यह शिखा की पोस्ट का एक्सटेंशन भर है. विदेशों में वृद्धों के अकेलेपन की बातें पढ़ ,अपने देश में वृद्धों की अवस्था का ख्याल आ गया. विदेशों में बच्चों के व्यस्क होते ही ,उनसे अपना घर अलग बनाने की अपेक्षा की जाती है. हाल में ही एक अंग्रेजी फिल्म देखी,जिसमे एक लड़के का सबलोग बहुत मजाक उड़ाते हैं और हर लड़की, उसके साथ शादी के लिए सिर्फ इसलिए इनकार कर देती है क्यूंकि वह अब तक अपने माता-पिता के साथ रहता है. उसे अपने पैरेंट्स के साथ रहना पसंद है पर माता-पिता चिंतित होकर एक काउंसलर हायर करते हैं. जो उस लड़के के साथ प्रेम का अभिनय कर उसे ,अकेले अपना घर बनाने पर मजबूर कर दे. वहाँ इस तरह की प्रथा है फिर भी, बुढापे में अकेलापन खलता है क्यूंकि युवावस्था तो पार्टी, डांस, बदलते पार्टनर,घूमने फिरने,बियर में कट जाती है. पर बुढापे में शरीर साथ नहीं देता और अगर उसपर जीवनसाथी भी साथ छोड़ दे तो अकेले ज़िन्दगी काटनी मुश्किल हो जाती है.
वहाँ जब अकेले रहने की आदत के बावजूद बुढापे में अकेलेपन से त्रस्त रहते हैं तो हमारे देश में वृद्धों के लिए अकेले दिन बिताना कितना कष्टदायक है जब उनका बचपन और युवावस्था तो भरे-पूरे परिवार के बीच गुजरा हो.
पहले संयुक्त परिवार की परम्परा थी. कृषि ही जीवन-यापन का साधन था. जो कि एक सामूहिक प्रयास है. घर के हर सदस्य को अपना योगदान देना पड़ता है.अक्सर जमीन घर के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति के नाम ही होती थी. और वो निर्विवाद रूप से स्वतः ही घर के मुखिया होते थे.इसलिए उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती थी. घरेलू कामों में उनकी पत्नी का वर्चस्व होता था.
पर घर से बाहर जाकर नौकरी करने के चलन के साथ ही संयुक्त परिवार टूटने लगे और रिश्तों में भी विघटन शुरू हो गया. गाँव में बड़े-बूढे अकेले पड़ते गए और बच्चे शहर में बसने लगे. अक्सर शहर में रहनेवाले माता-पिता के भी बच्चे नौकरी के लिए दूसरे शहर चले जाते हैं और जो लोग एक शहर में रहते भी हैं वे भी साथ नहीं रहते. अक्सर बेटे-बहू, माता-पिता के साथ रहना पसंद नहीं करते.या कई बार माता-पिता को ही अपनी स्वतंत्र ज़िन्दगी में एक खलल सा लगता है.
हमारी बिल्डिंग में एक नवयुवक ने फ़्लैट ख़रीदा और अपने माता-पिता के साथ रहने आ गया. बड़े मन से उसने अपने फ़्लैट की फर्निशिंग करवाई. मौड्यूलर किचन ...आधुनिक फर्नीचर..ए.सी...आराम और सुविधा की हर एक चीज़ जुटाई..हमलोग देखते और कहते भी, 'आखिर घर को कितने सजाने संवारने के बाद शादी करेगा.' और दो साल बाद घर पूरी तरह सेट कर लेने के बाद उसने शादी की. एक साल के अंदर ही बेरहम नियति ने अपने रंग दिखा दिए और पिता अचानक दिल का दौरा पड़ने से चल बसे.
अब घर में उसकी माँ और बेटा, बहू थे. बहू भी नौकरी वाली थी.पर पता नहीं ,सास-बहू दोनों के बीच क्या हुआ ,छः महीने में ही वह किराए का घर ले, थोड़ी दूर रहने चला गया. बेटा,बिना नागा रोज शाम को माँ से मिलने आता है. अब तो एक प्यारी सी बेटी का पिता है.उसे भी लेकर आता है पर बहू नहीं आती. सारा दिन उसकी माँ अकेले रहती हैं. कहीं भी नहीं आती-जातीं. पता नहीं कैसे दिन गुजारती हैं? उनकी ही आँखों का जिक्र मैने अपनी, इस कविता की भूमिका में किया था. आखिर ऐसा क्या हो गया कि सामंजस्य नहीं हो पाया? बहू सुबह आठ बजे के गए रात के आठ बजे आती थी. सिर्फ वीकेंड्स ही बिताने थे साथ..वह भी नहीं जमा. किसकी गलती ,कौन दोषी...नहीं कहा जा सकता. पर अकेलापन तो इन बुजुर्ग महिला के हिस्से ही आया. बेटी को बहू ,क्रेच में कहीं छोडती है. अगर दोनों साथ रहतीं तो उसकी देख-रेख में उनका दिन अच्छा व्यतीत हो जाता.
एक पहचान का युवक भी अपने माता-पिता का इकलौता बेटा है. अच्छी नौकरी में है. फ़्लैट खरीद लिया है. चीज़ें भी जुटा ली हैं. शादी के प्रपोज़ल्स आ रहें हैं.पर बात एंगेजमेंट तक आते आते रह जाती है.लडकियाँ कुछ दिन बात-चीत करने के बाद इशारे में कह देती हैं कि सास -ससुर के साथ रहना गवारा नहीं होगा.आगे पता नहीं कोई लड़की तैयार हो भी जाए तो फिर उक्त युवक जैसी समस्या ना आ जाए.
पर कई बार बुजुर्ग भी अपनी ज़िन्दगी अकेले बिताना चाहते हैं. पोते-पोतियों की देखभाल को एक अतिरिक्त भार की तरह समझते हैं. उन्हें लगता है, अपने बच्चों की देख-भाल की,घर संभाले अब क्या सारी ज़िन्दगी यही करें. एक आंटी जी हैं,पटना में. बेटा, बड़े मनुहार-प्यार से माँ को अपने पास ले गया. बेटे- बहू..पोते पोती सब इज्जत-प्यार देते थे.पर कहने लगीं.वहाँ वे बस एक केयर टेकर जैसी बन कर रह गयी थीं.(बहू भी नौकरी पर जाती थी ) पोते-पोतियों को उनके हाथ का बना खाना अच्छा लगता तो सारा समय किचन में ही बीतता था.अब बड़े से बंगले में अकेली रहती हैं. सत्संग में जाती हैं. अक्सर गायत्री पूजा में शामिल होती हैं और अपनी मर्जी से अपने दिन बिता रही हैं.
एक पोस्ट (गीले कागज़ से रिश्ते...लिखना भी मुश्किल, जलाना भी मुश्किल)पहले भी मैने लिखी थी कि सास की बहू से नहीं जमी और बहू अलग मकान लेकर अपने बच्चों के साथ रहने लगी. दोनों पति-पत्नी अकेले दिन गुजार रहें थे.घर में शान्ति छाई रहती. .सास की मृत्यु के बाद ससुर की देखभाल के लिए बहू वापस इस घर में आकर रहने लगी और घर में रौनक हो गयी. दिन भर बच्चों की चहल-पहल से घर गुलज़ार लगता. मुझे ऐसा लगता था पर अब सोचती हूँ,क्या पता उन्हें अपना शांतिपूर्ण जीवन ही ज्यादा पसंद हो.
कई बार यह भी देखा है कि शुरू में सास ने एक आदर्श सास की इमेज के प्रयास मे बहू को इतना लाड़-प्यार दिया कि बहू ने घबरा कर किनारा कर लिया. एक आंटी जी,बहू को बेटी से भी बढ़कर मानतीं. उसे तरह -तरह के टिफिन बना कर देतीं. ऑफिस से आने पर कोई काम नहीं करने देतीं. सारे रिश्तेदारों में उसकी बड़ाई करती नहीं थकतीं. फिर पता नहीं क्या हुआ... कुछ दिनों बाद बहू से बात-चीत भी नहीं रही. और जाहिर है बहू अलग रहने चली गयी और आना-जाना भी नहीं रहा.
एक किसी मनोवैज्ञानिक द्वारा लिखे आलेख में पढ़ा था कि ऐसा करने पर बहू के अवचेतन मन में लगने लगता है कि उसकी सास उसकी माँ की जगह लेने की कोशिश कर रही हैं. जबकि उसकी अपनी माँ तो है ही. और इसलिए उसका मन विद्रोह कर उठता है.
यह अजीब दुविधा की स्थिति है. बिलकुल कैच 22 सिचुएशन. प्यार दो तो मुसीबत,ना दो तो मुसीबत. ये रिश्ते तलवार की धार पर चलने के समान हैं. जरा सी गफलत हुई और रिश्ते लहू-लुहान हो उठे, कई बार तो क़त्ल ही हो जाता है रिश्तों का.
यहाँ महानगरों में एक चलन देख रही हूँ. अक्सर बेटे या बेटियाँ माता-पिता का पुराना घर बेच कर , उन्हें अपनी बिल्डिंग में या बिल्डिंग के पास ही एक छोटे से फ़्लैट में शिफ्ट करवा दे रहें . दोनों पक्ष की आज़ादी भी बनी रहती है और जरूरत पड़ने पर माता-पिता की भी देखभाल हो जाती है और बेटे-बेटियां भी जरूरत पड़ने पर बच्चों को अकेला घर मे छोड़ने के बजाय माता-पिता के पास छोड़ देते हैं यह लिखते हुए रेखा और राज-बब्बर की फिल्म 'संसार' (शायद यही सही नाम है ) याद हो आई जिसमे कुछ ऐसा ही हल बताया गया था.
पर यह सब तो मध्यमवर्गीय परिवार की बातें हैं जहाँ कम से कम बुजुर्गों को आर्थिक और शारीरिक कष्ट नहीं झेलना पड़ता (अधिकतर, वरना ..अपवाद तो यहाँ भी हैं,) लेकिन निम्न वर्ग में तो रिश्तों का बहुत ही क्रूर रूप देखने को मिलता है.वहाँ लोकलाज की भावना भी नहीं रहती.आज ही वंदना दुबे अवस्थी की यह पोस्ट पढ़, रिश्तों पर से विश्वास ही उठता सा लगा.
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बढती उम्र और आपस के रिश्तों का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है ...सही है सबको अपनी आज़ादी चाहिए ...कोई दूसरों के लिए नहीं जीना चाहता ...जिस दिन इस स्वार्थ से ऊपर उठ कर सोचेंगे तब ही साथ रहने की सही परम्परा को समझ पाएंगे ...लेकिन सच तो यह है की दो व्यक्ति विभिन्न सोच के होते हैं ..सामंजस्य होना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंभारत में अभी भी माता पिता के साथ रहना या माता पिता को साथ रखना एक नैतिक ज़िम्मेदारी मना जाता है ..जब की विदेशों में अलग रहने की परम्परा है ..
यहाँ पर आपसी सामंजस्य न होने के कारण बुजुर्गों को कष्ट झेलना पड़ता है जबकि पश्चिम में उन्हें अलग रहने के लिए बाध्य होना पड़ता है ...
वैसे भी हर रिश्ते तो निबाहना दोनों पक्षों को पड़ता है ...चाहे वो सास बहू का रिश्ता हो या पति पत्नि का ...भारत में हर रिश्ता आखिरी दम तक निबाहने की कोशिश की जाती है ... जब पानी सिर से ऊपर निकल जाता है तब ही ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं ..जैसा की वंदना डूबे जी की पोस्ट पढ़ कर पता चला ...और ऐसे उदाहरण कम नहीं हैं ..बहुत हैं ...हर नयी पीढ़ी भूल जाती है कि कल उनको भी बूढा होना है ...जैसा बीज डालेंगे वैसा ही फल मिलेगा ..
रश्मि ,
जवाब देंहटाएंइन कई घटनाओं के साथ हर स्थिति स्पष्ट हो गयी है, अति हर चीज कि बुरी होती है. आज अगर सास बहुत प्यार दे बहुत ख्याल रखे तो वे उसका नाजायज फायदा उठाने लगती हैं और अगर बहू यही करे तो सास . बेटे और बहू जिसे स्वतंत्रता मानते हैं वे दायित्वों से मुक्त नहीं करती लेकिन तुमने जो संसार वाला उदहारण दिया है वह बहुत समसामयिक है क्योंकि इसमें दोनों ही अपने तरीके से स्वतन्त्र होते हैं और फिर एक दूसरे के पास और देखभाल के लिए सहारे भी. बुजुर्ग अपने तरीके से जीना चाहते हैं और बच्चे अपने तरीके से. ये जरूरी नहीं है कि उनमें सामी ही हो और अगर पिता को बेटा या बहू टोक देते हैं तो बुरा लगता है या बेटे या बहू को सास ससुर टोकें तो वे बुरा समझते हैं.
आज के सन्दर्भ में ये समझदारी है, अपने माता पिता कि उपेक्षा या तिरस्कृत करने कि अपेक्षा उनको इस तरह से संरक्षण दें और जरूरत हो तो उन्हें ले आयें या आप चले जाइए. हाँ अगर माता पिता आप पर आश्रित हैं तब उनके सम्मान का अधिक ख्याल रखें क्योंकि वे आश्रित हैं और आप सक्षम और आपकी सक्षमता के लिए ही वे आश्रित हुए हैं.
क्या कहें रश्मि जी आजकल के बच्चे ये बिलकुल भूल गये हैं कि कल को यही स्थिती हमारी भी हो सकती है। । बहुत अच्छा आलेख है। शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंसच कहा है आपने रिश्ते बहुत ही अजीब होते हैं कभी संतुष्ट नहीं होते ..यहाँ बेशक व्यवस्था से मजबूर हैं और आदी भी हो गए हैं पर आदतें बेशक बदल जाये चाहत नहीं बदलती .
जवाब देंहटाएंपहले भारत में संयुक्त परिवार थे लड़ाई झगडे तब भी होते थे ४ बर्तन साथ होंगे तो खटकेंगे ही पर तब अलग रहने का ऑप्शन ही नहीं था तो लोग सोचते ही नहीं थे ..
अब ये रास्ता आसान हो गया है.तो निभाने की कोशिश ही नई कि जाती .लड़ते तो पति पत्नी भी कम नहीं पर बस अभी उनका अलग होना इतना आसान नहीं ..पर जल्दी ही उसपर भी पश्चिमी सभ्यता का असर होगा और फिर वो भी ज्यादा सुविधाजनक लगने लगेगा.
आज भले ही अलग भी रहते हैं माता - पिता फिर भी परिवार के हर सुख दुःख में हर आयोजन में बराबर का योगदान रहता है उनका.जबकि यहाँ नई पीड़ी से उनका कोई सरोकार नहीं एक क्रिसमस या मदर फादर डे के अलावा .
बात आखिर कार वही आती है कि आपसी सामजस्य ही इसका हल है.
हम त डर गए कि गलती से लेडीज डिब्बा में त नहीं घुस गए हैं... संगीता दी, रेखा जी, शिखा और निर्मला जी… हिम्मत करके सोचे कि कुछ लिखें..लेकिन नहीं लिखा जा रहा है.. एक समस्या के हर पहलू पर आप नजर डाली हैं… बस एतने बोलकर निकलते हैं!!!
जवाब देंहटाएंशायद समय और बदलाव के साथ रिश्तों को भी नई राहें चुनना होंगी वर्ना ...इस तरह के अवसाद भरे उद्धरण बने ही रहेंगे !
जवाब देंहटाएंपश्चिम और पूर्व की जीवन शैलियों और मूल्यों में जो घालमेल हो रहा है उसकी वज़ह से यह समस्या देर सबेर हमारे लिए भी भयावह हो जायेगी !
मेरे दो आर्थिक दृष्टि से संपन्न बुज़ुर्ग मित्र और उनकी पत्नियां अपने परिवार में अकेले रहते हैं क्योंकि उनके सुयोग्य बेटे और बहुवें रोजी रोटी के लिए विदेश में रह रहे हैं ! कभी कभार वहाँ जाते भी हैं तो बेटे बहु अपने अपने काम पर ...जानबूझ कर तालमेल की कोई समस्या नहीं पर समस्या तो है ना ?
मुझे लगता है कि वृद्धवस्था के लिये परिवार के बाहर भी विकल्प खोजे जाने चाहिए !
संकेत स्वस्थ नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंअरे ! ये मैं कहाँ आ गया ....... शकुनी किधर रह गया........
जवाब देंहटाएंशकुनी....शकुनी.....शकुनी......
मैं इधर आया कैसे.... ओह ये भीनी सी गंध .... शायद scent of a beautiful writer मुझे इधर खीँच लाई....
पारिवारिक रिश्तो के विघटन पर और उनके कारणों पर प्रकाश डालती पोस्ट. बुजुर्गो के एकाकीपन के बारे में शिखा जी की पोस्ट भी पढ़ी थी. सास बहु के रिश्ते की कडुवाहट बुजुर्गो के लिए खलनायक जैसा है . लेकिन अभी आँखों की शर्म बाकी है तो चल रहा है और पश्चिम के स्तर तक पहुचने में शायद कितने दशक लग जाये.
जवाब देंहटाएंहम फ़िलहाल कुछ नहीं कहेंगे, आप लोगों की बातें पढ़ रहे हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत विचारोत्तेजक आलेख है रश्मि जी ! इसमें कोई शक नहीं कि बदलते युग के साथ रिश्तों की परिभाषाएँ भी बदली हैं ! लेकिन पाश्चात्य जीवन शैली को पूरी तरह से अलगाववादी ठहराना और अपने देश की संस्कृति को बहुत आदर्शपूर्ण मान लेना शायद सच्चा न्याय नहीं होगा ! मैंने अमेरिका में रह कर ऐसे परिवारों के बारे में भी जाना है जहाँ पति और पत्नी दोनों के माता पिता एक साथ अपने बच्चों के साथ एक ही घर में रहते हैं ! और जो अलग भी रहते हैं वे जी जान से अपने माता पिता का ध्यान रखते हैं ! अलग रहना पारिवारिक विघटन का परिणाम नहीं होता वरन वहाँ की सामाजिक व्यवस्था के कारण होता है ! हमारे देश में जहाँ ऐसी व्यवस्था अभी प्रचलन में नहीं है मैंने अनेक बुजुर्गों को भरेपूरे परिवारों में तिल तिल घुलते हुए भी देखा है !
जवाब देंहटाएं@ dhratrashtra
जवाब देंहटाएंआप जो कोई भी हों ...कोई फेक प्रोफाइल वाले ब्लॉगर ही लगते हैं....(अब इस प्रोफाइल की जरूरत क्यूँ पड़ी, ये तो आप ही बेहतर जानते होंगे ) पर आप शकुनी को क्यूँ बुला रहें हैं?...संजय को पुकारिए जो आपको यह पोस्ट पढ़ कर सुनाए.
और writer ने beautiful लिखा या ugly ..यह बिना पोस्ट पढ़े ही कैसे कह दिया आपने :)
वैसे पधारने का शुक्रिया
विचारोत्तेजक पोस्ट। स्थिति चिंतनीय और गंभीर भी है। कहीं न कहीं संयुक्त परिवार का विघटन तो इसका दोषी नहीं है। रेखा जी की इस बात को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि आज बुजुर्ग अपने तरीके से जीना चाहते हैं और बच्चे अपने तरीके से! और यह टकराव बना रहता है।
जवाब देंहटाएंपता नहीं साँस बहू के रिश्ते को कैसे निभाया जाय?अगर साँस प्यार करती है तो बहू उसे कभी भी स्वीकार नहीं करती |और कुछ तकरार हो तो ये कहा जाता है की
जवाब देंहटाएंकितनी भी शक्कर की हो साँस टक्कर तो ले ही लेती है |मैंने तो तो कितनी जगह साँस को माँ बनते देखा है पर बहू कभी भी बेटी नहीं बनती |
बहुत बार ऐसा भी देखने में आया है अगर साँस में टेलेंट ज्यादा है तो बहू से यह भी असहनीय हो जाता है और वह अपनी माँ को हर बात में ऊपर रखने की कोशिश करती है \इस विषय पर बहुत कुछ कहा जा सकता है और आपने बहुत कुछ कह भी दिया है सही विश्लेषण के साथ |आज आर्थिक स्वतन्त्रता का भी इसमें बहुत महत्वपूर्ण रोल है |
संजीदा आलेख है..बहुत नाजुक होता है यह सामन्जस्य बैठाना...जरा सा हिला डुला और गया...और फिर जुड़ना..शायद नामुमकिन सी बात है.
जवाब देंहटाएंबहुत सतर्कता के साथ दोनों पक्ष यदि चलें तो ही संभव है आजकल अन्यथा तो हालात देख ही रहे हैं नित आसपास.
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंसाहित्यकार-महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
अपवाद नहीं , आजकल घर घर में बुजुर्गों की यही स्थिति है ...
जवाब देंहटाएंसमय बदल रहा है ...बुजुर्ग भी बदले हैं तो युवा पीढ़ी भी ...दोनों ही स्वतंत्र रहना चाहते हैं ...लेकिन अर्थ पर निर्भरता भावुकता को लील रही है ...सच कहूँ तो संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों की जो दुर्दशा देखती रही हूँ आसपास , रिश्तों पर से विश्वास उठने सा लगता है कभी- कभी, मगर नहीं ...मेरा मकसद रिश्तों के पुल बनाना है , उन्हें दूर करना नहीं ...इसलिए मुंह बंद रखना पड़ता है ...
तुम्हारी पोस्ट पर इतनी सी टिप्पणी से संतुष्ट नहीं हूँ ...मगर अभी इतना ही ..
सार्थक पोस्ट ...!
बुज़ुर्गो की अनदेखी घर-घर की समस्या है...
जवाब देंहटाएंलेकिन ये भी शाश्वत सत्य नहीं कि हमेशा बुज़ुर्ग ही सही हों...
ज़रूरत हर एक को तेज़ी से बदलते परिवेश में सामंजस्य बिठाने की...
इस विषय पर पूरी सीरीज़ लिख चुका हूं...समय मिले तो एक नज़र ज़रूर डालना...लिंक्स दे रहा हूं...
http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_03.html
http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_04.html
http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_05.html
http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_06.html
जय हिंद...
bahut sahi mudda hai
जवाब देंहटाएंaaj kal yahi ho raha hai bujurgon ke saath
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
रश्मिजी, जितने पहलू हो सकते हैं, सभी पर आपने चिंतन किया है। पहले विकल्प नहीं था तो लड़-झगड़कर साथ ही रहते थे लेकिन आज है तो साथ क्यों रहें? एक और बात मुझे दिखायी देती है कि पूर्व में अधिकतर पुश्तैनी व्यापार हुआ करते थे जिसमें पिता ही बॉस होता था लेकिन आज पिता बॉस नहीं है। इसी कारण पिता उपेक्षित हो गया है और पिता के साथ माँ भी। माता-पिता का भी स्वाभिमान उन्हें झुकने नहीं देता और बच्चों का अहंकर उन्हें। हम दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति के साथ समझौते करते हैं लेकिन बस घर में ही नहीं कर पाते। भारत में अभी समस्या प्रारम्भ हुई है आगे और विकराल रूप लेगी। क्योंकि विदेशों में वृद्धावस्था सरकार की जिम्मेदारी है लेकिन भारत में पारिवारिक है। इस कारण विदेश में वृद्धजन भावनात्मक रूप से ही दुखी हैं लेकिन यहाँ तो आर्थिक संकट भी आ गया है। माता-पिता भी अब आर्थिक पक्ष के प्रति सावचेत हो गए हैं।
जवाब देंहटाएंशोचनीय स्थिति है और हल सबकी सोच पर निर्भर करता है……………जब तक अपने स्वार्थों से ऊपर नही उठेंगे तब तक तो कोई हल नही है।
जवाब देंहटाएंगंभीर लेख है
जवाब देंहटाएंआत्मसम्मान के नाम पर बढता स्वार्थपन
स्टेट्स बढाने और धन कमाने के कारण होती समय की कमी
नैतिक मूल्यों की शिक्षा के बजाय बढता कॉम्पीटिशन और स्वतन्त्रता के नाम से अकेलापन की चाहत
पता नहीं क्या-क्या कारण हो सकते हैं
थोडा सा मूड हल्का कर देता हूँ -
लडका - तुम शादी के बाद अलग घर तो नहीं मांगोगी?
लडकी - नहीं, मैं ऐसी लडकी नहीं हूं। मैं उसी घर में गुजारा कर लूंगी। बस तुम अपनी मां को अलग घर दिलवा देना।
प्रणाम स्वीकार करें
स्थिति की सही विवेचना की है आपने....
जवाब देंहटाएंबहुत ही चिंताजनक है यह...विशेषकर बड़े शहरों तथा महानगरों में तो हाल और भी बदहाल है...पर इसका समाधान नहीं दीखता निकट भविष्य में..स्थितियां और बदतर होंगी ,यही लगता है...
बाप रे बाप..... यहाँ सबके विचार पढ़ कर तो मैं बेसुध हो गया...
जवाब देंहटाएंआज आपका ब्लॉग चर्चा मंच की शोभा बढ़ा रहा है.. आप भी देखना चाहेंगे ना? आइये यहाँ- http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/blog-post_6216.html
जवाब देंहटाएंदी, ऐसे मामलों पर मिल-बैठकर बात कर लेना ही अच्छा होता है और मुझे भी 'संसार' फिल्म वाला हल ठीक लगता है. साथ रहें या अलग-अलग, पर रिश्तों में कड़वाहट ना हो.
जवाब देंहटाएंइन लचीले रिश्तो का कितना अच्छा विश्लेषण किया आपने दी...ये लघभग हर घर की कहानी है...कई घर तो ऐसे देखे यहाँ की बड़े बड़े धनाढ्य लोग वृधा आश्रम में लाखो के दान फोटो खिचवाते हुए खूब देंगे लेकिन अपने ही घर में बूढ़े माँ बाप की दशा बद से बदतर....पहचान में ही एक आंटी है, उनका बेटा शुरू से ही नालायक था शादी एक अच्छी लड़की देख कर करवा दी | शादी के १० साल तक बहु ने सास - ससुर की खूब सेवा करी, उनलोगों के लिए अपने पति से भी लड़ जाती...एक दिन लड़के ने धोके से फ्लैट अपने नाम करवा लिया और उस दिन से बहु भी बिलकुल बदल गयी | बेटे बहु ने जो किया सो किया बेटी भी अपने माँ बाप के ही खिलाफ हो गयी...पैसे की कोई कमी नहीं थी सो उसी सोसाइटी में उतना ही बड़ा फ्लैट किराये पर लेकर रहना शुरू कर दिया.....लेकिन मन की शांति तो पैसे से नहीं खरीदी जा सकती.....नतीजतन दोनों की तबियत अक्सरह ख़राब ही रहती है....
जवाब देंहटाएंदी, मेरी सास तो मेरा बहुत ही ख्याल रखती है, लेकिन मुझे कभी नहीं लगा की वो मेरी माँ की जगह ले रही है बल्कि अगर मम्मी ना हो तो पतिदेव के साथ रहना मुश्किल हो जाये :D...बस थोड़े से आपसी सामंजस्य की जरुरत है हर रिश्ता बहुत सुन्दर होता है....
रश्मि, अपने आस-पास तमाम ऐसे रिश्ते बिखरे होते हैं, जो अच्छे, बहुत अच्छे या फिर कुछ कम अच्छे होने का सबूत देते रहते हैं, लेकिन क्रूर रिश्ते... इंसानियत पर से ही विश्वास उठने लगता है. सार्थक पोस्ट.
जवाब देंहटाएंमेरे द्वारा भी एक ब्लॉग-पोस्ट में इसी से मिलता-जुल्ता मुद्दा उठाया गया था.
जवाब देंहटाएंजिसमे परिवारों के टूटने और बुजुर्गो के अकेले रहने का दर्द, आदि मुद्दे थे.
कृपया मेरे ब्लॉग पर आये और (2-अगस्त-2010 को लिखे "ये किसी सौतन से कम नहीं।") नामक ब्लॉग-पोस्ट को पढ़ें, और कमेन्ट करे.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGPSOT.COM
आजकल सब जगह बढती उम्र के लोगों की यही कहानी है । जैसे कि संगीता जी ने कहा है हर नई पीठी भूल जाती है कि एक दिन उन्हें भी बूढा होना है और हर सास ये भूल जाती है कि वह भी कभी बहू थी तब उसे कैसा लगता था ।
जवाब देंहटाएंअभी अभी मैं भी वंदना जी की वही पोस्ट पड़ कर आ रहा हूँ ..... आधुनिकता के इस दौर में पैसे की अंधी दौड़ शुरू हो गयी है ..... अपने मूल्य ख़तम हो रहे हैं ... तेज़ी के साथ पश्चिम से प्रभावित हो रही है हमारी सांस्कृति ... समय की और करवट लेगा ... समय ही बताएगा ...
जवाब देंहटाएंbahut hi gudh vishleshan karti hain.......
जवाब देंहटाएंऐसे कितने ही घर मैंने भी देखे हैं, परंतु समस्या क्या है यह कोई बता नहीं सकता है। पता नहीं नई पीढी को कितनी और कैसी आजादी चाहिये, और ऐसी बहुओं को तो यह सोचना चाहिये कि अगर उनकी माँ के साथ उनकी भाभी यही परिस्थिती करे तब क्या होगा, लड़का तो बेचारा फ़ँस जाता है, माँ कहती है कि बेटा जा बहु के साथ रह, बहु कहती है मुझे माँ के साथ नहीं रहना है हाँ तुम चाहो तो मिल सकते हो परंतु मुझे रिश्ता निभाने के लिये मत कहना।
जवाब देंहटाएंबहुत अजीब रिश्ते हैं यहाँ पर...
अच्छा विश्लेषण .समस्या बड़ी गंभीर है. हम तो भयग्रस्त हैं.देखें कहाँ से संबल मिलता है.
जवाब देंहटाएंबड़ी मुश्किल है। मेरे एक मित्र तो पत्नी और मां के बीच हुए झगड़े से इतने परेशान हुए कि दस दिन तक घर नहीं आए। क्या करें और क्या न करें...।
जवाब देंहटाएंसमस्या पीढ़ियों के अंतराल की भी है…वैसे तो मैं न्यूक्लियर फेमिली के पक्ष में हूं क्योंकि वह डेमोक्रेसी को विस्तार देती है। मैने किसि संयुक्त परिवार में पुरुषों को किचेन में जाते नहीं देखा। बहुओं को अकेले दोष देना भी उचित नहीं। कभी पति लड़की के घरवालों के साथ रहे तो इसका विपरीत भी दिखेगा। समस्या यह है कि हमारे यहां उम्रदराज़ लोगों के लिये कोई व्यवस्था या सोच है ही नहीं। ऐसे में एक ही रास्ता बचता है…एडजस्टमेंट!
जवाब देंहटाएंस्त्री व्यक्ति होती है कोई बिन आकार विचार का फोम का तकिया या टुकड़ा या गुड़िया नहीं कि कहीं भी किसी भी ओने कोने में फिट कर दिया। समस्या तो है किन्तु समाधान स्त्री में ढूँढना गलत है। यह एडजस्टमेंट नाम का विनम्र भाव केवल स्त्रैण गुण ही क्यों माना जाता है?
जवाब देंहटाएंकोई जंवाई ससुर के मन अनुसार खाना पीना, उठना बैठना, वस्त्र पहनना, नौकरी करना, व्यवहार करने की चेष्टा करने की केवल कल्पना भर करे तो! किन्तु कल्पना में आज के जंवाई पर मन प्राण लुटाने वाले, लाड़ लड़ाने वाले सास ससुर न होकर अपने तरीके से जीवन जीना पसन्द करने वाले व अपने ही रंग ढंग को सही मानने वाले सामान्य सास ससुर होने चाहिए। जब यह कर चुकें तो फिर शायद समस्या को समझा जा सकता है और समाधान केवल जियो और जीने दो में ही पाया जा सकता है। सामान्य जीवन में अलग अलग रहो, जब समस्या आए तो स्त्री या पुरुष किसी के भी माता पिता या परिवार की सहायता को जुट जाया जाए।
जब तक स्त्री से एडजस्ट होने की अपेक्षा रहेगी तब तक पुत्र की चाह में स्त्री भ्रूण हत्या भी होती रहेगी, या फिर बच्चों की लाइन लगत जाएगी। क्योंकि बुढ़ापे के लिए पुत्र व पुत्रवधू जो चाहिएगी। यदि स्वस्थ समाज चाहिए तो स्त्री पुरुष से स्वस्थ अपेक्षाएँ ही रखनी होंगी।
एक बात यह भी सोचने की है हम क्या सोचते हैं यह बात इस पर भी निर्भर करती है कि हमारे पुत्र हैं या नहीं। शायद वैसे ही जैसे कम्युनिस्म का स्वप्न प्रायः गरीब ही देखता है अमीर नहीं। निःस्वार्थ सेवा करती बहू का स्वप्न भी.....
घुघूती बासूती
नमस्कार रश्मिजी... पिछले दिनों दोनो बेटे नानी के साथ थे..खुशी होती थी जब माँ फोन पर दोनों बच्चों की तारीफ़ करती..देर से उठने या शाकाहारी खाना कम खाने की शिकायत बुरी न लगती..छोटे ने टेडी मेडी चपाती बनाई... बड़ा दवाई देता और पैर दबाने मे देर न लगाता.. नए और पुराने में जहाँ विचारों में भिन्नता होती है वहीं समझौता करने की गुंजाइश हो तो साथ अच्छा निभता है...
जवाब देंहटाएंसभी ने अच्छा लिखा, लेकिन किसी ने समस्या का कोई व्यव्हारिक समाधान नहीं सुझाया है।
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