गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

गावस्कर के स्ट्रेट ड्राइव का राज़

 (ये आलेख मैंने ब्लॉग बनाने के शुरूआती दिनों में लिखा था...दरअसल तीन आलेखों की एक श्रृंखला सी ही लिखी थी. ये ब्लॉग बनाया तभी से इच्छा थी...उन पोस्ट्स को यहाँ भी पोस्ट करूँ....बहुत सारे नए पाठक जुड़ गए हैं,अब ...उनमे से "सचिन के गीले पौकेट्स...." तो पोस्ट भी कर चुकी हूँ ...ये पोस्ट भी मेरे दिल के बहुत करीब है और आजकल क्रिकेट का मौसम भी है...सो माकूल लगा...अभी पोस्ट करना.)


हमारे देश को सुष्मिता सेन के रूप में पहली विश्व सुंदरी मिलीं. पर विश्व सुंदरी का खिताब एक भारतीय बाला को बहुत पहले ही मिल गया होता अगर उन्होंने अपने दिल की नहीं सुन...पोलिटिकली करेक्ट जबाब दिया होता. मशहूर मॉडल 'मधु सप्रे' फाईनल राउंड में पहुँच गयी थीं. फाईनल राउंड में 3 सुंदरियाँ होती हैं और एक ही प्रश्न तीनो से पूछे जाते हैं. जिसका जबाब सबसे अच्छा होता है,उसे मिस यूनिवर्स घोषित कर दिया जाता है. (विषयांतर है....पर बरसो पहले टी. वी. पर देखा हुआ कुछ याद हो आया ....'मिस इंडिया' प्रतियोगिता  के फाइनल राउंड में भी सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या  राय के साथ कुछ और सुंदरियों से भी एक ही सवाल पूछा गया था, " अगर आप इतिहास की एक तारीख बदलना चाहें तो वो कौन सी तारीख होगी...?" सुष्मिता सेन ने जबाब दिया ,"इंदिरा गांधी की हत्या का दिन "और dumb  ऐश (वैसे मुझे वो बहुत पसंद हैं ) का जबाब था, "अपना जन्मदिन" ...जाहिर है...सुष्मिता सेन को ताज मिलता और वो  सही चयन था .) यहाँ मिस यूनिवर्स की प्रतियोगिता में सवाल था 'अगर एक दिन के लिए आपको अपने देश का राजाध्यक्ष बना दिया गया तो आप क्या करेंगी?" बाकी दोनों ने भूख,गरीबी दूर करने की बात कही....हमारी मधु सप्रे ने कहा,"वे पूरे देश में अच्छे खेल के मैदान बनवा देंगी"...जाहिर है उन्हें खिताब नहीं मिला....बहुत पहले की बात है,पर मुझे भी सुनकर बहुत गुस्सा आया था की ये कैसा जबाब है. हमारे देश को एक विश्व सुंदरी मिलने से रह गयी. पर आज जब मैं खुद मुंबई में हूँ तो मुझे उनकी बात का मर्म पता चल रहा है. मधु सप्रे मुंबई की ही हैं और एक अच्छी एथलीट थीं.


इस कंक्रीट जंगल में बच्चे खेलने को तरस कर रह जाते हैं. बिल्डिंग के सामने थोड़ी सी जगह में खेलते हैं पर हमेशा अपराधी से कभी इस अंकल के सामने कभी उस आंटी के सामने हाथ बांधे,सर झुकाए खड़े होते हैं.क्यूंकि यहाँ घर के शीशे नहीं कार का साईड मिरर ज्यादा टूटता है. कई बार दो सोसाईटी के बीच झगडा इतना बढ़ जाता है (तुम्हारी बिल्डिंग के बच्चे ने मेरी बिल्डिंग के कार के शीशे तोड़े) की नौबत पुलिस तक पहुँच जाती है. फूटबौल खेलने जितनी जगह तो होती नहीं,क्रिकेट ही ज्यादातर खेलते हैं. मै खिड़की से अक्सर देखती हूँ....इनके अपने नियम हैं खेल के...अगर बॉल ऊँची गयी...'आउट'...दूर गयी...'आउट'.....पार्किंग स्पेस में गयी ..'आउट' सिर्फ स्ट्रेट ड्राईव की इजाज़त होती है. बच्चे जमीन से लगती हुई सीधी बॉल सामने वाली विकेट की तरफ मारते हैं और रन लेने भागते हैं. एक ख्याल आया, 'सुनील गावसकर' का पसंदीदा शॉट था 'स्ट्रेट ड्राईव' और उन्हें बाकी शॉट्स की तरह इसमें भी महारत हासिल थी. कहीं यही राज़ तो नहीं??. क्यूंकि अपनी आत्म कथा 'Sunny  Days ' में  जिक्र किया था कि वे बिल्डिंग में ही क्रिकेट खेला करते थे...और कोई आउट करे तो अपनी बैट उठा, घर चल देते थे (सिर्फ गावस्कर के पास ही बैट थी ).. इसी से शायद, उन्हें विकेट पर देर तक टिके रहने की आदत पड़ गयी. क्या पता स्ट्रेट ड्राईव में महारत भी यहीं से हासिल हुई हो....अपनी डिफेंसिव  खेल का भी जिक्र किया था कि...उनकी माँ उन्हें बॉलिंग. करती थीं...और एक दिन उनके शॉट से माँ की नाक पर चोट लग गयी...माँ तुरंत दवा लगाकर आयीं और बॉलिंग जारी रखी..उसके बाद से ही गावस्कर संभल कर खेलने लगे.
सचिन और रोहित शर्मा भी मुंबई के हैं और आक्रामक खिलाड़ी हैं पर सचिन शिवाजी पार्क के सामने रहते थे और रोहित MHB ग्राउंड के सामने...उन्हें जोरदार शॉट लगाने में कभी परेशानी नहीं महसूस हुई होगी. विनोद कांबली के बारे में सुना है कि वह चाल में रहते थे। आसपास के घरों में गेंद न लगे इसलिये गेंद को उंचा उठाकर मारते थे और शायद यही राज था कि कांबली ज्यादातर ऐसे ही शॉट खेलते देखे गये। 


 मुंबई में कई सारे खुले मैदान हैं पर उनपर किसी ना किसी क्लब का कब्ज़ा है.मेरे घर के पास ही एक म्युनिस्पलिटी का मैदान था...सारे बच्चे खेला करते थे...कुछ ही दिनों बाद एक क्लब ने खरीद लिया...मिटटी भरवा कर उसे समतल किया.और ऊँची बाउंड्री बना एक मोटा सा ताला जड़ दिया गेट पर. सुबह सुबह कुछ स्थूलकाय लोग,अपनी कार में आते हैं. एक घंटे फूटबाल खेल चले जाते हैं. बच्चे सारा दिन हसरत भरी निगाह से उस ताले को तकते रहते हैं. कई बार सुनती हूँ...'अरे फलां जगह बड़ी अच्छी गार्डेन बनी है'...देखती हूँ,मखमली घास बिछी है,फूलों की क्यारियाँ बनी हुई हैं...सुन्दर झूले लगे हुए हैं....चारो तरफ जॉगिंग ट्रैक बने हुए हैं. पर मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती...यही खुला मैदान छोड़ दिया होता तो बच्चे खेल तो सकते थे. एकाध खुले मैदान हैं भी तो पास वाले लोग टहलने के लिए चले आते हैं और बच्चों को खेलने से मना कर देते हैं .एक बार एक महिला ने बड़ी होशियारी से बताया कि 'मैंने तो उनकी बॉल ही लेकर रख ली,हमें चोट लगती है' .मैंने समझाने की कोशिश भी की..'थोड़ी दूर पर जो गार्डेन सिर्फ वाक के लिए बनी है...वहां चल जाइए'...उनका जबाब था..";अरे, ये घर के पास है,हम वहां क्यूँ जाएँ?"..."हाँ,..वे क्यूँ जाएँ?"  इनलोगों के बच्चे बड़े हो गए हैं, अब इन्हें क्या फिकर. जब बच्चे छोटे होंगे तब भी उनकी खेलने की जरूरत को कितना समझा होगा,पता नहीं.


कभी कभी इतवार को बिल्डिंग के बच्चे स्टड्स,स्टॉकिंग पहन पूरी तैयारी से फूटबाल खेलने जाते हैं और थके मांदे लौटते हैं...बताते हैं तीन मैदान पार कर, जाकर उन्हें एक मैदान में खेलने की जगह मिली.कभी कभी ये लोग शैतानी से गेट के ऊपर चढ़कर जबरदस्ती किसी कल्ब के ग्राउंड में खेलकर चले आते हैं.मेरे बच्चे भी शामिल रहते हैं...पर मैं नहीं डांटती....एक तो सामूहिक रूप से ये जाते हैं और फाईन करेंगे तो पैसे तो दे ही दिए जायेंगे...दो बातें सुनाने का मौका भी मिलेगा...कि अपना शौक पूरा करने के लिए वे बच्चों से उनका बचपन छीन रहें हैं.

एक बार राहुल द्रविड़ से जब एक इंटरव्यू में पूछा गया कि" क्या बात है,आजकल छोटे शहरों से ज्यादा खिलाड़ी आ रहें हैं"..इस पर द्रविड़ का भी यही जबाब था कि महानगरों में खेलने की जगह बची ही नहीं है.खेलना हो तो कोई स्पोर्ट्स क्लब ज्वाइन करना होता है. उन्होंने अपने भाई का उदाहरण दिया कि वो 8 बजे रात को घर आते हैं. इसके बाद कहाँ समय बचता है कि बच्चे को लेकर क्लब जाएँ. हर घर की यही कहानी है. माता-पिता अक्सर नौकरी करते हैं...अब बच्चे को लेकर स्पोर्ट्स क्लब कैसे जाएँ ?" मेरे बेटे भी जब स्कूल में थे अक्सर....दो बस बदल कर, दोस्तों के साथ, फुटबौल प्रैक्टिस के लिए जाते थे.आज भी छोटा बेटा, हॉकी प्रैक्टिस  के लिए....सुबह ४ बजे उठ कर ट्रेन से चर्चगेट जाता है.(३० किलोमीटर दूर , खैर वो एस्ट्रो टर्फ पर  खेलने के लिए) ...पर वैसे  भी खेलने की जगह की बहुत कमी है... इतवार को किसी भी बड़े  मैदान का नज़ारा देखने लायक होता है. मैदान में एक साथ क्रिकेट के कई मैच चल रहे होते हैं.  इसकी बाउंड्री उसमें,उसकी बाउंड्री इसमें . और कितने ही लोग इंतज़ार में बैठे होते हैं..


कमोबेश हर शहर की यही कहानी है और फिर हम शिकायत करते हैं कि बच्चे आलसी होते जा रहें हैं.उनमे मोटापा बढ़ रहा है. उन्हें सिर्फ टी.वी.और कंप्यूटर गेम्स में ही दिलचस्पी है.

50 टिप्‍पणियां:

  1. अरे तुमने तो आज बडे बडे राज़ खोल दिये……………लेकि्न मुद्दा सही उठाया है।

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  2. shahron ke jhamelon ko bajon se alag rakhna //
    chidiya ki udano ko bajon se alag rakhna...//
    bade shahr khel ke maed ki vajah se pichad rahe hain...lekin samsya ye keval unki nahi hai...jis tarh jansankhya badh rahi hai ummid hai jaldi hi chote kya gavon mein bhi khelne ki jagah nahi bachegi...

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  3. मैदान होंगे तभी खिलाड़ी तैयार होंगे। अभी तो भवन तैयार हो रहे हैं।

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  4. गावसकर फिर सिलिप शोट कैसे सिखे होंगे ! बढ़िया रहा यह विश्लेषण कि खिलाड़ियों के खेल के तरीके उन स्थितियों से भी निर्धारित होते हैं जिनमें वे खेलते हैं।

    अब मैदानों का कम-ताला एक समस्या तो खड़ी ही कर रहा है, शहर में जिम का चलन है, जिसमें व्यायाम करने में भी पैसा खरचना अखर सकता है।

    गाँव में अभी ज्यादा गनीमत है इस लिहाज से , वहाँ नट कुश्ती भी सिखा देते हैं, गाँव भर से खाना-दाना पर ही !

    शीर्षक देख कर लगा कि क्या लिखा होगा, पर पढ़ता गया तो बढ़िया लगा, कलम काबिले-तारीफ !!

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  5. what a keen observation di ! खिलाड़ियों के शाट्स का क्या विश्लेषण किया है आपने. और आपने बहुत ही गंभीर समस्या उठाई है. अगर हम बच्चों को खेलने का मैदान नहीं उपलब्ध करायेंगे, तो बच्चे वीडियो गेम्स खेलेंगे ही. हारे मोहल्ले में भी पीछे का जो मैदान है, वहाँ एक साथ कई क्रिकेट और फ़ुटबाल मैच हो रहे होते हैं. आस-पास के मोहल्लों से भी बच्चे से लेकर युवा तक खेलने आते हैं. लेकिन कुछ दिनों बाद इस खाली जगह भी कमर्शियल काम्प्लेक्स बन जायेंगे और घरों के लिए प्लाट कट जायेंगे. अक्सर सोचती हूँ कि तब ये बच्चे खेलने कहाँ जायेंगे?

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  6. कितनी ही रातें (2-4:30 AM) याद आ गयीं, जब सीधी सड़क पर Straight drive लगायी है, फिर भी वो भले दिन थे।
    कभी कभी मन होता है कहूँ कि आप क्रिकेट पर मत लिखा करिए, पढने में कुछ अधिक ही nostalgia होता है।
    फिर सोचता हूँ, nostalgic होना कोई ऐसी भी बुरी बात नहीं।
    बढ़िया, और बहुत रोचक।

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  7. @अविनाश
    आपके पास, nostalgic होने के लिए यादें तो हैं....सोचिए जिनके पास ये यादें भी ना हों.
    आधी रात को सड़क पर क्रिकेट ...सुन कर ही...लुत्फ़ आ गया...कभी बांटिए उन यादों को.:)

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  8. हमारी बिल्डिंग के बिलकुल बगल में ही मैदान था पहले यु ही खाली पड़ा था सिर्फ कबड्डी खेलने वाले बड़े लडके ही वह जा कर खेलते थे जिसके लिए उन्हें वह की सफाई खुद ही करनी पड़ती थी तिन साल पहले बाकायदा उसका काया कल्प हो गया जन्गिंग के लिए ट्रैक बना गया बिच में मिटटी डाल दी गई और पार्क के एक कोने पर छोटे बच्चो के लिए झूले लगा दिए गए झूले और लगाने थे पर कबड्डी वालो ने लगाने नहीं दिए क्योकि फिर उन्हें जगह नहीं मिलाती | समय बाट दिया गया शाम ४-७.३० तक छोटे बच्चे फिर ८-१० तक कबड्डी वाले | पहले ही दिन वह लगा बोर्ड देखा कर माथा ठनका गया की बच्चे वह अपने बॉल बैट नहीं ला सकते है मेरी २ साल की बच्ची को भी मन किया वॉच मैं ने मई उससे भीड़ गई की इतनी छोटी बच्ची के बॉल खेलने से किसी को चोट नहीं लगेगी मै फुटबाल ले कर आउंगी हफ्तों तक हम दोनों की रोज कीच किची हुई अंत में बेचारा हर कर चुप हो गया | अब छोटे बच्चे ५ साल से कम वाले अपने बैट बॉल आदि ले कर आते है और कुछ बड़े वाले बैडमिन्टन लेकिन उससे बड़े बच्चे बेचारे वही जैसा आप ने कहा मुंबई में मैदान खोजते रहते है |

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  9. हमारे यहाँ एक ओर से ही क्रिकेट खेला जाता था.. और बाईं ओर जगह कम थी और दीवार से सट कर ऊँचा मकान था.. सो उस मैदान में खेलने वाले बच्चे आफ साइड में हवा में नहीं खेलते थे... इस से बाद में उन्हें बल्लेबाज़ी में मदद मिली थी... अच्छा लगा पोस्ट...

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  10. रोचक लगी तहकीकात.
    कारणों को जानने की चाह सबमें नहीं होती.

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  11. @ प्रतुल वशिष्ठ जी

    ये जानने की चाह....कि बड़े शहरों से अच्छे खिलाड़ी क्यूँ नहीं आ पा रहे हैं?.....बच्चों को खेलने की जगह क्यूँ नहीं मिल पा रही??...अफ़सोस है ,अगर ये सवाल लोगो के मन में नहीं उठते.

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  12. वाकई, बड़े शाहरों में यह समस्या तो है.

    अच्छा आलेख.

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  13. रश्मि जी,
    बहुत से महत्वपूर्ण प्रश्न मुझसे भी अनछुए रह सकते हैं या फिर उनके स्थूल कारण ही दिमाग में आते हैं.
    आपने उन प्रश्नों के वास्तविक कारणों पर ध्यान दिलाया .. इस कारण ही तो आपकी खोजी दृष्टि की मौन सराहना कर रहा हूँ.
    सच में लानत है मुझ जैसे थिन्करों पर जो बिना कारण जाने शहरी जीवन को कोसते हैं और उन्हें आरामपसंद, आलसी, निकम्मा, घमंडी आदि आदि विशेषणों से नवाजते हैं.
    आपकी पोस्ट बहुतों का दृष्टिकोण बदलेगी ... और बिना कारण जाने शहरी जीवन को कमतर नहीं आँकेगी.

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  14. @प्रतुल जी,
    आरामपसंद, आलसी, निकम्मा??(घमंडी, समझना...अपने अपने अनुभव पर निर्भर करता है ) .....बड़े शहर के लोग ये सब luxuries नहीं अफोर्ड कर सकते.

    आपके "तहकीकात' शब्द के प्रयोग ने कुछ उलझन में डाल दिया था...अच्छा है..आपके विचार बदले.

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  15. बिल्डिंग बनाते समय खेल के मैदान पार्क आदि सब नक्शे में पास कराए जाते है |मैदान तो गायब हो जाते है पार्क रह जाते है छोटे छोटे जिनमे हरा भरा लान होता है निहारने के लिए |अच्छा विश्लेष्ण |

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  16. अपन तो जी छोटे शहर के पास एक गांव के रहने वाले हैं। जितने बडे शहरों में पार्क होते हैं उतने तो अपने यहां घर ही होते हैं। दो तीन कमरे और बाकी खुला गाय भैंसों के लिये। मतलब साफ है कि खूब क्रिकेट खेला जाता है।

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  17. खेल-खेल में स्‍ट्रेट ड्राइव.

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  18. सच है , बच्चों को खेलने के लिए उपयुक्त स्थान तो मिलना चाहिए । इससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास होता है ।
    लेकिन धुन पक्की हो तो कोई नहीं रोक सकता ।

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  19. बड़े शहरों कि त्रासदी ही यही है. बच्चों के लिए कोई खेलने का स्थान नहीं मिलेगा. अगर मिलेगा भी तो उसके लिए इतनी कसरत करनी पड़ेगी कि पूँछिये मत. सही मौसम में पोस्ट डाली है क्रिकेट का बुखार जोरों पर है. बधाई.

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  20. बहुत ही सुंदर बाते कही आप ने अपनी इस पोस्ट मे, ओर बहुत सारी जानकारी, 'अगर एक दिन के लिए आपको अपने देश का राजाध्यक्ष बना दिया गया तो आप क्या करेंगी?" बाकी दोनों ने भूख,गरीबी दूर करने की बात कही. सच ही तो कहा था इन दोनो ने इन्होने अपनी भूख ओर गरीबी दुर तो कर ली.वैसे यह शव्द यह नही सभी विश्व सुंदरिया उस समय कहती हे, धन्यवाद

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  21. खिलाडियों की मजबूरी में की जाने वाली प्रेकिटस ही उनकी विशेषता बन गई । उत्तम जानकारीयुक्त पोस्ट..

    टोपी पहनाने की कला...

    गर भला किसी का कर ना सको तो...

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  22. @prattul ji.......
    सच में लानत है मुझ जैसे थिन्करों पर जो बिना कारण जाने शहरी जीवन को कोसते हैं और उन्हें आरामपसंद, आलसी, निकम्मा, घमंडी आदि आदि विशेषणों से नवाजते हैं............ye shayad kisi gadhe thinker ki hi soch rhi hogi!

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  23. इस आलेख के स्ट्रेट से ड्राइव में कई हुक और पुल शॉट भी देखने को मिले।

    अब जब यादों के तंग गलि(यारे) में आपने पुश कर ही दिया है तो अपना कवर ड्राइव लगा ही दूं।

    हम तो लिचियों के शहर से हैं, शायद मालूम हो आपको भी इस शहर के बारे में। ....!

    तो लिची बगान में अपना क्रिकेट होता था। लिची के फलों का मौसम शुरु होते ही हमें बाउण्ड्री पार कर (खदेर) दिया जाता था।

    सो हमने एक स्थाई मैदान ढ़ूंढ़ निकाला। एक जगह पशुओं को मारकर उनकी हड्डियां आदि का व्यापार होता था। सो उसकी दुर्गंध फैली रहती थी। इसलिए उस मैदान पर कोई हक़ नहीं जमाता था। वहां हमारा सोलर क्लब बना।

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  24. मैदान होने के बाद भी अब बच्चों के पास खेलने का समय नहीं है. बढिया पोस्ट.

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  25. एक बार फिर मन मस्तिष्क को झकझोरने वाली पोस्ट डाली है आपने। सही है। बच्चों को खेलने की जगह नहीं मिलती। हमारी गली जब कच्ची थी तब हम बरसात में भी लगे रहते थे क्रिकेट में। उस समय पड़ोसी भी कुछ नहीं कहते थे। अब गली पक्की हो गई है और पड़ोसियों के हृदय भी कठोर। मेरा तो झगड़ा हो जाता है जब यहां खेलने वाले बच्चों को रोका जाता है। इस पोस्ट को पढऩे वाले कम से कम इसी विषय पर एक पोस्ट लिखें तो अच्छा रहे। मैं तो जरूर लिखने वाला हूं।

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  26. आज आपकी इस पोस्ट ने यादों के बहुत से दरवाज़े खोल्दिये.. मधु सप्रे मेरे पसंदीदा तीन सुंदरियों में से एक थीं (पहली पर्सिस खम्बाटा, दूसरी स्मिता पाटील)..
    और स्ट्रेट ड्राइव से याद आई श्री पूर्णेंदु भूषण जी की.जो हमारे वरिष्ठ अधिकारी थे.. मैं परेशान था और उन्होंने कहा था कि ज़िंदगी को स्ट्रेट ड्राइव लगाओ..परेशानी समाप्त हो जाएगी.. आज भी उनको याद करता हूँ.. वे मशहूर अदाकार शेखर सुमन के चाचा हैं..
    रश्मि जी बहुत अच्छा सामाजिक मसला उठाया है आपने, जैसा आप प्रायः उठाती हैं.. धन्यवाद!!

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  27. बिल्डर माफ़िया-नेता गठजोड़ की गिद्ध दृष्टि से महानगरों की खाली ज़मीन बचे तो बच्चों को खेलने के मैदान मिलें...

    एक करेक्शन...सुष्मिता सेन भारत की पहली मिस यूनिवर्स थीं...मिस वर्ल्ड का खिताब 1966में भारत की रीता फारिया जीत चुकी हैं...उन्होंने पहले मिस बॉम्बे का भी खिताब जीता था...

    जय हिंद...

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  28. रश्मि जी इतनी सुंदर पोस्ट पढ़कर सुबह सुबह मन आह्लादित हो गया अब दिन अच्छा बीतेगा |आपको भी ढेरों शुभकामनाएं |अपने बहुत सुंदर विश्लेषण किया है -जावेद अख्तर साहब का एक शेर है
    ऊँची इमारतों से मकां मेरा ढक गया
    कुछ लोग मेरे हिस्से का सूरज भी खा गए यह शेर भी मुंबई में ही कहा जा सकता है |आभार

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  29. बहुत सार्थक चर्चा की है आपने.
    विकास के नाम पर हम बहुत कुछ गँवाए जा रहे हैं.

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  30. @खुशदीप भाई,
    मैने सुष्मिता सेन के लिए 'मिस यूनिवर्स' की ही बात की है...'रीटा फारिया' पहली मिस वर्ल्ड थीं....और मिस बॉम्बे के साथ उन्होंने 'मिस इण्डिया ' प्रतियोगिता में जरूर फर्स्ट रनर आप का खिताब जीता होगा...तभी मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता में भाग लिया होगा....
    '.मिस इण्डिया'....प्रतियोगिता की विनर मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता में भाग लेती हैं.

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  31. पोस्ट बहुत अच्छा लगा। जिन सुंदरियों की आपने चर्चा की है, और जिस प्रतियोगिता की, उसमें खासी रुचि .... नहीं रही है! अगर उनकी तस्वीरें भी लगा देतीं तो पता चलता कि सुंदर होने के लिए प्रश्न का जवाब भी सुंदर होना चाहिए कितना सही है, या फिर प्रश्न के जवाब से कितना सुंदर है का कैसे पता चलता है?
    सुना है इस तरह की प्रतियोगिता के लिए भी स्वास्थ्य की दृष्टि से फिट-फाट होना ज़रूरी है। .. तो इनके लिए तो मैदानी समस्या नहीं ही होती होगी। और साधारणतया बड़े शहरों से इनका संबंध रहता होगा।
    मतलब सब जगह पैसे, रसूख, और बड़े लोग मैदान मार जाते हैं, और मध्यम वर्गीय एक मुट्ठी मैदान के लिए तरसते रहते हैं।

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  32. एक और पक्ष शेयर करने का मन कर गया ...
    मैदान की कमी भी नहीं है .... हमारे बच्चे तो ड्राइंग रूम में क्रिकेट और घर के गलियारे में फ़ुटबॉल खेल लेते हैं, कुछ टूटता-फूटता है तो उनकी मम्मी का, और उनका ही। .... :)

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  33. बहुत ही सामयिक विषय है, सच है कि बड़े शहरों में बच्‍चों से उनका बचपन छीना जा रहा है। पार्क में ताला जड़ने की बात पर एक कहानी याद आ गयी। कि एक बगीचा था, वहाँ ऊँची दीवारें और दरवाजे पर ताला था। बच्‍चे जा नहीं सकते थे तो धीरे-धीरे वहाँ से बसन्‍त रूठ गया। एक दिन किसी तरह एक बालक वहाँ पहुंच गया और देखते ही देखते बहार आ गयी। तब जाकर मालिक को समझ आया कि बगीचे बच्‍चों से ही हरे-भरे रहते हैं।

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  34. @मनोज जी,
    फोटो तो लगा देती...पर उनका जिक्र सिर्फ भूमिका के लिए था....
    और मुझे आप पुरुषों की फितरत पता है...फोटो ही निहारते रह जाते...पोस्ट का असल मुद्दा रह ही जाता...:):)
    और मधु सप्रे पहले एथलीट थीं उसके बाद मॉडल ....इसलिए उन्हें खेल के मैदान की ज्यादा फ़िक्र थी.

    आपकी दूसरी टिप्पणी से सम्बंधित एक पोस्ट लिखनी है....उसपर आपकी विस्तृत टिप्पणी का इंतज़ार रहेगा :)

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  35. बहुत सामयिक पोस्ट है.
    शहरों में बच्चों वाली सोसायटीज भी होनी चाहिए और बिना बच्चों वाली भी.बच्चों वाली सोसायटीज की छत ऐसी होनी चाहिए कि बच्चे सुरक्षित हो खेल सकें.लोहे कि जाली के अलावा नेट भी हो सकता है ताकि गेंद ,शटल आदि नीचे न गिरे.हाँ सबसे ऊपर कि मंजिल में कौन रहना चाहेगा? शायद पुस्कालय, सोसायटी का दफ्तर बनाया जा सकता है. यदि स्कूलों के पास मैदान होते तो वहाँ छुट्टी के बाद एक दो घंटे खेला जा सकता था.
    घुघूती बासूती

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  36. बेहतरीन शब्द सामर्थ्य युक्त इस रचना के लिए आभार !!

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  37. बहुत सटीक विश्लेषण ! खिलाड़ियों की बेहतरीन जानकारी है आपको।

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  38. इस रोचक आलेख में आपका स्पोर्ट्स मैंन स्पिरिट काबिले गौर है !

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  39. आज आपने बिलकुल सही निशाने पर तीर मारा है रश्मि जी ! महानगरों की बिलकुल सही तस्वीर खींची है आपने ! कॉन्क्रीट के इन जंगलों में बच्चों के लिये आउटडोर गेम्स खेलने की सुविधा को बिलकुल छीन लिया है ! छोटे शहरों का भी कमोबेश यही हाल है ! छोटी सी भी जगह खाली दिखती है तो मल्टी स्टोरीड बिल्डिंग या मॉल बना दिया जाता है ! ज़रा बड़ी जगह दिखी तो रेजीडेंशियल काम्प्लेक्स बन जाता है ! बच्चों के लिये खलने का कोई प्रावधान नहीं होता ! पढ़ाई , होमवर्क और कोचिंग का इतना प्रेशर रहता है कि बच्चे दूर जाकर खेलने के लिये वक्त नहीं निकाल पाते ! माता पिता भी बच्चों के समय, ऊर्जा और धन के अपव्यय की आशंका से उन्हें दूर जाने की अनुमति नहीं देते ! नतीज़ा यह होता है कि उनका बैट छुट्टियों तक के लिये उठा कर रख दिया जाता है ! बच्चों के प्रति अनजाने में हो रहे अन्याय का बिलकुल सही चित्रण किया है आपने ! नामचीन खिलाड़ियों के बचपन में क्रिकेट खेलने के संस्मरण बहुत अच्छे लगे ! सार्थक आलेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई !

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  40. प्रत्येक सोसाइटी में एक प्लेग्राउंड होना निश्चित किया जाना चाहिए ...
    समस्या पर विस्तार से प्रकाश डाला !

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  41. नए घर में इतना व्यस्त हुए कि पढ़ना न हो पाय.. आज इस लेख को पढ़ पाए...
    रश्मि मानना पड़ेगा आपको...कहाँ खिलाड़ियों की चर्चा ,,उसी बीच मे सुन्दरियों की बाते हुई..मधु स्प्रे के जवाब के ज़रिए शहरों मे बच्चों के लिए खेल के मैदानों की कमी का उल्लेख काबिलेतारीफ़ है..

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  42. ये एक बहुत बड़ी समस्या है सभी महानगरों की ... पर इसके मूल में छिपा है देश की आबादी का बढ़ना ... रोज़गार के अवसरों का बस शहर तक सीमित रहना .... खेल ज़रूरी हैं जीवन के लिए और जिस देश में जीवन का कोई मूल्य न हो वहाँ खेलों का मूल्य कोई कैसे जानेगा ... वैसे हर किसी के ख़ास शॉर्ट्स का राज तो आपने बाखूबी समझा दिया ... अच्छी लगी बहुत आपकी पोस्ट ...

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  43. सच कहूँ, इस विषय पर कभी इस तरह से ध्यान ही न गया था...
    असल में हम जैसे स्थानों पर रहते आये हैं,कभी इस तरह की परिस्थिति देखी नहीं न..हाँ,यह है कि मझोले और छोटे शहर भी जिस तरह पसरते जा रहे हैं और खुले जमीन नदारद हुए जा रहे हैं, कुछ दिनों में यही स्थिति इधर की भी होगी...

    साधुवाद आपका इस गंभीर आलेख के लिए...

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  44. एकदम सही लिखा है,
    बैंगलोर में भी लगभग ऐसी ही हालात है.
    बहुत सही विश्लेषण किया है दीदी आपने.

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  45. बिलकुल सही ......खेल से जोड़कर सच को परखा....... उम्दा तहकीकात आवश्यकता है ऐसे विषयों पर बात करने की जो हम सबको प्रभावित करती हैं....

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  46. मुक्ति से सहमत !
    सार्थक और सुन्दर लेखन !

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  47. aapki ye post acchi lagi mujhe bhi apne din yaad aa gaye jab ham apne colony ke parking me khela karte the..

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  48. बहुत भावुक जवाब दिया गया था। जिसमें दिल की बात थी, तर्क नहीं।
    यह लेख ि‍दिमाग पर ि‍दिल की आवाज की जीत साबित करता है।
    शुक्रिया
    कुमार सौवीर
    www.meribitiya.com
    लखनऊ
    फोन:- 9415302520 और 9453029126

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