सोमवार, 2 जुलाई 2012

लड़कियों की उड़ान किसी इत्तफाक़ की मोहताज़ नहीं....


पिछली पोस्ट में जब कई  माताओं-पिताओं द्वारा अपने ही बच्चों के पालन-पोषण में विभेद पर आलेख लिखा तो लगा इस विषय पर भी लिख देना चाहिए जो मेरे मन में अक्सर हलचल मचाता है. 
और ब्लॉग तो है ही अपने मन का सबकुछ उंडेल देने के लिए...:)

इस बात से तो सभी सहमत हैं कि मुट्ठी भर जागरूक अभिभावकों को छोड़कर ज्यादातर लोग लड़की के जन्म पर ख़ुशी नहीं मनाते. 
पर जब इन्हीं माताओं-पिताओं को  पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं होती और लक्ष्मी या लक्ष्मियाँ  ही उनके घर की रौनक बढ़ाती है तब वे  इस सच को ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर, अपनी बेटी को हर सुख-सुविधा ..आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करने का प्रयत्न करते हैं.

मैने एक  बात गौर की है......जितनी भी लडकियाँ सफलता के उच्च  शिखर तक पहुंची हैं, उनमें से ज्यादातर वे लडकियाँ हैं जिनके  पिता को कोई पुत्र रत्न नहीं है. यानि अगर उनके कोई बेटा नहीं है तो फिर वे अपनी बेटी को ही एक बेटे के रूप में पालते हैं . उस पर लड़कियों वाला कोई बंधन नहीं लगाते...उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं...और किसी भी क्षेत्र में उन्हें आगे बढ़ने से नहीं रोकते....उनके अंदर ये भावना भी पलती है कि उनके सपनो को बेटियाँ ही पूरी करनेवाली हैं...उनकी आशाएं-आकांक्षाएं उनपर ही टिकी हैं. वे  अपने साथी -रिश्तेदार जो बेटे के पिता होते हैं ,उन्हें वे दिखा देना चाहते हैं कि मेरी बेटियाँ ,आपके बेटों से किसी मायने में कम नहीं हैं .और वे उन्हें बढ़िया मार्गदर्शन...हर सुविधा प्रदान करते हैं...और हर हाल में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं.
'किरण बेदी ' का भी कोई भाई नहीं है....उनके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला..घुड़सवारी-तैराकी सब सिखाई और उन्हें आगे बढ़ने से नहीं रोका.फलस्वरूप वे पहली महिला IPS Officer    बनीं. लिखते वक़्त  कई नाम याद नहीं आ रहे ऐसी ही तीन बहनें है...एक प्रख्यात जर्नलिस्ट, रंगकर्मी और बड़ी ऑफिसर...उनके  इंटरव्यू और भी ऐसी कई लड़कियों के  इंटरव्यूज़ पढ़े/सुने हैं जो कहती हैं...'हमारे माता-पिता ने हम बहनों को बिलकुल बेटों की तरह पाला.....हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया और आज हम यहाँ हैं. " (हालांकि बेटों की तरह या बेटियों की तरह पालने के तरीके का वर्गीकरण क्यूँ किया जाता है??...एक बच्चे को उसके जेंडर से ऊपर उठा कर सिर्फ एक बच्चे की तरह  क्यूँ नहीं पाला जा सकता ?? )

कई उदाहरण अपने आस-पास भी देखे हैं. जिनकी सिर्फ बेटियाँ होती हैं..वे अपनी बेटियों को बिना हिचक वे सारे काम सौंपते हैं जो  जो अक्सर लड़के ही करते हैं...और वे अपनी इस आजादी का कोई अनावाशय्क फायदा नहीं उठातीं बल्कि कुछ ज्यादा अच्छी तरह ही उस कार्य का सम्पादन .करती हैं.  अगर सिर्फ बेटियाँ हों तो उन्हें दूसरे शहर..दूसरे देश भेजने में भी नहीं हिचकिचाते. पर यही अगर ईश्वर ने बेटा-बेटी दोनों का सुख प्रदान किया तब जैसे कार्य-विभाजन हो जाता है...बेटियों की तो शादी कर देनी है और बेटों को उनकी मनचाही उड़ान के लिए ढील देते रहना है.परंपरावादी  माओं की तरह यहाँ भी माँ बेटियों को सारे स्त्रियोचित गुण प्रदान करना चाहती होंगी...पर यहाँ पिता जरूर हस्तक्षेप करते हैं और बेटियों पर भरोसा कर उनपर किसी तरह का बंधन नहीं लगाने देते .

एक उड़ता हुआ ख्याल आता है क्या इंदिरा गांधी का कोई भाई होता तब भी 'नेहरु 'अपनी बिटिया को ही राजनीति  में आने के लिए प्रेरित करते ?? ..शायद नहीं. 

क्यूंकि उनकी अगली पीढ़ी यही कर रही है. हम सबने अपनी नज़रों के सामने प्रियंका और राहुल के व्यक्तित्व का विकास होते देखा है. प्रियंका  शुरू में राहुल से कहीं ज्यादा एक्स्ट्रोवर्ट और लोगों से जल्दी घुल-मिल जाने वाली थीं. राजीव गांधी की ह्त्या के बाद उनकी अंत्येष्टि का सीधा प्रसारण टी.वी. पर हुआ था. और वहाँ देखने से लग रहा था...उस छोटी सी उम्र में प्रियंका ही सारा इंतजाम देख रही हैं. नेताओं से बात करते...तेजी  से आते- जाते वही दिख रही थीं. सोनिया सदमे की हालत में थीं और राहुल एक तरफ हाथ बांधे खड़े थे. अंत्येष्टि के वक्त प्रियंका माँ के समीप  खड़े हो  कंधे से घेर उन्हें हिम्मत बंधाना  भी नहीं भूलीं.
 पर उनकी , इतनी सक्रियता के बाद भी राजनीति में किसे प्रमोट किया जा रहा है,सबके सामने है. ये भी कहा जा सकता है कि शायद, प्रियंका अपनी मर्जी से शादी और बच्चों को प्राथमिकता देना चाहती हों...पर सच कुछ और ही लगता है. क्यूंकि राजनीतिक सभाएं तो वे शादी-बच्चों के बाद भी लगातार अटेंड करती रही हैं. पर किसी जिम्मेवारी वाले पद से जरूर मरहूम रहीं...अब अपनी मर्जी से या माँ के निर्देश पर...यह तो पहेली ही बनी रहेगी और सब अटकलें ही लगाते रहेंगे. 

ऐसा नहीं है...कि जिनके बेटे होते हैं वे अपनी बेटियों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित नहीं करते . मातृवंशी  समाज में या आदिवासी समाज में...या कुछ जागरूक-उदारवादी-प्रबुद्ध जन लड़के/लड़कियों में ऐसा भेदभाव नहीं करते. पर व्यापक तौर पर ऐसी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है.
कहने का अर्थ यह है कि जब बेटियों को प्रोत्साहित किया जाता है...उनपर अनावश्यक बंधन नहीं लगाए जाते तो वे आसमान छू लेने की हैसियत रखती हैं. इसलिए उनपर भरोसा करें और उनकी उड़ान को ना रोकें. 

लडकियाँ ये गानें पर मजबूर ना हों..
"उड़ी उड़ी  मैं तो उड़ी..इत्तफाक़ से...."
ये इत्तफाक़ नहीं..उनकी नियति होनी चाहिए.

62 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद सशक्त लेखन.....
    पूरी तरह सहमत हूँ आपसे...बेटी को बेटे की तरह क्यूँ पाला जाए भला....????
    शायद ये समाज की बुराई है....माँ-बाप आमतौर पर बेटी के घर (उसके विवाहोपरांत)नहीं रह सकते....बेटी माँ-बाप पर खर्च नहीं कर सकती....अब वे बेटे की कामना करेंगे ही...(अब बेटा नालायक हो तो उनका भाग्य..हाँ नालायक बेटियाँ कम सुनने में आती हैं.)
    मातृसत्तात्मक समाज भी(जैसे केरला में )अब नाम को ही रहा...कानून तो अब सब जगह एक सा ही है न...

    बेटियाँ उड़ेंगी.....ज़रूर उड़ेंगी.....(पर कतरने वालों के हौसले पस्त करने होंगे.)

    अनु

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  2. जब बेटियों को प्रोत्साहित किया जाता है...उनपर अनावश्यक बंधन नहीं लगाए जाते तो वे आसमान छू लेने की हैसियत रखती हैं. इसलिए उनपर भरोसा करें और उनकी उड़ान को ना रोकें....
    सही लिखा आपने ....
    सोये को जगाया जा सकता है .... जो खुली आँख से सब देखते और तब दिल-दिमाग में ताला लगा लेते हैं .... उनका क्या किया जाए .... ??

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    1. दिल-दिमाग के बंद दरवाजे पर तब तक दस्तक जारी रहे...जब तक दरवाज़ा खोल खुली हवा अंदर आने देने को मजबूर ना हो जाएँ

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  3. सच है, यदि उन पर ध्यान दिया जाये तो भला क्यों न वे आगे बढ़ें..

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  4. बेटियां भी काबिलियत की धनी होती हैं | उन्हें बेवजह न जकड़ा जाये तो ज़रूर आगे जाएँगी ....इस देश की अनगिनत बेटियों यह साबित भी किया है....

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  5. सही एवं सार्थक आलेख...एक विश्वास जताओ तो क्या लड़का और क्या लड़की- दोनों ही बराबरी से आसमां छू सकते हैं...

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  6. उत्तर
    1. हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है :)




      [ पता नहीं कैसे यह फ़िल्मी गीत याद आया , आपका कमेन्ट पढ़के ]

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  7. 100 परसेंट सहमत हूँ आपके बातों से!

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  8. यह भी एक पक्ष है कि बेटे नहीं होने पर बेटियों पर ही केन्द्रित हो जाते हैं माता-पिता। वतर्मान में तो बेटियों से भेदभाव का अन्‍तर कम होने लगा है। अच्‍छा विवेचन।

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  9. बड़ी अजीब सी बात है ..मैंने अक्सर देखा है जिन घरों में तीन चार बेटियों के बाद बेटे हुए हैं...वे जीवन में कुछ substantial नहीं कर पाए...बल्कि बेटियां बड़े बड़े ओहदों पर आसीन हैं ......और इसके अलावा मैं तो यह भी नहीं समझ पाई की क्यों लोग बेटे के पीछे क्यों भागते हैं...जबकि बेटियां माँ बाप की हमदर्द होती हैं...... वह सुना है न
    Son is son till comes his wife
    Daughter is daughter all the life

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  10. लेख अच्छा लगा!
    जिन घरों में बेटे बेटी दोनों होते हैं वहाँ एक अंतर तो आ ही जाता हैं.माँ बाप न भी करे तो दूसरे इसके लिए मजबूर कर देते हैं.लडकियों की पढाई या नौकरी आदि के चुनाव में उनकी इच्छा का ख्याल नहीं रखा जाता.मैंने किसी पोस्ट में कहा था कि कई घरों में उम्र में छोटे भाई भी अपनी बहनों के लिए 'भाई' बन जाते है(वैसे बडे भाईयों के मामले में ये स्थिति अब बदलती लग रही हैं कई बार उन्हें बहनों का पक्ष लेते भी देखा है).वैसे इसका मतलब ये भी नहीं हैं कि जिन घरों में संतान के रूप में लडके लडकी दोनों होते हैं वहाँ लडकी के साथ भेदभाव हो ही या माँ बाप उन्हें प्रेम न करते हो मैंने ऐसे बहुत से घर देखे हैं जिनमें माता पिता और खासकर के पिता बेटियों की लगभग हर इच्छा पुरी करते हैं वो उन्हें बेटों से ज्यादा लाडली होती हैं यहाँ तक कि कोई गलती होने पर भी कभी उन्हें डाँटते नहीं हैं और न घर में दूसरों को कुछ कहने देते हैं जबकि बेटों की गलतियाँ बख्शते नहीं हैं.और ऐसे परिवार आपको शहरों में ही नहीं गाँवों में भी खूब मिलेंगे.एक तो मेरे दोस्त के पिता ही हैं जब आँटीजी उनसे कहती हैं कि इसकी हर जिद पूरी करके आपने इसे बिगाड दिया हैं तो उनका जवाब होता हैं कि ये नालायक(मतलब मेरा दोस्त,उनका बेटा) तो यहीं रहेगा जैसे तैसे खुद कमा खा लेगा जबकि हमारी बेटी को तो हम अभी लाड प्यार कर सकते हैं इसकी शादी के बाद पता नहीं कोई इसकी इच्छा पूरी करे न करे,आगे पढाए न पढाए हम लोग भी उसकी मदद कर पाए या नहीं कौन जाने.हालाँकि ये सोच भी है तो नकारात्मक यानी वही पराए धन वाली (जबकि वे एक उच्च शिक्षित व्यक्ति हैं और एम.ई.एस में ऑफिसर है) लेकिन उनकी सोच से असहमत होते हुए भी बेटी के प्रति उनकी भावनाओं और प्रेम का मैं सम्मान करता हूँ.
    अभी लिखते लिखते मैं कुछ और कहना भूल रहा हू..खैर हो सका तो दुबारा आता हूँ.

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    1. राजन जी
      बात प्यार करने की नहीं है बात है उनके लिए जमीनी रूप से कुछ करने की उनके लिए समाज से लड़ जाने की उनके लिए भी अपना सब कुछ नौक्षवर कर देने की , मैंने भी देखा है की अपनी बेटी को बहुत प्यार करने वाले माता पिता भी मोटा डोनेशन दे कर मेडिकल या इंजीनियरिंग में सीट लेना हो तो हिचक जाते है जबकि बेटे के लिए कही से भी इतजाम कर देते है शादी में खूब दहेज़ दे देंगे किन्तु बेटी को संपत्ति में हिस्सा कभी नहीं देंगे बेटो के बराबर, बेटा अपनी मर्जी से शादी कर ले तो देर सबेर मान ही जाते है जबकि बेटी के ऐसा करते ही आफत आ जाती है और बहुत कुछ है बस जुबानी खर्च और प्यार के आलावा बेटी को बेटे के बराबर का हक़ नहीं मिलता है | ये नहीं कहा रही की ऐसा सब जगह हो रहा है पर ऐसा भी होता है |

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    2. अंशुमाला jee,अब भेदभाव तो हो ही रहा हैं इसीलिए ही तो रश्मि जी ने पोस्ट भी लिखी हैं.और मैंने उनसे सहमति भी जताई हैं.मैंने एक सकारात्मक पक्ष रखने की कोशिश की थी कि बहुत से पिता बेटियों के लिए भी जमीनी रुप से ही कुछ करना चाहते हैं मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ जो प्यार के नाम पर जबानी खर्च कर रहे हैं.बल्कि देखा जाए तो बेटों के पढाने के पीछे ही एक स्वार्थ हैं वह भविष्य के निवेश की तरह है जबकि लडकी यदि सचमुच पढ लिखकर कुछ बन भी गई तो भी उन्हें कोई फायदा नहीं होगा और होगा भी तो बस थोडे समय के लिए(ये कहना मुझे अच्छा नहीं लग रहा पर हमारा सामाजिक ढाँचा ही ऐसा).लेकिन इस बात को जानते हुए भी बहुत से माता पिता अपनी बेटियों को मेडिकल प्रबंधन या पत्रकारिता जैसे क्षेत्रों में भी भविष्य बनाने के लिए भेज रहे हैं तो बहुत से ऐसे हैं जो अपनी सामर्थ्य अनुसार पढा रहे है और अब देखा देखी ऐसी लडकियों और ऐसे अभिभावको की संख्या धीरे धीरे बढती जा रही हैं.इस हिसाब से देखा जाए तो ये पिता लडकियों के लिए जो कर रहे हैं वहाँ इनका कोई स्वार्थ नहीं हैं जबकि लडकों के मामले में ऐसा नहीं हैं.और संपत्ति में हिस्सा क्या पुत्रियों को इसलिए नहीं दिया जाता कि उनसे पिताओं को कोई नफरत है?या बेटों से कोई विशेष लगाव है?बल्कि यहाँ भी स्वार्थ हैं.बुढापे में छत और रोटी के लिए बेटे पर ही निर्भर रहना हैं और हारी बीमारी का या लडकी की शादी का जो कर्ज हैं वह चुकाना बेटे की जिम्मेदारी हैं.वर्ना आप खुद सोचिए एक बुजुर्ग व्यक्ति ने जो कुछ जीवनभर में जुटाया हैं उसे क्या फर्क पडता हैं इसे बेटा ले या बेटी क्योकि उसका तो वैसे भी कुछ नहीं रहेगा.वैसे इस और किसीका ध्यान इसलिए भी नहीं जाता क्योंकि शुरु से यही होता आ रहा हैं वर्ना वो यदि बेटी के लिए दहेज दे सकता हैं या उसके बाद बेटी के ससुराल में विभिन्न अवसरों पर शगुन आदि के नाम पर खर्च कर सकता हैं तो संपत्ति में भी हिस्सा देने में मुझे नहीं लगता इसमें कुछ जोर आएगा.इस संबंध में जो कानूनी बदलाव हुए हैं उनका प्रचार कर उन्हें लागू करवाने के की कोशिश की जानी चाहिए ताकि लोग पहले से ही इसके लिए मानसिक रुप से तैयार हो लें.हालाँकि ससुराल में यदि कोई दिक्कत आती हैं तो बहुत से पिता बेटियों की आर्थिक मदद तो करते हैं.

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    3. एक बिन्दू और रह गया.
      ये बात तो सच हैं कि लडकियाँ मर्जी से शादी करे तो उसका ज्यादा विरोध होता हैं.लेकिन ऐसा भी नहीं हैं कि लडकों के लिए कोई कम आफत आती है बल्कि सच तो ये हैं कि लडके पहले से ही सब प्लान करके रखते हैं इसीलिए वो विरोध की ज्यादा परवाह नहीं करते और न किसी बात को दिल पर लेते हैं इसलिए घरवालों का उनपर ज्यादा जोर नहीं चलता नहीं तो कोशिश तो लडकों को सबक सिखाने की भी खूब की जाती है उन्हें संपत्ति में से भी बेदखल कर दिया जाता हैं(प्रेम विवाह के लिए घर से भागे लडके के परिजन यदि अच्छे पैसे वाले हैं तो अपने ही बेटे के खिलाफ पुलिसवालों की जेबें गर्म कर देते हैं कि उसे ढूँढकर लाओ और थाने में रखकर खूब पीटो ताकि सारा प्यार का भूत उतर जाए और ऐसा ही होता भी हैं)जबकि लडकियाँ इस मामले में भावुक होती हैं.हाँ कुछ समय बाद लडके को वापस भी बुला लिया जाता हैं लेकिन ऐसा पिता या घर के दूसरे पुरुष नही करते बल्कि वो तो उसके लौट आने के बावजूद बातचीत बंद रखते हैं.उसे बुलाया जाता हैं तभी जब माँ अपनी तरफ से दबाव डाले.और यदि बेटी ने प्रेम विवाह किया हैं तो वो उससे भी सब संबंध तोड लेंगे लेकिन कुछ समय बाद बेटी को भी शादी या त्योहार आदि पर बुलाना शुरु कर देते हैं वैसे आपको ऐसे भी कई घर मिल जाएँगें जहाँ प्रेम विवाह किया लडका खुद ही लडकी के घर पर रह रहा हैं घरजमाई बनकर.क्योंकि लडकीवालों को कोई एतराज नहीं हैं पर उसके घरवालों को हैं.और ये बात तो मैं राजस्थान की कर रहा हूँ.
      और अंत में मै भी-
      ये नहीं कह रहा कि सब जगह ऐसा ही होता हैं पर ऐसा भी होता है.

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    4. राजन जी
      दहेज़ में दिया गया एक पैसा भी बेटी को नहीं मिलता है सब उसके ससुराल वालो को दिया जाता है जो कभी भी बेटी को नहीं मिलता है और एक बड़ी रकम उसकी शादी के नाम पर खर्च कर दी जाती है अपनी शान और शौकत दिखाने के लिए और कहा जाता है की देखो तुम्हारी शादी पर कितना खर्च किया | अभी कुछ दिन पहले एक खबर पढ़ी थी की बेटी ने संपत्ति में हिस्सा माँगा तो उसे पंचायत ने गांव से ही निकाल दिया और उस खबर पर जरा लोगों की टिप्पणिया पढ़िये पता चल जायेगा की कितने पिता और भाई बेटियों और बहनों को संपत्ति में हिस्सा देना चाहते है | हा बदलाव तो हो रहा है पर उसकी रफ़्तार घोंघे की चाल को भी शर्मिंदा कर रही है |

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    5. अंशुमाला जी,आपकी हर बात का लाईन बाई लाईन जवाब दे सकता हूँ पर अभी यहाँ खुलकर शायद न लिख पाऊँ क्योंकि फिर पोस्ट से इतर बातें हो जाएँगी इस पर बात फिर कभी.पर इतना बता दूँ कि मैंने केवल पिताओं की बात की थी भाईयों की नहीं.पिता को भी कई बार बेटों के सामने झुकना पडता हैं.ये बात तो सच हैं कि हमारे समाज में बेटियों को अविवाहित रहते और बिना माँगे संपत्ति में हिस्सा देने की बात उठेगी ही नहीं खुद बेटियाँ भी नहीं उठाएँगी क्योंकि मुस्लिम समाज की तरह हमारे यहाँ वैसी कोई परंपरा रही ही नहीं.इसमें अभी बहुत समय लगने वाला हैं.लेकिन हाँ बहन को कोई जरूरत पडने पर जरूर उसे उसका हिस्सा दिया जाने लगा है कुछ इसे स्वीकार कर लेते हैं तो कुछ हिस्सा तो दे देते हैं लेकिन इसके बाद लडकी से संबंध खत्म कर लेते है इसके बाद उसे मायके में आने ही नहीं दिया जाता.और ये होता हैं भाई की मर्जी से न कि पिता की(हालाँकि कुछ मामलों में भाई की पत्नी और उसके ससुरालिये भी ऐसे बँटवारे का विरोध करते है).अब ऐसे भाईयों का तो हम क्या कर सकते हैं यदि इनका वश चले तो ये अपने भाई का ही हिस्सा हडप जाएँ कई तो ऐसा कर भी डालते है तो ऐसे भाई बहनों के हक की परवाह क्योंकर करेंगे.
      हाँ मैं मानता हूँ कि ज्यादातर पुरुष 95% या चलिए 98% भेदभाव करने वाले और महिलाओं के प्रति गलत सोच रखने वाले है आप उनके बारे में खूब लिखिए.लेकिन कभी कभी हमें भी उन दो प्रतिशत अच्छे पुरुषों की बात करने दीजिए क्योंकि पुरुष भी दूसरों को देखकर ही सीखते हैं.आप महिलाएँ भी तो दूसरी महिलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए उन महिलाओं की बात करती हैं जो शोषण के विरुद्ध लडी और जीती भले ही इनकी संख्या एक फीसदी ही हो,तो बस कभी कभी पुरुषों के संदर्भ में ऐसा करना गलत नहीं हैं.इससे कोई नुकसान नहीं होगा बल्कि हो सकता है उस घोंघे को कुछ कम शर्मिंदा होना पडे.

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  11. रश्मि जी,
    मैंने अंशुमाला जी की पोस्ट पर आपका कमेंट देखा जिसमें आपने उनकी पोस्ट का जिक्र अपनी पोस्ट में करने की बात कही हैं.मैंने आपका ब्लॉग चैक किया पर ऐसी कोई पोस्ट नहीं दिखी.क्या आपने दहेज पर कोई पोस्ट लिखी है?
    यदि लिखी हो तो कृप्या इसका लिंक दें ताकि आपके विचारों से भी अवगत हुआ जा सके.
    धन्यवाद!

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    1. राजन,
      सर्वप्रथम तो शुक्रिया...आप पहली बार मेरे ब्लॉग पर आए हैं...स्वागत है :)

      शायद स्त्रियों से सम्बंधित हर विषय पर लिखा है...उनपर काफी लंबा विमर्श भी हुआ है.
      कहानी की इस किस्त पर भी कहानी से इतर काफी विमर्श हुआ.

      अंशुमाला जी की पोस्ट का जिक्र इस पोस्ट में किया था.

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  12. इस हकीकत को नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि जिनकी बेटियों के साथ बेटे भी हैं , वे बेटों के लिए बेटियों के हक़ को कुर्बान कर देते हैं ...बात तो तब है जब दोनों को समान अधिकार दिए जाए . बेटियों के समान अधिकारों की बात मायके से ही शुरू हो , सिर्फ ससुराल में ही उनका अधिकार ना माँगा जाए , जैसा कि आजकल अक्सर परिवारों में देखा जाता है . बेटी के ससुराल में बराबरी का अधिकार मांगने वाले अपने दामन में भी झांके कि उन्होंने अपनी बेटी को क्या दिया !!

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  13. बहुत ही सार्थक बात कही है आपने ... उत्‍कृष्‍ट लेखन ...आभार

    कल 04/07/2012 को आपकी इस पोस्‍ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    '' जुलाई का महीना ''

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  14. बेटा होने न होने से कुछ फर्क पढ़ना चाहिए .... समझ से बाहर की बात है ... हालांकि मेरी दो बेटियां हैं ... पर बेटा होता तो फर्क पड़ता ऐसा नहीं लगता ... बदलाव लाने की प्रक्रिया सतत होनी चाहिए और स्त्री मन कों मजबूत रहने की जरूरत है इस बदलाव के लिए ...

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  15. सत्य है .....लड़कियों की उड़ान किसी इत्तफाक़ का मोहताज़ नहीं..

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  16. जब बेटियों को प्रोत्साहित किया जाता है...उनपर अनावश्यक बंधन नहीं लगाए जाते तो वे आसमान छू लेने की हैसियत रखती हैं. इसलिए उनपर भरोसा करें और उनकी उड़ान को ना रोकें....
    सही लिखा .

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  17. रश्मि जी आपकी पोस्‍ट का शीर्षक 'लड़कियों की उड़ान किसी इत्‍तफाक का मोहताज नहीं' आपने जानबूझकर रखा है। या फिर इंतजार है इस पर एतराज जताने वाले किसी कमेंट का।

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    1. हम्म...इस शीर्षक में कहे गए कथन पर किसी को एतराज भी हो सकता है??
      सहर्ष स्वागत है...ऐसे एतराज का...

      शीर्षक तो अक्सर पोस्ट में व्यक्त किए विचार से ही जुड़े होते हैं...यह शीर्षक भी ऐसा ही है...पर अगर कोई इस से इतर सोचता/सोचती है तो जरूर इच्छा है उनके विचार जानने की.

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    3. चलिए मैं ही यह काम कर देता हूं। शीर्षक होना चाहिए ' लड़कियों की उड़ान किसी इत्‍तफ़ाक की मोहताज़ नहीं' ।

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    4. आप सही ही कह रहे होंगे...
      पर इत्तफाक तो पुल्लिंग है ना..कहते हैं.."ये कैसा इत्तफाक है? "

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    5. रश्मि जी,
      पर यहां इस बात का फैसला इत्‍तफ़ाक से नहीं बल्कि उड़ान से हो रहा है। उड़ान स्‍त्रीलिंग है। आप वाक्‍य को इस तरह से पढ़ें-' लड़कियों की उड़ान किसी का मोहताज नहीं।' क्‍या इस वाक्‍य में भी आप 'किसी का' ही रखना चाहेंगी?

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    6. आपने तार्किक ढंग से बात समझाई तो समझ में आ गयी....मैने शीर्षक बदल दिया है...
      शुक्रिया ध्यान दिलाने का..

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  18. पचपन में एल आई सी का विज्ञापना याद आ गया " वो नहीं थे उनकी कमी एल आई सी ने पूरी कर दी बेटे का कैरियर बेटी की शादी " बेटी के प्रति माँ बाप की एक ही जिम्मेदारी होती थी उसकी शादी | समय बदला और विज्ञापन जगत ने भी समझा नया विज्ञापनों में अब बेटी की पढाई की चिंता भी नजर आती है और उसे विदेश भेजने के लिए लोन भी दे रहे है और तो और अब बेटी बाप को गाड़ी भी भेट कर रही है वो काम करती है अपने लिए गहने के लिए पैसा भी जमा कर रही है | पर सब जगह एक ही बात दिखती है वही जो आप ने कही की वहा कही भी बेटा नहीं दिख रहा है विज्ञापन में , यानी सोच वही दिखाई जा रही है की बेटा नहीं है तो क्या बेटी के लिए भी कुछ करीये या ये कहे की लोग कर रहे है ऐसा इसलिए विज्ञापनों में भी यही दिखाया जा रहा है | घर में बेटे का होना बेटी के संघर्ष को और बढ़ा देता है, किन्तु बेटा ना होने पर बेटी को आगे बढ़ने का विचार भी पुरा सच नहीं है ये आप भी जानती है ये सोच भी एक खास वर्ग तक ही सिमित है | पर डर भी लगता है यदि ये पुरा सच है तो फिर कही बेटिया अपने आगे बढ़ने में बेटो को बाधा ना मान बैठे |

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    1. ये विज्ञापन तो हाल तक आता था...उस विज्ञापन की मराठी अभिनेत्री का नाम नहीं याद आ रहा....पर वे अब भी खूब सक्रिय हैं....फिल्मों में और टी.वी सीरियल में

      और ये तो सच है..पितृसत्तात्मक समाज की सारी बुराईयाँ मातृसत्तात्मक समाज में भी आ सकती हैं...इसलिए किसी भी एक को विशेष महत्त्व ना देकर बेटे-बेटियों के साथ सामान व्यवहार ही अपेक्षित है.

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    2. उस अभिनेत्री का नाम भी याद आ गया .'नीना कुलकर्णी '

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  19. रश्मि,
    हो सकता है ऐसा होता हो, अगर अकेली संतान बेटी हो तो माता-पिता उसे ही बेटा मान कर देख-भाल करते हों...
    लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, मैं तीन भईयों में अकेली बेटी हूँ, मेरा पुकारूं नाम भी 'मुन्ना' है और मुझे वैसा ही पाला गया जैसे मेरे भाईयों को पाला गया...आज मैं जिस मक़ाम पर हूँ, उसका सारा श्रेय मेरे माता-पिता को ही जाता है...शादी के बाद मेरी अधिकतर पढाई हुई, मेरे माँ-बाबा ने मुझे हर तरह से सम्हाला...मुझे याद है जब मेरा पहला बेटा हुआ था, मैं उसे छोड़ कर भाग जाती थी, शर्म से गोद में भी नहीं उठाती थी, दूध पिलाना तो दूर कि बात थी...मेरी माँ उसे अपने साथ अपने ऑफिस ले जाती थी...क्योंकि मुझ पर उसे भरोसा भी नहीं था...माँ के साथ जाता था पूरा टीम-टाम बास्केट में, नापीज, कपड़े, दूध का डब्बा, पानी का थर्मस, ३-४ बोटल्स...दूसरे बेटे में मुझे थोड़ा होश आया, और बेटी के पैदा होने पर औक़ात में आ गए थे हम..
    एक्जाम के समय माँ, उठ-उठ कर मुझे पढ़ाती थी, जब मास्टर्स के एक्जाम थे मेरे बाबा मेरे लिए चाय बना कर देते थे रात में...समय से उठा देना पढ़ने के लिए...और ऐसा सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं करते थे वो हम चारों भाई-बहन के साथ ऐसा ही था उनका व्योव्हार.....जो भी मैंने पढ़ना चाहा मेरे माँ-बाबा ने कभी भी कोई कमी नहीं की..NEVER ...और ऐसा ही मेरे भईयों के साथ भी था... और जैसा मैंने बताया मैं ३ भाईयों में अकेली बहन हूँ..
    मेरा तो यही अनुभव रहा है...

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    1. माता-पिता ने बिलकुल हर तरह से तुम्हारी मदद की होगी ,अदा...
      इसीलिए तो मैने पोस्ट में ही लिख दिया है...
      "कुछ जागरूक-उदारवादी-प्रबुद्ध जन लड़के/लड़कियों में ऐसा भेदभाव नहीं करते. पर व्यापक तौर पर ऐसी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है."
      तुम्हारे माँ-बाबा...उन जागरूक-उदारवादी-प्रबुद्ध जन में ही आते हैं...उन्हें नमन
      यानि की तुम्हारी प्रगति महज इत्तफाक नहीं था ..तुम्हे तो सफलता के शिखर पर पताका फहराना ही था...शुभकामनाएं !!

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    2. अदा जी,
      शादी के बाद अधिकतर पढ़ाई होना, अपने ही बच्चे को सम्भालने की समझ न होना, बच्चे को छोड़कर भाग जाना, बच्चे को दूध न पिलाना, माँ का आप पर भरोसा न होना... यह लालन पालन में भाइयों की बराबरी का ध्योतक है या...! जब तक स्त्री पुरुष अपनी संतान के लालन पालन के योग्य न हो जाएँ, बच्चे को जन्म देना सही तो नहीं माना जा सकता। नाना नानी, दादा दादी यह कमी पूरी करने की चेष्टा चाहे करें, किन्तु यदि वे अपनी संतान को ही अपने उत्तरदायित्व निभाने लायक न बना सके तो अगली पीढ़ी को भी लाकर उसके उत्तरदायित्व उठाने की चाह क्यों रखते हैं? नौकरीपेशा बेटे बेटी, बहू जमाता की सहायता करना अलग बात है। भाग्य से सब अच्छा रहा किन्तु किसी भी कोण से अपनी संतान का ध्यान रखने लायक परिपक्वता न होने पर माता पिता बनना बहुत खतरनाक व्यवहार ही माना जाएगा।
      यदि हम बिना सही ढंग से तैयार बच्चे को अपना व्यापार, दुकान, काम धंधा नहीं सौंपेंगे तो अपरिपक्व बच्ची को मातृत्व पाने की स्थिति में क्यों धकेलेंगे? अपरिपक्व बेटे को भी ऐसी स्थिति से बचाना ही बेहतर है। यह बेटा बेटी के लालन पालन की बराबरी को नहीं दर्शाता अपितु किसी अन्य ही सोच को दर्शाता है जहाँ बच्चे अपने पैरों पर खड़े होने से पहले माता पिता बन अपने बच्चे को चलना सिखाने की स्थिति में आ जाते हैं।
      क्षमा कीजिएगा, या तो मैं आपकी बात को सही नहीं समझी या मेरी सोच गड़बड़ है या फिर संतान को बड़ा कर जिम्मेदार बनाने की परिभाषा अलग अलग है।
      घुघूती बासूती

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    4. और एक बात घुघूती जी अपने माँ-बाबा के सामने तो मैं आज भी बच्ची ही बनी रहती हूँ..अब आप इसे मेरी बेवकूफी कह सकतीं हैं या फिर मेरे माँ-बाबा की नादानी...आपकी मर्ज़ी है...लेकिन जीवन में आनंद बहुत आता है :)

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    5. रश्मि,
      मैं पहला कमेन्ट डिलीट कर रही हूँ...जवाब ज़रा ठीक से नहीं दे पाई थी...
      @ घुघूती जी, इसमें कोई शक नहीं की आप मेरी बात सही तरीके से नहीं समझ पायी...
      आपकी बात का सही तरीके से जवाब अब देने की फुर्सत मिली है...
      सबसे पहली बात मेरी शादी १९ साल की उम्र में हुई थी, जो कानूनी जायज उम्र है | किसी भी उम्र में शादी हो, लड़का या लड़की शादी के रिश्ते से नावाकिफ ही होते हैं...२५ साल में भी अगर किसी लड़की की शादी हो, पत्नी का रिश्ता उसे अपनी माँ से ज्यादा नहीं मालूम होगा...उस उम्र में भी माँ या बड़ी बुजुर्ग उसे इस रिश्ते के बारे में बताती ही हैं...माँ बनाना भी ऐसा ही रोल है, आपको क्या लगता है, जितनी भी लडकियाँ हैं, सब सीख कर आतीं हैं...आपने क्या अपनी बेटियों और बहुओं को कुछ नहीं बताया...अगर नहीं बताया तो मुझे आश्चर्य ही होगा...दूसरी बात, मैं अपने घर में बहुत लाडली बेटी थी, और मुझे जो अच्छा लगता था वही करती थी और आज भी करती हूँ..
      पशु-पक्षी तक अपने बच्चों को शिकार करना, दाना चुगना सीखाते हैं...जहाँ तक दूकान का सवाल है, बच्चे को दकान हाथ में देकर कोई बाप भाग नहीं जाता वो पीछे बैठ कर सब देखता रहता है...तब तक जब वो पूरी तरह सीख नहीं जाता..
      अगर आपको मेरी बातों में कुछ और ही नज़र आता है, तो ये आपकी ही कमी है मेरी नहीं...आप जो देखना चाहतीं हैं वही देख रही हैं...आपको ये बता दूँ की मेरे माँ-बाप ने मुझे पढ़ा लिखा कर बहुत ऊंचे मुक़ाम पर पहुंचाया है..आपको मैं बता दूँ कि मेरी पहली नौकरी ही Class One Officer कि थी IGNOU में , मैंने कनाडा में National डिफेन्स के लिए बहुत ऊंचे ओहदे पर काम किया, जहाँ मुझे टॉप सीक्रेट क्लिएरेंस दिया गया था...और यह कोई मामूली बात नहीं है...मैंने अभी-अभी २००० फिल्में बनायी हैं और मेरी कंपनी को ७ मिलियन डॉलर का प्रोजेक्ट ऑफर हुआ था...आपको यह भी बता दूँ कि आज मै अपनी कंपनी के अलावा एक दूसरी मीडिया कंपनी की वाईस प्रेसिडेंट हूँ, और ये भी बता दूँ की मेरा नोमिनेशन दिसंबर के महीने में बिजिनेस वूमन ऑफ़ दी ईयर के लिए हुआ था...ये अलग बात है कि अवार्ड नहीं जीत पाई...लेकिन नोमिनेशन ही अपने आप में बड़ी बात है...
      हम भी औरों की तरह अपने ब्लॉग पर ताम-झाम टाँग सकते हैं लेकिन हम ये सब पसंद नहीं करते हैं...आपने अपनी बात कही हैं तो सोचा बताना सही रहेगा...
      और ये सब आज जो भी मैं कर रही हूँ, इसमें मेरे माँ-बाबा का ही आशीर्वाद है...पढ़ाई लिखाई की वजह से ही मैं, अपने पहले बच्चे की देख भाल नहीं कर पा रही थी...मेरी माँ ने मेरी सहायता बिल्कुल वैसे ही की जैसे उन्होंने अपनी बहू की की...हाँ मैंने थोड़ा हास्य का पुट देते हुए लिखा था...
      मेरे माँ-बाबा कितने प्रबुद्ध और कितने विशाल हृदय थे, ये आप कैसे जान सकतीं हैं भला ? उन्होंने मुझे बहुत जिम्मेदार और बहुत ही मजबूत बनाया है...इतना कि आप कल्पना भी नहीं कर सकतीं हैं...मेरे माँ-बाबा ने मेरी हर कदम में सहायता और मार्गदर्शन किया है, लेकिन उनके लिए कुछ भी करना जो मेरा फ़र्ज़ है, जिसका हिसाब देना, मैं उनकी और अपनी तौहीन समझती हूँ, उनको मान देने की ही कोशिश थी मेरी..आप इसे मेरी कृतज्ञता भी कह सकतीं हैं....आप अपनी माँ की देख-भाल करती हैं, और इतनी तो उम्र हो ही गई है आपकी...आपको बेहतर मालूम होना चाहिए कि किसी के भी माँ-बाप के बारे में बिना कुछ जाने हुए कुछ भी कहना सही है या नहीं...आशा है आप आईंदा इस बात का ख़याल रखेंगी...
      आज भी मैं अपनी माँ कि बेटी ही बनी रहती हूँ, ये अलग बात है आज कल अक्सर मुझे मेरी माँ कि माँ बनाना पड़ता है...

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  20. बेटियों का महत्व अब समझ में आ रहा है,स्थितियाँ बदल गई हैं ,
    लोग जागरूक हो रहे हैं और बेटियाँ भी सचेत हो रही हैं !

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  21. mमेरी भी तीन बेटियाँ हैं और तीनो ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर अच्छे पदों पर काम कर रह्4एए हैं और तीनो अपने ससुराल मे बहुत सुखी भी हैं लेकिन एक बात जरूर कहना चाहूँगी ये कि आब तक मै भी यही सोचती थी कि लडकियाँ ही अच्छी हैं लडके की क्या जरूरत है लेकिन इस बुढापे मे जब बीमार हुयी तो बहुत कुछ महसूस किया। हम दोनो बीमार थे तो कोई पानी देने वाला भी नही था अपने घर परिवार छोड कर लडकियाँ कितने दिन रहती तीनो संयुक्त परिवार मे है तो हम उनके पास जा कर कैसे बोझ बनें?उनके ससुराल वालों के रिश्ते तो जब तक हम दूर हैं तभी अच्छे हैं। और अब मैने सोच लिया है कि कभी किसी से नही कहूँगी कि लडकियाँ लडकों से बढ कर हैं हाँ लडकियाँ अपने माँ बाप की चिन्ता जरूर करती हैं लेकि अपनी पारिवारिक मजबूरियों के चलते कई बार चाहते हुये भी कुछ कर नही पाती। और पुरुषों की मानसिकता ऐसी है कि कितना भी प्यार करो दामाद जरूरत के समय अपनी मजबूरियाँ दिखा ही देते हैं। हाँ समय आयेगा जब सब कुछ बदल जायेगा लेकिन अभी तो अगर लडकी चाहे भी तो कई बार कुछ नही कर सकती। अगर घर वालों की अनदेखी कर कुछ करेगी तो ससुराल के रिश्तों मे दरार आयेगी ये सोच कर लडकियों के माँ बाप लडकियों से अपनी व्यथा नही कह पाते।पिछले दिनो मेरे पति का आपरेशन हुआ तो एक बेटी के बच्चों के पेपर थी और उसके ससुर जी का भी आपरेशन हुआ था वो उनके पास थे दूसरी अमेरिका मे है तीसरी के ससुर जी की बाईपास सर्4जरी हुयी थी तो हम उनके पास भी कैसे जाते। खैर शहर मे काफी बनी बनाई है तो मुश्किल नही हुयी।बेशक बेटियाँ बेटों से भी अच्छी हों लेकिन जहा बेटे का काम है वो बेटा हे करेगा। लेकिन ये सुख दुख सब ऊपर वाले के हाथ मे हैं । कहीँ बेटी वाले सुखी हैं तो कहीं 5-5--77-- बेटों वाली माँ भी बदहाल है। अगर इस संदर्भ से देखें तो बेटा बेटी दोनो बराबर हैं। फिर भी उनके पालन पोषण मे फर्क नही होना चाहिये।

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    1. निर्मला जी,
      यही मानसिकता तो बदलनी चाहिए. बेटा हो या बेटी...जो भी समय निकाल सके..सक्षम हो..माता-पिता की देखभाल के लिए उसे आगे आना चाहिए.
      आपकी बेटियों के साथ मजबूरियाँ थीं. पर यही अगर बेटी की जगह बेटा अमेरिका में होता तो वो भी शायद कोई मदद नहीं कर पाता. बेटी के ससुरालवालों को भी यह समझना चाहिए कि आखिर उनके बहू के माता-पिता को भी देखभाल की जरूरत पड़ सकती है.
      समाज की सोच में एक बहुत बड़े बदलाव की जरूरत है.

      आशा है अब आप पूरी तरह स्वस्थ होंगीं...शीघ्र स्वास्थ्य होने की शुभकामनाएं

      हटाएं
    2. निर्मला जी,
      जो बात आपने कही उसके उत्तर में तो एक पोस्ट ही चाहिए। यहाँ तो इतना ही कहूँगी कि जिस दिन से मेरी बेटियों में माँ बाबा का ध्यान रखने, उसकी सहायता करने की समझ आई, जो कि छुटपुट तौर पर लगभग दो तीन वर्ष की उम्र में आ गई, उस दिन से आज तक मुझे उन्होंने कभी हताश नहीं किया है। उनके विवाह को भी दस व सात वर्ष बीत चुके जिस बीच मेरे दोनों हाथों की हड्डी बारी बारी टूट चुकी, मैं काफी बीमार हो हस्पताल में ( बिटिया के घर से बिटिया के शहर में ) भर्ती हो चुकी। पति का बायपास हो चुका जो काफी बिगड़ा भी, (यह दूसरी बिटिया के पास रहकर) और दोनों बेटियाँ व मैं ही उनके साथ रहे व हमने ही दौड़ भाग की। उनके हस्पताल से निकलने से पहले जमाता भी विदेश से लौटकर हमारी सहायता में जुट गया था।
      यह अकल्पनीय है कि हमें सहायता चाहिए होगी और वे नहीं करेंगी।
      आपकी समस्या बेटियाँ नहीं संयुक्त परिवार है। यदि वे एकल परिवार में रह रही होतीं तो वे व उनके पति आपकी व जवाँइयों के माता पिता दोनों की, आवश्यकता पड़ने पर सहायता कर पाते। बेड़ी तो संयुक्त परिवार है न कि बेटी होना।
      समस्या का समाधान एकल परिवार है न कि प्रत्येक घर में बेटे का होना। एकल परिवार में रहते हुए वे दोनों के माता पिता का ध्यान रख सकते हैं। माता पिता के वहुत अधिक वषद्ध होने पर उनके रहने का प्रबन्ध भी अपने घर के आस पास कर सकते हैं।
      घुघूती बासूती

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    3. @इसमें कोई शक़ नहीं समस्या बेटियों के साथ नहीं संयुक्त परिवार का है..
      मैं एकल परिवार में रहती हूँ यहाँ कनाडा में...भगवान् की कृपा रही, और मेरे घरवालों का सहयोग, कोई भी मौका ऐसा नहीं हुआ है कि जब मेरे माँ-बाबा को मेरी ज़रुरत हुई है और मैं हाज़िर नहीं हुई हूँ....मुझे अपने माँ-बाबा के लिए कुछ भी करना और उसके बारे में ज़िक्र भी करना दोषी महसूस कराता है, क्योंकि माँ-बाप के लिए हम कुछ भी, कितना भी कर जाएँ वो काम कभी भी इस योग्य नहीं होता कि हम उसका बखान करें...

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    उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार


    प्रवरसेन की नगरी
    प्रवरपुर की कथा



    ♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥

    ♥ पहली फ़ूहार और रुकी हुई जिंदगी" ♥


    ♥शुभकामनाएं♥

    ब्लॉ.ललित शर्मा
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  23. bilkul sahi kaha hai,kintu kuchh percent parents inse alag hain jinme mai bhi ek hu.jab mai pragnant thi to maine 9 month tak uperwale se har roz ye prarthna kee ki he bhagwan mujhe 1 bitiya de dena.uperwale ne meri sun li aur abhi maine bete se jyada use aazadi de rakhi hai.mera beta hamesha ye kahta hai ki mummy aapne ise bahut jyada chhut de rakhee hai.ye bigad jaayegi aur fir aap pachhtati rahna.par mujhe pura yakeen hai ki vo bigad nhi sakti,qki vo ek beti hai.

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  24. सुंदर पोस्ट, बढ़िया कमेंट। इसे पढ़कर तीन चार वर्ष पहले लिखी अपनी एक कविता याद आ गई..
    http://devendra-bechainaatma.blogspot.in/2011/03/blog-post_08.html
    पूरी कविता यहीं पोस्ट किये देता हूँ। पोस्ट के अनुकूल ना लगे तो पढ़कर कमेंट डिलीट कर दीजियेगा, मुझे खराब नहीं लगेगा। कविता का शीर्षक है..चिड़िया।


    चिड़िया

    चिड़ि़या उडी
    उसके पीछे दूसरी चिड़िया उड़ी
    उसके पीछे तीसरी चिड़िया उड़ी
    उसके पीछे चौथी चिड़िया उड़ी
    और देखते ही देखते पूरा गांव कौआ हो गया !

    कौआ करे कांव-कांव
    जाग गया पूरा गांव
    जाग गया तो जान गया
    जान गया तो मान गया
    कि जो स्थिति कल थी वह आज नहीं है
    अब चिड़िया पढ़-लिख चुकी हैं
    किसी के आसरे की मोहताज नहीं है ।

    अब आप नहीं कैद कर सकते इन्हें किसी पिंजडे़ में
    ये सीख चुकी हैं उड़ने की कला
    जान चुकी हैं तोड़ना रिश्तों के जाल
    अब नहीं फंसा सकता इन्हें कोई बहेलिया
    प्रेम के झूठे दाने फेंक कर
    ये समझ चुकी हैं बहेलिये की हर इक चाल
    कैद हैं तो सिर्फ इसलिये कि प्यार करती हैं तुमसे
    तुम इसे
    इनकी नादानी समझने की भूल मत करना

    इन्हें बढ़ने दो
    इन्हें पढ़ने दो
    इन्हें उड़ने दो
    इन्हें जानने दो हर उस बात को जिन्हें जानने का इन्हें पूरा हक़ है ।

    ये जानना चाहती हैं
    क्यों समझा जाता है इन्हें 'पराया धन' ?
    क्यों होती हैं ये पिता के घर में 'मेहमान' ?
    क्यों करते हैं पिता 'कन्या दान' ?
    क्यों अपने ही घर की दहलीज़ पर दस्तक के लिए
    मांगी जाती है 'दहेज' ?
    क्यों करते हैं लोग इन्हें अपनाने से 'परहेज' ?
    इन्हें जानने दो हर उस बात को
    जिन्हें जानने का इन्हे पूरा हक है ।

    रोकना चाहते हो
    बांधना चाहते हो
    पाना चाहते हो
    कौओं की तरह चीखना नहीं
    चिड़ियों की तरह चहचहाना चाहते हो....
    तो सिर्फ एक काम करो
    इन्हें प्यार करो

    इतना प्यार करो कि ये जान जायँ
    कि तुम इनसे प्यार करते हो !

    फिर देखना...
    तुम्हारा गांव, तुम्हारा घर, तुम्हारा आंगन,
    खुशियों से चहचहा उठेगा।
    ....................

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. इतनी अच्छी कविता है..डीलीट क्यूँ करुँगी भला...
      ये पाठकों के अपने विचार होते हैं...स्वागत है उनका
      वैसे भी मैं किसी के कमेन्ट ना तो पब्लिश करने से रोकती हूँ ना ही डीलीट करती हूँ...जब तक पोस्ट से इतर कोई उलजुलूल कमेन्ट ना हो..

      हटाएं
  25. आपने सही कहा ज्यदातर माँ -बाप बेटी के जन्म पर खुश नहीं होते .......

    जवाब देंहटाएं
  26. बहुत अच्छी पोस्ट है दी. मेरा और मेरे भाई का पालन-पोषण एक जैसे ही हुआ. हर बात में मेरे भाई से मेरी बराबरी रहती थी. खाना बनाना सीखना मेरे लिए ज़रूरी था, तो उसके लिए भी. हम दोनों के साथ कभी किसी तरह का भेदभाव नहीं होता था. लेकिन मैं अपने आस-पास के घरों में भेदभाव होते देखती थी और मज़े की बात ये कि लड़कियों को पता ही नहीं होता था कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है. वे इसे सामान्य बात समझती थीं. उन्हें ऐसा लगता कि वे अपने भाइयों से कमतर हैं और भाइयों को ये महसूस होता कि उनकी हैसियत परिवार में बहनों से ज्यादा है.
    अब लडकियां भी जागरूक हो रही हैं और माँ-बाप भी लेकिन स्थिति अब भी बहुत बदली नहीं है.

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  27. लंबी टिप्पणी लिखी थी, लेकिन शायद खो गयी. पोस्ट बहुत अच्छी है दी. यह सही है कि हमलोगों के साथ भेदभाव नहीं हुआ, पर ये भी सच है कि ऐसे उदाहरण अपवाद है. आज भी बहुत से घरों में लड़कियों के साथ भेदभाव होता है और ये सच है. ज़रूरत इस सच को महसूस करने की है, समझने की है, झुठलाने की नहीं. हम लाख अच्छे-अच्छे उदाहरण दे पर अपवाद कभी नियम नहीं हो सकते.

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  28. बहुत सुन्दर पोस्ट है रश्मि. सार्थक मुद्दा भी. जिन घरों में भाई होते हैं, निश्चित रूप से उन बहनों की आज़ादी पर अंकुश लगता ही है. कई बार तो छोटे भाइयों को भी मैने बड़ी बहनों से अभिभावक की तरह बात करते देखा है. अधिसंख्य माता-पिता ( बेटियों के) यही कहते पाये जाते हैं कि हमने अपनी बेटियों को बेटों की तरह पाला है....ज़ाहिर है, दोनों के पालन-पोषण में फ़र्क है, वरना ऐसा कहने का कोई औचित्य ही नहीं है. हां, मैने अपनी मां-पिता को कभी ऐसा कहते नहीं सुना जबकि हम छह बहने हैं. आज भी कोई भी फ़ैसला वे हम लोगों की सलाह के बिना नहीं करते जबकि वे खुद सारे फ़ैसले लेने में सक्षम हैं.
    बेटे-बेटी के बीच का भेदभाव नयी पीढी में कुछ कम हुआ है, लेकिन प्रतिशत अभी भी भेदभाव का ही ज़्यादा है.

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  29. बेहद प्रेरणास्पद !!!
    सवाल सही भी है:
    "लडकियां माओं जैसे मुक़द्दर क्यों रखती हैं
    तन सहरा और आँख समंदर क्योँ रखती हैं.

    औरतें अपने दुःख की विरासत किसको देंगी
    संदूकों में बंद ये जेवर क्योँ रखती है....

    वो जो रहीं है, खाली पेट और नंगे धड
    बचा बचा कर सर की चादर क्यों रखती हैं....."

    सुबहे विसाल की किरने हमसे पूछ रही हैं
    रात अपने हाथों में खंजर क्यों रखती है
    - इशरत आफरीन

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  30. मैं आपकी पोस्ट से सहमत हूँ ...बेटियों के साथ अक्सर नाइंसाफी होती है !
    इस बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  31. बहुत सार्थक लेख है....!
    समाज की सच्चाई आज भी यही है....अगर अनुपात देंखें तो सही बात पता चलती है...गोष्ठियों और सभाओं में भाषण देने वाले न जाने कितने लोग हैं जिनके घर के भीतर की कहानी कुछ और ही होती है...!
    घर में चाहे किसी भी रूप में तो लड़की....(कुछ परिवारों को छोड़ कर) हर जगह उसे संघर्ष और घर-बाहर के लोगों के दबाव को अनिक्षित रूप से झेलना पड़ता है...ईश्वर इंसान (जिसमें पुरुष-महिला दोनों शामिल हैं)को सद्बुद्धि दे इससे ज्यादा कुछ नहीं...!!

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  32. लड़कियां तो हमेशा उंचाई पर होती हैं ... घर का आसमां हो या बाहर का , बड़ी सहजता से उनकी मुट्ठी में होता है .... पर सामाजिक मानसिकता !
    सही प्रश्न उठाया -
    "एक उड़ता हुआ ख्याल आता है क्या इंदिरा गांधी का कोई भाई होता तब भी 'नेहरु 'अपनी बिटिया को ही राजनीति में आने के लिए प्रेरित करते ?? ..शायद नहीं. "
    सामाजिक मानसिकता में लड़कियों को सम्मानित करते हैं यह कहकर कि बेटे से कम नहीं

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