शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

'कांच के शामियाने ' पर 'अपनी बात' रखी वंदना अवस्थी दुबे ने

 'वंदनाअवस्थी दुबे' एक  प्रखर  पत्रकार  हैं .दस  साल  तक  'देशबंधु' अखबार  में  काम  करने के  बाद  उन्होंने  स्कूल खोलाऔर  इतने मन से बच्चों को वहां पढ़ाती हैं और उनके सर्वांगीण विकास के लिए प्रयास करती हैं कि हर वर्ष बच्चों की  संख्या में वृद्धि होती जा रही है . पर लेखन हमेशा उनका पहला प्यार रहा .अपने ब्लॉग
  "अपनी  बात " पर कई वर्षों से सक्रिय हैं .संस्मरण , कहानियां , ज्वलंत विषयों पर आलेख लिखती आ रही हैं . दो तीन वर्षों से  फेसबुक पर ज्यादा सक्रिय हैं . उनके स्टेटस इतनी ताजगी भरे और अछूते होते हैं कि सब बेसब्री से उनके लिखे का इंतज़ार करते हैं ..पर  आजकल सब उन्हें मिस कर रहे हैं और उनके  लौट आने कि गुहार भी लगा रहे हैं .क्यूंकि वंदना फेसबुक से ब्रेक पर हैं . 
 है
मैं तो ज्यादा ही मिस करती हूँ क्यूंकि वो मेरी प्यारी सी दोस्त भी है . पर स्वार्थी बन कर सोचूं तो लगता है ,शायद कुछ ब्रेक अच्छे होते हैं ।उसने मेरी किताब पढ़ी और समीक्षा जो लिखी है :) (किताबें पढने के लिए ही ब्रेक लिया और पहली किताब मेरी ही पढ़ी :) )smile emoticon
थैंक्यू एक छोटा शब्द है फिर भी एक तो बनता है थैंक्यू सो मच वंनदना .पर तुम्हें शुक्रिया भी क्या कहूँ , एक तरह से ये तुम्हारी किताब भी है .
शुरू से तुम इस उपन्यास से जुडी रही .कई बार कुछ अंश पहले तुम्हे ही पढवाए हैं कि 'ये ठीक है ना' और तुम्हारी 'हाँ' के बाद ही आगे बढ़ी हूँ . 
ब्लॉग पर डालने के बाद तीन साल का गैप अच्छा ही रहा .,दुबारा भी एक बार में पढ़ गई (अपने आलसपने को जस्टिफाई करने का बढ़िया तरीका :) ) 
बहुत अच्छा लिखा है, उपन्यास में इतना कुछ देख लिया, हमेशा शुक्रगुजार रहूंगी ,इसी तरह मुझे पुश करती रहा करो तभी कुछ लिख पाउंगी .
                                                          

                                                                 कांच  के  शामियाने 
"कुछ संयोग यादगार होते हैं. रश्मि की किताब को सबसे पहले बुक करने और फिर उस किताब का सबसे पहले मुझे ही मिलने का संयोग भी ऐसे यादगार संयोगों में से एक है. “कांच के शामियाने” मेरे हाथों में सबसे पहले आई, लेकिन पढी सबसे पहले मेरी सास जी ने. उसके बाद कुछ ऐसा सिलसिला चल निकला कि चाहने के बाद भी किताब पर अपनी टिप्पणी लिखने का मौका टलता गया. इधर रंजू (रंजू भाटिया), वंदना जी(वंदना गुप्ता) और साधना जी(साधना वैद) इस पुस्तक के बारे में लिख चुकी थीं. अब तो गिल्ट के मारे मेरी डूब मरने जैसी स्थिति हो रही थी. लगा, रश्मि क्या सोचती होगी!! पहले तो बड़ा हल्ला मचाये थी,- कब छपवाओगी? क्यों नहीं छपवा रहीं? कब तक आयेगी? और जब आ गयी तो चुप्पी साध गयी.
(वंदना ने आंटी  की  ये तस्वीर चुपके से खींच ली :) )

खैर… देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज़ पर मैने अब “कांच के शामियाने” अपने साथ रखनी शुरु की. स्कूल जाती तो किताब हाथ में होती. नतीजा ये हुआ, कि अगले दो दिनों में ही उपन्यास पढ डाला. दोबारा पढना कहूंगी क्योंकि इस उपन्यास को हम रश्मि के ब्लॉग पर पहले ही पढ चुके हैं. बल्कि यूं कहूं, कि इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया की कई बार हिस्सेदार भी बनी. तो “कांच के शामियाने” से अलग सा ज्जुड़ाव होना लाज़िमी था.

“कांच के शामियाने” कहानी है एक ऐसी लड़की की, जिसने बेहद लाड़ प्यार के बाद असीमित धिक्कार पाया. यानि दोनों ही अपरिमित. उपन्यास की केन्द्र जया की व्यथा-कथा है ये. एक ऐसी व्यथा-कथा, जिसे पढते हुए कई जयाएं अनायास आंखों के सामने घूम जाती हैं. आये दिन खाना बनाते हुए जल के मरने वाली बहुओं की तस्वीरें सामने नाचने लगती हैं. कुछ ऐसी महिलाएं याद आने लगती हैं, जिनके बच्चे किशोर हो रहे हैं, तब भी पति महोदय जब तब पिटाई का शौक़ पूरा करते हैं, उन पर हाथ आजमा के.

पढते-पढते कई बार जया पर गुस्सा आता है. क्यों की उसने शादी? क्यों नहीं उसके प्रस्ताव को टके सा फेर दिया? क्यों सही उसकी मार? हाथ पकड़ के दो थप्पड़ क्यों न लगा दिये? जानते हैं, ऐसे सवाल मन में कब आते हैं? तब, जब आप पात्र के साथ पूरी तरह जुड़ जाते हैं. हाथ में पकड़े उपन्यास के साथ-साथ चलने लगते हैं और यही किसी भी कहानी या उपन्यास की सबसे बड़ी सफलता है कि पाठक उस के साथ ऐसा जुड़ाव महसूस करे कि पात्र की कमियों पर उन्हें गुस्सा आने लगे तो खूबियों पर प्यार. पढते-पढते मन सोचता है कि- “काश! मैं वहां होती तो जया के साथ कोई दुर्व्यवहार न होने देती” कितना बड़ा जुड़ाव है ये पात्र के साथ!! लेखिका कमरे में जया को बाद में ले जाती है, पाठक पहले ही दहशत में भर जाता है कि पता नहीं अब कौन सा गुल खिलायेगा राजीव…

जया के साथ पाठक का इस क़दर जुड़ाव हो जाता है कि घर में उसकी तरफ़दारी करने वालों के प्रति भी मन में प्यार उपजने लगता है. मैने तो कई बार काकी और संजीव को धन्यवाद दिया. मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूं, कि यही भाव तमाम अन्य पाठक/पाठिकाओं के मन में भी आया होगा.

उपन्यास में जया को जिस क़दर रश्मि ने जिया है, उससे लगता ही नहीं कि ये तक़लीफ़ किसी पात्र की है.. लिखते हुए जैसे रश्मि , जया में तब्दील हो गयी… पूरी तरह से रश्मि ने जया को जिया है, ये एक-एक शब्द, हर एक घटना की सजीवता से ज़ाहिर होता है. जया की छोटी-छोटी सी चिंहुक, उसकी दहशत पाठक के भीतर भी उतारने में सफल हुई है रश्मि.
पढते हुए शायद ही किसी के मन में आये कि- हुंह, राजीव जैसे पात्र भी होते हैं कहीं! होते हैं. तमाम राजीव समाज में बिखरे पड़े हैं. ऐसे राजीवों की वजह से ही औरतों की दुर्दशा है. खासतौर से उन औरतों की , जो जया की तरह आत्मनिर्भर नहीं हैं. जिनमें प्रतिकार का हौसला कम और बर्दाश्त करने की क्षमता ज़्यादा है.

“रोज़ रात में मां की नसीहतें सुन सुन के उसका दिमाग़ भन्ना जाता. स्त्री जाति में जन्म क्या ले लिया, अपने जीवन पर अपना ही कोई अधिकार नहीं. हमेशा उसके फ़ैसले दूसरे ही लेंगे और उसे मन से या बेमन से मानना ही पड़ेगा. अगर मां ही साथ नहीं देगी तो वो क्या करे आखिर?”
इस स्वगत कथन में औरत का कितना बड़ा दर्द छुपा है. कुछ न कर पाने की बेबसी, अपनी ही मां के लिये परायेपन का अहसास..

उपन्यास पढते हुए बार-बार खुद से वादा करती रही- तमाम लड़कियों को नौकरी करने के बाद ही शादी करने की सलाह दूंगी, ताकि किसी को जया जैसी विवशता से दो-चार न होना पड़े.
“जब किसी का घर जलता है, तो जलते हुए घर पर प्रतिक्रिया देना सबको सहज लगता है, पर स्त्री की हिम्मत ग्राह्य नहीं होती. लोग स्त्री को अबला रूप में ही चाहते हैं. रोती-गिड़गिड़ाती औरत ताकि वे सहानुभूति जता सकें. उस पर बेचारी का लेबल लगा सकें.”
सचमुच. समाज का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी औरत को अबला के रूप में ही देखना चाहता है. तमाम कामकाजी महिलाओं को भी उनके पति और परिवार पति से कमतर ही मानना चाहते हैं.

“अब पति की बात तो माननी ही पड़ती है. आखिर उसी का खाते-पहनते हैं. कभी हाथ उठा दिया, घर से निकलने को कह दिया तो क्या. वे लोग गरम खून वाले होते हैं. पति के सामने हमेशा झुक के रहने में ही भलाई है.”
आज भी घर से विदा होती बेटी को मां-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी यही सीख दे के भेजते हैं कि वो ससुराल में झुक के रहे. यही झुकने का नतीजा भोगा जया ने.

उपन्यास के अन्त में जया का विद्रोह कलेजे को ठंडक दे गया. और ये सही भी है. औरत के सहते जाने का मतलब उसका कमज़ोर होना नहीं है. औरत अपने ऊपर जुल्म सह सकती है लेकिन बच्चों पर अत्याचार उसकी बर्दाश्त से बाहर का काम है और जया का विद्रोह भी बच्चों की खातिर ही सामने आया. जया की सफलता सम्पूर्ण स्त्री जाति की सफलता की द्योतक है. संदेश है औरतज़ात को, कि सीमा से ज़्यादा बर्दाश्त मत करो. बल्कि मैं तो कहूंगी कि गलत बातों को, किसी के ग़लत रवैये को कभी बर्दाश्त ही मत करो. एक शानदार उपन्यास के लिये रश्मि को बधाई. उपन्यास में कथ्य और शिल्प दोनों ही मजबूत हैं. क्षेत्रीय बोली का पुट उपन्यास को ज़्यादा सजीव और विश्वसनीय बनाता है.

सम्वाद पात्रों के अनुकूल है. कहीं –कहीं प्रूफ़ की ग़लतियां हैं, जो उपन्यास के प्रवाह के चलते क्षम्य हैं. उपन्यास पाठक को बांधे रखता है."
वंदना के ब्लॉग पर भी यह पोस्ट पढी जा सकती है .
http://wwwvandanablog.blogspot.in/2015/12/blog-post.html
अमेज़न के इस लिंक पर किताब उपलब्ध है .
http://www.amazon.in/Kanch-Ke-Shamiyane-Rashmi…/…/9384419192

1 टिप्पणी:

  1. रश्मि, सचमुच तीन साल का ब्रेक हम सबके लिये फ़ायदेम्न्द रहा, क्योंकि उपन्यास पढते हुए फिर नयापन महसूस हुआ. बहुत परिपक्व लेखन का उदाहरण है ये उपन्यास, जो अपनी सहज भाषा और प्रवाह से पाठक को एक ही बैठक में खत्म करने को मजबूर करता है. बधाई इतने सुन्दर और सार्थक लेखन के लिये,

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