट उन्हें दीजिये.. उनको बहुत ख़ुशी मिलेगी शायद.....
जवाब देंहटाएंएक आम भारतीय इंसान के प्रतिनिधि हैं काका ! ऐसे लोग जो जीवन भर औरों के लिये संघर्ष करते हैं, घर परिवार के लिये हर पल स्वयं को उत्सर्जित करते हैं और अंत में उन्हींकी आलोचना और उपेक्षा का पात्र बन छले जाते हैं ! ऐसे निर्वैयक्तिक लोग आगे चल कर वीतरागी हो जाते हैं और माया मोह से परे हो जाते हैं ! काका के जीवट को मेरा नमन ! उनके प्रति मन में असीम श्रद्धा उमड़ रही है ! आप जब भी उनसे मिलें मेरा प्रणाम भी उन तक अवश्य पहुँचा दीजियेगा !
जवाब देंहटाएंBAHUT BADHIYA !!
जवाब देंहटाएंHAM LOGON KO BHI KAKA JAISE LOGON SE SEEKHNA CHAHIYE
ZINDAGEE JEENA SEEKH JAAENGE HAM
AUR US PAR SE APP KA LEKHAN AJ TO SUBAH SUBAH HI MAZA AA GAYA
कमजोरी किसमें नहीं होती, पर जीवन को नियम से जीना , खुद पर भरोसा रखते हुए सबको प्यार भी देना , सबके वश की बात नहीं . काका को जानना अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंहम अपने अपने समाज बनाते हैं और अपनी भाषा के लिए भी संघर्ष करते हैं। ऐसा इसलिए करते हैं कि एक समाज ऐसा होगा जिसकी छत्रसाया में हम सुरक्षित रहेंगे लेकिन हमारा पुत्र ही हमें सुरक्षा प्रदान नहीं करता और समाज उस पुत्र से पूछता नहीं कि तू ऐसा क्यों कर रहा है और ना ही उसे ऐसा करने से रोकता है। क्या ऐसा कोई नहीं है जो उस बेटे से पूछ सके और उसे बाध्य कर सके।
जवाब देंहटाएंहमेशा ही की तरह, बहुत मीठा।
जवाब देंहटाएंकाका से यह परिचय कराने का धन्यवाद।
काका की कहानी सचमुच रोचक है। धन्यवाद देना चाहिए आपके घर में काम करने वाली उस महिला को भी जिसने बिना किसी झिझक के आपको काका से मिलने का अवसर सुलभ कराया।
जवाब देंहटाएंकाका जैसे ही एक दादाजी की याद आ गई। वे भी ऐसी ही टोपी पहनते थे और हम बच्चों को टॉफियां आदि बांटते रहते थे।
जवाब देंहटाएंप्रणाम
बहुत रोचक अंदाज़ में काका की कथा-व्यथा और जीवंतता को पेश किया है तुमने रश्मि. ऐसे चरित्र पता नहीं कितनों के प्रेरणा स्रोत बनते हैं.
जवाब देंहटाएंमुझे ऐसी पोस्ट बड़ी अच्छी लगती हैं जिसमें किसी व्यक्ति [जो ब्लोगर न हो, ना कोई सेलेब्रिटी ].....से परिचय होता हो
जवाब देंहटाएंवैसे तो मराठी मुझे नहीं आती फिर भी ..................
"कुछ लोग..पेड़ के नीचे बैठ..गप्पे हांक रहे थे "......के बारे में पढ़ कर ..... हा हा हा ...हो हो हो.... ही ही ही मजा आया ..
ये तो अच्छा हुआ की आपकी सहेली ने काका से आपका परिचय करवा दिया
हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में हमारे आस-पास कई ऐसे व्यक्तित्व होते हैं। आपने ऐसे ही एक व्यक्तित्व पर पोस्ट लिखकर उसे आम से खास बना दिया है। प्रभावित हुआ काकाजी से।
जवाब देंहटाएंHi..
जवाब देंहटाएंAaj kafi samay upraant punah upasthit hun..es asha ke sath ki aapki, unki, sabki baaton main main bhi shamil ho paun..asha hai hindi main na likh paane ke liye aap kshma karengi..
Kaka ki hi tarah kamobesh ab har bujurg ka jeevan guzrega..jo apne hain, wo apne nahi rahe, aur jo kabhi apne nahi the, unme apne nazar aayen.. Bachche sabhi ke ghar se amuman door ho hi jate hain, kisi na kisii vajah se, par dard tab bheeshan hota hai, jab wo aapko na pahchanen.. Sabko toffee, ber, pyaar aur shiksha bantte kaka ji apne antar main jaane kitne gum chhupaye baithe honge.. Achha hai aap yada kada unke gum baant aati hain..
Aapka aalekh hamesha ki tarah marmsparshi hai.. Aapka dhanyawad ki aapne Kaka ji se humara pparichay karaya..
Shubhkamnaon sahit..
Deepak Shukla..
कैसे जीना चाहिये ये सिखाती है काका की जीवनशैली……………उन्हे जानकर अच्छा लगा और बहुत कुछ सीखने को मिला।
जवाब देंहटाएं८७ साल में भी इतने एक्टिव हैं काका .. सच में कर्म योगी हैं ... बहुत अच्छा लगा पढ़ के उनके बारे में ... शक्ति देता है ऐसे मनीषियों का जीवन ...
जवाब देंहटाएंकाम वाली बाई को हमलोग फिल्मों या टीवी सीरियल्स की शांताबाई या सखुबाई की तौर पर जानते हैं.. मगर ये बाई तो सचमुच प्रेरणास्रोत रही...
जवाब देंहटाएंकाका का जीवन-चरित स्वतः सिर झुकाने को बाध्य करता है... बहुत दिनों से पेंडिंग थी यह पोस्ट... काका जी को मेरा प्रणाम!!
बहुत दिलचस्प ढंग से परिचय कराया। बढ़िया!
जवाब देंहटाएंहमारे आस पास कितनी प्रेरक कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं! हम नाहक कल्पना लोक में विचरण करते हैं।
जवाब देंहटाएंआपकी कॉलोनी के ये काका प्रेरणा के स्रोत हैं .. उनसे परिचय कराने का आपका अंदाज भी रोचक !!
जवाब देंहटाएंहमारे आस पास के ये लोंग ही कब जीवन का हिस्सा बन जाते हैं , पता ही नहीं चलता ...
जवाब देंहटाएंकाका के बारे में जानना अच्छा लगा !
बड़े बेटे की पचासवीं वैवाहिक वर्षगाँठ के हिसाब से
जवाब देंहटाएंकाका की उम्र 87 से ज्यादा होना चाहिए !
अपने ब्लॉग में काका का एक स्तंभ शुरू कीजिये जिसमें मराठी भाषा के छोटे छोटे लेसंस दिए जायें !
बहुत बढ़िया....कुछ ऐसा जो आमतौर पर पढ़ने नहीं मिला करता..। मेरे पोस्ट पर आकर मेरा मनोबल बढ़ाएं ।.बधाई ।
जवाब देंहटाएंकुछ को तो लिखने के बाद अखबार वाले एक कॉपी भी नहीं भेजते... वो तब भी खुश रहते हैं :)
जवाब देंहटाएंकाका से मिलकर अच्छा लगा.
@अरुण जी,
जवाब देंहटाएंअवश्य...पोस्ट के साथ टिप्पणियों का भी प्रिंट आउट निकाल कर काका को दे आऊँगी..शायद कुछ अंश एडिट कर दूँ...काका का दिल ना दुखे...
@अजित जी,
जवाब देंहटाएंकाका अपनी देख-रेख करने में सक्षम हैं....हो सकता है जरूरत पड़ने पर उनका दूसरा बेटा या बेटी...उनका ख्याल रखे...यह उनके बड़े बेटे का दुर्भाग्य है...कि जिस माता-पिता ने उनका विवाह किया...आज उनके आशीर्वाद की जरूरत उन्हें नहीं महसूस हुई.
@राजेश जी,
जवाब देंहटाएंसही कहा...वैसे काका से तो मुलाकात होनी ही थी..जब बेटे की रिपोर्ट कार्ड आती...
पर शशि को कोटिशः धन्यवाद कि ..माँ-बेटे को ये शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ी.
@अली जी,
जवाब देंहटाएंलिखने के बाद ही मैं सोच रही थी...गलती हो गयी...शायद पच्चीसवीं सालगिरह होगी....पर परले दर्जे की आलसी हूँ....सोचती ही रह गयी...एडिट नहीं किया...और आपने गलती पकड़ ली...:
@अभिषेक
जवाब देंहटाएंअखबार वाले तो हमें भी नहीं भेजते...
पत्रिका वालों ने भी अब भेजना शुरू किया है...वो भी नियमति नहीं..:)
रश्मि जी, शायद ’काका’ जी जैसी शख़्सियत के लिए ही ये शेर हुए हैं-
जवाब देंहटाएंइक शख़्स क्या बताएं कि कैसा दिखाई दे
जो देख ले, उसी को वो अपना दिखाई दे
वो फूल बांटता है वफ़ाओं के रात दिन
गुलशन मिज़ाज का क्यों न ताज़ा दिखाई दे
शाहिद लबों पे उसके कोई आह भी नहीं
उलझन में दूसरों की ही उलझा दिखाई दे
..पहले तो इस नए काका से परिचय के लिए आभार -अभी तक तो एक ही काका -खट्टर काका (हरिमोहन शर्मा ) की याद है -अप प्रोफाईल लेखन भी जबरदस्त करती हैं !
जवाब देंहटाएंमराठी मजेदार भाषा है .....हिन्दी से लिपि साम्य के साथ ही बहुत कुछ मिलता है मगर बहुत अलग सी भी है -
मराठी में धोका और हिन्दी के धोखा का मतलब वैषम्य देख मैं चकराया था !
बहुत अच्छा लगा काका के विषय में जानकर..... सच में कर्मयोगी ही हैं वे ....एक आम लेकिन खास, सराहनीय और प्रेरणादायी व्यक्तित्व से जुड़ी इस पोस्ट के लिए ...आभार
जवाब देंहटाएंकाका के बारे में जानना सुखद रहा.....
जवाब देंहटाएंहिन्दी तो पक्का तुमने ही पढाई होगी बच्चों को... :)
काकांबद्दल तुमच्या ब्लॉग मध्ये वाचून खूपचं आनन्द झाला . काकांसारखे लोक आमच्या समाजात आहेत म्हणूनचं आमच्या समाजात प्रेम आणि आपुलकी आहे . काकांसारखा जीवन सर्वांना मिळो ही शुभेच्छा . ( इसका अनुवाद काका से ही पूछ लेना )
जवाब देंहटाएंकर्मयोगी जीवन की सुंदर मिशाल!
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा यह व्यक्तित्व परिचय!
आपके काका को मेरा चरण स्पर्श ....
जवाब देंहटाएंकम से कम बच्चों के बिना जीना तो सीख लिया उन्होंने ....
किसी पर बोझ तो नहीं ....
वर्ना आजकल बच्चे अगर न पूछें तो बुजुर्गों की क्या स्थिति है aap जानती ही हैं ....
काका के लिए दुआ है ....!!
आपकी जुबानी ....आपकी लेखनी से ....काका के जीवन को पढ़ कर अच्छा लगा ........कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान ........ये बात काका पर सही बैठती है .........आभार
जवाब देंहटाएंबड़े जोखिम का काम है यह लिखना-पढ़ना...
जवाब देंहटाएंकाका से मिलना अच्छा लगा किन्तु मैं काका कि सन्तान को कोई दोष नहीं देना चाहूंगी.सबका अपना अपना जीवन है.सब अपने अपने तरीके से जीते हैं.
जवाब देंहटाएंघुघूतीबासूती
बहुत अच्छा लगा पढ़कर...
जवाब देंहटाएंबड़े ही प्रेरक व्यक्तित्व काका के बारे में जानकर...
सादर आभार...
काका का जीवन हम सभी के लिए प्रेरणादायी है. समाज में ऐसे व्यक्तित्व आज भी हैं जिन्हें स्वयं से ज्यादा समाज की फिक्र होती है, और सभी से प्रेम करते हैं. काका को प्रणाम!
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