मेरी एक पोस्ट "प्लीज़ रिंग द बेल" पर काफी अच्छा विमर्श हुआ और करीब करीब हर पहलू से समस्या को देखने की कोशिश की सभी ने. जिनलोगों ने विमर्श में भाग नहीं भी लिया उनलोगों ने भी दुसरो को यह पोस्ट पढने को रेकमेंड किया. लिखना सार्थक हुआ. पर अभी हाल में ही पड़ोस में एक ऐसी घटना घटी कि फिर से सम्बंधित विषय पर लिखना लाज़मी लगा. हालांकि पोस्ट करने में एक हिचकिचाहट थी कि कहीं विषय का दुहराव ना लगे पर कुछ ब्लोगर्स फ्रेंड्स ने जोर डाला कि ऐसे प्रसंग सामने आने ही चाहियें.
इसी 15 अक्टूबर की रात थी, अष्टमी का दिन. मेरा नवरात्र का फलाहार चल रहा था और उसपर अपनी उम्र के बढ़ते अंक भूल ३ घंटे तक गरबा करके आई थी. थक कर चूर , पति और बेटे को हिदायत दे कि बिना वजह मेरे कमरे की बत्ती मत जलाना. मैं कमरा बंद कर गहरी नींद में सो गयी.
बेटे की देर रात तक पढने और पति के टी.वी. देखने की आदत से मुझे हमेशा शिकायत रही है.पर उस रात यही आदत किसी का सहारा बन गयी. अंकुर अपनी पढाई में डूबा था कि हमारे पीछे तरफ की बिल्डिंग के एक फ़्लैट से शोर शराबे की आवाजें आने लगीं. वही, कोई पुरुष अपनी पत्नी पर अपने पुरुषार्थ का जौहर दिखा रहा था. और आवाजें कुछ ऐसी भयावनी थीं की लग रहा था उस व्यक्ति के सर पर खून सवार है. अंकुर ने जल्दी से पुलिस का न. 100 और टी.वी. के विज्ञापन में बच्चों और स्त्रियों के रक्षार्थ जारी किए गए न.103 को ट्राई किया. पर पूरे भारत की पुलिस के नंबर का एक ही हाल है. समय पर कभी नहीं लगता. चीखने,रोने, गिरने की आवाजें बढती जा रही थीं. उसने अपने पिता को आकर बताया . उन्होंने भी टी.वी. बंद कर खिड़की से देखा और फिर पुलिस का नंबर मिलाते, दोनों नीचे उतर गए.
वाचमैन से पिछला गेट खुलवा कर जब तक ये लोग उसकी बिल्डिंग के नीचे पहुंचे , वह महिला अपनी खिड़की के ग्रिल पकड़कर चिल्ला रही थी.."वाचमैन..वाचमैन बचाओ....ये आदमी मुझे मार देगा...मेरे दो छोटे बच्चे हैं " अंकुर ने उसकी खिड़की के नीचे जाकर चिल्लाकर कहा, "आंटी, डोंट वरी..एम कॉलिंग द पुलिस" तबतक कई जगह फोन कर उस इलाके के पुलिस इन्स्पेक्टर का नंबर नवनीत को मिल चुका था. उन्होंने वहीँ से पुलिस को उस बिल्डिंग का एड्रेस दिया . रात के सन्नाटे में उस आदमी ने भी यह सब सुन लिया. उसने नीचे आकर गुस्से में वही सदियों पुराना जुमला दुहराया ," आपलोगों ने पुलिस को क्यूँ खबर की ....यह मेरे घर का मामला है...वो मेरी वाइफ है....वैसे ही नाटक करती है...मैने कुछ नहीं किया उसे" इस पर अंकुर ने कहा.."हमलोग तब से सुन रहें हैं...आप हमारे सामने किसी की जान ले लोगे...और हम देखते रहेंगे " वह आदमी पलट कर कुछ कहता, इसके पहले ही नवनीत ने भी काफी भला-बुरा कहा उसे. इतने में मेरी बिल्डिंग से एक और सज्जन वहाँ आकर खड़े हो गए. अपने सामने तीन लोगों को खड़ा देख और पुलिस के आने की आशंका से वह आदमी वहाँ से दौड़ता हुआ दूसरी तरफ भाग गया. नवनीत और मिस्टर राव खड़े हो पुलिस का इंतज़ार करते रहें .( अक्सर, ऐसे मौकों पर पुलिस केस दर्ज नहीं करती, चेतावनी देकर चली जाती है.)
पर अंकुर इन सबसे इतना विचलित हो गया था कि सीधा मेरे कमरे में आकर बत्ती जलाई, उसने और फूट फूट कर रो पड़ा. फिर सारी कहानी बतायी . उस महिला के रोने और बार-बार टकरा कर गिरने की बात बताते हुए उसके रोंगटे खड़े हो गए थे. करीब बीस मिनट लग गए, मुझे उसे समझा कर चुप कराने में. मैं यह सोच रही थी, मेरा उन्नीस वर्षीय बेटा जिसने कभी उस महिला को देखा नहीं, जाना नहीं....सिर्फ आवाजें सुनकर इस कदर विचलित हो सकता है तो उन दो मासूम बच्चों पर क्या गुजरती होगी.अपनी आत्मा पर कैसा बोझ और दिमाग पर कैसा असर लेकर बड़े होंगे वे....जो अपनी आँखों के सामने अपनी माँ को इस पशुता का शिकार होते देखते हैं.
यह पोस्ट मैने अपने बेटे की तारीफ़ के लिए नहीं लिखी. उसे तो कोई फर्क पड़ता नहीं. (क्यूंकि उसके पास समय ही नहीं है मेरी पोस्ट्स पढने का.."प्लीज़ रिंग द बेल' भी नहीं पढ़ी उसने ) और ना ही यह सब लिखने से मेरा कोई भाव बढ़ जायेगा या कम हो जायेगा. सिर्फ इसलिए इस घटना का विवरण लिखा कि जरा सी कोशिश से फर्क पड़ता है. बहुत दुख भी होता है कि लोग चाहे इस महानगर में रहने वाले हों या सुदूर किसी गाँव में. सबकी मानसिकता एक जैसी है.
जब यह घटना मैने अपनी सहेली को बतायी तो उसने कहा ,"उस बिल्डिंग से एक महिला मेरी योगा क्लास में आती है...मैं उस से पूछूंगी " और दुख होगा सुनकर उक्त महिला का कहना था ,"हाँ ,उस फ़्लैट में तो अक्सर यह सब होता है...हमलोग कैसे इंटरफेयर करें...वे अगर कह दें,हमारे घर की बात है" उस से भी बढ़कर एक दूसरी महिला ने अपनी बिल्डिंग की बात बतायी कि एक फ़्लैट में अक्सर रात में ऐसी ही आवाजें आती थीं. कभी-कभी तो ऐसा लगता था वह अपनी पत्नी को बिना ग्रिल की खिड़की से नीचे फेंक देगा" (और आस-पास के सारे लोग कानों में शायद हेड फोन लगाए प्यार भरे नगमे सुनते रहें होंगे.) सहेली ने उन्हें भरसक समझाने का प्रयत्न किया. पर जबतक अपनी अंतरात्मा नहीं जागेगी, वह आवाज़ नहीं देगी...सब ऐसे ही खामोश बैठे रहेंगे. अंकुर ने बताया था कि उक्त फ़्लैट की निचली मंजिल पर एक महिला ने अपने कमरे की लाईट नहीं जलाई थी (कहीं कोई पहचान ना ले,) और जब वह उस पिडीत महिला को आश्वस्त कर रहा था तो कह रही थी, "डोंट वेस्ट टाइम, बेटा...प्लीज़ कॉल द पुलिस" अंकुर गुस्से में भरकर कह रहा था,..मन हुआ कहूँ.."आप एक फोन भी नहीं कर सकतीं." कम से कम आस-पास के पच्चीस-तीस फ्लैट्स तक आवाज़ जा रही होगी लेकिन सब खामोश बैठे थे.कुछ लोगों ने तो सुना हगा..पर सबकी संवेदना ही मर गयी हो जैसे.
जब से संयुक्त परिवार टूटने शुरू हो गए हैं. और यह फ़्लैट कल्चर बढ़ रहा है. मुझे लगता है, घरेलू हिंसा में इज़ाफ़ा ही हो रहा है. क्यूंकि अक्सर पुरुष देर रात घर आते हैं और सुबह चले जाते हैं. उनका आस-पास से कोई परिचय नहीं होता, इसलिए कोई झिझक, शर्म, डर भी नहीं होता. और अब फ़्लैट सिस्टम छोटे शहरों में भी बढ़ता जा रहा है. वहाँ अभी भी सामाजिकता है पर जिस तरह से महानगरों के लाईफ स्टाईल की नक़ल हो रही है. कितनी देर लगेगी इन विकृतियों के भी पैर पसारने में??.
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१९ वर्षीय अंकुर जैसा कोमल मन हो तो कई जगह इन दहशतों पर काबू पाया जा सकता है......
जवाब देंहटाएंउसका एक अनजान महिला को आंटी कहके भरोसा देना बहुत बड़ी बात है......उसे मेरा प्यार , आशीष
रश्मी जी! बहुत सम्वेदनशील मुद्दा है. एक साथ दो बातें आपने उठाई हैं. रिंग द बेल वाली बात पर कुछ नहीं कहता , लेकिन फ्लैट कल्चर के बारे में जो आपने कहा वह सही है. लेकिन हमारे अपार्टमेण्ट में बात दूसरी है. 120 परिवार हैं, भारत के अलग अलग प्रदेश से. किसी के घर कोई भी सम्स्या हो कभी भी, सब हाज़िर हो जाते हैं. एक रोज़ हमारे एक मित्र ऑफिस से नहीं लौटे, तो सारी रात हमने उनको सड़कों पर ढूँढा.. वैसे अमूमन वही होता है जो आपने कहा. सम्वेदन्हीनता की पराकाष्ठा है महानगरों में.. मुनव्वर भाई का शेरः
जवाब देंहटाएंतुम्हारे शहर में मय्यत को भी कांधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं.
पशुता हर जगह पाई जाती है महानगर हो या गाँव.
जवाब देंहटाएंसंवेदनहीन समय में युवाओं में संवेदना मौजूद है. सुकून आया पढकर .अंकुर को ढेरों शाबाशी..
जागरूक करती पोस्ट.
काश हर कोई ऐसे ही अपने कान, आँख और दिल खोल कर रखे तो ऐसी हिंसा की घटनाओं में कमी आये.. घटना के बारे में जानकर दुःख हुआ दी और आप लोगों की जागरूकता देख बहुत खुशी हुई.. बाद में पुलिस का क्या रवैया रहा ये भी बताना था..
जवाब देंहटाएं@दीपक
जवाब देंहटाएंवो मैने एक लाइन में इसीलिए जिक्र कर दिया है कि पुलिस चेतावनी दे कर चली जाती है.
हाँ....ऐसे में हर दस-पन्दरह दिन बाद एक विजिट पुलिस को जरूर करना चाहिए कि सबकुछ ठीक चल रहा है या नहीं.
इस तरह का व्यवहार तरुणों को अन्दर तक हिला देता है और यह भी हो सकता है कि विवाह जैसी संस्था के प्रति विक्षोभ उत्पन्न हो जाये।
जवाब देंहटाएंहवन करते हाथ जलने का भय हो तो भी कभी कभी हवन आवश्यक हो जाता है।
जवाब देंहटाएंविशुद्ध ब्लॉगरी वाली पोस्ट जो परिवेश से जुड़ाव का अनुभव करा जाती है।
आभार।
शहरों में सबका -- अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग ,वाली बात रहती है । कोई किसी के मामले में हस्तक्षेप करना नहीं चाहता । आपके बेटे ने एक अच्छा उदाहरण पेश किया है । हमारी तरफ से शाबासी का हकदार है अंकुर । सबको इतना जागरुक होना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंरश्मि जी,
जवाब देंहटाएंपोस्ट पूरी संजीदगी से और बहुत सुलझे हुए ढंग से लिखी गई है। लेकिन, टिप्पणी में आई इन पंक्तियों ने तो मानों पोस्ट को एक अलग ही तरह से परिपूर्णता प्रदान की है।
तुम्हारे शहर में मय्यत को भी कांधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं।
बहुत सटीक।
काश हर माँ अपने लड़कों को ऐसा ही संवेदनशील बनाती कि वह दूसरों के दुःख-दर्द को देखकर रो पड़े.
जवाब देंहटाएंअंकुर को मेरी ओर से भी ढेर सा आशीर्वाद दीजियेगा.
दी, आपकी बात बिल्कुल सही है फ़्लैट कल्चर और एकाकी परिवार के कारण घरेलू हिंसा के मामले बढ़ रहे हैं, पर ये हमारे समाज की ज़रूरत भी तो हैं. इन्हें बढ़ने से नहीं रोका जा सकता, पर घरेलू हिंसा तो रोकी जा सकती है, सिर्फ थोड़ी सी जागरूकता से.
@मुक्ति
जवाब देंहटाएंइस उम्र में दुनियादारी से दूर ...हर बालक/तरुण इतना ही संवेदनशील होता है....पर बेरहम वक़्त उनके ह्रदय को पाषाण में परिणत कर देता है.
बहुत ही ह्रदय विदारक घटना का उल्लेख किया है आपने पोस्ट में ! आपके परिवार के सदस्यों ने जिस मानवीयता और संवेदनशीलता का परिचय दिया वह निश्चित रूप से बेहद प्रशंसनीय और अनुकरणीय है ! उन्हें मेरी ओर से विशेष अभिनन्दन और धन्यवाद देना मत भूलिएगा ! मैं आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ ! संयुक्त परवार के विघटन के परिणामस्वरूप लोगों की आंखों की शर्म बिलकुल खत्म हो गयी है ! महानगरों का हाल और भी बुरा है वहाँ तो एक ही बिल्डिंग में रहने वाले लोग भी अपने पड़ोसी को नहीं पहचानते ! शिक्षा के यथेष्ट प्रचार प्रसार के बाद भी मनुष्य अपने मन के पशु को काबू में रखना नहीं सीख पाया है और ऐसे परिवारों में सबसे बड़ी कीमत बच्चों को चुकानी पडती है जो अनचाहे ही अपने माता पिता के इस अमानवीय आचरण के मूक और अनिवार्य दर्शक बनने के लिये विवश होते हैं ! अपने आस पास ऐसी घटनाएँ ना होने पायें इसके लिये सबको एक जुट होकर प्रयत्नशील होने की बहुत ज़रूरत है ! जागरूक करती इतनी सार्थक पोस्ट के लिये नि:संदेह रूप से आप बधाई की पात्र है ! धन्यवाद एवं आभार !
जवाब देंहटाएंआप जो भी कहें, लेकिन अंकुर ने जो किया वो जान मुझे बेहद खुशी हो रही है,
जवाब देंहटाएंबाकी और कुछ भी नहीं कहूँगा..
देखिये सयुंक्त परिवारों का टूटना महानगरीयता का सत्य है पर असल मुद्दा वही है कि सयुंक्त परिवार के बुज़ुर्गों की भूमिका में पडोसी कैसे स्थापित हों ? निचले माले की 'आंटी' निकट की पडोसी थीं और चि.अंकुर दूर के ...किंतु घटना के प्रति दोनों का रिएक्शन बिल्कुल भिन्न था ! हो सकता है कि 'आंटी जी' कौन पचडे में पडे वाला 'इस्केपिस्ट व्यू' इसलिये ले रही हों कि स्वयं का पारिवारिक प्रशिक्षण ही ऐसा रहा हो ,या फिर महानगरीयता का 'निकट अपरिचितता वाद' उनके सामाजिक जीवन का हिस्सा हो या और भी कोई कारण...लेकिन चि.अंकुर का पारिवारिक प्रशिक्षण और परिजनों की सामाजिकता उसकी प्रतिक्रिया में दिखता है !
जवाब देंहटाएंकारण परिणाम विवेचना की लम्बी लम्बी बातों में उलझनें के बजाये केवल इतना ही कहूंगा कि एक अच्छे नागरिक पुत्र की मां और अच्छे नागरिक पति की पत्नि को साधुवाद !
सभी परिवार / सभी पडोसी / सभी नागरिक ऐसे ही होने चाहिये ! हममे से किसी को भी आस पास की घटनाओं के प्रति विदेहराज नहीं होना चाहिये क्योंकि सामाजिक उत्तरदायित्वों से विमुखता भी एक तरह का अपराध है !
अक्सर बच्चे वही करते हैं जो हमसे सीखते हैं ...बेटे ने अपनी जिम्मेदारी निभायी ...अच्छा किया ,...एक अच्छे जागरूक इंसान को यही करना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंजरुर यहाँ पति की जोरजबर्दस्ती रही होगी क्यूंकि तुमने आँखों से देखा है ...
मगर मेरा अनुभव कुछ और ही तरह का है ...कभी लिखूंगी इस पर ...
वही उस महिला का कहना कि बीच में कैसे पड़ें ...उनका ऐसा कुछ अनुभव रहा होगा ...मैं समझ सकती हूँ कि क्यूंकि मेरी माँ भी किसी के भी झगडे को छुड़ाने को दौड़ जाती हैं ...मगर उन झगड़ने वालों की जब सुलह हो जाती है तो वे लोंग माँ से ही किनारा कर लेते हैं ...ये भी एक कटु सत्य है ....
फिर भी
अन्याय का विरोध तो करना ही चाहिए ...करने वाला चाहे पुरुष हो या स्त्री ...
अच्छी पोस्ट ..!
महानगरों की इस त्रासदी को क्या कहें? संयुक्त परिवार टूटने से ऐसे अत्याचार बढ़े हैं क्योंकि पुरुष निरंकुश हुआ है। उसपर किसी का भी शासन नहीं है। बहुत दुखद प्रसंग, लेकिन सोसायटी वालों को हस्तक्षेप जरूर करना चाहिए।
जवाब देंहटाएंइसी तरह के प्रयासों से ही बदलाव संभव हो सकेगा ………………सराहनीय प्रयास्।
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (22/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
वाकई रश्मि जी फर्क पड़ता है … फिर भी पता नहीं क्यूं एक अजीब सी किंकर्तव्यविमूढ़ता महसूस होती है…
जवाब देंहटाएंआप सबों ने बेटे को आशीर्वाद और शुभकामनाएं दीं ...उसके एक अच्छा इंसान बनने में ये सब
जवाब देंहटाएंबहुत काम आएँगी...सबका बहुत आभार.
वैसे वो इतना शरीफ भी नही है..सारे teenage tantrums हैं ....जो मुझ अकेले को झेलने पड़ते हैं :)
@ वाणी,
जवाब देंहटाएंयह सही कहा...अक्सर ऐसा होता है. बीच में पडनेवाले को ही बाद में दरकिनार कर दिया जाता है. पर बात हिंसा से बचाव की है. अगर यह कीमत चुकानी पड़ती है तब भी मुझे लगता है , इस से मुहँ नहीं फेरना चाहिए. आपने तो अपना कर्तव्य किया, अपनी आत्मा साफ़ है. और अपनी आत्मा के प्रति सच्चा होना ज्यादा जरूरी है बजाए किसी दूसरे की झूठी दोस्ती के.
जैसा कि गिरिजेश जी ने कहा ,हवन करते हाथ जलने का भय हो तो भी कभी कभी हवन आवश्यक हो जाता है।"
मेरा आग्रह है, तुम अपने अनुभवों वाली वह पोस्ट लिखो..हम सब मिलकर सोचेंगे कि ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए.
कई लोग कहते हैं, (पिछली पोस्ट की टिप्पणियों में भी कहा है, लोगों ने ) कि कुछ ही दिनों बाद वही स्त्री-पुरुष साथ साथ हँसते मुस्कुराते नज़र आते हैं. मेरा कहना है, ऐसे में क्या करे स्त्री??...उसे उसी घर में रहना होता है कितने दिन टेंशन में गुज़ारे?? और हो सकता है, पुरुष माफ़ी मांग लेते हों..आगे से ऐसा ना करने का वायदा करते हों. अलग बात है कि फिर से वादा तोड़ बैठते हों. पर कुछ दिन शान्ति से गुजरे ,यह सोच स्त्री भी सामान्य व्यवहार करती हो.
एक मशहूर पुरुष मॉडल ने एक इंटरव्यू में कहा, "मुझे फख्र है अपनी माँ पे जिसने पति के हाथ उठाने पर घर छोड़ दिया. मैं तब बस दो साल का था. माँ का प्यार नहीं जाना.पर गर्व है कि माँ ने अपने आत्मसम्मान की रक्षा की." यह पढ़ मैं सोच रही थी, आज वह गर्व कर रहा है पर जब ५,९,१२,१५,१७ साल का होगा...कितना मिस किया होगा,माँ के स्नेह को . स्त्री घर छोड़ भी दे पर बच्चों को कहाँ साथ ले जाए?? यही सब है....जिसकी वजह से यह सब सहती रहती हैं, महिलाएं.
बहुत बहुत आशीष बेटे को!
जवाब देंहटाएंह्रदय विदारक घटना है!
बेटे का उदाहरण अनुकरणीय और प्रशंसनीय है!
ये सच है रश्मि संयुक्त परिवार के विघटन से पुरुष निरंकुश हुआ है और अब क्या कहें? अब माता पिता के साथ उनकी पत्नी ही sath na rahana चाहे तो उसके लिए कोई क्या करे? फिर पारिवारिक विघटन में सिर्फ एक दोषी नहीं है. घरेलु हिंसा ने ही परिवारों को नष्ट कर दिया है , इससे सिर्फ पत्नी ही नहीं बच्चे भी आहट होते हैं और उनमें प्रतिशोध की भावना भी पनपने लगती है. वे अपराधों की ओर उन्मुख होने लगते हैं.
जवाब देंहटाएंबच्चों में संवेदनशीलता है क्योंकि उन लोगों ने अपने घर के वातावरण में ये पाया है और वही उनने ग्रहण किया है.
रश्मि जी, मेरे तो रोंगटे खडे हो गये पढते पढते। पता नहीं कहां जाकर रूकेंगे हम?
जवाब देंहटाएंअगर सभी लोग अंकुर की तरह दयालू और कर्तव्य के प्रति सचेत हों तो बहुत सी ऐसी दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंमुझे लोगों का व्यवहार इस मामले में बिल्कूल भी समझ नहीं आता है | ठीक है आप दूसरो के मामले में नहीं पड़ना चाहते है और किसी से अपने रिश्ते भी नहीं बिगड़ना चाहते है पर कम से कम आप एक फोन तो पुलिस को कर ही सकते है अपना नाम बताये बगैर पर लोग वो भी नहीं करते है | असल में घरेलु हिंसा को सभी ने स्वीकार कर लिया है वो उसको बड़ी बात मानते ही नहीं है |
जवाब देंहटाएंघरेलू हिंसा को रोकिये, बेल बजाये !
जवाब देंहटाएंगुड समारिटन! आपका परिवार सकारात्मक चेतना से युक्त है -शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंइंसान की फितरत बड़ी चीज़ है. वह कहीं भी रहे फितरत के मुताबिक ही काम करता है अलबत्ता जहां मौक़ा लगता है बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं ही चूकता.
जवाब देंहटाएंशाबाश अंकुर,
जवाब देंहटाएंतुम बधाई के पात्र हो.
हर किसी को तुम्हारे जैसा जागरूक और होशियार होना चाहिए.
पुन: शाबाशी.
धन्यवाद.
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jagrookta aur prerna dene wali post ..ankur ki samvedansheelta ko naman
जवाब देंहटाएंअंकुर ने संवेदनशील होने का परिचय देते हुए पुलिस बुलाई...
जवाब देंहटाएंआपने इस अत्याचार को सबके सामने रखा...
अल्लाह करे-कामयाब हो-
आँखों,जुबां और कानों पर पड़े तालों को खोलने की....यह कोशिश.
सामाजिक जागरूकता जरूरी है ! लोगों के बीच तक यह ज्ञान जाना आवश्यक ! आप सपरिवार संवेदनशील हैं , इसलिए घटना को विवेचनपरक ढंग से देख सकीं !
जवाब देंहटाएंपर जैसा अली जी ने कहा कि परिवार का टूटना महानगरीय सच्चाई है इसलिए अब इसकी उल्टी प्रक्रिया पर नहीं सोचा जा सकता ! सामाजिक दायित्वबोध का भाव जगे यही आवश्यक है !
एक पंक्ति जिसे पोस्ट के लगभग हासिल के तौर पर देखा गया है उसे लक्ष्य करके जरूर कुछ कहना चाहूँगा ---
@ ....हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं.
--- यह कवि का गांवों को महिमामंडन करने का ख्याल अधिक है , न कि यथार्थ ! १९०० के बाद से ही ऐसा ही चल रहा है गांवों को कविता से समझने का का हिसाब - किताब ! ' काशीफल कूष्माण्ड कहीं हैं , कहीं लौकियां लटक रही हैं ' ! - वाला बोध कल्पनाजीवी है ! कवि कहते रहे - 'अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है ' !! .......पर जब यथार्थ के धरातल की बहस हो तो किसी कवि के कल्पना-प्रवासी विचार को लेकर नहीं चला जा सकता नहीं तो बहस भी भावुक-लोक में गम हो जाती है ! इस दृष्टि से गांवों की यथार्थवादी तस्वीर हमारे उपन्यासों ने अंकित किया है , जहां गाँव के प्रति 'अहा-अहा' का भाव नहीं बल्कि समस्याओं का चित्रण है ! बहस के वक़्त इन पंक्तियों को ज्यादा ठोस आधार बनाना चाहिए ! १९३६ में प्रकाशित प्रेमचंद के गोदान में गाँव-वासी होरी का भाई हीरा ही होरी के पशु को जहर खिलाता है ! 'मैला आँचल' में गाँव में रहने वाले 'बारहों बरन' को देखा जा सकता है ! 'छप्पर उठाने' के ठीक उलट 'छप्पर जलाना' भी गाँव के खुरपेंची सच में शामिल है ! इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती !
गांवों में संयुक्त परिवारों में भी स्त्रियों का शोषण नहीं है , ऐसी बात नहीं !! आभार !!
अपने आस पास के अंधेरे समयों के अंतर्विरोधों पर एक संवेदनशील और बेहद मर्मस्पर्शी प्रस्तुति. घटाटोप अंधेरों के बीच जलती नन्ही सी लौ नई उम्मीदों की संभावनाओं के रूप में उभरती है और हमारे मनों में एक सुखद भविष्य का सपना रोप जाती है. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर
डोरोथी.
अंकुर में यह संवदेनशीलता बनी रहे।
जवाब देंहटाएंकिस्सा सुनकर दुख हुआ।
जवाब देंहटाएंPlease ring the bell भी पढा।
मानता हूँ, हम मर्द जात में काफ़ी लोग जानवर से भिन्न नहीं हैं।
यह एक पुरानी समाजिक समस्या है।
पहले लोग सोचते थे कि जैसे जैसे लोग शिक्षित होंगे, ऐसी धटनाएं बन्द होंगी।
Now I am not so sure
पढे लिखे लोग भी ऐसा बर्ताव कर रहे हैं।
आपका Ring the bell, idea अच्छा लगा।
कभी अवसर मिला तो घंटी जरूर बजाऊंगा।
अंकुर की बात सुनकर मुझे भी मेरे बेटे की याद आ गई।
एक दिन उदास होकर स्कूल से वापस आया और बिना किसी से कुछ कहे अपने कमरे में चला गया और दर्वाजा बन्द कर लिया। हमें बाहर से उसकी फ़ूट फ़ूटकर रोने की आवाज आ रही थी। चिन्तित होकर हम दरवाजे पर जोर जोर से खटखटाकर उससे दर्वाजा खुलवाया और बात जानने की कोशिश की। तब जाकर पता चला कि उसे तो कुछ नहीं हुआ है पर उसके साथ पढने वाली क्लास में एक लडकी के पिता का अचानक निधन हो गया था। उसे अपने क्लास में पढने वाली लडकी का दुख बर्दाश्त नहीं हो रहा था।
शुभकामनाएं
जी विश्वनाथ
रश्मि जी !
जवाब देंहटाएंमेरे विचार में यह बात किसी कल्चर विशेष से जुड़ी हुई नही है बल्कि मानसिकता और आत्म-केन्द्रित होते जा रहे हमारे जीवन की है…… हम किसी घटना को किसी का पर्सनल मामला बता कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं और दूसरों से आशा करते हैं कि वो कुछ पहल करेगा……! बस यही मानसिकता ऐसी घटनाओं को प्रोत्साहन देती है……!ताले असल में सिर्फ़ जुबान पर लगे होते हैं…बस उन्हे खोलने कि जरूरत है…!
अन्कुर की सम्वेदनशीलता और उसकी प्रतिक्रिया उसे बधाई का पात्र बनाती है…
भीतर तक हिला दिया आपकी पोस्ट ने ......
जवाब देंहटाएंऔरत को लेकर जहां कहीं भी ऐसी घटनाएं सुनती हूँ बहुत वक़्त लगता है मानसिक संतुलन ठीक करने में .....
और अभी भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूँ .....
बहुत सु यादें भी जुडी हैं इसके साथ .....
बस आह .... ..है ...!!
अंकुर पर नाज है...बहुत ही खुशी हुई...अनेक आशीष.
जवाब देंहटाएंबिहारी बाबू को सोच रहा हूँ मुन्नवर राना साहेब की पंक्तियों से:
जवाब देंहटाएंतुम्हारे शहर में मय्यत को भी कांधा नहीं देते
हमारे गाँव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं
......कितना सच सा लगता है और ऐसे में अंकुर..एक उदाहरण बन सामने है.
@अशोक जी,
जवाब देंहटाएंजब आपके जैसा जागरूक इंसान और संवेदनशील कवि किंकर्तव्यविमूढ़ता महसूस करे तो कैसे चलेगा??
@अंशुमाला जी,
आपका आकलन एकदम सही है, सब लोगों ने घरेलू हिंसा को स्वीकार कर लिया है...इसे बड़ी बात मानते ही नहीं....और अब पुलिस की भूमिका भी बदल रही है...इस से लोग अनभिज्ञ हैं. पुलिस का नाम लेते ही डर जाते हैं, कि पुलिस स्टेशन के चक्कर लगाने पड़ेंगे...नाम बताना पड़ेगा....जबकि मोटरसाइकिल पर घूमते मार्शल( मुंबई में ),विवाद की जगह पर तुरंत पहुँच जाते हैं.(हाँ,उनका फोन नंबर लग जाना चाहिए)
@काजल जी,
बस यही फितरत बदलनी चाहिए....पता नहीं क्यूँ...अक्सर ,पुरुष खुद को श्रेष्ट तो समझते हैं..पर उसके अनुरूप व्यवहार नहीं करते.
@अमरेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंआपने बिलकुल सही कहा...गाँव का नाम लेते ही ,सबकी आँखों के सामने लहलहाते खेत, फलों से लदे पेड़...रंग-बिरंगे परिधानों में कुएं से पानी भरती स्त्रियाँ...लोकगीत गाते,हल जोतते किसान..ऐसी ही तस्वीर आती है .जबकि सच्चाई कुछ और है.
गाँवों में सामाजिकता है...पर उनकी परिभाषा अलग है...छप्पर शायद साथ मिलकर उठाते हों...पर किसी स्त्री के करुण रूदन सुनने के लिए उनके भी कानों पर ताले पड़ जाते हैं. पिछली पोस्ट में मैने गाँव में देखे ही एक दृश्य का जिक्र किया था जिसमे सरेआम एक पति अपनी पत्नी को पीट रहा था और लोग इसे पति का अधिकार समझ कर चुप थे. औरतों का शोषण वहाँ भी कम नहीं.वहाँ तो सास धमकी देती है, कि "आने दो बेटे को आज तुम्हे पिटवाती हूँ "
पर फिर भी मुझे लगता है छोटे शहरों के पढ़े-लिखे संयुक्त परिवारों में घरेलू हिंसा जैसी चीज़ नहीं होगी. (अब पूरी सच्चाई मुझे नहीं पता)
@विश्वनाथ जी,
जवाब देंहटाएंआपने इतने उदाहरणों से यह देख ही लिया होगा कि शिक्षित होने से घरेलू हिंसा का कोई ताल्लुक नहीं है. ब्रैंडेड कपड़ों में सजे, फैन्सी कारों में घूमने वाले लोग भी अंदर से जानवर होते हैं.
आपके बेटे की संवेदनशीलता जानकर बहुत ही अच्छा लगा....जैसा कि मैने मुक्ति की टिप्पणी के जबाब में कहा,...इस उम्र में हर बच्चा बहुत ही संवेदनशील,जागरूक और कुछ कर गुजरने का जज्बा लिए होता है ...पर धीरे धीरे वक़्त के थपेड़े उसे संवेदनहीन बना देते हैं.
बहुत देर से आई हूं, कारण तुम जानते हो, इसलिये सफ़ाई नहीं दूंगी.
जवाब देंहटाएंअधिकांशत: ऐसा होता है रश्मि, कि यदि किसी घर से झगड़े की आवाज़ें आ रही हों , तो पड़ोसी संकोचवश खिड़की बन्द कर लेते हैं, कि उनका घरेलू मामला है. यदि कोई बीचबचाव करना चाहता है, तो उसे ऐसी ही सलाह दी जाते है जैसी लाइट बन्द करने वाली महिला ने दी.
संयुक्त परिवारों का विघटन बहुत बड़ा कारण है इस हिंसा का.वरना संयुक्त परिवारों में पुरुष इतना हिंसक व्यवहार नही कर पाते. कम से कम परिवार वालों का खयाल तो करते ही हैं. और यदि कुछ करें भी तो बीच-बचाव के लिये भी लोग उपलब्ध रहते हैं. सार्थक पोस्ट.
जाने कब सुधरेंगे तथाकथित सभ्य लोग। अंकुर जैसी नई पीढ़ी के बच्चे आशा जगाते हैं।
जवाब देंहटाएंरश्मि जी ,
जवाब देंहटाएंयही संप्रेषित करने की इच्छा थी हमारी !
गाँव में कभी कभी बड़ों के अदब-लिहाज के चलते भले न मार पीट हो , पर एक दूसरे तरह की घुटन भी रहती है ! एक पक्ष आपने भी सही ही लक्षित किया है !