पिछली पोस्ट में अपने 'विदाउट रिजर्वेशन ' यात्रा का जिक्र किया था,इस बार सोचा 'विदाउट टिकट' वाली कहानी भी सुना ही दी जाए. वैसे भी यह संस्मरण अपने कॉलेज के दिनों में ही मैंने 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के 'याद आते हैं, वे क्षण ' कॉलम के लिए लिखा था. साइड बार में उस रचना के कटिंग की तस्वीर भी है. जो 'रोमांचकारी सफ़र' शीर्षक से प्रकाशित हुई थी .
"मेरे छोटे भाई 'नीरज' की माइनिंग इंजीनियरिंग' की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने की सूचना कुछ इतनी देर से मिली थी कि धनबाद जाकर 'इन्डियन स्कूल ऑफ माइन्स' में एडमिशन लेने में बस एक दिन का समय था और नीरज गाँव में अपनी छुट्टियाँ बिता रहा था. उन दिनों फोन की सुविधा तो थी नहीं कि उसे तत्काल खबर पहुंचाई जा सके. लिहाजा पापा ने मुझे ,मेरे छोटे भाई को चाची जी के साथ गाँव के लिए प्रस्थान करने को कहा.उन दिनों हमलोग समस्तीपुर में थे. सुबह छः बजे हमलोग बस से मुजफ्फरपुर के लिए रवाना हो गए .जहाँ से हमें अपने गाँव जाने के लिए ट्रेन पकडनी थी. बस, अभी रेलवे स्टशन के पास वाले क्रॉसिंग पर पहुंची ही थी कि मोतीहारी जाने वाली ट्रेन स्टेशन पर नज़र आई. बस के कंडक्टर सहित,सहयात्रियों ने सलाह दी कि यहीं से उतर कर ट्रेन पकड़ लें और अगले स्टेशन पर टिकट ले लें. हमें समय की बचत भी करनी थी ताकि नीरज उसी दिन वापस समस्तीपुर आ सके. सो हम भी जल्दी से बस से उतर कर ट्रेन पर सवार हो गए.
पर ट्रेन तो अगले स्टेशन पर रुकी ही नहीं. इसके बाद कई स्टेशन पर ट्रेन नहीं रुकी. हमारे तो होश फाख्ता हो गए कि अगर टिकट चेकर आ गया तो कितनी बेइज्जती होगी. मैं उस समय ग्रेजुएशन कर रही थी,भाई छोटा था ,चाची जी ज्यादातर गाँव में ही रहती थीं .उन्हें अकेले यात्रा करने का अनुभव नहीं था. सबसे ज्यादा जिम्मेदारी मुझे ही महसूस हो रही थी और इसीलिए सबसे अधिक चिंतित भी मैं ही थी.
अब हमें यकीन हो गया था कि यह ट्रेन हमारे गाँव के छोटे स्टेशन पर भी नहीं रुकेगी.पर अब हमें इंतज़ार था बीच के एक बड़े स्टेशन 'चकिया' का. जहाँ हर फास्ट ट्रेन रूकती थी. हमने तय किया वहीँ उतर जायेंगे और फिर किसी अन्य साधन से गाँव जाने की सोचेंगे. वहाँ के स्टेशन मास्टर भी पहचान के थे. जो भी फाइन होगा हम दे देंगे और बाकी चीज़ें वे संभाल लेंगे.
पर यह ट्रेन तो फास्ट ही नहीं सुपर फास्ट निकली और वहाँ भी नहीं रुकी. अभी तक हम थोड़ा बहुत मजाक भी कर रहें थे कि टी.टी. के आने पर बाथरूम में छुप जाएंगे या फिर और कई बहाने सोच रहें थे. अब तो सबकी बोलती बंद हो गयी. सैनिक स्कूल में पढने वाला तेरह वर्षीय 'निशित' अपनी बहादुरी के कुछ जौहर दिखाने की जुगत सोचने लगा. चाची जी अपने छत्तीस करोड़ देवी देवताओं की मनौतियाँ मनाने लगीं. मैं गहन चिंता में डूब गयी. पता नहीं कितना फाइन लेंगे? हमारे पास उतने पैसे हैं भी या नहीं? कहीं जेल ही ना ले जाएँ.? हमें कोई अनुभव ही नहीं था इस तरह बेटिकट यात्रा का. और ना किसी से ऐसे किस्से कभी सुने थे क़ि ज्ञानवर्धन हुआ हो. यह ट्रेन कहीं दूर से आ रही थी लिहाजा बिलकुल खाली थी. कोई अन्य पैसेंजर भी नहीं था साथ. जो किसी तरह की कोई सलाह भी दे सके. बस इन सबसे बेफिक्र चाची की गोद में बैठी एक साल की 'मीतू' किलकारियां भर रही थी और हैरान-परेशान थी कि कोई उसके साथ खेल क्यूँ नहीं रहा.
हमारे गांव का स्टेशन भी आया और हम खाली खाली निगाहों से अपने लहलाहते खेत-खिलहान और बाग़-बगीचे देखते रहें. पर उनके बीच हमें अब जेल की सलाखें और हथकड़ियां नज़र आ रही थीं. किन्तु भगवान को भी अब शायद हम पर तरस आ गया और उन्होंने हमारा और इम्तहान लेना स्थगित कर दिया. अगले ही स्टेशन पर ट्रेन रुक गयी. यहाँ क्रॉसिंग था और दूसरी तरफ से कोई ट्रेन आ रही थी. ट्रेन के रुकते ही हम ताबड़तोड़ कूद पड़े. किसी तरह इस ट्रेन से तो पीछा छूटे. स्टेशन पर खड़े लोग भी आवाक रह गए क़ि इस ट्रेन से लोग यहाँ क्यूँ उतर रहें हैं ? खैर, शायद जिसने पूछा हमने थोड़ा बहुत बताया और उनलोगों से पता चला क़ि दूसरी तरफ से पैसेंजर ट्रेन आ रही है. हमलोगों ने ५० पैसे के टिकट कटाए और शान से उस ट्रेन पर सवार हो अपने गाँव के स्टेशन वापस चले आए.
वहाँ से तांगे से अपने गाँव पहुंचे. नीरज को खुशखबरी सुनायी और वह तुरंत ही समस्तीपुर के लिए निकल गया जहाँ से रात को पापा के साथ धनबाद के लिए रवाना हो गया.
दोनों भाई अब जिम्मेदार अफसर हैं. मीतू भी अब एम.ए में है. मैंने तब ये संस्मरण किसी पत्रिका के लिए लिखा था जिसके पाठक अलग थे और अब यहाँ लिख रही हूँ, अपने मित्रों के लिए जो पाठक भी हैं.
"मेरे छोटे भाई 'नीरज' की माइनिंग इंजीनियरिंग' की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होने की सूचना कुछ इतनी देर से मिली थी कि धनबाद जाकर 'इन्डियन स्कूल ऑफ माइन्स' में एडमिशन लेने में बस एक दिन का समय था और नीरज गाँव में अपनी छुट्टियाँ बिता रहा था. उन दिनों फोन की सुविधा तो थी नहीं कि उसे तत्काल खबर पहुंचाई जा सके. लिहाजा पापा ने मुझे ,मेरे छोटे भाई को चाची जी के साथ गाँव के लिए प्रस्थान करने को कहा.उन दिनों हमलोग समस्तीपुर में थे. सुबह छः बजे हमलोग बस से मुजफ्फरपुर के लिए रवाना हो गए .जहाँ से हमें अपने गाँव जाने के लिए ट्रेन पकडनी थी. बस, अभी रेलवे स्टशन के पास वाले क्रॉसिंग पर पहुंची ही थी कि मोतीहारी जाने वाली ट्रेन स्टेशन पर नज़र आई. बस के कंडक्टर सहित,सहयात्रियों ने सलाह दी कि यहीं से उतर कर ट्रेन पकड़ लें और अगले स्टेशन पर टिकट ले लें. हमें समय की बचत भी करनी थी ताकि नीरज उसी दिन वापस समस्तीपुर आ सके. सो हम भी जल्दी से बस से उतर कर ट्रेन पर सवार हो गए.
पर ट्रेन तो अगले स्टेशन पर रुकी ही नहीं. इसके बाद कई स्टेशन पर ट्रेन नहीं रुकी. हमारे तो होश फाख्ता हो गए कि अगर टिकट चेकर आ गया तो कितनी बेइज्जती होगी. मैं उस समय ग्रेजुएशन कर रही थी,भाई छोटा था ,चाची जी ज्यादातर गाँव में ही रहती थीं .उन्हें अकेले यात्रा करने का अनुभव नहीं था. सबसे ज्यादा जिम्मेदारी मुझे ही महसूस हो रही थी और इसीलिए सबसे अधिक चिंतित भी मैं ही थी.
अब हमें यकीन हो गया था कि यह ट्रेन हमारे गाँव के छोटे स्टेशन पर भी नहीं रुकेगी.पर अब हमें इंतज़ार था बीच के एक बड़े स्टेशन 'चकिया' का. जहाँ हर फास्ट ट्रेन रूकती थी. हमने तय किया वहीँ उतर जायेंगे और फिर किसी अन्य साधन से गाँव जाने की सोचेंगे. वहाँ के स्टेशन मास्टर भी पहचान के थे. जो भी फाइन होगा हम दे देंगे और बाकी चीज़ें वे संभाल लेंगे.
पर यह ट्रेन तो फास्ट ही नहीं सुपर फास्ट निकली और वहाँ भी नहीं रुकी. अभी तक हम थोड़ा बहुत मजाक भी कर रहें थे कि टी.टी. के आने पर बाथरूम में छुप जाएंगे या फिर और कई बहाने सोच रहें थे. अब तो सबकी बोलती बंद हो गयी. सैनिक स्कूल में पढने वाला तेरह वर्षीय 'निशित' अपनी बहादुरी के कुछ जौहर दिखाने की जुगत सोचने लगा. चाची जी अपने छत्तीस करोड़ देवी देवताओं की मनौतियाँ मनाने लगीं. मैं गहन चिंता में डूब गयी. पता नहीं कितना फाइन लेंगे? हमारे पास उतने पैसे हैं भी या नहीं? कहीं जेल ही ना ले जाएँ.? हमें कोई अनुभव ही नहीं था इस तरह बेटिकट यात्रा का. और ना किसी से ऐसे किस्से कभी सुने थे क़ि ज्ञानवर्धन हुआ हो. यह ट्रेन कहीं दूर से आ रही थी लिहाजा बिलकुल खाली थी. कोई अन्य पैसेंजर भी नहीं था साथ. जो किसी तरह की कोई सलाह भी दे सके. बस इन सबसे बेफिक्र चाची की गोद में बैठी एक साल की 'मीतू' किलकारियां भर रही थी और हैरान-परेशान थी कि कोई उसके साथ खेल क्यूँ नहीं रहा.
हमारे गांव का स्टेशन भी आया और हम खाली खाली निगाहों से अपने लहलाहते खेत-खिलहान और बाग़-बगीचे देखते रहें. पर उनके बीच हमें अब जेल की सलाखें और हथकड़ियां नज़र आ रही थीं. किन्तु भगवान को भी अब शायद हम पर तरस आ गया और उन्होंने हमारा और इम्तहान लेना स्थगित कर दिया. अगले ही स्टेशन पर ट्रेन रुक गयी. यहाँ क्रॉसिंग था और दूसरी तरफ से कोई ट्रेन आ रही थी. ट्रेन के रुकते ही हम ताबड़तोड़ कूद पड़े. किसी तरह इस ट्रेन से तो पीछा छूटे. स्टेशन पर खड़े लोग भी आवाक रह गए क़ि इस ट्रेन से लोग यहाँ क्यूँ उतर रहें हैं ? खैर, शायद जिसने पूछा हमने थोड़ा बहुत बताया और उनलोगों से पता चला क़ि दूसरी तरफ से पैसेंजर ट्रेन आ रही है. हमलोगों ने ५० पैसे के टिकट कटाए और शान से उस ट्रेन पर सवार हो अपने गाँव के स्टेशन वापस चले आए.
वहाँ से तांगे से अपने गाँव पहुंचे. नीरज को खुशखबरी सुनायी और वह तुरंत ही समस्तीपुर के लिए निकल गया जहाँ से रात को पापा के साथ धनबाद के लिए रवाना हो गया.
दोनों भाई अब जिम्मेदार अफसर हैं. मीतू भी अब एम.ए में है. मैंने तब ये संस्मरण किसी पत्रिका के लिए लिखा था जिसके पाठक अलग थे और अब यहाँ लिख रही हूँ, अपने मित्रों के लिए जो पाठक भी हैं.
अरे वाह बहुत रोचक रहा संस्मरण, हमने भी बहुत सारी बेटिकट यात्रा की हैं पढ़ते समय शान से और नौकरी करते समय ट्रेन छूटने की मजबूरी में।
जवाब देंहटाएंachcha lgaa.....
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक संस्मरण...एक बार की यात्रा का संस्मरण मुझे भी याद आता है....और ऐसी यात्रायें भूली नहीं जा सकती...बहुत बढ़िया ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लगी आप की यह यात्रा.
जवाब देंहटाएंसंगीता जी, देर किस बात की...बस लिख डालिए वो संस्मरण...हम सब इंतज़ार में हैं
जवाब देंहटाएंहमें कोई अनुभव ही नहीं था इस तरह बेटिकट यात्रा का
जवाब देंहटाएंअब तो ये कमी भी पूरी हो गयी! बहुत खूब!
Aapke sansmaran padhne ka bhi apna ek anand hai di..
जवाब देंहटाएं@अनूप शुक्ल
जवाब देंहटाएंOf course...why not..इस तरह के harmless adventure का जायका लेना ही चाहिए
यह यात्रा संस्मरण भी बहुत बढिया रहा ..
जवाब देंहटाएंचलो, बचा खुचा अनुभव भी इस यात्रा में प्राप्त हुआ.
जवाब देंहटाएंअब कुछ और बचा हो जैसे रेल की छत पर बैठ कर यात्रा करना आदि तो वो भी सुना ही डालो लगे हाथ. :)
हा हा हा हा ....
जवाब देंहटाएंऐ शाबाश...!!!
ये भी सही रही...
बिना टिकट यात्रा मैंने नहीं की है अभी तक...सोच कर ही धुकधुकी हो गयी...समझ में आरहा है...कितना टेंशन रहा होगा....अगर पकड़े गए तो क्या होगा....
चलो जी जान छूटी...
बढ़िया लगा संस्मरण...
बधाई...
हाँ नहीं तो..!!
गजब रोमांचक यात्रा!! असल में उस वक्त तो केवल बचने की सोच रहे होगे तुम सब, रोमांचक तो बाद में सुनाते समय हो गईउस वक्त तो होश उड़ाने वाली यात्रा थी.
जवाब देंहटाएंवैसे एक बात तो तय है कि -
जवाब देंहटाएंसारा दोष समझदारी का है, ना आप समझदार होती और ना, वो क्या कहते है धुकधुकी होती. बिना तिखत यात्रा अगर पोलिसी बनाकर करो तो अनूप भैया भी सहमत होन्गे कि समीकरण यही बनेगा
जीवन भर की गई बिना टिकट यात्राओ का अनुमानित किराया = कभी कभार देना पदा दन्डात्मक किराया.
इसमे बेकार लाइन मे लगने मे की जाने बाली मेहनत और समय उप्भोक्ता की बचत कहलायेगा.
हे हे.. सही.. मेरी भी ऐसी काफ़ी यादे है..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा संस्मरण..
बिना टिकट मैंने भी कभी यात्रा नहीं की. ज़रूरत भी नहीं पड़ी. बाउ रेलवे में थे और हमें फ़र्स्ट क्लास का पास मिलता था. लेकिन हम लोग जब डेली पैसेंजरी करते थे, पढ़ने के लिये, तब एक बार कार्ड पास खत्म हो गया था और एक टी.सी. अंकल ने मेरे भाई को झूठ-मूठ में बहुत तंग किया था...लेकिन सच में अभी आपको ये बात मज़ेदार लग रही है, उस समय क्या हाल हुआ होगा? सोच सकती हूँ.
जवाब देंहटाएंजो बदमाश लोग (पी.यू. जैसे) जानबूझकर डब्लू.टी. यात्रा करते हैं, वो एन्ज्वॉय करते हैं और आप जैसे जो लोग फँस जाते हैं, उनकी डर के मारे धुकधुकी बँध जाती है.
अरे ! आपको पता है ...मैं न पूरे दस साल बिना टिकट सफ़र किया हूँ.... ट्रेन में..... एक बार तो मैजिस्ट्रेट चेकिंग में पकड़ा भी गया था.... बेचारे.... पुलिस वाले...मेरी भोली सूरत को देख कर छोड़ दिए.... ही ही ही ही ही ही ही ...... आपके इस संस्मरण से वो दिन याद आ गए..... बहुत अच्छा लगा यह संस्मरण.... मज़ा आ गया....
जवाब देंहटाएंअब थोड़ी शिकायत....
शिकायत नंबर वन....
शिकायत नंबर टू....
शिकायत नंबर थ्री....
--
www.lekhnee.blogspot.com
Regards...
Mahfooz..
रश्मि जी
जवाब देंहटाएंसच में अच्छा संस्मरण है और मैं ऐसा ही लिखा तलाशा करती हूँ। मुझे ज्यादा तकनीकी ज्ञान तो है नहीं, इसलिए ब्लागवाणी के एग्रीगेटर पर ही ढूंढ मचाती रहती हूँ। जो पोस्ट हॉट सूची में है वो निश्चित ही अच्छी होगी लेकिन आजकल पता नहीं क्यों कुछ ज्यादा ही साम्प्रदायिक माहौल चल रहा है। इसलिए अच्छी पोस्ट कहीं छिप जाती हैं। आप ऐसी ही लिखती रहें। मैं फोलोवर बन रही हूँ जिससे आपकी पोस्ट नियमित मिल जाए।
रश्मि बहना,
जवाब देंहटाएंआपको एक निहंग (नीली पगड़ी धारी सरदार) का वाक्या सुनाता हूं...
एक बार निहग जी अपने घोड़े समेत ही ट्रेन पर सवार हो गए...टीटी ने टिकट मांगा तो निहंग ने कहा...टिकट किस बात का...मैं तो अपने घोड़े पर बैठा हूं...टिकट लेना है तो घोड़े से लो...
जय हिंद...
बढ़िया... है ।
जवाब देंहटाएंअरे वाह ...ये भी खूब रही .....!!
जवाब देंहटाएंआपकी इस रेल यात्रा से अपने स्कूली दिन याद आ गए ...हम भी लोकल ट्रेन से ही स्कूल जाया करते थे ....टिकट कभी लेते नहीं थे पास बनवा लेते थे ....टी.टी. पूछता तो कह देते पास है ....पर एक दिन उसने पकड़ लिया ...कहता ५०० रुपये फाईन या जेल जाना पड़ेगा ....हमने भी कहा ले जाओ जेल पैसे तो हैं नहीं ....पर हमारा स्टेशन आते ही उसने दयावश हमें छोड़ दिया .....!!
अपने हिस्से की मस्ती हमने भी ख़ूब की है…पर अब हिम्मत नहीं…करना छोड़िये…लिखने की भी नहीं!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण , बिना टिकेट ट्रेन यात्रा एक बार मैंने भी की है , अपने गाव से वाराणसी तक , लेकिन वो ट्रेन सीधे वाराणसी में ही रुकी , और प्लेटफोर्म पर टिकेट collector मेरा इंतजार कर रहा था . पेनौल्टी और नसीहत, दोनों झेलनीपड़ी.
जवाब देंहटाएंचलिए बिना किसी फज़ीहत के घर तक सब लोग पहुँच गए। नहीं तो अक्सर सीधे साधे लोग ही टीटी का निशाना बनते हैं।
जवाब देंहटाएं.बहुत खूब -वर्णित परिस्थितियों में जो हुआ वह होता गया -मजा आया !
जवाब देंहटाएंbahut rochak sansmaran hai. imagine kar rahi hu aapki us time ki manodasha.
जवाब देंहटाएंरोचक और रोमांचकारी रहा तुम्हारे साथ सफ़र ...कभी कभी रिस्क भी लेना मजेदार होता है ...
जवाब देंहटाएंहां...कई स्टेशन साथ चलते रहे ...पटना से चंपारण का सफ़र ज्यादातर व्हीकल से किया ...बाप रे ...अंतड़ियाँ दुःख जाती थी...इतनी स्मूथ सड़के थी ...जहाँ तक मुझे याद है ..चकिया मुजफ्फरपुर और मोतिहारी के बीच में कही आता है ...(क्या मैं सही हूँ ..) चकिया हाईवे पर एक बहुत ही साफसुथरा ढाबा पापा को बहुत पसंद था ...वहां रुकना जरुरी होता था ...
बिना टिकट यात्रियों को पकड़ने का अनुभव है। और कई बार इतने जेनुइन मामले लगते हैं कि लगता है उनका जुर्माना खुद भर दें!
जवाब देंहटाएंयह बहुत दशकों पहले हुआ करता था। अब वरीयता के नाते टिकट चेकिंग में संलग्न नहीं होना पड़ता।
आपका संस्मरण बहुत मजेदार रहा ... ये सब उस उम्र में ही हो सकता है ... जब जवानी का जोश और अल्हाड़पन सवार रहता है ... अच्छा किस्सा ...
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण॥
जवाब देंहटाएंHi..
जवाब देंहटाएंAapka sansmaran padh ke mujhe apne padhai ke dauran MST par chalne ke dinon ki yaad taza ho gayi...Ek baar meri MST usi din expire ho gayi thi aur mujhe agle din renew karni thi par sham ko vapasi main der ho gayi aur main renew na kar paya tha.. Kai din valid MST ke saath chalte hue kabhi kisi ne check nahi kiya tha so main us din vaise hi train main chadh gaya... Samay ki balihari ek TT mahoday ko bhi usi din check karna tha...door se hi unhen dekh mera khoon sookh gaya tha aur jaise jaise wo paas aa rahe the meri manahsthiti bhi kamobesh vaisi hi ho rahi thi jaisi aapne bayan ki hai...par Eshwar ki maya.. unhone MST dekhi aur mera photo dekh kar vapas kar di.. aha...maine MST vapas jeb ke hawale ki aur maano jaan main jaan aayi.. sach main kaleja muhn ko aa raha tha...
aapka sansmaran Smt Rashmi Ravija ki kalam ka kamaal hai...wo to sabko achha lagega hi...
wah...
Deepak Shukla...
मैं आपकी उस मन:स्थिति के बारे मे सोच रहा हूँ जिस वक़्त पकड़े जाने का दर आपको सता रहा होगा । जेल की सलाखें , जुर्माना , अपमान ...।
जवाब देंहटाएंअब वह सब सोच सोच कर हँसी आती होगी ना ?
न रुकती, न अटकती, यादों की तरह सहज प्रवाहित.
जवाब देंहटाएंपेंचो-खम भरी जिंदगी के सीधे-सच्चे अनुभव भी अभिव्यक्ति की सहजता के साथ पठनीय बन जाते हैं.
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