फिल्म "I am " एक प्रयोगवादी फिल्म है. इसमें कोई कहानी नहीं है...पर चार अलग-अलग प्रकरणों को फिल्म में इस तरह गुंथा गया है कि मन मस्तिष्क झंकृत हो जाता है. इस तरह के वाकये समाज में हैं पर कोई उनकी चर्चा नहीं करना चाहता ना ही उनका अस्तित्व ही स्वीकार करने की कोशिश करता है. निर्देशक ने उन प्रकरणों को नेपथ्य से लाकर...सेल्युलाइड पर उतार दिया है. और दर्शक अपलक....सांस रोके देखते रहते हैं. २ घंटे की फिल्म है...पर गज़ब की कसावट है कि आप एक पल को सर भी नहीं घुमाना चाहते.
'ओनीर' द्वारा निर्देशित यह फिल्म कभी भी इतना गहरा प्रभाव छोड़ने में सफल नहीं होती,अगर इसके कलाकारों के चयन में सजगता नहीं दिखाई गयी होती. जूही चावला, नंदिता दास, राहुल बोस, संजय सूरी, मनीषा कोइराला, पूरब कोहली, मानव कौल जैसे कलाकारों ने हर पात्र को सजीव कर दिया है.
पहले तो हमेशा की तरह फिल्म के बारे में ही लिखने की इच्छा थी...परन्तु फिर ख्याल आया....फिल्म में उठाये गए मुद्दों को अलग अलग ही संबोधित किया जाए.फिल्म में चार अलग- अलग समस्याओं को उठाया गया है....स्त्री और पुरुष के बदलते समीकरण...कश्मीर के विस्थापितों और कश्मीर में रह रहे लोगो की आतंरिक पीड़ा.... child abuse और gay .
सबसे पहले एक आधुनिक ,आत्मनिर्भर लड़की की कहानी है. आफिया (नंदिता दास) एक वेब डिज़ाईनर है..शादी -शुदा है और माँ बनने को आतुर. ये देख,ब्लॉगजगत के कई पोस्ट याद आ गए...जहाँ आधुनिक लड़कियों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे माँ नहीं बनना चाहतीं...साथ ही याद आए एक दंपत्ति. पति-पत्नी दोनों ही मेरे फ्रेंड हैं. दोनों उच्च पदों पर आसीन . पांच साल शादी को हो गए थे. पत्नी माँ बनने को परेशान पर पति की जिद कि पहले फ़्लैट लेना है..कार की किश्तें चुकानी हैं...फौरेन ट्रिप पर जाना है. उसके बाद बच्चे के आगमन की तैयारी.
पति की जिद से उनके रिश्तों में दरार आती जा रही थी...पर पति के अपने तर्क थे...मुंबई जैसी जगह में हर ग्यारह महीने में घर बदलना होता है...बच्चे का स्कूल होगा...उसे एक स्थायी पता तो चाहिए. अगर पत्नी नौकरी छोड़ देगी या लम्बी छुट्टी लेगी तो पैसों की दिक्कत.
लड़की अलग परेशान थी क्यूंकि परिवार के ताने तो लड़की को ही सुनने पड़ते थे. दोनों ही अपनी उलझने मुझसे शेयर करते थे...पर इतनी व्यक्तिगत समस्या को सुन कर ही रह जाना पड़ता है...सलाह कोई क्या देगा? खैर अब फ़्लैट भी ले लिया...स्विट्ज़रलैंड पेरिस भी हो आए और एक चार महीने के प्यारे से बेटे के माता-पिता भी हैं.
पर यहाँ आफिया के पति, बच्चा इसलिए नहीं चाहते क्यूंकि उसका दूसरी लड़की से अफेयर है. दोनों का डिवोर्स हो जाता है और एक दिन आफिया, एक दुकान से देखती है....उसका भूतपूर्व पति,अपनी आसन्न प्रसवा बीवी को कार में बैठने में मदद कर रहा है. पति का रोल मानव कौल ने किया है जो एक हिंदी ब्लॉगर हैं...कम लिखते हैं...पर अच्छी कहानियाँ हैं उनकी.
आफिय को जिद हो जाती है कि उसे भी माँ बनना है , पर artificial insemination की मदद से. सारे दोस्त, शुभचिंतक उसके इस निर्णय को पागलपन करार देते हैं..और शादी की सलाह देते हैं. पर उसका कहना है कि क्या गारंटी है कि वो पुरुष उसके पति जैसा नहीं होगा.??..इसलिए उसे किसी पुरुष की जरूरत ही नहीं है. एक फर्टिलिटी क्लिनिक से सारी बातें भी कर लेती है..पर उसका एक आग्रह, फर्टिलिटी क्लिनिक वाले भी नहीं मानते...वो डोनर से मिलना चाहती है जबकि डोनर की जानकारी हमेशा गुप्त रखी जाती है. पर उसकी जिद है कि एक बार वो डोनर को रूबरू देखना चाहती है...आखिरकार डॉक्टर उसकी बात मान कर डोनर, पूरब कोहली जो कि एक सुदर्शन मेडिकल स्टुडेंट है....से एक मीटिंग तय कर देते हैं. वह लड़का बिलकुल घबराया हुआ है..किसी तरह उसके एकाध सवालों का जबाब देता है...और फिर बहाने से चला जाता है. पूरब कोहली ने एक कन्फ्यूज्ड से घबराए लड़के का बहुत ही अच्छा अभिनय किया है..
क्लिनिक में दोनों फिर से मिलते हैं... आफिया, पूरब से कहती है..अगर वो चाहे तो बच्चे से मिल सकता है..पर पूरब मना कर देता है....फिर थोड़ी देर बाद, आफिया अपने इतने बड़े निर्णय से घबरा कर बहुत ही अस्वस्थ हो जाती है. तब पूरब उसे आश्वासन देता है कि सब ठीक होगा...और अपना फोन नंबर देता है.
लेकिन insemination के बाद घर लौटती आफिया उस कागज़ पर लिखे नंबर के पुर्जे-पुर्जे कर के उड़ा देती है...और एक खिली सी बंधनमुक्त मुस्कान उसके चेहरे पर छा जाती है. अब मुझे ये दिखा तो इसका श्रेय निर्देशक को जाता है कि वो आफिया के हाव-भाव से ये भाव संप्रेषित करने में सफल हुआ है.
नंदिता दास ने अच्छा अभिनय किया है...पर शायद...उन्हें अपने अंदर की कशमकश दिखाने का उतना मौका नहीं मिला...वे लोगो को अपने निर्णय के लिए कन्विंस करने में ज्यादा लगी होती हैं. मानव कौल और पूरब कोहली ने अपने रोल के साथ न्याय किया है..एडिटिंग और फोटोग्राफी बहुत अच्छे हैं...बैकग्राउंड में बजता गीत फिल्म को कॉम्प्लीमेंट करता है.
निर्देशक का एक ये भी संदेश है कि अगर पुरुष, नारी को ऐसे ही फॉर ग्रांटेड लेते रहे...तो वे दिन दूर नहीं जब ऐसे वाकये आम हो जायेंगे.और आजकल की स्त्रियाँ जिस तरह...बच्चे को पालने का सारा भार अकेले वहन कर रही हैं. डॉक्टर-स्कूल-पैरेंट्स मीटिंग- स्पोर्ट्स डे- ट्यूशन-अनुशासन सिखाना...अक्सर सब कुछ अधिकांशतः महिलाओं पर ही निर्भर होता जा रहा है. यह सब देख बड़ी होती लडकियाँ...सोच सकती हैं...कि जब अकेले ही बच्चे को पालना है तो फिर किसी पुरुष की जरूरत ही क्यूँ. भविष्य की यह तस्वीर कोई सुखद नहीं है.
(अगली पोस्ट में...आफिया की सहेली मेघा (जूही चावला ) की कहानी जो कश्मीरी पंडित है..और बीस वर्षों से अपने घर नहीं लौट सकी है )
नारी विमर्श को नई दिशा दे रही है यह फिल्म और आपकी समीक्षा बेहतरीन है...
जवाब देंहटाएंफिल्म की कहानी तो बहुत दिलचस्प है।
जवाब देंहटाएंबात तो तुम्हारी सही है…………फ़िल्म के द्वारा संदेश सही जाना चाहिये।
जवाब देंहटाएंज़रूर देखेंगे ये फिल्म
जवाब देंहटाएंविस्तृत एवं सुन्दर समीक्षा !
जवाब देंहटाएंविस्तृत एवं सुन्दर समीक्षा !
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा पढ़कर कोई भी फ़िल्म देखने को मन लालायित हो जाता है।
जवाब देंहटाएंदिलचस्प लग रही है...
जवाब देंहटाएंवैश्विक स्तर पर योरप के कई देशों में औरतें गर्भ-धारण के प्रति अरुचि-संपन्न हैं। समय के साथ यह लहर तीसरी दुनिया में भी जा रही है। फिल्म देखना होगा, कि कशमकश कैसे उतरी गयी है।
जवाब देंहटाएंअगली की कहानी का इंतिजार ...! आभार..!
आत्मनिर्भरता...या...आत्मानुशासन...या भविष्य की भयावह तस्वीर...आफ़िया की कहानी में..देखते ह..मेघा की कहानी क्या कहती है...
जवाब देंहटाएं@अमरेन्द्र जी,
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि ये सब बस सुनी सुनायी बातें हैं....और यहाँ एक फिल्म से और एक अपनी परिचित दो आत्मनिर्भर, आधुनिक स्त्रियों का उदाहरण रखा है...जो माँ बनने की इच्छुक हैं.
अगर स्त्री शादी करती हैं...तो माँ बनने की इच्छा भी रखती हैं....कई बार जब वे टालती हैं तो इसके अनेकानेक कारण होते हैं...मेरी फ्रेंड के ऊपर तो उसके पति का ही दबाव था...पर उसके ससुराल वालों और रिश्तेदारों की नज़र में वो ही कसूरवार थी ,उन्हें लगता था कि वो अपनी नौकरी..आज़ादी नहीं खोना चाहती,इसलिए माँ नहीं बनना चाहती...जबकि सच्चाई कुछ और थी.
बहुत मनोरंजक लग रही है पटकथा और ये आप की समीक्षा की तारीफ़ अधिक है
जवाब देंहटाएंआगे की कहानी का इंतेज़ार है
फिल्म देखने के बाद ही आपकी ये समीक्षा पढूंगा मैं..
जवाब देंहटाएंसमीक्षा अच्छी लगी ...शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंआपकी समीक्षा हमेशा सार्थक होती है.
जवाब देंहटाएंसमाज में बहुत से चेहरे हैं,हर चेहरे के अपने नकूश हैं ,अनुभव हैं,पूर्वाग्रह हैं.
फिल्म तो शायद न देख पाऊँ,पर आपकी नज़र से जरूर देख लूंगा.
सलाम.
हमेशा की तरह फिल्म समीक्षा का खूबसूरत अन्दाज़.. मेघा की कहानी का इंतज़ार है अब ...
जवाब देंहटाएंlikhti ho shaandaar , per babu hamen bhi dekhne do... kahani dheere dheere......waise aisi hi filmon kee zarurat hai sochne ke liye
जवाब देंहटाएंinteresting .
जवाब देंहटाएंदेखता हूँ ये फिल्म भी, अभी तो आपकी समीक्षा ही बहुत दिलचस्प लग रही है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सुन्दर समीक्षा...
जवाब देंहटाएं@ रश्मि जी, संभव हो बातों में वस्तुगत सच्चाई न हो उतनी जितनी कि बातें हैं, पर जर्मनी आदि देशों में पहले ही तुलना में जनसंख्या के कम होने में इसे भी कारण के रूप में बताया जाता है।
जवाब देंहटाएंहाँ, ये स्थितियाँ तो हैं, जिसमें जटिलताएँ दो लोगों ( पति-पत्नी ) के बीच की रहती हैं पर समूह मन-मुआफिक व्याख्या के लिये स्वतन्त्र रहता है। अपने पूर्वाग्रहों के साथ।
रश्मि जी आप समीक्षा इतनी बेहतरीन करती हैं कि फिल्म के प्रति जिज्ञासा बंध जाती है....
जवाब देंहटाएंमानव कौल जी का ब्लॉग भी पहली बार देखा ...
अधिक सक्रीय नहीं है अभी ....
आपकी इन पंक्तियों ने कुछ देर सोचने पर मजबूर किया .....
@ यह सब देख बड़ी होती लडकियाँ...सोच सकती हैं...कि जब अकेले ही बच्चे को पालना है तो फिर किसी पुरुष की जरूरत ही क्यूँ. भविष्य की यह तस्वीर कोई सुखद नहीं है.
पहले संयुक्त परिवार टूटे और अब पति -पत्नी के रिश्ते भी ....
आने वाले पीढ़ी हमें क्या दिखाने वाली है पता नहीं ....
चलिए कश्मीरी पंडित की कहानी का भी इन्तजार है .....:)
बढिया समीक्षा. फिल्म देखनी होगी अब. अगले भाग का इन्तज़ार है.
जवाब देंहटाएंआई एम पर तो दुनिया टिकी है।
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक ढंग से समीक्षा की है आपने.अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा.
जवाब देंहटाएंसमतोल विवेचना और सार्थक समीक्षा!!
जवाब देंहटाएंआपने फिल्म के प्रति उत्सुकता जगा दी ! फिल्मों के माध्यम से कुछ प्रगतिवादी विचारकों के मन में सुगबुगाते ख्यालात दर्शकों के सामने आते हैं ! उन्हें वे पसंद करते हैं या नापसंद और पसंद करने पर भी कितना आत्मसात कर पाते हैं यह उनके व्यक्तिगत और सामाजिक परिवेश द्वारा नियंत्रित होता है ! वैसे शादी विवाह के सन्दर्भ में पारंपरिक मिथक अब तेज़ी से टूटते नज़र आ रहे हैं ! बढ़िया समीक्षा !
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा अच्छी लगी
जवाब देंहटाएंफिल्म भी बहुत दिलचस्प होगी
अब फिल्म देखकर ही अगला भाग पढूंगा -आपसे शिकायत यह है कि आप इतना विस्तार से बताती चलती हैं कि फिल्म का मजा ही
जवाब देंहटाएंकिरकिरात जात है ... :) क्या खूब विश्लेषण !
अगला विषय भी जान लें फिर अपनी बात करेंगे।
जवाब देंहटाएंलड़कियां बदल रही हैं , इसपर सबको आपत्ति है , मगर उन कारणों की तह में कोई नहीं जाना चाहता , जिसने उन्हें बदलने पर मजबूर किया है ...
जवाब देंहटाएंरोचक और विचारोत्तेजक भी ...यक़ीनन !
आपकी समीक्षा पढने के बाद फिल्म में रूचि होना स्वाभाविक है। और यह पोस्ट भी इस बात को और मजबूत ही करती है।
जवाब देंहटाएं@अरविन्द जी,
जवाब देंहटाएंआपका नाम देखते ही मैं समझ गयी की आपने क्या लिखा होगा.....आपसे कुछ इसी तरह की टिप्पणी की उम्मीद कर रही थी.....ना तो फिल्म के बारे में मैने पहली बार लिखा है...और ना ही आपने पहली बार पढ़ा है....आप हर बार अपना ऐतराज जता जाते हैं....और मैं भी हर बार कहती हूँ कि फिल्म देखनी हो तो मेरी पोस्ट ना पढ़ें.....:)
एकाध बार तो डिस्क्लेमर भी लगा दिया....पर अब मेरे ब्लॉग के नियमित पाठकों को मेरे लिखने का स्टाइल पता चल ही गया होगा....मैं तो ऐसे ही लिखती हूँ...:) और अपना स्टाइल बदलने वाली भी नहीं... अब पक्के घड़े पर मिटटी क्या चढ़ेगी...
{वैसे बता दूँ...ये फिल्म दिल्ली(गुडगाँव) वालों को भी नहीं मिल रही,देखने...वाराणसी में तो क्या रिलीज़ होगी...:)}
किसी ब्लॉग पर किसी की टिपण्णी पढ़ी थी की यदि पत्नी आफिस से घर आये पति से बच्चे की देखभाल में कोई मदद मांगती है तो ये पति पर अत्याचार है उसका शोषण है | यदि अपने ही बच्चे की देखभाल करना अत्याचार है तो वो दिन दूर नहीं जब पुरुषो की इस मानसिकता से तंग आ कर महिलाए भी अकेली माँ बनाना ही सही समझे | कितनी ही महिलाए आज भी शारीरिक मानसिक और आर्थिक रूप से अपने बच्चे को अकेले पालती है पति का साथ बस सामाजिक सुरक्षा के नाम पर होता है जिस दिन महिलाए समाज के इस उतापतंग सवालो भरी निगाहों को अनदेखा करना सिखा जाएँगी वो ये भी करेंगी और इसका दोषी सिर्फ पुरुष ही होगा | विश्लेषण अच्छा लगा |
जवाब देंहटाएंनहीं रश्मि जी अब तो वाराणसी में भी ऐसी फिल्मे खूब रिलीज होती है और लोग देखते भी है |
@अंशुमाला जी,
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं,आप....पुरुषों को अपनी पचास साल पहले वाली मानसिकता से बाहर निकलना ही होगा...वरना इस तरह के उदाहरण आम हो जाएंगे.
और वाराणसी में कला फिल्मे जरूर रिलीज़ होती होंगी...लोग देखते भी हैं...मेरे कई रिश्तेदार हैं..बनारस में....रोजाना ही बात होती है,उन सब से..वहाँ की सारी खबरों से वाकिफ रहती हूँ.
बस इस फिल्म की बात कुछ और है...इस फिल्म के लिए पैसे चंदे से जुटाए गए हैं. फेस बुक पर इसके लिए बाकायदा मुहिम चली. लोगो ने एक हज़ार रुपये तक कंट्रीब्यूट किए हैं.I Am क्राउड फंडिंग से बनी भारत की पहली फिल्म है. इसीलिए यह बहुत सीमित थियेटर में ही रिलीज़ हो रही है.
{यह सब मैं इस फिल्म से जुड़ी ..अंतिम पोस्ट में लिखनेवाली थी..:)}
आपकी समीक्षा फिल्म में रुचि जगा रही है । सामने आने पर अवश्य देकेंगे । धन्यवाद...
जवाब देंहटाएंबढ़िया समीक्षा |उत्सुकता जगा दी है फिल्म देखने की |
जवाब देंहटाएंआप आमंत्रित है अभिव्यक्ति पर |
दुबई में तो ये फिल्म आने से रही ... शायद डी वी डी मिल जाए कहीं से ... लग रहा है की अच्छी फिल्म होगी ....
जवाब देंहटाएंअब तो देखनी ही पड़ेगी ये फिल्म
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा ......अब फिल्म देखने का मन है.....
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