
पिछले पोस्ट की चर्चाएं कुछ संजीदा और बोझिल सी हो चली थी.और हवा में से नवरात्र की खुशबू भी बसी हुई है.लिहाज़ा सोचा नवरात्र की कुछ रोचक यादों का जिक्र बेहतर रहेगा.
वह मुंबई में मेरा पहला नवरात्र था. चारों तरफ गरबा और डांडिया की धूम थी.मैंने भी इसका लुत्फ़ उठाने की सोची और 'खार जिमखाना' द्वारा आयोजित समारोह में पति और बच्चों के साथ पहुँच गयी.चारो तरफ चटख रंगों की बहार थी.शोख रंगों वाले पारंपरिक परिधानों में सजे लोग बहुत ही ख़ूबसूरत दिख रहें थे.दिन में जो लडकियां जींस में घूमती थीं,यहाँ घेरदार लहंगे में ,दोनों हाथों में ऊपर तक मोटे मोटे कड़े पहने और सर से पाँव तक चांदी के जेवरों से लदी, गुजरात की किसी गाँव की गोरीयाँ लग रही थीं. चमकदार पोशाक और सितारों जड़ा साफा लगाए लड़के भी गुजरात के गबरू जवान लग रहें थे..स्टेज के पास कुछ जगह घेरकर प्रतियोगिता में भाग लेने वालों के लिए जगह सुरक्षित कर दी गयी थी.इसमें अलग अलग गोल घेरा बनाकर लड़के लड़कियां बिजली की सी तेजी से गरबा करने में मशगूल थे.इतनी तेजी से नृत्य करते हुए भी उनके लय और ताल में गज़ब का सामंजस्य था. पता चला ये लोग नवरात्रि के ३ महीने पहले से ही ३-४ घंटे तक रोज अभ्यास करते हैं. और क्यूँ न करें,ईनाम भी तो इतने आकर्षक होते हैं.प्रथम पुरस्कार यू.के.की १० दिनों की ट्रिप. द्वीतीय पुरस्कार सिंगापूर के १० दिनों की ट्रिप,बाकी पुरस्कारों में सोना, टी.वी.,वाशिंग मशीन, मोबाइल फोन्स की भरमार रहती है.
मेरा कोई ग्रुप तो था नहीं और बच्चे भी छोटे थे लिहाज़ा मैं घूम घूम कर बस जायजा ले रही थी.सुरक्षित घेरे के बाहर अपने छोटे छोटे गोल बनाकर लोग परिवार के साथ, दोस्तों के साथ कभी गरबा तो कभी डांडिया में मशगूल थे.यहीं पर मुझे डांडिया और गरबा में अंतर पता चला. गरबा सिर्फ हाथ और पैर की लय और ताल पर करते हैं और डांडिया छोटे छोटे डांडिया स्टिक को आपस में टकराते हुए की जाती है.स्टेज पर से मधुर स्वर में गायक,गायिकाएं एक के बाद एक मधुर गीतों की झडी लगा देते हैं.यह भी उनकी एक परीक्षा ही होती है.जैसे ही उन्हें लगता है लोग थकने लगे हैं,वे कोई धीमा गीत शुरू कर देते हैं.सैकडों लोगों का एक साथ धीमे धीमे इन गीतों पर लहराना बताने वाली नहीं बस देखने वाली चीज़ है.
एक जगह मैंने देखा,एक अधेड़ पुरुष अपनी दो किशोर बेटियों और पत्नी के साथ एक छोटा सा अपना घेरा बना डांडिया खेल रहें थे. बहुत ही अच्छा लगा ये देखकर .हम उत्तरभारतीय तो अदब और लिहाज़ का लबादा ओढे ज़िन्दगी के कई ख़ूबसूरत क्षण यूँ ही गँवा देते हैं..हम इसी में बड़प्पन महसूस करते हैं कि हम तो पिताजी के सामने बैठते तक नहीं,उनसे आँख मिलाकर बात तक नहीं करते.सम्मान जरूरी है पर कभी कभी साथ मिलकर खुशियों को एन्जॉय भी करना चाहिए.खैर अगली पीढी से ये तस्वीर कुछ बदलती हुई नज़र आ रही है.
मैं सबका नृत्य देखने में खो सी गयी थी कि अचानक संगीत बंद हो गया.स्टेज से घोषणा हुई 'महिमा चौधरी' तशरीफ़ लाईं हैं. उन दिनों वे बड़ी स्टार थीं. उन्होंने सबको नवरात्रि की शुभकामनाएं दीं और कहा कि 'मैं दिल्ली से हूँ इसलिए मुझे डांडिया नहीं आती,आपलोगों में से कोई दो लोग स्टेज पर आएं और मुझे डांडिया सिखाएं'...मैं यह देखकर हैरान रह गयी पूरे १० मिनट तक कोई अपनी जगह से हिला तक नहीं बल्कि म्यूजिक बंद होने पर सब अपनी नापसंदगी ज़ाहिर कर भुनभुना रहें थे.बाद में शायद आयोजकों को ही शर्म आयी और वे लोग दो छोटी लड़कियों को पकड़कर स्टेज पर ले गए. मैं सोचने लगी,अगर यही बिहार या यू.पी.का कोई शहर होता तो इतने लोग दौड़ पड़ते, 'महिमा चौधरी' को डांडिया सीखाने कि स्टेज ही टूट गयी होती.
धीरे धीरे मुंबई में मेरी पहचान बढ़ी और हमारा भी एक ग्रुप बन गया जिसमे २ बंगाली परिवार और एक-एक राजस्थान ,पंजाब ,महाराष्ट्र ,यू.पी.और बिहार के हैं.आज भी हम हमेशा होली और नव वर्ष वगैरह साथ में मनाते हैं. हमलोगों ने मिलकर फाल्गुनी पाठक के शो में जाने की सोची,फाल्गुनी पाठक डांडिया क्वीन कही जाती हैं.यहाँ भी वही माहौल था,संगीत की लय पर थिरकते सजे धजे लोग. मैंने कॉलेज में एक बार डांडिया नृत्य में भाग लिया था,लिहाजा मुझे कुछ स्टेप्स आते थे और मुंबई के होने के कारण महाराष्ट्रियन कपल्स भी थोडा बहुत जानते थे. बाकी लोगों को भी हमने सादे से कुछ स्टेप्स सिखाये और अपना एक गोल घेरा बनाकर डांडिया खेलना शुरू किया. इसमें पुरुष और महिलायें विपरीत दिशा में घुमते हुए डांडिया टकराते हुए आगे बढ़ते रहते हैं. (अब तो टी.वी. सीरियल्स में देख-देख कर पूरा भारत ही अवगत है इस से ) थोडी देर में दो लड़कियों ने मुझसे आकर पूछा,"क्या वे हमारे ग्रुप में शामिल हो सकती हैं?".मेरे 'हाँ' कहने पर वे लोग भी शामिल हो गयीं.जब घूमते हुए वे मि० सिंह के सामने पहुंची तो उन्होंने घबराकर अपना डांडिया नीचे कर लिया और विस्फारित नेत्रों से चारो तरफ घूरने लगे. अपने सामने एक अजनबी चेहरा देखकर उन्हें लगा वे गलती से किसी और ग्रुप में आ गए हैं. बाद में देर तक इस बात पर उनकी खिंचाई होती रही.
इसके बाद भी कई बार डांडिया समारोह में जाना हुआ.पर दो साल पूर्व की डांडिया तो शायद आजीवन नहीं भूलेगी.मेरे पास की बिल्डिंग में ३ दिनों के लिए डांडिया आयोजित की गयी.संयोग से उस बिल्डिंग में मेरी कोई ख़ास सहेली नहीं है.बस आते जाते ,हेल्लो हाय हो जाती है.अलबत्ता बच्चे जरूर आपस में मिलकर खेलते हैं.उनलोगों ने मुझे भी आमंत्रित किया.दो दिन तो मैं नहीं गयी पर अंतिम दिन उनलोगों ने बहुत आग्रह किया तो जाना पड़ा.फिर भी मैं काफी असहज महसूस कर रही थी,लिहाज़ा एक सिंपल सा सूट पहना और चली गयी.

मैं कुर्सी पर बैठकर इनलोगों के गरबा का आनंद ले रही थी पर कुछ ही देर में इनलोगों ने मुझे भी खींच कर शामिल कर लिया. और थोडी ही देर बाद,बारिश शुरू हो गयी. कुछ लोगों ने अपने कीमती कपड़े बचाने के ध्येय से और कुछ लोग भीगने से डरते थे...लिहाजा कई लोग शेड में चले गए.पर हम जैसे कुछ बारिश पसंद करने वाले लोग बच्चों के साथ,बारिश में भीगते हुए गोल गोल घूमते दुगुने उत्साह से गरबा करते रहें. थोडी देर बाद आंधी भी शुरू हो गयी और जोरों की बारिश होने लगी...बच्चों को जैसे और भी जोश आ गया,उनलोगों ने पैरों की गति और तेज कर दी. आस पास के पेडों से सूखी डालियाँ गिरने लगीं. अब गरबा की जगह डांडिया शुरू हो गया. डांडिया स्टिक कम पड़ गए तो लड़कियों और बच्चों ने सूखी डालियों को ही तोड़कर डांडिया स्टिक बना लिया और नृत्य जारी रखा. इस आंधी पानी में पुलिस भी अपनी गश्त लगाना भूल गयी और समय सीमा पार कर कब घडी के कांटे साढ़े बारह पर पहुँच गए पता ही नहीं चला.किसी ने पुलिस को फ़ोन करने की ज़हमत भी नहीं उठायी. वरना एक दूसरी बिल्डिंग के स्पीकर्स कई बार पुलिस उठा कर ले जा चुकी थी. किसी को सचमुच परेशानी होती थी या लोग सिर्फ मजा लेने के लिए १० बजे की समय सीमा पार हुई नहीं कि पुलिस को फ़ोन कर देते थे.और पुलिस भी मुस्तैदी से रंग में भंग डालने चली आती थी. जबकि मुसीबत के वक़्त ये सौ बहाने बनाएं और समय से दो घंटे बाद पहुंचे. वैसे टीनेज़ बच्चों के पैरेंट्स ने इस समय-सीमा से राहत की सांस ली है. बच्चे समय से घर आ जाते हैं.
उस रात गरबा का भरपूर लुत्फ़ उठाया हमने.... मन सिर्फ आशंकित था कि इतनी देर भीगने के बाद कहीं कोई बीमार न पड़े. पर कुदरत की मेहरबानी,बुखार तो क्या किसी को जुकाम तक नहीं हुआ