यह एक पुरानी पोस्ट है जो पिछले साल दिवाली के पहले पोस्ट की थी.इसे पढ़...विजय कुमार सप्पति इतने व्यथित हो गए थे कि उन्होंने मदुरै में अपने दोस्तों से इसकी जानकारी ली. और कई पत्रिकाओं,अखबारों को फोन कर डाले, इसे प्रकाशित करने के लिए. पर सबके दिवाली अंक निकल चुके थे (इस साल सोचा था, पहले ही किसी अखबार या पत्रिका में भेज दूंगी..पर अब याद आ रहा है :( )
शुरूआती पोस्ट है...कम लोगों ने ही पढ़ी है...पर अगर किसी एक ने भी ना पढ़ी हो ....तो भी दुबारा पोस्ट करना सार्थक हुआ .
दीवाली बस दस्तक देने ही वाली है.सबकी तरह हमारी भी शौपिंग लिस्ट तैयार है. पर एक चीज़ कुछ बरस पहले हमारी लिस्ट से गायब हो चुकी है और वह है--'पटाखे'. सिर्फ हमारी ही नहीं...कई घरों की शॉपिंग लिस्ट से. और इसकी वजह है....बच्चों के स्कूल में दिखाई गयी एक डॉक्युमेंटरी.
जिसमे दिखाया गया कि 'सिवकासी' में किन अमानवीय परिस्थितियों में रहते हुए छोटे छोटे बच्चे, पटाखे तैयार करते हैं. इसका इन बच्चों के कोमल मन पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि इन लोगों ने पटाखे न चलाने का प्रण ले लिया. छोटे छोटे बैच भी बनाये SAY NO TO CRACKERS वह दिन है और आज का दिन है इन बच्चों ने पटाखों को हाथ नहीं लगाया
मैने तो वो डॉक्युमेंटरी नहीं देखी...पर नेट पर इसके विषय में काफी कुछ ढूंढ कर पढ़ा. और पढ़ कर मुझे लगा, कि हर स्कूल में यह डॉक्युमेंटरी दिखाई जानी चाहिए. वायु-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण की बातें, बच्चों को उतनी समझ में नहीं आतीं पर अगर अपनी उम्र के बच्चों को वो इन हालातों से गुजरते देखते हैं, तो इसकी अमिट छाप पड़ जाती है,उनके मन-मस्तिष्क पर.
'सिवकासी' चेन्नई से करीब 650 km दूर स्थित है.भारत में जितने पटाखों की खपत होती है,उसका 90 % सिवकासी में तैयार किया जाता है.और इसे तैयार करने में सहयोग देते हैं, 100000 बाल मजदूर.करीब 1000 करोड़ का बिजनेस होता है,यहाँ.
8 साल की उम्र से ये बच्चे फैक्ट्रियों में काम करना शुरू कर देते हैं.दीवाली के समय काम बढ़ जाने पर पास के गाँवों से बच्चों को लाया जाता है.फैक्ट्री के एजेंट सुबह सुबह ही हर घर के दरवाजे को लाठी से ठकठकाते हैं और करीब सुबह ३ बजे ही इन बच्चों को बस में बिठा देते हैं.करीब २,३, घंटे की रोज यात्रा कर ये बच्चे रात के १० बजे घर लौटते हैं.और बस भरी होने की वजह से अक्सर इन्हें खड़े खड़े ही यात्रा करनी पड़ती है.
रोज के इन्हें १५ से १८ रुपये मिलते हैं.सिवकासी की गलियों में कई फैक्ट्रियां बिना लाइसेंस के चलती हैं और वे लोग सिर्फ ८ से १५ रुपये ही मजदूरी में देते हैं.ये बच्चे पेपर डाई करना,छोटे पटाखे बनाना,पटाखों में गन पाउडर भरना, पटाखों पर कागज़ चिपकाना,पैक करना जैसे काम करते हैं.
जब भरपेट दो जून रोटी नहीं मिलती तो पीने का पानी,बाथरूम की व्यवस्था की तो कल्पना ही बेकार है.बच्चे हमेशा सर दर्द और पीठ दर्द की शिकायत करते हैं.उनमे कुपोषण की वजह से टी.बी.और खतरनाक केमिकल्स के संपर्क में आने की वजह से त्वचा के रोग होना आम बात है.
गंभीर दुर्घटनाएं तो घटती ही रहती हैं. अक्सर खतरनाक केमिकल्स आस पास बिखरे होते हैं और बच्चों को उनके बीच बैठकर काम करना पड़ता है.कई बार ज्वलनशील पदार्थ आस पास बिखरे होने की वजह से आग लग जाती है.कोई घायल हुआ तो उसे ७० किलोमीटर दूर मदुरै के अस्पताल में ले जाना पड़ता है.बाकी बच्चे आग बुझाकर वापस वहीँ काम में लग जाते हैं.
कुछ समाजसेवी इन बच्चों के लिए काम कर रहें हैं और इनके शोषण की कहानी ये दुनिया के सामने लाना चाहते थे.पर कोई भारतीय NGO या भारतीय फिल्मनिर्माता इन बच्चों की दशा शूट करने को तैयर नहीं हुए. मजबूरन उन्हें एक कोरियाई फिल्मनिर्माता की सहायता लेनी पड़ी.25 मिनट की डॉक्युमेंटरी 'Tragedy Buried in Happiness कोरियन भाषा में है जिसे अंग्रेजी और तमिल में डब किया गया है. इसमें कुछ बच्चों की जीवन-कथा दिखाई गयी है जो हजारों बच्चों का प्रतिनिधित्व करती है.
12 साल की चित्रा का चेहरा और पूरा शरीर जल गया है.वह चार साल से घर की चारदीवारी में क़ैद है,किसी के सामने नहीं आती.पूरा शरीर चादर से ढँक कर रखती है,पर उसकी दो बोलती आँखे ही सारी व्यथा कह देती हैं.
14 वर्षीया करप्पुस्वामी के भी हाथ और शरीर जल गए हैं.फैक्ट्री मालिक ने क्षतिपूर्ति के तौर पर कुछ पैसे दिए पर बदले में उसके पिता को इस कथन पर हस्ताक्षर करने पड़े कि यह हादसा उनकी फैक्ट्री में नहीं हुआ.
10 साल की मुनिस्वारी के हाथ बिलकुल पीले पड़ गए हैं पर मेहंदी रचने की वजह से नहीं बल्कि गोंद में मिले सायनाइड के कारण.भूख से बिलबिलाते ये बच्चे गोंद खा लिया करते थे इसलिए क्रूर फैक्ट्री मालिकों ने गोंद में सायनाइड मिलाना शुरू कर दिया.चिपकाने का काम करनेवाले सारे बच्चों के हाथ पीले पड़ गए हैं.
10 साल की कविता से जब पूछा गया कि वह स्कूल जाना मिस नहीं करती?? तो उसका जबाब था,"स्कूल जाउंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा.?'"..यह पूछने पर कि उसे कौन सा खेल आता है.उसने मासूमियत से कहा--"दौड़ना" उसने कभी कोई खेल खेला ही नही.
जितने बाल मजदूर काम करते हैं उसमे 80 % लड़कियां होती हैं.लड़कों को फिर भी कभी कभी पिता स्कूल भेजते हैं और पार्ट टाइम मजदूरी करवाते हैं.पर सारी लड़कियां फुलटाईम काम करती हैं.13 वर्षीया सुहासिनी सुबह 8 बजे से 5 बजे तक 4000 माचिस बनाती है और उसे रोज के 40 रुपये मिलते हैं (अगली बार एक माचिस सुलगाते समय एक बार सुहासिनी के चेहरे की कल्पना जरूर कर लें)
सिवकासी के लोग कहते हैं साल में 300 दिन काम करके जो पटाखे वे बनाते हैं वे सब दीवाली के दिन 3 घंटे में राख हो जाते हैं.दीवाली के दिन इन बाल मजदूरों की छुट्टी होती है. पर उन्हें एक पटाखा भी मयस्सर नहीं होता क्यूंकि बाकी लोगों की तरह उन्हें भी पटाखे खरीदने पड़ते हैं.और जो वे अफोर्ड नहीं कर पाते.
हम बड़े लोग ऐसी खबरे रोजाना पढ़ते हैं और नज़रंदाज़ कर देते हैं.पर बच्चों के मस्तिष्क पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है.यही सब देखा होगा,उस डॉक्युमेंटरी में, इन बच्चों ने और पटाखे न चलाने की कसम खाई जिसे अभी तक निभा रहें हैं.सिवकासी के फैक्ट्रीमालिकों ने सिर्फ उन बच्चों का बचपन ही नहीं छीना बल्कि इन बच्चों से भी बचपन की एक खूबसूरत याद भी छीन ली.
आप सब को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं. मुझे आपकी दीपावली का मजा किरिकिरा करने का कोई इरादा नहीं था....पर वो शेर हैं ,ना..
झिलमिलाते चिरागों की चमक न देखा कीजिये
ढा लते हैं, उनमे जो तेल, उन हाथों का सजदा कीजिये
शुरूआती पोस्ट है...कम लोगों ने ही पढ़ी है...पर अगर किसी एक ने भी ना पढ़ी हो ....तो भी दुबारा पोस्ट करना सार्थक हुआ .
दीवाली बस दस्तक देने ही वाली है.सबकी तरह हमारी भी शौपिंग लिस्ट तैयार है. पर एक चीज़ कुछ बरस पहले हमारी लिस्ट से गायब हो चुकी है और वह है--'पटाखे'. सिर्फ हमारी ही नहीं...कई घरों की शॉपिंग लिस्ट से. और इसकी वजह है....बच्चों के स्कूल में दिखाई गयी एक डॉक्युमेंटरी.
जिसमे दिखाया गया कि 'सिवकासी' में किन अमानवीय परिस्थितियों में रहते हुए छोटे छोटे बच्चे, पटाखे तैयार करते हैं. इसका इन बच्चों के कोमल मन पर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि इन लोगों ने पटाखे न चलाने का प्रण ले लिया. छोटे छोटे बैच भी बनाये SAY NO TO CRACKERS वह दिन है और आज का दिन है इन बच्चों ने पटाखों को हाथ नहीं लगाया
मैने तो वो डॉक्युमेंटरी नहीं देखी...पर नेट पर इसके विषय में काफी कुछ ढूंढ कर पढ़ा. और पढ़ कर मुझे लगा, कि हर स्कूल में यह डॉक्युमेंटरी दिखाई जानी चाहिए. वायु-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण की बातें, बच्चों को उतनी समझ में नहीं आतीं पर अगर अपनी उम्र के बच्चों को वो इन हालातों से गुजरते देखते हैं, तो इसकी अमिट छाप पड़ जाती है,उनके मन-मस्तिष्क पर.
'सिवकासी' चेन्नई से करीब 650 km दूर स्थित है.भारत में जितने पटाखों की खपत होती है,उसका 90 % सिवकासी में तैयार किया जाता है.और इसे तैयार करने में सहयोग देते हैं, 100000 बाल मजदूर.करीब 1000 करोड़ का बिजनेस होता है,यहाँ.
8 साल की उम्र से ये बच्चे फैक्ट्रियों में काम करना शुरू कर देते हैं.दीवाली के समय काम बढ़ जाने पर पास के गाँवों से बच्चों को लाया जाता है.फैक्ट्री के एजेंट सुबह सुबह ही हर घर के दरवाजे को लाठी से ठकठकाते हैं और करीब सुबह ३ बजे ही इन बच्चों को बस में बिठा देते हैं.करीब २,३, घंटे की रोज यात्रा कर ये बच्चे रात के १० बजे घर लौटते हैं.और बस भरी होने की वजह से अक्सर इन्हें खड़े खड़े ही यात्रा करनी पड़ती है.
रोज के इन्हें १५ से १८ रुपये मिलते हैं.सिवकासी की गलियों में कई फैक्ट्रियां बिना लाइसेंस के चलती हैं और वे लोग सिर्फ ८ से १५ रुपये ही मजदूरी में देते हैं.ये बच्चे पेपर डाई करना,छोटे पटाखे बनाना,पटाखों में गन पाउडर भरना, पटाखों पर कागज़ चिपकाना,पैक करना जैसे काम करते हैं.
जब भरपेट दो जून रोटी नहीं मिलती तो पीने का पानी,बाथरूम की व्यवस्था की तो कल्पना ही बेकार है.बच्चे हमेशा सर दर्द और पीठ दर्द की शिकायत करते हैं.उनमे कुपोषण की वजह से टी.बी.और खतरनाक केमिकल्स के संपर्क में आने की वजह से त्वचा के रोग होना आम बात है.
गंभीर दुर्घटनाएं तो घटती ही रहती हैं. अक्सर खतरनाक केमिकल्स आस पास बिखरे होते हैं और बच्चों को उनके बीच बैठकर काम करना पड़ता है.कई बार ज्वलनशील पदार्थ आस पास बिखरे होने की वजह से आग लग जाती है.कोई घायल हुआ तो उसे ७० किलोमीटर दूर मदुरै के अस्पताल में ले जाना पड़ता है.बाकी बच्चे आग बुझाकर वापस वहीँ काम में लग जाते हैं.
कुछ समाजसेवी इन बच्चों के लिए काम कर रहें हैं और इनके शोषण की कहानी ये दुनिया के सामने लाना चाहते थे.पर कोई भारतीय NGO या भारतीय फिल्मनिर्माता इन बच्चों की दशा शूट करने को तैयर नहीं हुए. मजबूरन उन्हें एक कोरियाई फिल्मनिर्माता की सहायता लेनी पड़ी.25 मिनट की डॉक्युमेंटरी 'Tragedy Buried in Happiness कोरियन भाषा में है जिसे अंग्रेजी और तमिल में डब किया गया है. इसमें कुछ बच्चों की जीवन-कथा दिखाई गयी है जो हजारों बच्चों का प्रतिनिधित्व करती है.
12 साल की चित्रा का चेहरा और पूरा शरीर जल गया है.वह चार साल से घर की चारदीवारी में क़ैद है,किसी के सामने नहीं आती.पूरा शरीर चादर से ढँक कर रखती है,पर उसकी दो बोलती आँखे ही सारी व्यथा कह देती हैं.
14 वर्षीया करप्पुस्वामी के भी हाथ और शरीर जल गए हैं.फैक्ट्री मालिक ने क्षतिपूर्ति के तौर पर कुछ पैसे दिए पर बदले में उसके पिता को इस कथन पर हस्ताक्षर करने पड़े कि यह हादसा उनकी फैक्ट्री में नहीं हुआ.
10 साल की मुनिस्वारी के हाथ बिलकुल पीले पड़ गए हैं पर मेहंदी रचने की वजह से नहीं बल्कि गोंद में मिले सायनाइड के कारण.भूख से बिलबिलाते ये बच्चे गोंद खा लिया करते थे इसलिए क्रूर फैक्ट्री मालिकों ने गोंद में सायनाइड मिलाना शुरू कर दिया.चिपकाने का काम करनेवाले सारे बच्चों के हाथ पीले पड़ गए हैं.
10 साल की कविता से जब पूछा गया कि वह स्कूल जाना मिस नहीं करती?? तो उसका जबाब था,"स्कूल जाउंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा.?'"..यह पूछने पर कि उसे कौन सा खेल आता है.उसने मासूमियत से कहा--"दौड़ना" उसने कभी कोई खेल खेला ही नही.
जितने बाल मजदूर काम करते हैं उसमे 80 % लड़कियां होती हैं.लड़कों को फिर भी कभी कभी पिता स्कूल भेजते हैं और पार्ट टाइम मजदूरी करवाते हैं.पर सारी लड़कियां फुलटाईम काम करती हैं.13 वर्षीया सुहासिनी सुबह 8 बजे से 5 बजे तक 4000 माचिस बनाती है और उसे रोज के 40 रुपये मिलते हैं (अगली बार एक माचिस सुलगाते समय एक बार सुहासिनी के चेहरे की कल्पना जरूर कर लें)
सिवकासी के लोग कहते हैं साल में 300 दिन काम करके जो पटाखे वे बनाते हैं वे सब दीवाली के दिन 3 घंटे में राख हो जाते हैं.दीवाली के दिन इन बाल मजदूरों की छुट्टी होती है. पर उन्हें एक पटाखा भी मयस्सर नहीं होता क्यूंकि बाकी लोगों की तरह उन्हें भी पटाखे खरीदने पड़ते हैं.और जो वे अफोर्ड नहीं कर पाते.
हम बड़े लोग ऐसी खबरे रोजाना पढ़ते हैं और नज़रंदाज़ कर देते हैं.पर बच्चों के मस्तिष्क पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है.यही सब देखा होगा,उस डॉक्युमेंटरी में, इन बच्चों ने और पटाखे न चलाने की कसम खाई जिसे अभी तक निभा रहें हैं.सिवकासी के फैक्ट्रीमालिकों ने सिर्फ उन बच्चों का बचपन ही नहीं छीना बल्कि इन बच्चों से भी बचपन की एक खूबसूरत याद भी छीन ली.
आप सब को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं. मुझे आपकी दीपावली का मजा किरिकिरा करने का कोई इरादा नहीं था....पर वो शेर हैं ,ना..
झिलमिलाते चिरागों की चमक न देखा कीजिये
ढा
विचारोत्तेजक आलेख। दशा-दुर्दशा दिखाता।
जवाब देंहटाएंअगर जिये भी तो कपड़ा नहीं बदन के लिए,
मरे तो लाश पड़ी रह गई कफ़न के लिए।
ग़रीबों का यही हाल है। अब अगर नो क्रैकर्स कर भी दें, कह भी दें तो क्या इनकी हालत सुधर जाएगी?
पढ कर मन बहुत खराब हुआ,हम ने तो पटाख्र बहुत समय पहले ही छॊड दिये हे, अगर आप उस फ़िल्म का लिंक देती तो बहुत से अन्य लोग भी देख लेते, ओर उसे देख कर शायद पटाखे चलाने वालो की संख्या ओर कम होती, चलिये मै ढुढता हुं उस लिंक को धन्यवाद
जवाब देंहटाएं@ मनोज जी,
जवाब देंहटाएंसुधरेगी तो नहीं....पर शायद जीने के लिए बचपन से ही इतने खतरों का सामना ना करना पड़े.
@ राज जी,
जवाब देंहटाएंमैने भी नहीं देखी...और नेट पे ढूँढा भी नहीं...सॉरी
दिवाली की शुभकामनाओं के साथ मुबारकबाद इनती सुदर लेख़ के लिए. आपके लव्ज़ दिल पे असर करते हैं "अगली बार एक माचिस सुलगाते समय एक बार सुहासिनी के चेहरे की कल्पना जरूर कर लें" सच तो यही है की दिवाली पे करोणों रूपए के पठाखे जलना अक्लमंदी का काम नहीं है, पैसा भी जाए, सेहत भी खतरे मैं. काश यही पैसा इन बाल मजदूरों और ग़रीबों को मिलता तो दिवाली का अंदाज़ ही निराला होता. एक घर मैं खुशिया लाने से बेहतर है हजारों घरों मैं खुशिया लाओ हर दिवाली.
जवाब देंहटाएंदिवाली मुबारक
पटाखा तो हम छोड़ते ही नहीं।
जवाब देंहटाएं... और सरकार ऐसे ऐसे क़ानून बना दे रही है कि धीरे-धीरे सब शायद कम हो जाए। इतना डेसिबल से ज़्यादा नहीं, इतने बजे के बाद नहीं। आदि-आदि।
पर मुद्दा वह नहीं है। मेरी पूरी संवेदना है। पर जो समस्या आर्थिक है उसका उसी ढंग से हम निदान सोचते हैं क्या? अगर मान लीजिए बंद हो भी जाए तो ...! कहां जाएंगे ये बेरोज़गार मां-बाप के ग़रीब बच्चे!
हम इन फ़ैक्टरियों को लाइसेंस देना बंद कर दें। तब तक जब तक ये सुरक्षा और संरक्षा के नियमों का पालन नहीं करते।
इन बच्चों को काम बंद करवा कर इनके उचित भरण पोषण की योजना के लिए सरकार पर दवाब आदि...।
मेरा आशय ये था।
कड़ोरों रुपए के पटाखे हर साल फुटपाथ पर बेचे जाते हैं, ऐन सरकारी तंत्र, पुलिस आदि के सामने। सबके नियम हैं। इन नियमों का सख्ती से अनुपालन होना चाहिए। पर सब कमिशन लेते हैं, आंख बंद किए रहते हैं
इसके लिए मीडिया, अखबार और एनजीओ को आगे आना चाहिए।
रश्मि रौंगटे खडे कर दिये इस आलेख ने……………काफ़ी कुछ सुन रखा था पहले भी और इसीलिये मेरे बच्चे न जान कितने सालों से पटाखे चलाते ही नही……………सिर्फ़ ्दीये ही जलाते हैं………………एक बेहद कड्वी और भयावह सच्चाई है मगर सही कह रही हो इस तरफ़ किसी का ध्यान नही जाता य कहो कोई देखना ही नही चाहता जानकर भी अन्जान रहना चाहता है………………तुम्हारे इस लेख से शायद कुछ लोगो पर तो असर पडेगा ही……………वैसे तुम ऐसा क्यों नही करतीं कि तुम तो रडियो पर भी न्यूज़ पढती हो तो वहाँ इस बारे मे कहने की कोशिश करो शायद तब कुछ असर पडे।
जवाब देंहटाएंsahi samay se aagah kerna zaruri hota hai
जवाब देंहटाएं@ मनोज जी, सही कहा आपने....पिछले साल की पोस्ट पर कुछ ऐसी ही बातें...गौतम राजरिशी और विजय कुमार सप्पति ने भी कहीं थीं.
जवाब देंहटाएंगौतम राजरिशी said...
फिर ये सब पढ़कर और उस लड़की की बात सुनकर कि स्कूल जाऊंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा...एक आवारा-सी सोच का उन्वान बनता है, एक दूसरा पहलु ये भी उभर कर आता है कि "say no to crackers" कह लेने के बाद उन परिवारों का क्या जिनकी रोटी ही इन पटाखों की वजह से आती है?
Vijay Kumar Sappatti said... अभी मानी मदुरै में अपने एक मित्र से इस बारे में बात की ,उसका कहना है ये सालो से चला आ रहा है , सरकार को मुनाफा होता है [ पहुँचाया जाता है ] शिवकाशी से सिर्फ फटाको के बल पर revenue ,generate होता है ..और वहां के गाँव और तालुका के पदाधिकारी सब इस दारुण कथा को जानते है ...गरीबी एक बहुत बड़ा अभिशाप है और वहां के मालिक इस बात को exploite करते है , जरुरत है CRY जैसे NGOs की जो की आगे आकर सरकार से इस बारे में बात करे .
हमलोग भी क्या करते हैं....साल दर साल इन विषयों पर बहस करते हैं...बस.
चमकीली फुलझड़ी की पीछे का अँधेरा एक सार्थक पोस्ट बहुत दुखी हुआ मग़र सच्चाई का सामना तो करना ही है |
जवाब देंहटाएंनहीं रश्मि ऐसा नहीं है कि सिवाकाशी में ही बारूद बहुत बनाती है. ये तो छोटे छोटे गाँव में और शहरों में चोरी छिपे इतनी बनाती है कि पाता नहीं चलता और चलता तब है जब इसमें विस्फोट हो जाता है. अभी एक हफ्ते के अन्दर कानपुर क्षेत्र में तीन जगह विस्फोट हुए और कई लोग मारे गए. सबसे आखिरी तो मजे की बात ये है कि एक सरकारी अस्पताल का वार्ड बॉय अपने आवास में बनता था और जब विस्फोट हुए तो ऊपर नीचे के सारे मकान. ढह गए. चार लोगों कि मौत हो गयी और खुद फरार हो गया. ये सबसे घातक काम है. बारूद बनने में ही नहीं बल्कि उसको छुड़ाने में कितने लोग जल जाते हैं, आखों कि रोशनी चली जाती है. इन सबसे अपनी तौबा और अपने बच्चों को भी नहीं चलाने देना चाहिए.
जवाब देंहटाएंदिवाली से पूर्व ये एक अच्छी पोस्ट है, कुछ लोग तो इससे प्रभावित हो कर पटाखों का बहिस्कार करेंगे ही.
सामयिक विषय। दूसरों को खुशी देते पर स्वयं दुखी बच्चों के ये हाथ।
जवाब देंहटाएंsahi kaha aapne
जवाब देंहटाएंइस आलेख और इसकी मूल भावना के साथ सहमत होते हुए भी एक बिन्दू पर शायद मतभेद होगा और उसपर मतभेद (शायद कंजर्वेटिव की कैटेगरी में आती हो) पर अपने विचार रखने की इज़ाज़त चाहूंगा।
जवाब देंहटाएंआपने मॉडरेशन तो डाला ही है, अगर सही न जचे तो मत डालिएगा!
मुझे लगता है पश्चिमी देशों की कुछ साजिश के तहत हमारे देश से एक-एक कर हमारे पारंपरिक त्योहार कभी आधुनिकता, कभी अंधविश्वास तो कभी प्रदूषण आदि के नाम पर बीते कल की बात होती जा रही है।
आप ही सोचिए कल को देश में होली दीवाली न हो दशहरा न हो तो क्या होगा? अगर हो भी तो एस एम एस करके हम रंग डाल देंगे एक दूसरे को...
जोगीरा नहीं होगा
ढाकी नहीं होगा
प्रेम सद्भाव तो खत्म हो ही रहें हैं, कल को दिया तो होगा दिए में तेल नहीं होगा .... बाती तो होगी, जल जाने के डर से माचिस नहीं होगा....!
हम वैसे ही दिनोदिन एकाकी होते जा रहे हैं, हम हमारा परिवार ... और समर्थन कर रहे हैं उनके लिव इन रिलेशन को, दोस्नाता को, तलाक बढ रहे है, बुजुर्गोंगों को सम्मान देना कम हो रहे हैं आदि-आदि
मैं इस आलेख को उस परिप्रेक्ष्य में भी देख रहा हूं।
उस समय आपसे युही कह दिया था की शायद सुना हो...सच तो ये है की सुना भी होगा तो मैंने ध्यान नहीं दिया होगा..
जवाब देंहटाएंपढ़ते वक्त सही में रोंगटे खड़े हो गए थे.
वैसे दिमाग में तो ये बात पिछले एक साल से है, एक मित्र ने एक घटना का जिक्र किया था, शायद वो सिवकासी के बारे में ही बता रहा था..याद नहीं..
मैं तो वैसे पटाखे बहुत पहले ही छोड़ चूका हूँ, कारण कुछ खास नहीं था..बस युहीं,..शायद पटाखे की आवाज़ से नफरत थी....
लेकिन इस लेख को पढ़ने के बाद अब पटाखे जलाने के समय दिमाग में ये सब कहानियां जरूर चलेंगी..
दीपावली की असली रौनक तो दिए, मिठाई और घर वालों के साथ ही आता है..पटाखे को मैं "आर्टिफिसीअल जरुरत" मानता हूँ..
मैं वो डॉक्युमेंटरी एक बार देखना चाहूँगा, सर्च करता हूँ नेट पे अभी..
दीदी,
जवाब देंहटाएंवैसे बुद्दिजीवी इन पटाखों जैसी चीजों से दूर ही रहते हैं... हम भी बस बचपन में चलाते थे और अब तो ना के बराबर ही चलते हैं [औपचारिकता के तौर पर ].
उम्मीद है ये लेख पढ़ कर असर तो होगा |
हाँ एक बात और जो मैंने गौर की है वो ये की लोग आध्यामिक तौर पर पटाखे चलना जरूरी मानते हैं ... हाँ .. सच में :)
दरअसल ऋग्वेद में इसका उल्लेख भी मिलता है पर उसका स्वरूप ऐसा [जो आज है ] तो नहीं होता होगा |
सच्चाई ये है की पटाखों की आवाज [आज जिस तरह के मिलते हैं ] से "तमस" फैलता है और इसका प्रभाव मानसिकता पर पड़ता है , जो आज हम चारों ओर देख भी सकते हैं अनावश्यक तनाव के रूप में |
मैंने अब तक ये तर्क कईं लोगों को समझाया और इससे सुधार भी आया है |
कैसी विडम्बना है की दीपावली में शुद्द घी के दीपों का स्थान इलेक्ट्रोनिक लाइट्स ने ले लिया जो की मूल रूप से सबसे आवश्यक प्रतीक था , और "तामसिक पटाखे" अब "सात्विक दीपावली" के आने का सन्देश देते हैं
मैं एक लेख तैयार कर रहा हूँ जिसमें लगभग पूरी जानकारी रेफरेंस के साथ मिल जाएगी .. एक दो दिन में प्रकशित होगा , पढियेगा जरूर
इस सार्थक लेख के लिए आभार
@ मनोज जी,
जवाब देंहटाएंमैं बिना...पढ़े ही कमेन्ट रिलीज़ कर देती हूँ....(आप देख ही रहें होंगे ) अगर वो साथी ब्लोगर्स के हुए.
मॉडरेशन सिर्फ फेक प्रोफाइल वालों के लिए है...क्यूंकि उनके उलटे सीधे आरोपों और निरर्थक बातों का जबाब देने का वक्त नहीं है मेरे पास.
रश्मी जी,
जवाब देंहटाएंऐसी ही जाग्रतिप्रद पोस्ट की आवश्यकता थी,
जो आपनें पूरी कर दी।
बहुत बहुत आभार आपका, इस आलेख के लिये।
व्यथित कर देने वाली है पोस्ट दुःख होता है जानकार सुनकर.पर पटाखे नहीं तो कुछ और ..काश बच्चों की ये स्थिति सुधर सकती.
जवाब देंहटाएंपरन्तु मेरा मन भी लेख की मूल भावना से सहमत होते हुए मनोज जी की तीसरी टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हो रहा है.
@ मनोज जी,
जवाब देंहटाएंपारंपरिक त्योहार क्या पारंपरिक रह गए हैं? उनका स्वरुप बिलकुल बदल गया है.
पहले होली खेली जाती थी टेसू के फूल से रंग बना कर...और आज ऐसे रंग कि एलर्जी हो जाती है.
दशहरा में क्या...दुर्गा माँ के पंडाल सजाने में इतने पैसे खर्च किए जाते थे? ऐसे गाने बजते थे, पंडाल में?
गरबा का स्वरुप अब क्या हो गया है...जरा गुजरात, मुंबई वालों से पूछिए. कितना अफ़सोस करते हैं , वे लोग.
यही हाल दीवाली का है....आज एक एक हज़ार के पटाखे चलाये जाते हैं...जिनकी चमक आकाश में एक मिनट तक भी नहीं रहती.
सिर्फ चमक-दमक और दिखावा...अब यह हम पर है कि हम कितना इसका पारंपरिक स्वरुप यथावत रखते हैं. इसके लिए हर एक को अपने स्तर पर कोशिश करनी होगी.
@गौरव
जवाब देंहटाएंतुमने सारी बातें सही कही पर तुम्हारा ये कथन
"कैसी विडम्बना है की दीपावली में शुद्द घी के दीपों का स्थान इलेक्ट्रोनिक लाइट्स ने ले लिया जो की मूल रूप से सबसे आवश्यक प्रतीक था "
घी का मूल्य पता है?? गरीब तो क्या मध्यम वर्ग भी भगवान के सामने पांच दिए जला देते हैं,बस. इलेक्ट्रोनिक लाइट्स ही उनकी बजट के अनुकूल होता है.
तुम्हारी पोस्ट का इंतज़ार रहेगा.
@शिखा
जवाब देंहटाएंअफ़सोस मुझे भी होता है...तभी तो मैने लिखा है..."सिवकासी के फैक्ट्रीमालिकों ने सिर्फ उन बच्चों का बचपन ही नहीं छीना बल्कि इन बच्चों से भी बचपन की एक खूबसूरत याद भी छीन ली. "
मेरा भी मन होता है, बच्चे पटाखे चलायें...खुश हों...ऐसे पटाखे हों, जिन्हें बनाने में किसी बच्चे के बचपन की बलि ना ली गयी हो...और प्रदूषण ना फैले. त्योहार खूब हंसी-ख़ुशी के बीच मनाई जाए...किसी पर क़र्ज़ का बोझ ना पड़े....कोई भी दूसरे को देख, हीन-भावना से ग्रस्त ना हो..पर ऐसा होता कहाँ है??
मुद्दा बचपन के शोषण का है ,जिन्हें स्कूल में होना चाहिए वे काम कर रहे हैं और जिन हाथों में काम होना चाहिए वे बेकाम बैठे हैं क्योंकि "व्यवसाय" बड़े और बालिग़ हाथों को काम देकर मुनाफे का एक अंश भी नहीं खोना चाहता !
जवाब देंहटाएंसुबह तीन से रात दस ,रोजी १५ रुपये ,हाथों में ज़हर , मुनाफाखोरी का क्रूरतम चेहरा है ! उसे बचपन और मासूमियत से क्या ? ऐसी ही एक रिपोर्टिंग चूडियों और कांच का काम करने वाले बाल श्रमिकों पर भी पढ़ी थी ...दुखद परिस्थितियां हैं !
वैसे पश्चिमी देशों में रहने वाले ब्लागर्स बेहतर बता सकते हैं कि वहां की सरकारों ने बच्चों के लिए कौन कौन से काम निर्धारित किये हैं और बाल श्रम के मुताल्लिक कानून क्या हैं ? शायद पिछले दिनों किसी मित्र ने लिखा भी था ? पक्का याद नहीं !
हमारे यहां कानून कुछ भी हो पर पूंजी का डरावना / वीभत्स चेहरा यही है ! यहां जगदलपुर में उडिया पंडितों का एक परिवार पुश्तैनी तौर पर यही काम करता आ रहा है कुछ वर्ष पहले बारूद ने उनके बड़े बेटे की जान ले ली पर वे अब भी यह काम नहीं छोड़ना चाहते ! भला क्यों ?
आपने एक सामजिक सरोकार पर अपने परिजन और पड़ोसियों का रवैय्या बताया जोकि अत्यंत सराहनीय है ! नागरिकों की भूख और बेरोजगारी पर सरकार की जिम्मेदारी बनती है , हमें बचपन को बचाने के लिए इस दिशा में अपने नागरिक कर्तव्यों का पालन करने की सोचना चाहिये ! सोचना ही पड़ेगा ...वर्ना हम भी मुनाफाखोरी के इस कुचक्र और बाल शोषण के मौन सहभागी माने जायेंगे !
अत्यंत सराहनीय पोस्ट के लिए आभार !
दीदी,
जवाब देंहटाएंमुझे पता था ये प्रश्न उठेगा :)
इसका लोजिक ये है की जो पैसे लोग पटाखों में खर्च करते हैं वो एक गैर जरूरी चीज है
अक्सर बच्चों के लिए ये होता है , अब गलती उनकी भी नहीं है वो दूसरे बच्चों को देख कर ऐसा करते हैं
जो नहीं खरीद सकते वो तो नहीं खरीद सकते ये बात तो है लेकिन जिनकी आर्थिक स्थिति इजाजत नहीं देती वे भी खरीदते हैं ये भी सच है
एक बेसिक लोकल सर्वे के हिसाब से [किसी भी जगह का किया जाये तो ], बेसिकली मध्यम वर्गीय की ही बात करते हैं , क्या हो अगर पटाखों को बजट में से हटा दिया जाए और घी को इनक्लूड कर भी दिया जाये तो ??
मुझे लगता है बचत ही होगी :) ये अंदाजा है बस
[इस बारे में मेरी उम्र के हिसाब से अनुभव कम ही होगा ये सच है लेकिन फिर भी इस बारे में सोचा जा सकता है ]
और एक बात .....
जवाब देंहटाएंइसके लिए बच्चों को बचपन से इस तरह के उत्सव अर्थात [उत + सव] उत्कृष्ट+ यज्ञ के जीवन में सही मायने बताने होंगे , अगर सही ढंग से बताया जाये तो मानेंगे भी और दूसरों को सीख भी देंगे
इससे उनमें हीन भावना भी नहीं आएगी जिसकी सम्भावना के चलते खरीददारी की जाती है
रश्मि जी! वो डॉक्यूमेंट्री मैंने देखी थी और बहुत दिनों तक विचलित रहा. एक साथ कई मुद्दों को छुआ है आपने.बाल श्रमिक,पारम्परिक दीवाली का लोप और से नो टु क्रैकर्स...
जवाब देंहटाएंपरम्परागत दीवाली को नहीं भूल सकता मैं.लेकिन पटाखे दीवाली की पहचान है. आवश्यकता है बाल श्रमिकों की समस्या का समाधान करने की, न कि पटाखों का विरोध...
थोड़ी सी कृत्रिम रोशनी और चमक की लालच न जाने कितनों की चमक और रोशनी छीन लेती है
जवाब देंहटाएंबहुत दुखदायी स्थिती है मगर ये पेट क्या करे। मनोज जी की बातों से सहमत हूँ। समसामयिक आलेख के लिये धन्यवाद शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंकोई भी त्यौहार अब त्यौहार नहीं रह गया है .. ऐसी नहीं थी हमारी परंपरा .. दुर्गापूजा में कला की इज्जत होती थी .. अब पंडाल के चमक धमक की इज्जत है .. दीपावली में दीए जलते थे .. अब कृत्रिम रोशनी हैं .. परंपरा से त्यौहार मने तब ही उसमें वो खासियत आ पाएगी .. जिस उद्देश्य से हमारे ऋषि महर्षियों ने ये परंपरा शुरू की थी .. पहले हर कर्मकांड से प्रकृति को फायदा पहुंचता था .. अब हर कर्मकांड से उसको नुकसान पहुंचता है .. जब परंपरा का स्यरूप ही बिगाड दिया गया हो तो ऐसी परंपराओं को बंद करने में आपतित ही क्या है .. हमारी परंपरा ने हमेशा परिस्थिति के हिसाब से चलने की सलाह दी है .. हमारा धर्म भी जड हो जाए तो फिर दूसरे धर्म और इस धर्म में क्या अंतर रह जाएगा ??
जवाब देंहटाएंहमारे देश में जितने कानून बनते हैं उतना ही कानूनों से लोगो का विश्वास उठ जाता है, इसीमे शामिल है बाल मजदूरी का कानून।
जवाब देंहटाएंइसका मुख्य कारण है इन कानूनों को बनाने वाले इन स्थितियों का इलाज नहीं ढूंढ रहे होते बल्कि डंडे के ज़ोर पर सब ठीक कर लेने की उम्मीद रखते हैं ?
हमने तो अपनी आंखों से देखा है पटाखे बनाते हुए। पानीपत में एक जगह पर चुपके से पटाखे बनाए जा रहे थे। बच्चे बारुद पर सूतली बांधने में जुटे थे। हम खरीदार बनकर वहां पहुंचे थे। पर्दाफाश किया मगर क्या हुआ। उनके संबंध थे ऊपर तक। इस दीपावली पर भी वह पटाखे बना रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसाथ ही सही कहा आपने-बच्चों को डॉक्टयूमेंट्री दिखानी चाहिए। क्योंकि खाली भाषण से कुछ नहीं होता। बालमन पर चलचित्र का प्रभाव ज्यादा होता है। आपकी पोस्ट तो रुला रही है। अपने ऑफिस में सभी को पढ़वाऊंगा। शायद कुछ और लोग पटाखे नहीं जलाने का संकल्प ले लें।
सुना तो मैंने भी कई बार है कि वहां ज्यादातर केवल बच्चे ही इसे बनाते हैं और तरह तरह की मुश्किलों से परेशान होते हैं।
जवाब देंहटाएंसामयिक और बेहद मार्मिक पोस्ट।
बाल श्रम , बाल शोषण का ही एक रूप है । यह निंदनीय है ।
जवाब देंहटाएंदीवाली बिना पटाखों के मनाएं , ताकि शहर को प्रदूषण से बचाया जा सके ।
अच्छी पोस्ट ।
यदि यही करोणों रूपए उन ग़रीबों के घर पहुँच जाए, जिनके बच्चे दिवाली पे मजदूरी कर के इन पटाखों को बनाते तो हैं, लेकिन घर मैं दिए नहीं जला पाते, मिठाइयां नहीं का पाते, नए कपडे नहीं बनवा पाते .महसूस करें उन घरों की खशी को तो आप आपको लगेगा, सही दिवाली उन मजबूर लोगों के चेहरे की मुस्कराहटों मैं है आप सबको दिवाली की शुभ कामनाएं आज आवश्यकता है यह विचार करने की के हम हैं कौन?
जवाब देंहटाएंदिल दहला देने वाली पोस्ट. कहां हैं बाल-श्रम के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाले ?
जवाब देंहटाएंबहुत गंभीर मुद्दा है...
जवाब देंहटाएंये तो खिलवाड है बचपन के साथ.
रश्मि जी, आपने पोस्ट के ज़रिए ये आवाज़ उठाई है, दुआ है कि कुछ संगठन जाग जाएं. सरकार को दिखाई देने लगे. और ऐसे बच्चों के कल्याण के लिए प्रयास शुरू हो सकें.
jab se saamjh huyee hai maine pataakho ko avoid kiya hai...22 saal ki umar me logo ko jab kehta hoon ye crackers kyon avoid karna chahiye to samjhaana zara mushkil hota hai...khair apna farz hai...aapze kuch zaroori baatein ki hai, ek zimmedar lekhak ka farz :)
जवाब देंहटाएंhttp://pyasasajal.blogspot.com/2010/10/blog-post.html
दीदी लेख तैयार है मेरे ब्लॉग पर
जवाब देंहटाएंक्या मैं आपके ब्लॉग के इस लेख का लिंक उसमें एड कर सकता हूँ
झिलमिलाते चिरागों की चमक न देखा कीजिये
जवाब देंहटाएंढालते हैं, उनमे जो तेल, उन हाथों का सजदा कीजिये
भाव पूर्ण -इस बार हम पटाखों /आतिशबाजी की दीवाली नहीं मनायेगें ! वादा !
वाकई यह पोस्ट बहुत बढ़िया है ! शुभकामनायें आपको
जवाब देंहटाएंआपके विचारों से सहमत हूँ।
जवाब देंहटाएंDiwali should be a festival of lights and not of noise.
बचपन में हमारे घर में इन पटाखों के कारण दो बार आग लगी थी।
इसके बाद हम पटाखों से दूर रहे।
वयस्क बनने की बाद हमें मालूम हुआ यह पटाखे कैसे बनते हैं, कहाँ बनते हैं और किन लोगों से बनवाते हैं और किन हालातों मे बनवाए जाते हैं
हमारा निश्चय तो अब दृड बन गया है।
It's a permanent goodbye to crackers.
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
गौरव,
जवाब देंहटाएंइसमें इजाज़त लेने की क्या जरूरत है....जितने लोगों तक ये बात पहुंचे....उतना ही अच्छा...शुक्रिया
अभी तुम्हारा आलेख पढ़ती हूँ .
दीदी,
जवाब देंहटाएंआपका लेख का लिंक एड कर दिया है , धन्यवाद आपका
और हाँ ... आपको और आपके सभी पाठकों को "सात्विक उत्सव दीपावली" की ढेर सारी सात्विक शुभकामनाएं
बहुत अच्छा लेख है ...खुशी के पीछे छिपे कडवे सत्य को बताता हुआ ...लेकिन समस्या का समाधान पटाखे छुडाने बंद करने से नहीं हो सकता ....क़ानून तो सब बने हुए हैं ..उनका पालन कड़ाई से करना चाहिए ...बच्चों की स्थिति के बारे में पढ़ कर मन क्षुब्ध हो उठा ...
जवाब देंहटाएंमैने पिछले वर्ष भी यह पोस्ट पढ़ी थी ....तो मन बहुत व्यथित हुआ था...और आज एक बार फिर ...शायद इन्हीं सद्प्रयासों की आवश्यकता है समाज को कि वह जागृत हो सके .....।
जवाब देंहटाएंपिछले साल तो यह पोस्ट नहीं पढ़ा था ... पिछले साल मैं ब्लॉग जगत में सक्रिय नहीं था ... पर अब जानकर दुःख हुआ ...
जवाब देंहटाएंपटाखे तो मैं नहीं खरीदता हूँ ... पर अब तो मैंने देखा है कि पटाखे तो दिन व दिन और महंगे होते जा रहे हैं... और लोग और ज्यादा पटाखे खरीदते हैं ... अब तो इतने तरह तरह के पटाखे आ गए हैं कि क्या कहे ... और sales और बढ़ गए हैं ...
व्यस्तता के कारण तीन चार दिनों से नेट को समय नहीं दे पा रही थी ! देर से आने के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ ! आपका आलेख सही अर्थों में आँखें खोलने वाला है ! वैसे शायद ही कोई ऐसा शिक्षित व्यक्ति होगा जो इस कटु यथार्थ से अनभिज्ञ हो लेकिन एक परिपाटी पर जीवन जिए जाने की और तीज त्यौहार मनाने की जैसी परम्परा और आदत लोगों ने डाल ली है उसकी गिरफ्त से बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है सबके लिये ! हम लोगों ने तो वर्षों पहले ही विस्फोटक और खतरनाक पटाखों को ना खरीदने का फैसला ले लिया है जिस पर आज भी कायम हैं लेकिन घर में जो छोटे छोटे बच्चे हैं और जो इस कटु यथार्थ से वाकिफ नहीं हैं उनका मन रख्नने के लिये बहुत थोड़े से अनार, फुलझड़ी और झिलझिल जैसे सुरक्षित पटाखे अवश्य लाने पड़ते हैं ! त्यौहार के दिन उनकी आँखों में आँसू नहीं देख सकती ! इस गुनाह के लिये सिवकासी के बच्चे मुझे माफ कर दें यही प्रार्थना है ! वैसे मँहगाई ने लोगों का बजट इतना गड़बड़ा दिया है कि कहीं न कहीं परोक्ष रूप से उन बच्चों को थोड़ी राहत तो अवश्य मिली होगी ! उनकी दशा में सुधार के लिये स्वयंसेवी संस्थाओं को आगे आना चाहिए और समाज के प्रबुद्ध नागरिकों को इस दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति के निवारण के लिये उचित कदम उठाने चाहिए ! दीपावली की आप सभीको सपरिवार हार्दिक शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंझिलमिलाते चिरागों की चमक न देखा कीजिये
जवाब देंहटाएंढालते हैं, उनमे जो तेल, उन हाथों का सजदा कीजिये
सच में पढ़ कर मन बहुत ख़राब होता है .... अन्दर तक हिला देता है ... सच्ची दीपावली तो इसी में है की हम कुछ ऐसा कर सकें की सभी वंचित बच्चों की हालात में सुधार हो सके .... पर अपने स्तर पर कम से कम पटाखे चलाना तो बंद कर ही सकते हैं .......
आपको और आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं ....
@ 8 साल की उम्र से ये बच्चे फैक्ट्रियों में काम करना शुरू कर देते हैं.दीवाली के समय काम बढ़ जाने पर पास के गाँवों से बच्चों को लाया जाता है.फैक्ट्री के एजेंट सुबह सुबह ही हर घर के दरवाजे को लाठी से ठकठकाते हैं और करीब सुबह ३ बजे ही इन बच्चों को बस में बिठा देते हैं.करीब २,३, घंटे की रोज यात्रा कर ये बच्चे रात के १० बजे घर लौटते हैं.और बस भरी होने की वजह से अक्सर इन्हें खड़े खड़े ही यात्रा करनी पड़ती है.
जवाब देंहटाएं12 साल की चित्रा का चेहरा और पूरा शरीर जल गया है.
@ 14 वर्षीया करप्पुस्वामी के भी हाथ और शरीर जल गए हैं...
ओह! रश्मि जी बड़ा भयावह रूप दिखाया आपने ......
आज जबकि बालश्रम बंद कर दिया तो भी ऐसा होता है ....जानकार आश्चर्य हुआ ....
क्या क्या नहीं होता इस देश में .....
सच्च जानिए आप अपने लेख में जान डाल देती हैं ...
इतनी बारीकी से हर घटना का वर्णन ...तहकीकात ...विवरण ....
आप तो पूरी जर्नलिस्ट हैं ....!!
@हरकीरत जी,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...आपको आलेख पसंद आया..
और आपने ये क्या कह दिया...'जर्नलिस्ट' :)
एक नई कंट्रोवर्सी हो जाएगी...
अभी मेरे परिचय में मुझे 'साहित्यकार' कहने पर ही किसी के पेट का दर्द बंद नहीं हुआ...और मुझे मॉडरेशन लगाना पड़ा...
और आपने जर्नलिस्ट कह दिया..राम राम :)
एक ज़रूरी सवाल को आप केन्द्र में लाई हैं…सच यही है कि इस व्यवस्था ने ऐसे हज़ारों बच्चों का बचपन छीन लिया है…
जवाब देंहटाएंआपने जिस फिल्म का जिक्र किया उसका नाम है Tragedy Buried in Happiness
जवाब देंहटाएंइस बारे में एक वीडियो आफ यहाँ देख सकते हैं child-labour-in-sivakasi
मैं भी साधना जी की टिप्पणी से एकदम सहमत हूँ।
जवाब देंहटाएंकल ही मैने पटाखे खरीदे हैं (आपकी पोस्ट पढ़ने से पहले)माना कि बच्चों के साथ अन्याय हो रहा है लेकिन पटाखे ना चलाना तो इसका उचित हल नहीं होगा।।
मानिए say no to crackers की शुरुआत अगर अपने घर से करता हूँ और दीपावली के दिन दूसरे बच्चों को पटाखे चलाते देख कर अपने बच्चे मायूस बैठे रहें यह भी सहन नहीं हो पायेगा।
बड़ी असमंजस में हूं कि क्या किया जाये?
@सागर नाहर जी
जवाब देंहटाएंमैं मानता हूँ की कुल मिला कर हर बच्चे का हक़ है और हमारा कर्तव्य भी की "अगर आतिशबाजी करना चाहे तो उन्हें रोका नहीं जाना चाहिए"
पर उनका हक़ इस बारे में सच्चाई को जानना भी है [और उन्हें बताना हमारा कर्तव्य भी] आगे उनका फैसला, मैं दावे से कह सकता हूँ की बच्चे का मन इतना निस्वार्थ होता है की वो दीपावली के दिन पटाखे चलाने की जगह पटाखे न चलाने की सीख देते मिल सकते हैं [बशर्ते इसके दुसरे रुख से उन्हें सही तरीके से परिचित करवाया जाये ], बच्चे इंजेक्शन लगाए जाने पर भी रोते हैं तो हम इससे उन्हें उनके इलाज से रोक तो नहीं सकते ना ? :) और हम सब हमेशा स्वयंसेवी संस्थाओं और प्रबुद्ध नागरिकों से ही उम्मीद क्यों रखते हैं वो भी तब जब हम खुद ही नुक्सान को बढ़ावा दे रहे हों , ये न्यूज पढ़ें
"डॉक्टरों के अनुसार बीमारियों की दावत है पटाखे, अनार व फुलझड़ी ज्यादा खतरनाक"
http://www.bhaskar.com/article/RAJ-JAI-c-10-1205644-1511827.html
मेरे पिछले सभी कमेन्ट पढियेगा
पटाखे अगर "मनो रंजन" के लिए चलाये जाते हैं तो भी मैं कहूँगा इसकी जरूरत नहीं है, "उत्सव" "मनो नियंत्रण" के लिए रहे होंगे ना की "मनो रंजन" के लिए |
जवाब देंहटाएंहम सभी को "प्रकाश" का सही मतलब समझना होगा और अगली पीढी को समझाना भी होगा |
रश्मि जी दिल को छूने वाला आलेख है मै तो आज ही फटाखे लेने जा रहा था लेख पड़कर मन ही मन में द्वंद सा हो गया !इस बार से फटाखे जलाने में रोक लगाने का प्रयास करूँगा !
जवाब देंहटाएंदीपावली की आपको बहुत बहुत बधाई हो .......................
बार बार यही सवाल मन में घुमडता है ..इन बच्चों को इनका बचपन कौन लौटायेगा ?
जवाब देंहटाएं:( आपको दीपवाली की हार्दिक शुभकानाएं.....
जवाब देंहटाएंदीवाली की हार्दिक शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबदलते परिवेश मैं,
जवाब देंहटाएंनिरंतर ख़त्म होते नैतिक मूल्यों के बीच,
कोई तो है जो हमें जीवित रखे है,
जूझने के लिए है,
उसी प्रकाश पुंज की जीवन ज्योति,
हमारे ह्रदय मे सदैव दैदीप्यमान होती रहे,
यही शुभकामनाये!!
दीप उत्सव की बधाई...................
nice and wish u a happy diwali and happy new year
जवाब देंहटाएंसही समय पर एक बहुत ही विचारोत्तेजक पोस्ट लिखी तुमने ...थोड़ी देर से पढ़ी , मगर सार्थक है ..
जवाब देंहटाएंपिछले 5 वर्षों से पटाखों का बहिष्कार का रहे हैं ... अनार , फूलझड़ियाँ आती भी हैं तो दूसरों के लिए ...
पर देखकर आश्चर्य हुआ कि पिछले दो दिनों से घर- घर घूम कर मांगने वाले बच्चे मिठाई की बजाय पटाखे मांग रहे थे ...
यहां सारी चर्चा इस बात पर केन्द्रित हो गई कि पटाखे चलाएं कि न चलाएं। पटाखा फैक्ट्री में बच्चों का काम करना सीधे सीधे बालश्रम का मामला है। क्योंकि बच्चों को कम मजदूरी दी जाती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सारे अन्य व्यवसायों में भी बच्चे काम करते हैं। लेकिन पटाखा बनाने में जोखिम ज्यादा है। मुरादाबाद के कांच का सामान बनाने वाले कारखानों में भी यही हाल है। वहां भी बच्चे काम करते हैं। तो शायद बात इस मुद्दे पर होनी चाहिए कि सभी बच्चों को ऐसी सुविधाएं मिल पाएं कि उन्हें पढ़ने की उम्र में काम करने की जरूरत नहीं पड़े। बनाने को तो सरकार ने शिक्षा का अधिकार कानून बना दिया है, जो यही कहता है। पर उसका पालन कैसे हो रहा है और कौन करवाएगा यह अभी देखना बाकी है।
पटाखे चलाने या न चलाने का सवाल प्रदूषण से ज्यादा जुड़ा है। रासायनिक और ध्वनि दोनों ही । हमें उस पर विचार करना चाहिए। साथ ही करोड़ों रूपए गैर उत्पादक काम में फूंक देते हैं,इस पर तो
फूंकने वालों को सोचना ही चाहिए।
@आवश्यकता है बाल श्रमिकों की समस्या का समाधान करने की, न कि पटाखों का विरोध
जवाब देंहटाएं@शायद बात इस मुद्दे पर होनी चाहिए कि सभी बच्चों को ऐसी सुविधाएं मिल पाएं कि उन्हें पढ़ने की उम्र में काम करने की जरूरत नहीं पड़े।
बिहारी जी, राजेश जी
दो बातें हैं १. फास्ट इम्प्लीमेन्टेशन , २ . वास्तविक स्वरूप
मैं मानता हूँ की चर्चा/मुद्दा वही सार्थक है जिसका इम्प्लीमेन्टेशन आसान हो और सबसे बड़ी बात अपने बस में हो {कड़वी सच्चाई ये की बाकी सब खयाली पुलाव होते हैं या जबानी जमा खर्च }
सार बात ये की सुधार "कल" नहीं ... "आज ही" से शुरू तो सुधार प्रभावी है
जहां तक इन सामाजिक समस्याओं के हल की बात है मैं मानता हूँ की भारत की संस्कृति एक समस्या से मुक्त संस्कृति है जहां कोई दुखी नहीं हो सकता [लेकिन शर्त ये है की इसे ठीक से समझा जाये ]
कुल मिला कर अगर कोई "वसुधैव कुटुम्बकम" +"तमसो मा ज्योतिर्गमय" ये समझ ले तो समस्यां रहेंगी कहाँ ??
तर्क ये की भारत में एक जमाने में जबान की कीमत हुआ करती थी कानून तो बाद में आने लगे [जब से अंग्रेज आये] जहां से हमारी अपनी संस्कृति को समझने में भूल होती है वही से समस्याएं शुरू होती हैं
मैं मानता हूँ की मेरी बातें प्रथम दृष्टया किसी को हास्यादपद भी लग सकती हैं पर हम अपनी संस्कृति के नए स्वरूप को देखें तो वो उससे भी हास्यादपद है, मिठाई और पटाखे दोनों ही दीपावली की पहचान नहीं है ( ना थे कभी ), सिर्फ और सिर्फ मानव और पशु स्वास्थ्य पर प्रहार है
कहते हैं ना "एक साधे सब सधे" तो क्यों ना पहले अपनी संस्कृति के सही स्वरूप को समझें
(ये कमेन्ट करने से पहले कुछ डरा हुआ हूँ,मेरी बात को बस एक दृष्टिकोण समझें, विरोध नहीं)
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदीदी ,
जवाब देंहटाएंतकनीकी परेशानी की वजह से दो बार कमेन्ट करना पड़ा
Aapne bahaut sahi chitr pesh kiya ;sabhi ko patakhe na chalane ka sankalp lena chahiye,vaise yah hai bhee kroorta ke prateek,us per bhee bachchon ka shoshan karke taiyar hote hain.Achhi muhim ke liye Dhanyavad.
जवाब देंहटाएंएक शेर स्मृति में जैसे - तैसे आने लगा , गोया सीधा सवाल हो हम सबसे :
जवाब देंहटाएं'' तुम तो मसरूफिये-चरागा थे तुम्हे क्या मालूम
इस दिवाली में दिए बुझ गए कितनों घर के | ''
मन दुखी हो गया . अफ़सोस !
प्रशंसनीय आलेख! डॉक्युमेंट्री तो नहीं देखी पर ग़रीब बच्चों की स्थिति से इतना भी अंजान नहीं। इतना ज़रूर है कि भारत की बहुत सी समस्याओं के लिये लालची व्यवसायियों के साथ-साथ लचर कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचारी अधिकारी भी बराबर के ज़िम्मेदार हैं।
जवाब देंहटाएंझिलमिलाते चिरागों के चमक न देखा कीजिये
जवाब देंहटाएंढालते हैं उनमें जो तेल, उन हाथों का सजदा कीजिये
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