
मैने ये संस्मरण कभी लिखने की नहीं सोची थी फिर एक बार प्रवीण पाण्डेय जी के ब्लॉग पर किसी का कमेन्ट पढ़ा कि "आप कहीं विशेष अतिथि बन कर जाते हैं..वह संस्मरण भी उसी सहजता से लिख देते हैं." उसके बाद ही मैने सोचा, इसमें आत्मविमुग्धता जैसी कोई बात नहीं है...और शेयर की जा सकती है.
हमारी सोसायटी में ' डौन बास्को' स्कूल की एक टीचर रहती हैं. कभी कभी सोसायटी के काम से मेरे घर पर आती रहती थीं. बाहर मिल जातीं, दो चार बातें हो जातीं. बस, इस से ज्यादा परिचय नहीं था. एक दिन घर पर आई और बोलीं, ' डौन बास्को' स्कूल के पचास साल पूरे होने पर कई सारे समारोह आयोजित किए जा रहें हैं. उसमे से " ट्रेडिशनल ड्रेस कम्पीटीशन' में आपको जज के रूप में बुलाना चाहती हूँ " तब ,पता चला वे मेरी पेंटिंग्स से बड़ी प्रभावित थीं. पर मैने पूछ डाला, "मुझे क्यूँ.?.मुझे तो कोई अनुभव नहीं " तो कहने लगीं, " आप पेंटिंग करती हैं,आपको कला की समझ (?) है " . मैने थोड़ी देर सोचा...और फिर यह सोचकर हाँ कर दी कि ऐसे मौके बार-बार नहीं मिलते"
फिर कुछ दिनों बाद वो स्कूल डायरेक्टर की तरफ से 'निमंत्रण पत्र ' लेकर आयीं और कहा कि कुछ पंक्तियों में अपना परिचय लिख कर दे दें . परिचय में तारीफ़ ही होती है. अब खुद से कैसे लिखूं? बड़ी मुसीबत थी. उन्होंने हंस कर कहा ,"आस्क योर हसबैंड टु राइट " अब ये तो और बड़ा रिस्क. कही वे अपने मन की भड़ास निकाल दें तो? उनसे भी कह दिया. वे हंसती हुई चली गयीं. खैर पतिदेव तो अपनी व्यस्तता में इस सुनहरे अवसर से वंचित रह गए.
बेटे को कहा तो उसने उन पंक्तियों में अपना सारा अंग्रेजी ज्ञान उंडेल दिया. जैसे सुननेवाले ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्स हों. उसे भाषण दे ही रही थी कि 'भारी भरकम शब्दों के प्रयोग को अच्छा लेखन नहीं कहते'..आदि आदि. बोल भी रही थी और अंदर से डर भी लग रहा था कि अभी कह देगा, "मैं नहीं लिखता " (पर एक बार भाषण मोड में चले जाओ..तो निकलना कितना मुश्किल है?..सब वाकिफ होंगे :)).
तभी मेरे छोटे भाई का फोन आ गया. और मैने उस पर ये भार डाल दिया कि तुम लिखकर भेज दो. उसने भी आनकानी की पर बड़ी बहन का आदेश मानना पड़ा और सहज शब्दों में उसने तीन sms में लिख कर भेज दिया. जिसे तुरंत कॉपी कर, बेटा उन टीचर को दे आया.
अब दूसरी परेशानी थी पोशाक कौन सी पहनी जाए? ये हम महिलाओं के साथ बड़ी मुसीबत है.(सारी महिलाएं,मेरा दर्द समझती होंगी) शाम पांच बजे का फंक्शन था और एक स्कूल में था, इसलिए साड़ी ही चुनी. जो बहुत सादी भी ना हो और तड़क-भड़क वाली भी ना हो. घर की हल्की रोशनी में तो ठीक ही लग रहा था पर जब बाहर निकली तो चार बजे की धूप में बेतरह कॉन्शस हो उठी. इतनी धूप में कभी इतना तैयार होकर निकली ही नहीं. स्कूल में जाकर उन टीचर को ढूँढने के बाद पहला सवाल यही किया..." मैं कहीं overdressed तो नहीं लग रही?" उन्होंने आश्वस्त किया..."नो.. नो यू आर लुकिंग वेरी प्रिटी"( दरअसल ऐसे सवाल का हमेशा, यही जबाब होता है :) ) फिर जब बाकी टीचर्स को देखा तो पाया वे सब तो ऐसे सजी धजी थीं मानो किसी फैशन शो में आई हों "
हमें एक कॉन्फ्रेंस रूम में बिठाया गया. बाकी दो जज भी आ गई थीं. एक किसी कॉलेज की प्रिंसिपल थीं और दूसरी जे.जे आर्ट कॉलेज की एक लेक्चरर. मैं ही बस एक एमेच्योर पेंटर थी उनके बीच. दो PTA मेम्बर्स को हमारी देखभाल के लिए सुपुर्द कर दिया गया. जो हमारी तरह ही किसी स्टुडेंट की माँ थीं. वे हर तरह से हमारा पूरा ख़याल रख रही थीं. बीच-बीच में टीचर्स आकर हमें नियम समझा जातीं कि इतने कॉलम्स बने हुए हैं..' आत्मविश्वास, परिधान, जेवर , स्टेज प्रेसेंस वगैरह. उन कॉलम्स में ही नंबर देने होंगे. मैं सोच रही थी ,अपने बच्चों के स्कूल में तो कुछ पूछने को हमें टीचर के पीछे - पीछे घूमना पड़ता है. आज पासा पलटा हुआ सा लग रहा है. PTA मेम्बर्स ने चाय-बिस्किट भी मंगवाई...शाम का वक्त था, कंपनी भी अच्छी थी...मूड भी था फिर भी मैने चाय नहीं पी. क्यूँ नहीं पी??....एनी गेस?? चलिए ,अब ब्लॉग पर तो मन की बातें लिखनी होती हैं,इसलिए बता ही देती हूँ.."लिपस्टिक खराब ना हो जाए इस डर से :)..सोचा, अभी तो फंक्शन शुरू भी नहीं हुआ. सारी मेहनत बेकार हो जाएगी :)" बाकी दोनों में से भी एक ने कहा ,'एसिडिटी' है और दूसरी ने कहा.."पी कर आई हूँ " सच तो वहीँ जाने,शायद वजह वही हो जो मेरी थी. बस हम मिस इण्डिया स्टाईल में बिस्किट कुतरते रहें.
फिर हमारी ग्रैंड एंट्री हुई, प्रिंसिपल,डायरेक्टर और मुख्य अतिथि के साथ.(मुख्य अतिथि एक मंत्री थे ) . रेड कारपेट पर आगे दोनों किनारों पर बच्चे लेजियम बजाते हुए चल रहें थे (महाराष्ट्र में किसी का स्वागत
(दो साल तक मेरे बेटे ने भी दूसरों के स्वागत में लेजियम किया है ) |
मैने यूँ ही नज़र घुमाई और देखा, मेरी पास वाली बिल्डिंग में रहने वाली मारिया का मुहँ आश्चर्य से खुला हुआ है. वो समझ ही नहीं पा रही थी, "मैं कैसे वहाँ पहुँच गयी?"
दीप जलाने, मुख्य अतिथि के दो शब्द के बाद प्रोग्राम शुरू हुआ और अगली मुसीबत....जज में सबसे पहले मुझे ही बुलाया गया. परिचय पढ़ कर छोटा सा बुके दिया गया. अब मैं समझ नहीं पा रही थी दर्शकों का अभिवादन कैसे करूँ.? दीपिका पादुकोने की तरह हाथ हिलाकर या झुक कर नमस्ते कर के. फिर नमस्ते ही की . और हमें अपनी कुर्सी तक ले जाया गया. इतनी निराशा हुई. स्टेज के सामने तीन कुर्सी-मेज अलग अलग रखे हुए थे. और हम सोच रहें थे कि टी.वी. प्रोग्राम की तरह तीनो जज एकसाथ बैठेंगे और हंसी-मजाक करते हुए अच्छा समय कट जायेगा. उसपर टीचर्स ने आकर सूचना दी कि खुला निमंत्रण होने से इतने प्रतियोगी आ गए हैं कि तीन राउंड करने पड़ेंगे.
सारे बच्चे देश के अलग-अलग राज्यों के परिधान में इतने सुन्दर लग रहें थे कि किसे ज्यादा नंबर दें,किसे कम. बहुत ही कठिन काम था ये. देख कर गर्व हो रहा था,अपने देश पर, इतनी विविधता है, हमारे यहाँ. कोई कश्मीरी ड्रेस में था तो कोई राजस्थानी. पंजाबी, मराठी, बंगाली, हर राज्य के पारंपरिक परिधानो में सजे हुए थे बच्चे. आजकल किराए पर पोशाक और जेवरात दोनों मिलते हैं और इतने परफेक्ट होते हैं वे, कि एक नम्बर भी काटना मुश्किल. मैने आत्मविश्वास और स्टेज प्रेजेंस पर ही ध्यान दिया.करीब डेढ़ घंटे तक तो हमने सर नहीं उठाया. पर हमसे ज्यादा मुसीबत उन टीचर्स की थी..वो एक शीट पूरी होते ही ले जातीं और तीनो जजों द्वारा दिए नंबर, जोड़ने में लग जातीं. पहला राउंड ख़त्म हुआ तो कुछ नृत्य-संगीत का कार्यक्रम शुरू हुआ. मुझे हमेशा से ही ऐसे प्रोग्राम पसंद हैं. पर उस दिन तो वे मजा से ज्यादा सजा लग रहें थे. मुझे लगा था आठ बजे तक प्रोग्राम ख़त्म हो जाएगा . घर पर खाने का भी कुछ इंतज़ाम नहीं किया था और पता था 'थ्री मेन इन माइ हाउस...खुद से कोई उपक्रम नहीं करेंगे" इतने शोर में फोन करना भी मुश्किल था,.शुक्र है बेटे को कुछ ही दिन पहले मोबाइल दिलवाई थी. उसे मेसेज किया कि बाहर से खाना ऑर्डर कर लो और जबाब आया, "डोंट वरी...वी विल मैनेज..यू एन्जॉय" .थोड़ी देर स्क्रीन घूरती रही, "वी विल मैनेज' यानि कि अब बच्चे बड़े हो गए हैं...और अब मुझे 'यू एन्जॉय' भी कह सकते हैं.
दूसरा राउंड ख़त्म होने के बाद कुछ और गीत संगीत हुए. मैं बुरी तरह बोर हो रही थी. मेरी सहेली की कजिन उसी स्कूल में टीचर थीं. मैं उनसे मिल चुकी थी. सोचा उन्हें बुला कर थोड़ा गप्पे मारती हूँ. उन्हें sms किया .वे तुरंत मिलने आ गयीं. मैं उन्हें देखते ही ख़ुशी से खड़ी हो गयी. तो उन्होंने धीरे से फुसफुसा कर, बिलकुल टीचर वाले अंदाज़ में कहा.."प्लीज़ सिट ..यू आर अवर गेस्ट हियर" और जब बैठने लगी तो पता नहीं कैसे कुर्सी उलट गयी और मैं गिर गयी. जल्दी से कुरसी सीधा कर वापस बैठ गयी. सोचा सबकी नज़रें तो स्टेज पर जमी हैं, किसी ने नहीं देखा होगा. वे भी दो मिनट में चली गयीं. कहने लगीं, "रुकुंगी, तो सब समझेंगे , मैं किसी की सिफारिश करने आई हूँ."
कुछ और गीत-संगीत और फिर फाइनल राउंड. पीठ अकड़ गयी थी, बिलकुल. सोचा चलो अब निजात मिली. लेकिन नहीं, उनलोगों ने कहा, प्राइज़ भी जज के हाथों ही दिलवाएंगे. प्रोग्राम ख़त्म होते और प्राइज़ देते ,रात के ग्यारह बज गए.
दूसरे दिन से ही आस-पास के कई लोग मिलने पर कहते , "आपको उस प्रोग्राम में देखा था " मैं कहती, "हाँ एंट्री के समय देखा होगा " तो वे कहते ," नहीं बड़ी सी स्क्रीन लगी थी ,ना तो बार-बार जज लोगों पर भी फोकस कर रहें थे." अब ये बात तो मुझे पता ही नहीं थी. मैं सोचती रह जाती, " मैं बोरियत में ,पता नहीं ,कैसे कैसे मुहँ बना रही थी...सब देखा होगा लोगों ने...और अगर बदकिस्मती से उस समय कैमरा मेरी तरफ होगा तो फिर शायद कुर्सी से गिरते भी जरूर देख लिया होगा, " आज भी सोच रही हूँ.:(