एक लंबे इंतज़ार के बाद रश्मि रविजा जी का उपन्यास "काँच के शामियाने " मिला।सच पूछो तो अक्सर उनके स्टेटस उनकी पोस्ट्स फेसबुक पर पढ़ती रहती हूँ।मुम्बई जाकर भी मिलना मयस्सर नहीं हुआ।अब अगर जाना होगा तो इंशाअल्लाह ज़रूर मिलूँगी।
काँच के शामियाने पढ़ने की लालसा व्यस्त होने के बावज़ूद भी लगी रही।कल पढ़ना आरम्भ किया तो अनवरत पढ़ती गई। उपन्यास की नायिका जया की मासूमियत अंत तक बांधे रखती है ।यही मासूमियत एक अनोखा मोड़ लेती है जब अपनी बेटी की लिखी पंक्तियाँ पढ़ती है कि "मैं जीना चाहती हूँ ..मैं दुनिया देखना चाहती हूँ।" अपने बच्चों के लिए जया का राजीव से अलग हो जाना जब कि उसके अपने मायके वाले भी उसके साथ नहीं थे। शारीरिक व् मानसिक प्रताड़ना कोई भी नारी एक हद्द तक ही झेल सकती है।जया ने अपने पहले बच्चे के लिए हर अत्यचार सहा।पर अपने विश्वास और हिम्मत के बलबूते पर बच्चे की रक्षा कर पाई।अहंकारी पति का घर छोड़ने के बाद भी पति द्वारा हर कदम पर मुश्किलों के जाल बिछाने ,ऑफिस ,बैंक और कोर्ट में मर्दों की फितरत और उनकी वाहियात नज़रों से बचती हुई जया अपने अस्तित्व को बचाए रखने में कामयाब हो गई।
बेशक यह हर चौथे घर की कहानी हो ,बेशक हर नारी की व्यथा हो ,बेशक किसी माँ की हिम्मत की दास्तां हो लेकिन "काँच के शामियाने "की नायिका " जया "की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी ।अगर दस लड़कियों में से एक भी "जया"बन जाए तो आने वाली पीढ़ी की चार "जया" पहले ही खड़ी हो जाएँगी ....अत्याचारों के खिलाफ अपनी जंग लड़ने के लिए।तब शायद कोई राजीव जैसा अहंकारी और स्वार्थी व्यक्ति किसी भी जया से उलझने की हिम्मत नहीं कर पाएगा।
"मेरे लिए काँच के शामियाने नारी के सम्मान और हिम्मत और सहनशीलता की शक्ति का स्वरुप है ।"
रश्मि रविजा सखी , उपन्यास की भाषा शैली जितनी सुन्दर है उससे अधिक उसके अध्याय अपने सुन्दर शीर्षक के साथ प्रभावित करते हैं ।मेरी दुआ है तुम आगे भी ऐसे ही और उपन्यास लिखती रहो।हम पढ़ते रहें । आमीन !!
खूबसूरत समीक्षा
जवाब देंहटाएंसचमुच.... एक शानदार, सार्थक उपन्यास है "कांच के शामियाने" बधाई रश्मि. लिखती रहो ऐसे ही.
जवाब देंहटाएंshandaar :))
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