कई बार किसी विषय पर लिखना शुरू करो तो बातें जुडती चली जाती हैं...और पोस्ट्स की एक श्रृंखला सी ही बन जाती है.."इतना मुश्किल क्यूँ होता है ना कहना.."..."लड़कियों की उड़ान किसी इत्तफाक की मोहताज नहीं "...."आखिर कुछ पुरुषों/लड़कों के अंदर ही एक जानवर क्यूँ निवास करता है "
के बाद लड़कियों की समस्याओं से ही सम्बंधित एक और पोस्ट
काफी दिनों से कई बार ..कई जगह ..ब्लॉग जगत में ..फेसबुक पर लोग ( हमारे देश के सारे पुरुष नहीं..पर अधिकाँश ).चिंता जताते नज़र आ जाते हैं..'लडकियाँ हर चीज़ में लड़कों की बराबरी क्यूँ करती हैं??...उन्हें लड़कों की नक़ल नहीं करनी चाहिए ..आदि..आदि .
मन सोचने पर मजबूर हो गया क्या सचमुच ऐसा है..लडकियाँ, लड़कों की नक़ल कर रही हैं?..लडको की बराबरी करना चाहती हैं??
अब ये तो सर्वज्ञात और सर्वमान्य है कि पुरुष समाज....महिलाओं से कई वर्षों से बहुत आगे चल रहा है.
करीब सत्तर-अस्सी साल से भी पहले से ही पुरुष ..उच्च शिक्षा,नौकरी के लिए अपना घर छोड़ कर दूसरे शहर जाकर रहने लगे थे.
महिलाओं में बमुश्किल पिछले दस वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि वे भी उच्च शिक्षा..नौकरी के लिए अकेली दूसरे शहर जाकर रहने लगी हैं. उनका भी अभी प्रतिशत बहुत कम है.
तो क्या यह कहा जाएगा कि वे लड़कों की नक़ल करने लगी हैं?
करीब इतने ही बरस पहले से पुरुषों ने धोती-कुरता छोड़कर शर्ट-पैंट अपना ली है..क्यूंकि धोती मेंटेन करने में बहुत कठिनाई आती थी. उसे बाँधने में ज्यादा समय लगता था . तेज चलने में भी मुश्किल होती थी..और उन्हें ये भी भान है कि धोती से ज्यादा स्मार्ट वे पैंट में लगते हैं. इन सारी असुविधाओं से बचने के लिए उनलोगों ने धोती को टाटा-बाय बाय कहकर पश्चिम से आई वेश-भूषा शर्ट-पैंट को अपना लिया .
अब आजकल लडकियाँ भी कॉलेज-यूनिवर्सिटी जाती हैं...नौकरी करती हैं. उन्हें भी साड़ी से ज्यादा सुविधाजनक जींस लगती है. साड़ी बाँधने में समय लगता है. उसे मेंटेन करने में (यानि धोना-प्रेस करना ) परेशानी होती है. तेज-तेज चलने में कठिनाई होती है तो उन्हें भी जींस पहनना ज्यादा सुविधजनक लगता है . और जींस किफायती भी है. दो जींस ले लिए और छः टॉप्स...छः ड्रेस बन गयी. जबकि सलवार-कुरत-दुपट्टे और साड़ी-ब्लाउज-पेटीकोट के छः सेट लगेंगे...लिहाजा पैसे भी अधिक लगेंगे. पर ये सारी बातें तो गौण है...समझा तो ये जाता है कि वे तो बस लडको की बराबरी के लिए जींस पहनती हैं...उनकी नक़ल करने के लिए.
लड़कियों के लम्बे बाल बड़े अच्छे लगते हैं...लम्बी सी कमर तक लहराती चोटी...उसमे फूलों का गजरा लगा हुआ. पर आज की दौड़ती-भागती जिंदगी में इतना समय सबके पास है??...और लम्बे बाल की सिर्फ चोटी बनाने में ही समय नहीं लगता...बल्कि बालों को लम्बा और घना रखने के लिए..उनकी अच्छी देख-भाल भी बहुत जरूरी है. पहले औरतें घर में रहती थी..तेल..दही..रीठा शिकाकाई लगाए जा रहे हैं..बालों में. पर अब इन्हें घना और लम्बा बनाए रखने को इतना समय नहीं दे पातीं...और कैंची चल जाती है..बालों पर .पर झट से आरोप लग जाता है कि ये तो नक़ल कर रही हैं.
जबकि पुरुषों ने भी काफी समय से रंगीन....छींटदार शर्ट पहननी शुरू कर दी है...शौर्ट्स और बरमूडा पहनते हैं..आजकल लड़के लम्बे बाल रखते हैं...ब्रेसलेट पहनते हैं..कानों में बालिया..गले में मालाएं. तब ये नहीं कहा जाता कि वे लड़कियों की नक़ल कर रहे हैं...(वे नक़ल कैसे कर सकते हैं..वे तो हमेशा से श्रेष्ठ हैं ) बल्कि तिरस्कार से कहा जाता है कि 'क्या लड़कियों जैसा ये सब पहना है.
यानि कि लड़के ये सब करें तो 'फैशन ' और लडकियाँ करें..तो वे बिगड़ गयी हैं..बहक गयी हैं...नक़ल कर रही हैं.
ऐसे ही आजकल..अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई...स्कूल के होम वर्क..पैरेंट्स मीटिंग..उनके बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास ले जाना...उनका वैक्सीनेशन ज्यादातर औरतों के जिम्मे ही होता है. ये सब काम पहले पुरुषों की जिम्मेवारी ही होती थी क्यूंकि स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी भी नहीं होती थीं और अकेली घर से बाहर भी नहीं जाती थीं....तो फिर यहाँ भी कहना चाहिए..'ये तो नक़ल और बराबरी कर रही हैं.
अब जब स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही हैं...नौकरी कर रही हैं ..घर से बाहर निकल रही हैं तो उन्हें सिर्फ एक स्त्री के रूप में ना देख कर 'एक अलग व्यक्तित्व'...' एक इंसान'की तरह देखा जाना चाहिए. क्यूंकि अब वे भी वो सारे काम करती हैं जो पुरुष करते हैं..(बल्कि ऑफिस से आकर घर का काम भी...क्यूंकि अभी पुरुष वर्ग इतना उदार नहीं हुआ है कि घर के कामों में भी बराबरी से हाथ बटाए ) .
निस्संदेह पुरुष शारीरिक रूप से अब भी स्त्रियों से ज्यादा शक्तिशाली हैं. पर अफ़सोस ..वे अपनी इस एडिशनल शक्ति का कोई उपयोग नहीं कर पाते...:) (हाँ...कुछ कापुरुष...स्त्रियों पर अपना शक्ति-प्रदर्शन जरूर आजमाते हैं ).
पहले पुरुष....धूप में.. खेतों में काम करते थे...लकडियाँ ,काट कर लाते थे...मीलों पैदल चलते थे. स्त्रियाँ घर के काम करती थीं और बच्चे संभालती थीं. पर अब पुरुष भी स्त्रियों की तरह ही..ऑफिस जाने के लिए किसी वाहन का ही उपयोग करते हैं. ऑफिस में भी डेस्क जॉब...कंप्यूटर..पर ही काम होता है...जिसमे दिमाग की ही आवश्यकता पड़ती है और जो दोनों में बराबर मात्रा में है {अभी हाल में ही लंदन में हुए सर्वे मे पाया गया कि स्त्रियों का IQ पुरुषों से ज्यादा है...उसकी बात हम नहीं कर रहे :)} इसका अर्थ है कि स्त्रियों में भी पुरुषों जितना ही सोचने-समझने की शक्ति है. लेकिन पुरुषों के अंदर ये जड़ें बहुत गहरी जमी हुई हैं कि वे महिलाओं से श्रेष्ठ हैं...इसलिए उनपर बंधन लगा सकते हैं...उनके लिए नियम बना सकते हैं...और ना पालने की दशा में उन्हें सजा दे सकते हैं. जबकि जो महिलाएँ, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हैं...या जिनमे अपनी बात कहने का साहस नहीं है..वे तो पुरुषों के सारे नियम-कायदे मानती ही हैं.
पर पुरुषों की जिद ये है कि जो स्त्रियाँ अपने जीवन का निर्णय खुद ले सकती हैं. उन्हें क्या पहनना है..अपनी जिंदगी कैसे बितानी है...खुद तय कर सकती हैं. स्व-विवेक से निर्णय लेने में सक्षम हैं. उनपर भी पुरुषों के बनाए नियम ही लागू होने चाहिए. कानून स्त्रियों को सारे अधिकार देता है.पर हमारे समाज के अधिकाँश पुरुष नहीं.
अब जब पुरुष और स्त्री..समान स्तर पर आ गए हैं तो उनके गुण-अवगुण भी समान हो गए हैं. जहाँ पहले स्त्रियाँ...भीरु-लजालू-धीमा बोलने वाली होती थीं..अब वैसी नहीं हैं.
और सबसे ज्यादा परेशानी पुरुष वर्ग को यहीं होती है. अब लडकियाँ कमाती हैं...उनके पास पैसे होते हैं...वे अपनी मर्जी से खर्च करने लगी है. पांच दिन ऑफिस में खटकर वीकेंड पर वे भी unwind होना चाहती हैं...पार्टी करती हैं. डिस्को जाती हैं..अपनी मर्जी के कपड़े पहनती हैं.
पर उनका यह सब करना सबको बड़ा नागवार गुजरता है..जब तक वे ऑफिस में चुपचाप काम करके घर आ बच्चे संभालती हैं...किसी को परेशानी नहीं होती...पर वे पार्टी कैसे कर सकती हैं? संस्कृति तो रसातल में चली जायेगी ?..उसकी रक्षा का भार तो उनके कन्धों पर ही है. जबकि ऐसी लड़कियों का प्रतिशत बहुत बहुत कम है...पर अगर एक भी लड़की ऐसा करती है..तो क्यूँ करती है...?..हमारी संस्कृति पर तो आंच आ गयी.
कुछ लडकियाँ...सिगरेट भी पीती हैं...और कुछ शराब भी. यह बहुत ही बुरा है. पर इतना ही बुरा पुरुषों के लिए भी है. सिगरेट-शराब ..स्त्री/पुरुष के फेफड़े और जिगर को नुकसान पहुंचाने में कोई भेद-भाव नहीं करती. दोनों के लिए ही बहुत ही नुकसानदेह है और त्याज्य भी. पर आलोचना..धिक्कार सिर्फ लड़कियों के हिस्से आता है. पुरुषों का सिगरेट पीना तो बिलकुल आम और स्वीकार्य है...फेसबुक प्रोफाइल में लोग अपनी सिगरेट पीते हुए फोटो लगाते हैं. अक्सर जिक्र भी कर देते हैं...'वहाँ जाम छलकाई...' दोस्त आए तो ये बोतल खोली...'कई बार ब्लॉग पर भी जाम टकराते हुए फोटो लगा देते हैं. क्या यह सही है??
हाँ ..उनके लिए सही है..पर अगर कहीं भनक भी मिल गयी कि किसी लड़की ने किसी पार्टी में जाम टकराए. तो तुरंत हिकारत से कहा जाता है...लड़कों की नक़ल कर रही हैं..लड़कों की बराबरी करना जरूरी है?
वे लड़कों की बराबरी के उद्देश्य से नहीं करतीं ये सब .पर जैसे लड़कों में एकाध जाम लेकर ..लाइफ एन्जॉय करने का...पार्टी में डांस करने का...मन होता है. एग्जैक्टली वे भी ऐसा ही सोचती हैं. पहले तो पुरुषों में भी पार्टी में डांस करने चलन नहीं था...फिर उनलोगों ने शुरू किया...स्त्रियाँ किनारे खड़ी रहती थीं ..उन्हें खींच कर लाया जाता तो वे जरा सा हिल कर चली जातीं. पर आज की लडकियाँ जम कर डांस करती हैं...और तब ऐसा लगता है कि वे, ये सब लड़कों की बराबरी के लिए कर रही हैं. जबकि वे भी बस जिंदगी को भरपूर जीना चाहती हैं.
जैसे सोलह-सत्रह साल के लड़के छुपकर एकाध कश लगा..अपने आपको बहुत बड़ा समझने लगते हैं..ठीक यही भावनाएं लड़कियों में भी होती हैं. जो कि दोनों के लिए बहुत गलत है. फिर भी ऐसी लड़कियों की संख्या बहुत ही कम है...छोटे शहरों में तो नगण्य ही है...महानगरों में भी कुछेक लडकियाँ ही ऐसी पार्टियों में जाती हैं या सिगरेट पीती हैं. जबकि पुरुषों में तो सिगरेट-शराब का चलन ,गाँव-कस्बे-शहर-महानगर..सब जगह एक सा है. पर धिक्कार और नसीहत तो सिर्फ लड़कियों को ही मिलती है.
अगर पति को छोड़कर किसी प्रेमी से विवाह...या पति/प्रेमी को धोखा देने जैसी कोई घटना सामने दिखती है...तब भी लोग यही कहते हैं..पुरुष तो ये सब करते आ रहे हैं...अब क्या स्त्रियाँ भी?? जबकि पुरुषों की तुलना में ऐसे केस इक्के-दुक्के ही होते हैं. तो स्त्रियों को बिलकुल एक देवी ही क्यूँ समझा जाता है. वे भी इंसान हैं....वे भी गलतियाँ कर सकती हैं. और पुरुषों की तुलना में उन्हें अपनी गलती की सौगुनी सजा भी भुगतनी पड़ती है.
अब जब पुरुष समाज नए रास्ते पर चल रहा है....और स्त्रियों से काफी आगे चल रहा है (प्रतिशत में ) ...धीरे-धीरे स्त्रियाँ भी उसी रास्ते पर चलने लगी हैं...शिक्षा..नौकरी..अपने घर -परिवार का ध्यान रखती हैं....तो इसे पुरुषों की नक़ल..या बराबरी कैसे कहा जा सकता है??
अब उनके लिए अलग रास्ता क्या हो सकता है..जिस से ये नक़ल ना लगे?? यही हो सकता है कि वे बस पीछे रहकर सिर्फ घर और बच्चे संभालें...जो अब प्रगति के पथ पर कदम रख देने वाली स्त्रियों के लिए संभव नहीं. वे सफलता भी पाएंगी..असफल भी होंगी.....अपनी मर्जी से अपनी जिंदगी जियेंगी....गलतियाँ भी करेंगी...उसका खामियाजा भी भुगतेंगी और उन्हीं गलतियों से सीखेंगी भी...क्यूंकि दासी वे रही नहीं...देवी उन्हें बनना नहीं..बस एक इंसान ही बने रहना चाहती हैं.
और अपनी गलतियों से उन्हें खुद ही सीखने दिया जाए. उनके लिए अब दूसरे तय करना बंद करें कि उनके लिए क्या गलत है क्या सही.
पुरुष वर्ग भयभीत हो रहा या चिंतित ?
जवाब देंहटाएंअब जब स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही हैं...नौकरी कर रही हैं ..घर से बाहर निकल रही हैं तो उन्हें सिर्फ एक स्त्री के रूप में ना देख कर 'एक अलग व्यक्तित्व'...' एक इंसान'की तरह देखा जाना चाहिए. क्यूंकि अब वे भी वो सारे काम करती हैं जो पुरुष करते हैं..(बल्कि ऑफिस से आकर घर का काम भी...क्यूंकि अभी पुरुष वर्ग इतना उदार नहीं हुआ है कि घर के कामों में भी बराबरी से हाथ बटाए ) ... क्या जबरदस्त दृष्टिकोण है !
एक कश ! - टीनएजर लड़कों को यदि यह खेल लगता है तो लड़कियों के पास , जो बाहर की दुनिया में हैं , क्या अक्ल का अम्बार है ... गलत दोनों के लिए है और हानिकारक .
शिक्षाप्रद भी , और सहजता भी है इस आलेख में
भयभीत ही लगता है..:)
हटाएं@एक कश ! - टीनएजर लड़कों को यदि यह खेल लगता है तो लड़कियों के पास , जो बाहर की दुनिया में हैं , क्या अक्ल का अम्बार है ... गलत दोनों के लिए है और हानिकारक .
यही बात तो समझने की है...पर लड़कियों को तो गलतियाँ करने का अधिकार ही नहीं.
सारी की सारी कही गई बातें सोचनीय है
जवाब देंहटाएंऔर practical भी...
बुद्धि, इच्छाएं, जीने की चाह सभी की
एक सी...और सुख-दुख भी...
मां के गर्भ में बच्चियों को बचाओ
और दुनियाँ में भी उन्हें आगे बढ्ने दो...
जीने दो...
@बुद्धि, इच्छाएं, जीने की चाह सभी की
हटाएंएक सी...और सुख-दुख भी...
शुक्रिया...बिलकुल सही कहा आपने..
औरों की तरह बनने के प्रयास में अपनी तरह से जीना भूल जाते हैं हम..
जवाब देंहटाएंकहाँ कोई औरों की तरह बन रहा है....अपनी तरह से ही तो तो जिंदगी जीने की कोशिश है...जो लोगों को रास नहीं आ रही.
हटाएंआत्मा को झकझोर कर जगाने वाला आलेख लिखा है रश्मि जी ! दरअसल पुरुष वर्चस्व वाले समाज में अभी भी लड़कियों को सात तालों में बंद करके रखने की मानसिकता उतनी ही गहराई से जड़े जमाये हुए है जितनी आज से सौ साल पहले थी ! तथाकथित आधुनिक, उदार और प्रगतिवादी पुरुष भी स्त्री की स्वतन्त्रता के केवल उतने ही पक्षधर होते हैं जहाँ तक उनके अपने अहम और वर्चस्व पर आघात नहीं होता ! स्त्री की सुरक्षा की आड़ में वे यह चाहते हैं कि स्त्रियाँ बाहर की दुनिया सिर्फ उतनी ही देखें जितना खिड़की का दरवाजा थोड़ा सा खोल कर वे दिखाना चाहते हैं ! या यह भी कह सकते हैं कि वे चाहते हैं कि महिलायें दुनिया को उनकी आँखों पर चढ़े चश्मे से देखें ! स्त्री पर चाहे जितना भी शारीरिक या मानसिक दबाव पड़े पुरुष की स्वतन्त्रता या अधिकारों पर, जो उसने स्वयं अपने लिए सर्वमान्य करवा लिये हैं, कोई आँच नहीं आनी चाहिए ! सार्थक आलेख रश्मि जी ! बधाई एवं शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंस्त्रियाँ बाहर की दुनिया सिर्फ उतनी ही देखें जितना खिड़की का दरवाजा थोड़ा सा खोल कर वे दिखाना चाहते हैं !
हटाएंबस साधना जी..यही बात है...शुक्रिया आपका..
लेख बढ़िया है, आपने साबित कर दिया की नारीवादीपना झाड़े बिना और व्यंग्बाजी किये बिना भी अपनी बात प्रभावी ढंग से कही जा सकती है
जवाब देंहटाएंअब एक सवाल :
मैं धोती कुरते में "स्कूल "/"ऑफिस" जाना चाहता हूँ [वजह कुछ भी मान लीजिये]| क्या मुझे इजाजत दी जायेगी ?
कृपया पुरुषों के पास ( महिलाओं की तरह ) मौजूद अन्य ऑप्शंस के बारे में बताएं [ये बता दूँ
की sleeveless shirts, round neck t-शर्ट allowed नहीं हैं ]
शुक्रिया गौरव...आलेख को बढ़िया कहने के लिए :):)
हटाएंस्कूल में अगर यूनिफॉर्म हैं तो उसका पालन करना होगा...कई ऑफिस में भी फौर्मल्स (पूरी बाहँ की शर्ट और पैंट ) का नियम है वहाँ जींस ,थ्री फोर्थ या शौर्ट्स अलाउड नहीं हैं. अगर उस ऑफिस में काम करना है तो वहाँ के नियम मानने होंगे पर जहाँ तक मेरी जानकारी है...सरकारी कार्यालयों में ऐसे नियम नहीं हैं...आप जरूर धोती-कुरता पहन कर जा सकते हैं.
@कृपया पुरुषों के पास ( महिलाओं की तरह ) मौजूद अन्य ऑप्शंस के बारे में बताएं [ये बता दूँ
की sleeveless shirts, round neck t-शर्ट allowed नहीं हैं ]
जहाँ के अपने यूनिफॉर्म हैं..दूसरी पोशाक अलाउड नहीं हैं.. वहाँ के बारे में कोई ऑप्शंस कैसे बताऊँ??
आप की समस्या से मै सहमत हूं यदि पुरुष के पास विकल्प ही नहीं होगा हर जगह ड्रेस कोड होगा तो वो क्या कर सकता है | किन्तु पुरुष सारे दिन आफिस , स्कुल कालेज में ही रहते है क्या ? अरे जब घर में रहे , कही बाहर घूमने जाये, शादी विवाह में जाये, मित्रो के साथ कही पार्टी करे तो आराम से हर बार धोती कुर्ता, कुर्ता पैजामा , या राजेस्थान में चलती है वो फ्राकनुमा कुर्ता ( मुझे उसका नाम नहीं पता ) , सर पर हर दम पगड़ी धारण करे किसने रोका है जब बात संस्कृति को बचाने की हो तो कभी भी मौके का स्तेमाल किया जा सकता है २४ में से आफिस स्कुल आदि में तो ८-९ घंटे ही बिताते है और हा एक वस्त्र और है जो पुरुष २४ घंटे धारण कर सकता है उसे कोई नहीं रोकेगा और जिससे कई समस्याये भी हल हो जाएँगी पर समझ नहीं आता की हमारी संस्कृति की एक बड़ी पहचान होने के बाद भी उसे बस अखाड़े के पहलवान और हनुमान भक्त ही क्यों पहनते है |
हटाएंये बात हमें भी अच्छी लगी की आप ने सब कह दिया वो भी बिना नारीवाद का झंडा लिए ;) कोई बात नहीं हम झंडा और झंडे में लगा डंडा दोनों थामे है, कोई आन्दोलन कभी भी सिर्फ झंडा लेनें वाले के बल पर नहीं चलता है वो चलता है साथ चलने वाले से, झंडा लिए व्यक्ति तो कई बार असल में कछू भी नहीं करता है असल काम तो साथ चलने वाले ही करते है, हा कभी कभी बीच में कोई परेशान करने ( जानवर इन्सान ) वाला आ जाता है तो झंडा थामा व्यक्ति उसके डंडे का प्रयोग करता है उसे वहा से खदेड़ने के लिए :)) और कभी कभी कोई ऐसा भी होता है जिसे बस जबान से आ आ हुर्रर्र्र्र करने से ही काम चल जाता है :)))
हटाएं@अरे जब घर में रहे , कही बाहर घूमने जाये, शादी विवाह में जाये, मित्रो के साथ कही पार्टी करे तो आराम से हर बार .....
हटाएंक्या बात है ? :) आज बड़ी आसानी से हल मिल गया .. ओह ! अच्छा ! पुरुषों का मामला था इसलिए ? :)
मेरा सवाल है की पुरुषों के ड्रेस कोड पर इतना अनुशासन क्यों रहा है आज तक ?
पहनना है या नहीं या सिर्फ बहाना है(जो की आपको लग रहा है)ये बातें बाद में देखेंगे लेकिन ऑप्शन क्यों नहीं है ????
मैंने कभी ये शिकायत सुनी थी की मेरी टिप्पणियों में व्यंग होता है(इसी बात को आधार बना कर मेरे कईं प्रशनो को अनुत्तरित छोड़ दिया गया ) लेकिन वहीं जब मैंने उन्ही लोगों को आपकी टिप्पणियों में छिपे व्यंग भाव को सराहते देखा तो मुझे तथाकथित समानता का सिद्दांत समझ में आ गया .. वैसे डिसाइड क्या हुआ ?.. नारीवाद है या स्त्री सशक्तिकरण है या समानता की मांग है या कुछ और ? जब फाइनल हो जाए बता दीजियेगा कम से एक नाम तो हो :):)
हटाएंमतलब पुरुषों के पास सिर्फ एक ही ऑप्शन होता है [जो की हम चाहें ना चाहें फोलो करते हैं] और महिलाओं के पास लगभग तीन : साड़ी (कुछ जगहों पर),सलवार कुरता, शर्ट - पेंट .... जो पसंद हो चुन लो .... गुड ...वेरी गुड... लगता है ड्रेस कोड सिर्फ पुरुषों को ध्यान में रख कर बनाएं हैं :(
जवाब देंहटाएंसरकारी ऑफिस में भी अब ड्रेस कोड जारी होने लगे हैं वहां भी पुरुषों के लिए कोई ऑप्शन नहीं रहेगा :(
येस्स गौरव गुड - वेरी गुड...पर कभी ये सोचा कि ऐसा क्यूँ है??
हटाएंजैसा कि मैने पोस्ट में ही कहा करीब सत्तर-अस्सी साल से पुरुषों ने शर्ट-पैंट की पोशाक अपना ली है जबकि स्त्रियों ने पिछले पंद्रह-बीस वषों से ही साड़ी, सलवार-कुरता छोड़ जींस या पैंट अपनाई है. आज भी कई महिलाएँ सलवार-कुरता भी नहीं पहनतीं...सिर्फ साड़ी ही पहनती हैं...तुम मुझे बताओ कि कितने पुरुष हैं जो सिर्फ धोती ही पहनते हैं..शर्ट-पैंट नहीं??
जब ये बदलाव आने शुरू हुए होंगे और पुरुषों ने धोती छोड़ कर पैजामा..या शर्ट-पैंट पहनना शुरू किया होगा..तब ऑफिस में ऐसे नियम नहीं बने होंगे क्यूंकि कुछ लोग धोती-कुरता पहनते होंगे ..कुछ पैजामा-कुरता तो कुछ शर्ट-पैंट पर अब सारे शर्ट-पैंट ही पहनते हैं...इसलिए उनके लिए कोई दूसरा ऑप्शन है ही नहीं..:)
ये भी कह दूँ...लड़कियों ने पूरी तरह साड़ी और सलवार-कुरते को विदा नहीं कहा है....वे वेस्टर्न ड्रेस के साथ बीच बीच में ये भारतीय पोशाक भी पहनती रहती हैं...जबकि पुरुषों ने तो धोती को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है.
हटाएंदीदी ,
हटाएंमैं तो अभी बहुत छोटा हूँ आप बताइये की मैं कैसे पता करूँ की पुरुषों ने शर्ट-पैंट की पोशाक "अपनाई" थी या विदेशी शासन के चलते सबसे पहला असर हम पुरुषों के वस्त्र चुनने की स्वतंत्रता पर हुआ ? मैं स्कूल में था तब कभी कभार धोती कुरता पहनना चाहता था ..और शायद हमें इजाजत होती तो कुछ और पहनते भी
@जबकि स्त्रियों ने पिछले पंद्रह-बीस वषों से ही साड़ी, सलवार-कुरता छोड़ जींस या पैंट अपनाई है.
हटाएंहाँ ये तो सही है :) वैसे मैंने सुना है ( लड़कियों से भी) और देखा भी है की सलवार कुरता ( जींस से )ज्यादा आराम दायक और सुविधा जनक होता है. क्या आपके हिसाब से भी ये बात सही है ?
@लड़कियों ने पूरी तरह साड़ी और सलवार-कुरते को विदा नहीं कहा है....वे वेस्टर्न ड्रेस के साथ बीच बीच में ये भारतीय पोशाक भी पहनती रहती हैं.
हटाएंइसके पीछे आपको क्या वजह लगती है ?
१. अपनी संस्कृति से मोह
२. बदलाव के लिए
३. सुविधाजनक जनक हैं
४. ऑप्शंस वक्त के साथ फेशनेबल हो रहे हैं
ये तो अपनी अपनी सुविधा और पसंद पर निर्भर है. जरूरी नहीं कि कोई सार्भौमिक सत्य हो कि जींस ही आरामदायक है...या सलवार-कुरता ही.
हटाएंतुम्हे ऐसा लगता होगा "की सलवार कुरता ( जींस से )ज्यादा आराम दायक और सुविधा जनक होता है"....किसी और को नहीं भी लग सकता है.
@दीदी ,
हटाएंमैं तो अभी बहुत छोटा हूँ आप बताइये की मैं कैसे पता करूँ...
तुम बहुत छोटे हो गौरव...तो मैं भी इतनी बड़ी नहीं कि आँखों देखी बता दूँ...कि विदेशी शासन के समय क्या क्या हुआ था..:):)
और धोती-कुरता पहनने का इतना ही शौक है...तो ऑफिस/कॉलेज से बचे समय में जरूर पहन सकते हो....बाज़ार -दोस्तों के घर....धोती-कुरता में जा सकते हो..पर हमें कैसे पता चलेगा कि तुम्हे धोती सचमुच पसंद है..और तुम पहनना भी चाहते हो....तुम तो अपनी फोटो भी नहीं लगाते...:):)
@इसके पीछे आपको क्या वजह लगती है ?
हटाएं१. अपनी संस्कृति से मोह
२. बदलाव के लिए
३. सुविधाजनक जनक हैं
४. ऑप्शंस वक्त के साथ फेशनेबल हो रहे हैं
मेरा इंटरव्यू ले रहे हो क्या...:):)..चलो ये मुगालता भी सही ...किसी ने इस लायक भी समझा...:)
चारों वजहें सही हैं.
@मेरा इंटरव्यू ले रहे हो क्या...:):)
हटाएंमुझे डर था कहीं आप "एक्जाम" ना कहे दें :) मैं तो आप जैसे आदरणीय विचारकों का ओपिनियन लगभग हर बात में पूछता रहता हूँ इससे कभी कभार अपने ही मन में उठते कुछ सवालों के जवाब मिल जाते हैं साथ ही मैं ये मान कर नहीं चलता की जो मैं सोचता या देखता हूँ जरूरी नहीं वही सही है
@धोती-कुरता पहनने का इतना ही शौक है...तो ऑफिस/कॉलेज से बचे समय में जरूर पहन सकते हो..
अपने कपडे खुद धोने होंगे (मेरा यही नियम है) आप ही सोचिये जब तक कोलेज आदि जगहों पर इजाजत ना हों कितनी परेशानी हो जायेगी
@हमें कैसे पता चलेगा कि तुम्हे धोती सचमुच पसंद है..
ये तो कैसे साबित कर सकता हूँ :) वैसे ...मुझे स्वदेश फिल्म पसंद है इस वीडियो को देखिये शायद कुछ सुराग मिले
http://www.youtube.com/watch?v=OVyXStILZfw&feature=endscreen&NR=1
बहुत सही लिखा है दी. सौ प्रतिशत सही. गलत चीज़ें सबके लिए गलत हैं. केवल एक के लिए क्यों? औरतें अपना अच्छा-बुरा समझती हैं, पुरुषों को चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है ;)
जवाब देंहटाएंवे ये चिंताएं ना करें...फिर उनके पास काम क्या बचेगा...:)
हटाएं@पहले पुरुष....धूप में.. खेतों में काम करते थे...लकडियाँ ,काट कर लाते थे...मीलों पैदल चलते थे. स्त्रियाँ घर के काम करती थीं और बच्चे संभालती थीं.
जवाब देंहटाएंखेतो में काम करने वाले पुरुषो के साथ महिलाये बराबरी से काम करती है.शहरी महिलाओ की तरह केवल घर नहीं संभालती है.
हाँ, सही कहा आपने..गाँव के एक वर्ग के स्त्री-पुरुष खेतों में भी मिलकर काम करते थे/हैं.
हटाएंऔर उन स्त्रियों पर इतने बंधन भी नहीं लगाए जाते कि यहाँ-वहाँ मत जाओ, पर-पुरुष से बातें मत करो......घूँघट रखो..वगैरह. क्यूंकि तब वे काम कैसे कर पातीं?
पर जो स्त्रियाँ घर पर रहती थीं/हैं ..उनपर ये सारे बंधन लगाए जाते थे/हैं .
बराबरी तो अच्छी बात है.. अब जैसा कि आपने बताया पुरुष भी महिलाओं की तरह बाली, और गहने पहनने लग गए हैं.. तो यह भी एक तरह का बदलाव है... चाहे लड़की हो या लड़का सिगरेट/शराब पीना तो बहुत ही बुरा है... यह शरीर को तो नुक्सान पहुंचाती हीं हैं..और इन्फरटीलीटी रेट भी भी कम करती है.. इसीलिए यह बराबरी महँगी पड़ सकती है.. पर कुछ भी लड़कियों का शराब-सिगरेट पीना अच्छा आज भी नहीं माना जाता और खराब तो लगता ही है.. कुल मिलाकर बहुत ही अच्छा आर्टिकल है.. बिलकुल अनबायस्ड और इम्पार्शियल रूप से लिखा है.. बिना किसी जेंडर सेगमेंट को टच किये.. यही इस आर्टिकल की ख़ास बात है.. आज बहुत "एरा" बाद आना मुझे अच्छा लगा.. ऐसा लग रहा है जैसे पिछले जनम में आपके ब्लॉग पर आया था...
जवाब देंहटाएंस्वागत है महफूज़....:)
हटाएं@पर कुछ भी लड़कियों का शराब-सिगरेट पीना अच्छा आज भी नहीं माना जाता और खराब तो लगता ही है..
यही गलत है ना..लड़कों का शराब पीना भी उतना ही खराब लगना चाहिए...जो लोगों को नहीं लगता.
वाह दीदी...मज़ा आ गया इस पोस्ट को पढ़ कर...एक एक बात से सहमत हूँ मैं...जा रहा हूँ कुछ वैसे लोगों को ये पोस्ट ईमेल करने जिनकी सोच काफी संकीर्ण है इस विषय पर(वैसे उनकी सोच बदलेगी तो नहीं, लेकिन फिर भी) ;)
जवाब देंहटाएंथैंक्स अभी :)
हटाएंरश्मि जी मुझे तो ऐसा नहीं लगता, न ही मैं यह सुनता हूं कि लड़कियां लड़कों की नकल कर रही हैं।
जवाब देंहटाएंराजेश जी,
हटाएंमैं कोई विवाद नहीं चाहती...नहीं तो ब्लॉग, कमेन्ट आदि के लिंक भी लगा देती....आपकी भी नज़रों से जरूर गुजरे होंगे और जैसा कि मैने लिखा है... "काफी दिनों से कई बार ..कई जगह .. पढ़ा है.."
शायद हम स्त्रियाँ हैं...इसलिए वे बातें याद रह जाती हैं और हमारे दिमाग में हलचल मचा देती हैं.
फेसबुक पर 'अनु सिंह चौधरी 'ने कमेन्ट किया है....अब ऐसा महसूस किया होगा...तभी तो ये लिखा..
Anu Singh Choudhary मुद्दा कौन श्रेष्ठ है और कौन कमतर, ये होना ही नहीं चाहिए। ना पुरुषों के मन में ना स्त्रियों के मन में। लेकिन मुश्किल ये है कि अधिकांश सो-कॉल्ड इंसान महिलाओं को इंसान मानते ही नहीं - दे आर जस्ट वीमेन... द फेयरर सेक्स, द वीकर सेक्स... एन ऑब्जेक्ट कॉल्ड वीमेन। जिस दिन मान लिया कि दिल-दिमाग-मन-वाणी जैसे ईश्वर-प्रदत्त गुण स्त्रियों में भी मौजूद है उस दिन झगड़ा सुलझ जाए .
लड़कियों पर ये सारे इलज़ाम लगाने वाले अगर लड़के/मर्द ही होते तो कोई दुःख नहीं होता(उनकी मानसिक कुंठा सोच कर हम उदार हृदय नारियाँ उन्हें माफ/इग्नोर कर देते )मगर इसी मानसिकता कई महिलाए भी रखती हैं...उनका क्या.???
जवाब देंहटाएंऔर इन्ल्जाम देना तो हमारे हाथ में भी है....हम भी तो कह सकते हैं कुछ!!!!
सस्नेह
अनु
हाँ, बिलकुल ऐसी मानसिकता कई महिलाओं की भी होती है क्यूंकि उनकी स्वतंत्र सोच विकसित ही नहीं हो पाती.
हटाएंजी ....गलत सबके लिए गलत हो और सही सबके लिए सही.......
जवाब देंहटाएंयही बात तो समझने की है
हटाएंअपनी गलतियों से उन्हें खुद ही सीखने दिया जाए. उनके लिए अब दूसरे तय करना बंद करें कि उनके लिए क्या गलत है क्या सही.॥ बस एक यही बदलाव ही आजाये तो बहुत कुछ बदल सकता है।
जवाब देंहटाएंइसी बदलाव का तो इंतज़ार है
हटाएंअब जब लड़कियां हर वह काम कर रही हैं , जो पहले सिर्फ पुरुष करते आये हैं वह शारीरिक श्रम से सम्बंधित हो या आर्थिक या सामाजिकता के लिए हो तो अब यह कहना फिजूल है कि लड़कियां लडको की देखादेखी यह करती हैं .
जवाब देंहटाएंशराब , सिगरेट , जुआ , नशीले पदार्थों का सेवन स्त्री- पुरुष दोनों के लिए ही बुरा है इसलिए रोक टोक दोनों पर ही हो !
घरेलू महिलाएं भी पुरुषों की सब बातें आँख मूंदकर मान लेती हो , यह आवश्यक नहीं .
बढ़िया लिखा है ! हालाँकि ये सब बातें बहुत बार रीपीट हो गयी हैं , करे भी तो क्या , लोंग बाग़ खींचखांच कर वही मुद्दे बार- बार ले आते हैं , स्त्रियाँ ये करें , ये ना करें :)
घरेलू महिलाएँ आँख मूँद कर बात नहीं मानती पर अगर पति को पत्नी का वेस्टर्न ड्रेस पहनना...स्लीवलेस पहनना...अकेले बाहर जाना पसंद ना हो तो कोई विवाद ना हो,घर में शान्ति बनी रहे...ये सोचकर वे यह सब मान लेती हैं. पर कुछ पुरुष अपनी बहन,पत्नी,बेटी पर ही ढेर सारे बंधन लगाकर संतुष्ट नहीं होते..चाहते हैं...पूरे देश की स्त्रियाँ उनकी पसंद -नापसंद का अनुसरण करें...
हटाएंअब वो कैसे संभव है.
aapne to bilkul mere man ki baat kah di :) aisi kai baaton ko lekar mera argument chalta hi rahta hai ...poori tarah sahmat hun aapse. bahut dino baad aana hua kyonki thoda vyast hun par yahan aana sarthak aur safal raha :)abhi mujhe jaya ki kahani ki baki kishte bhi padhni hai :)
जवाब देंहटाएंथैंक्स मोनिका..
हटाएंआराम से पढो..जब भी समय मिले :)
बढ़िया लेख, आभार आपका !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका
हटाएंलेख बहुत ही प्रभावी है ... लड़कियों को आज़ादी होनी चाहिए अपने अनुसार करने की ... हां मार्गदर्शन जरूर होना चाहिए परिवार वालों का ... जो सबसे ज्यादा करीब होते हैं और चाहते हैं उनको ... चेतावनी जरूर देनी चाहिए गलत बात करें तो चाहे लड़के हों या लडकियां ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंमार्गदर्शन और चेतावनी की लड़के/लड़की दोनों को ही एक सी जरूरत है.
अगर इसे लड़कियों की समस्याओं संबंधी आपकी पोस्ट्स की एक कड़ी माना जाए, तो यह आपके पिछले दो लेखों से बेहतर है। सरल शब्दों में अपनी बात रखने की कला इसमें उभर कर आई है। विषय तो यह हमेशा ही प्रासंगिक रहेगा क्योंकि हम माने या न माने, दोनों जेंडरों में प्रकृति प्रदत्त अंतरों के अलावा भी सामाजिक भेदभाव तो है। हालांकि यह कम हो रहा है, लेकिन सिर्फ शहरों और महानगरों में। गांवों-कस्बों में बदलाव की हवा अब भी काफी धीमी है। अब हाल का एक खाप पंचायत का तालिबानी फ़रमान ही ले लीजिए... अपने बेटों से मोबाइल और जींस छोड़ने का हुक्म क्यों नहीं सुना रहे ये लोग।
जवाब देंहटाएंथैंक्स दीपिका ..कोशिश करुँगी..अगला आलेख इस से भी बेहतर हो..{लेकिन कोशिश ही तो नहीं करती...बस की-बोर्ड खट खटा लिख जाती हूँ...कभी अच्छा लिख जाती हूँ..कभी साधारण ..अब अपने लिखे को बुरा कैसे कहूँ..किसी ने अपने दही को खट्टा कहा है,आजतक ?:):)}
हटाएंपर मेरे दिल के करीब वो पोस्ट है..'इतना मुश्किल क्यूँ होता है 'ना ' कहना"
जिन लड़कियों ने अपनी मर्जी से जीना सीख लिया है...उनपर तो कितने भी विरोध का कोई असर होने वाला नहीं है...क्यूंकि विरोध के स्वर तो सुनने के उनके कान आदी हो चुके होंगे. बदलना विरोध करने वालों को है.
पर हमारे देश की अधिकाँश लड़कियों ने अब तक'ना' कहना नहीं सीखा है'
एक सीरियल देख रही थी..उसमे संयुक्त परिवार में रहने वाकी एक सत्रह साल की लड़की की शादी इसलिए तय कर दी जाती है क्यूंकि उसने एक चैट फ्रेंड बनाया था...जो उसे ब्लैकमेल करने लगा था...तो बजाय की लड़की को सही-गलत समझाएं..उसे आगाह करें...उस पर विश्वास करें.....उसे किसी के पल्ले बांधकर अपनी जान छुडाने की कोशिश की जाती है.
मुंबई से आई उसकी कजिन उसे समझा रही है..."ये तुम्हारी जिंदगी है..मना कर दो इस शादी से आखिर कब सीखोगी 'ना' कहना??"
मैं सोचती रह गयी...सीरियल वालो ने मेरी पोस्ट नहीं पढ़ी..मैने भी पोस्ट लिखने के बाद वो सीरियल देखा..पर एक सी बात कही...इसका अर्थ समाज में ...लड़कियों के लिए 'ना' कहना अब भी बहुत मुश्किल है.
सोच रही हूं कि क्या कहूँ सब कुछ आप ने कह दिया, बस बात लोगों को समझ में आ जाये , किन्तु टिप्पणिया पढ़ने के बाद उम्मीद नहीं दिख रही ही की असल में जिन्हें समझना चाहिए वो कुछ भी नहीं समझ रहे है या वो समझने के लिए तैयार ही नहीं है | सच बात तो ये है की यह संस्कृति की चिंता विंता जैसा कुछ नहीं है , चिंता और डर इस बात की है सत्ता हाथ से फिसल रही है , मुफ्त की नौकरानी हाथ से जा रही है, प्रतियोगिता के लिए महिलाए भी सामने आ रही है और दिन पर दिन बड़ी चुनौती बनती जा रही है , यदि ये ऐसे ही बढ़ती रही तो एक दिन बराबरी की बात छोडिये पुरुषो से कही आगे निकल जाएँगी , बच्चे घर परिवार जिस काम को पुरुष असल में तो बेकार का बिनामेहनत का आराम का काम मानता था किन्तु उसे बस नाम का चालाकी से मौका पड़ने पर बड़ा जरुरी, आदि आदि बताने लगता था अब वो उसे करने की बारी आ रही है , वो ये कैसे कर सकता है डर इस बात का है की स्त्री पुरुष की तरह बन गई , दुनिया से डरना छोड़ दिया सब समझने लगी तो कही वो भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार ना करने लेगे जो अभी तक वो स्त्री के साथ करता आया था, अब इस व्यवहार की सोच उन्हें डर लग रहा है | सारे डर अब एक एक कर सामने आ रहे है , सो कोई भी मौका मत छोडो उसे नीचे खीचने के लिए, जरुरत पड़े तो उसे सार्वजनिक रूप से निचा दिखाओ , उस पर लड़को की नक़ल का ताना मारो , संस्कृति बचाओ का झाडा बुलंद करो आदि आदि | मै तो कहती हूं की लड़कियों को इस तरह की फिजूल की बातो पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए | "कुछ तो लोग कहेंगे " वाले गाने में एक कड़ी कुछ ऐसी है की " इस दुनिया ने तो सीता को भी बदनाम किया " |
जवाब देंहटाएंजो कुछ मुझसे बचा था...आपने कह दिया...बस ढेर सारी स्माइली लगाने का मन कर रहा है..:):):):)
हटाएंek smily meri bhi
हटाएंpost sampuran haen
ये बात हमें भी अच्छी लगी की आप ने सब कह दिया वो भी बिना नारीवाद का झंडा लिए ;) कोई बात नहीं हम झंडा और झंडे में लगा डंडा दोनों थामे है, कोई आन्दोलन कभी भी सिर्फ झंडा लेनें वाले के बल पर नहीं चलता है वो चलता है साथ चलने वाले से, झंडा लिए व्यक्ति तो कई बार असल में कछू भी नहीं करता है असल काम तो साथ चलने वाले ही करते है, हा कभी कभी बीच में कोई परेशान करने ( जानवर इन्सान ) वाला आ जाता है तो झंडा थामा व्यक्ति उसके डंडे का प्रयोग करता है उसे वहा से खदेड़ने के लिए :)) और कभी कभी कोई ऐसा भी होता है जिसे बस जबान से आ आ हुर्रर्र्र्र करने से ही काम चल जाता है :)))
जवाब देंहटाएंmore smileys :):):):)
हटाएंस्त्री पुरूष की जैविक संरचना के चलते अगर बाहरी बराबरी का दिखावा होगा तो नुक्सान है या फ़ायदा?
जवाब देंहटाएंआपकी बात ठीक से समझ में ही नहीं आई...
हटाएंबराबरी का दिखावा का अर्थ ??..कैसा नुकसान या फायदा??
बराबरी का दिखावा नहीं
हटाएंबाहरी बराबरी का दिखावा
-शराब पीना, सिगरेट फूंकना, जम कर डांस करना आदि आदि गर्भावस्था, प्रजनन, स्तनपान की नाजुक अवस्था से गुजरते हुए नुक्सान करेंगे या फ़ायदा?
पाबला जी पूरी पोस्ट ही इसी बात पर है कि किसी बाहरी बराबरी के दिखावे के लिए यह सब नहीं किया जाता.
हटाएंऔर जो स्त्रियाँ सिगरेट और शराब का सेवन करती हैं ...उन्हें इतनी जानकारी होती ही है और वे इतना ख्याल तो रखती ही हैं कि गर्भावस्था में इन सब से दूर रहें.
फिर फायदे और नुकसान की बात ही कहाँ आती है???
और शराब सिगरेट का सेवन तो स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही एक सा बुरा है.
स्त्री या पुरुष की श्रेष्ठता उसके स्वयं के गुणदोषों से है ना कि किसी अन्य प्राणी/ प्रजाति के अनुसरण/ अनुकरण से
जवाब देंहटाएंसौ टके की बात...फिर जगह-जगह यह नहीं कहना/लिखना चाहिए ना...कि स्त्रियाँ पुरुषों की बराबरी करने के लिए उनकी नक़ल करती हैं.
हटाएंबहुत ही बढ़िया आलेख रश्मि...प्लेन एंड सिम्पल
जवाब देंहटाएंमार्के की सारी बात कह दी है...
जैविक रूप से हमारी संरचना पुरुषों से अलग है...XY , XX Chromosomes )
दैहिक रूप से हम थोड़े कमज़ोर हैं, लेकिन मानसिक रूप से हम उनके समकक्ष हैं...
(बल्कि मैं मेरे पति से ज्यादा इंटेलिजेंट हूँ :):) हालांकि वो मानेंगे नहीं :):))
हर बार वाद-विवाद में वो हार जाते हैं ...:):))
ख़ैर ये तो हुई मजाक की बात...बिल्कुल सही बात है, स्त्रियों को अगर स्त्री नहीं समझ कर, एक 'व्यक्ति' समझा जाए तो समस्या ख़त्म हो जायेगी....
हम स्त्रियाँ बराबरी का दर्ज़ा पाने के लिए लड़ाई नहीं लड़ रहीं हैं...वो दर्ज़ा तो हमें कानूनन भी मिला हुआ है...हम संघर्ष कर रहीं हैं एक 'व्यक्ति' का दर्ज़ा पाने के लिए...जिसे अपने विवेक से काम करने की आज़ादी दी जाए..
तुम्हारे पति जानबूझ कर हार जाते होंगे तुम्हे खुश करने को...
हटाएंहार में जो ख़ुशी है..वो तुम क्या जानो...एक बार हार के देखो..:):) {जैसे हमने तो हारने में Phd की हुई है..:):) }
बट ऑन सीरियस नोट...हम ये नहीं कहते कि स्त्रियाँ श्रेष्ठ है..पुरुषों से .पर मानसिक रूप से समकक्ष जरूर हैं...फिर खुद के लिए निर्णय लेने की क्षमता भी है,उनमें
रश्मि जी क्या आप वाकई सीरियसली यह कह रही हैं कि स्त्रियां पुरुषों से श्रेष्ठ नहीं हैं। यह बात कुछ जम नहीं रही। एक तरफ आप बराबरी की बात करती हैं, दूसरी तरफ खुद ही यह भी कहती हैं। आखिर क्यों ?
हटाएंबराबरी और किसी से श्रेष्ठ होने का अर्थ एक ही होता है??
हटाएंजय हो मैडम जी आज तो पूरा तीया पाँच कर दिया :)
जवाब देंहटाएं:):)
हटाएंस्त्री और पुरुष को तो भगवान ने ही अलग बनाया है . लेकिन एक दूसरे के पूरक भी . ऐसे में अपना अपना अस्तित्त्व बनाये रखना ही बेहतर है . वर्ना आजकल प्रकृति के साथ जो छेड़ छाड़ हो रही है उससे मानव जाति खतरे में आ सकती है .
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा आपने..
हटाएंअपना अस्तित्व बनाये रखना..हर स्त्री/पुरुष का अधिकार है...और उसका सम्मान किया जाना चाहिए.
इन सब के बीच में वो माँ कहाँ खो गयी, जिस गुण के कारण वो पुरुषों से बेहतर मानी जाती हैं... क्या आज के बच्चे महरूम नहीं हैं उस माँ के प्यार से... मानती हूँ, स्वतंत्रता और निर्णय लेने का अधिकार मिलना चाहिए, सम्मान के भी हक़दार हैं, पर उनकी तरह गलत काम करने की भी छूट हम चाहें,ये कहाँ तक तर्क-संगत है...
जवाब देंहटाएं@क्या आज के बच्चे महरूम नहीं हैं उस माँ के प्यार से..
हटाएंआज के बच्चे महरूम हैं,माँ के प्यार से??...आप और हम बच्चों को प्यार नहीं देते??....हम भी तो आज के ही हैं.
और अपने आस-पास हर वर्ग की औरतों को देखा है..चाहे वो कार ड्राइव करके सुबह छः बजे बच्चों को स्कूल छोडती माँ हो...या फिर सुबह घर-घर में चौका-बर्तन करने निकलने से पहले बच्चों के टिफिन तैयार कर के रखती माँ हो...ऑफिस से बार-बार फोन पर बच्चों का हाल-चाल लेती कोई वर्किंग लेडी हो..या देर रात तक जागकर बच्चों का प्रोजेक्ट तैयार करती कोई हाउस वाइफ. हमें तो सब अपने बच्चों से प्यार करते ही नज़र आते है.
पर ये महिलाएँ बीच में समय निकाल कुछ पल अपने लिए भी जी लेती हैं....इसी से परेशानी है..अधिकाँश लोगों को.
क्या जॉब करके पाई हुयी ख़ुशी, बच्चों के साथ समय व्यतीत करने से बेहतर है ? क्या हम अपनी काबिलियत सिर्फ जॉब करके ही दिखा सकते हैं ? उन बच्चों का क्या जो २ बजे घर लौटने के बाद शाम के ८ बजे तक माँ का इंतजार करते रहते हैं... आज की युवा पीढी के गलत दिशा में भटकने का एक प्रमुख कारण आज की माँ ही है शायद... मजबूरी में काम करना अलग बात है, पर खुद को साबित करने के लिए...??? मैं इससे सहमत नहीं... किसे साबित करना चाहते हैं हम और क्या ??? उसी पुरुष समाज को, जिससे हम बेहतर है...
हटाएंगायत्री जी...जो महिलाएँ नौकरी करती हैं...उन्हें किसे क्या साबित करना है??..और वे अपने बच्चों के ख्याल रखने का पूरा इंतजाम कर के ऑफिस जाती हैं.
हटाएंसॉरी ,मैं ये नहीं मानती कि कहीं कोई युवा या युवती गलत कार्य को अंजाम देते हैं तो इसकी वजह उनकी माँ होती है.
बच्चों के अच्छे बुरे होने के लिए सिर्फ़ माँ ही जिम्मेदार नहीं होती, उसमें उनके आस-पास का माहौल, स्कूल, दोस्त इन सबका हाथ होता है...साथ ही हर बच्चे का अपना ख़ुद का भी व्यंक्तित्व होता है ....
हटाएंमैं ख़ुद एक नौकरी-पेशा महिला हूँ, और मैंने अपने कैरियर के साथ-साथ अपने बच्चे पाले हैं...मुझे अपने कैरियर से प्यार है...जिसने मुझे इस योग्य बनाया है कि मैं अपने बच्चों को ढंग से पाल सकी... मेरे कैरियर ने मुझे बहुत कुछ दिया है, दुनिया की जानकारी, अच्छे लोगों से मिलना, उनके विचार जानना, देश-दुनिया में क्या हो रहा है इसके बारे में जानना, अपनी कमियों को पहचानना, उनको सही करना और एक परिष्कृत सोच को लाना, साथ ही आर्थिक स्वतंत्रता पाना, मेरी माँ सारी उम्र एक कैरियर वूमन रही है, और हम भाई बहन को बहुत अच्छे से पाला है उन्होंने....
औरत सिर्फ़ माँ, बेटी, पत्नी या बहन नहीं है, वह एक व्यक्ति है और उसे अपने व्यक्तित्व को पहचानने और उसका विकास करने का पूरा अधिकार है...अगर ऐसा नहीं होता तो दुनिया भर की महान महिलाओं का नाम आज हम जान ही नहीं पाते...
अधिकतर कैरियर वूमन, माँ होने का फ़र्ज़, न सिर्फ़ अच्छी तरह समझती हैं उसे पूरा भी करतीं हैं....
ऐसी भी औरतों को देखा है मैंने, जो घर में रहतीं हैं, फिर भी बच्चों का ध्यान नहीं रखतीं हैं, या तो टेलीफोन पर गप्प लगातीं हैं या टी.वी. देखतीं हैं, या किसी किटी पार्टी में व्यस्त रहतीं हैं...घर में होने भर से फ़र्ज़ पूरा नहीं हो जाता है...उसके लिए जिम्मेदारी का भी अहसास होना चाहिए...
रश्मि जी काफी दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आया... माफ़ी...
जवाब देंहटाएंबढ़िया आलेख है. लेकिन...जो बदलाव आप देख रही हैं वह समय के साथ आएगा ही... इसे कोई रोक नहीं सकता है... लेकिन कुछ वर्षो बाद जो इन्फिरियोरिटी और इन्स्क्योरीटी लड़कियों में है.. वह लडको में आनी शुरू हो जाएगी... यह स्वाभाविक चक्र है... अभी से मैंने देखा है कि लड़कियों के कारण अवसर खोते हुए देख रहे हैं लड़के.... जिस तरह आरक्षण ने एक अलग तरह के कुंठा को जन्म दिया था.. वही अब पुरुष स्त्री के बीच हो रहा है.. स्वस्थ परिवर्तन की ओर नहीं जा रहा समाज....
लड़कों में इन्फिरियोरिटी और इन्स्क्योरीटी क्यूँ आएगी??
हटाएंक्या वे पढना -लिखना छोड़ देंगे?
या फिर कम मार्क्स लेकर भी उन्हें एडमिशन मिल जाता था अब, लडकियाँ ज्यादा मार्क्स लाकर एडमिशन ले रही हैं..तो वे भी ज्यादा मेहनत करें और स्वस्थ परिवर्तन कैसे होगा??
जब कार्य बंटे रहेंगे??
इसमें कोई शक़ नहीं लड़कियों के नौकरियों में आ जाने से लड़कों ले लिए opportunities कम हो रहीं हैं...लेकिन इसका हल ये नहीं कि लडकियाँ नौकरी में आएँ ही नहीं...
हटाएंमैंने तो यहाँ तक महसूस किया है, अगर ऑफिस में लेडी बास हो तो पुरुष नहीं पसंद करते हैं...जबकि उस महिला ने अपनी मेहनत से वो मक़ाम पाया होता है...
इस तरह के व्यवहार से बचने का एक ही उपाय है महिलाओं के लिए उस तरफ ध्यान नहीं देना, और पुरुष ऐसी कुंठा से ख़ुद को निकालने कि कोशिश करें, उस अधिकारी को महिला नहीं एक व्यक्ति माने, यही हो सकता है...
बाप रे! बहुत से कमेंटस् आ चुके हैं मगर मैंने एक भी नहीं पढ़े।
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट एकदम सटीक विवेचना करने में सफल है।
जब नाव नदी में चल निकली तो धारा के संग=संग ही बहेगी। समुंद्र से भी मिलेगी। किनारे खड़े हो कर हाय-हाय करने से क्या होता है!:)
बड़ी सटीक उपमा दी है...आपने
हटाएंधारा में नाव और किनारे पर हाय हाय करते लोग..:)
सच है जी - पूर्ण सहमति. लडकियां करे तो भी फैशन, लड़के करें तो भी !
जवाब देंहटाएंवैसे बाकी चीजों के बारे में तो ज्यादा अनुभव नहीं पर लम्बे बाल तो बहुत अच्छे लड़के भी करते हैं :) फैशन करने से कोई नहीं बिगड़ता.
हाँ दारु-सिगरेट वगैरह तो सबको ही बराबर बिगाड़ेगा !
ये लम्बे बाल वाले बहुत अच्छे लड़के कौन से हैं?? कुछ लोगों की फेसबुक प्रोफाइल टटोलनी पड़ेगी...:)
हटाएंइस पोस्ट से पुरुष वर्ग के प्रति सही दृष्टिकोण नहीं परिलक्षित होता है .नारी वर्ग को यहाँ तक लाने में पुरीष वर्ग की थोरी तो श्रेय होगा .टकराहट की मानशिकता के स्थान पर सहयोगात्मक भावना रहे .दोने एक दूसरे के पूरक है .समाज दोनों से बनता है .
जवाब देंहटाएंपरिधान किसी भी नारी की पहचान है जिससे उसकी मर्यादा ,सभ्यता ,और गुण परिलक्षितहोती है . परिधान के चुनाव में स्वतन्नता तो है ही लेकिन यह भी देखनी है की आपकी परिधानिक स्वतन्त्रता किसी सामाजिकपरिवेश पर गलत प्रभाव तो नहीं देगा.आज के समय में नारियो पर खाप का बंधन वैएमानी तथा वेतुका है.
शुक्रिया आपकी प्रतिक्रिया का
हटाएंये तो आपने सही कहा...टकराहट की मानसिकता की जगह सहयोगात्मक भावना की ही जरूरत है.
आपके दृष्टिकोण से पूरी तरह सहमत हूँ. आलेख जितना इस विषय पर कहता है वहतो है ही परन्तु टिप्पणियाँ पढ़ने में उससे भी ज्यादा मज़ा आया और यह भी लगा कि कुछ महिलाएं भी स्त्रियों की नौकरी करने से सहमत नहीं है. तर्क चाहें नौकरी के अवसर कम होने का हो याँ बच्चे संभालने में कोताही का.
जवाब देंहटाएंमै अरुण चन्द्र राय जी से सहमत हूँ। अच्छा आलेख।
जवाब देंहटाएंबहुत देर से आयी हूं। बहुत विमर्श हो चुका है। जिन आदतों को लेकर हम पुरुषों को हेय दृष्टि से देखते हैं यदि उन्हीं बातों को महिला भी अपने आचरण में लाने लगे तो अच्छी बात नहीं है। रही बात वेशभूषा की तो वह कार्य के हिसाब से ही पहनी जाती हैं।
जवाब देंहटाएंअब मैं क्या कहूं रश्मि जी, मैंने खुद ही अपने दोनों कान छिदवा रखे हैं, लेकिन मैं इस बात से भी इत्तेफाक रखता हूँ कि आज कि दुनिया में सब बराबर हैं, कोई छोटा या बड़ा नहीं या कोई प्रथम या द्वितीय नहीं! लड़का हो या लड़की, सब को समान अधिकार हैं!
जवाब देंहटाएंरश्मि, ये तो केवल पुरुषों के शगूफ़े हैं कि लड़कियां लड़कों की नकल करती हैं. लड़कियां अपने आप में सम्पूर्ण व्यक्तित्व हैं, उन्हें किसी नकल की न ज़रूरत है न वे करती हैं. आगे बढती महिलाओं को देखकर यदि पुरुष अपने फ़्रस्ट्रेशन को इस तरह निकालना चाहे, तो निकाले. किसी भी घर में यदि पत्नी, पति से ज़्यादा ऊंचे पद पर है, तो पति भयानक रूप से अवसादग्रस्त होता है, जबकि पति की सफलता पर पत्नी हमेशा दिल से खुश होती है. तो हमेशा अपनी तरह से नचाने वाले पुरुष अब स्त्रियों का स्वतंत्र व्यक्तिव, उनकी स्वतंत्र सोच पचा नहीं पा रहे. खुंदक क्किसी न किसी रूप में तो निकलेगी ही, तो यही कह लो कि नकल कर रही हैं. आज दुनियां के तमाम सर्वोच्च पदों पर महिलाएं विराजमान हैं, केवल अपनी योग्यता से, किसी की नकल से नहीं. ये अलग बात है कि सारे पुरुष एक जैसा नहीं सोचते.
जवाब देंहटाएंअपने अपने दृष्टिकोण की बात है |
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