गीताश्री जी , साहित्य जगत में एक जाना माना नाम हैं . उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं . साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी कहानियां नियमित प्रकाशित होती हैं. 'बिंदिया' पत्रिका की सम्पादक रह चुकी हैं. साहित्यिक आयोजनों में उनकी नियमित भागेदारी रहती है, आजकल 'प्रसिद्ध लेखकों से मंच पर संवाद' कार्यक्र्म होस्ट करती हैं .
'कांच के शामियाने' पर उनकी प्रतिक्रिया अपने ही लेखन में विश्वास बनाए रखने को प्रेरित करती है.
गीताश्री का बहुत आभार :)
कांच के शामियाने
गीताश्री का बहुत आभार :)
कांच के शामियाने
रश्मि रविजा के इस उपन्यास को पढ़ना जैसे एक लड़की के स्वप्न, संघर्ष और यातना का पीछा करने जैसा...
अपनी तस्वीर देखना और डूब डूब जाना उन दिनों में जहां से शुरु होता है एक लड़की का इस बीहड़ वन में दुरुह सफर...
अपनी तस्वीर देखना और डूब डूब जाना उन दिनों में जहां से शुरु होता है एक लड़की का इस बीहड़ वन में दुरुह सफर...
"कांच के शामियाने" में एक लड़की रहा करती है. कभी झील में बदलती है तो कभी पहाड़ी नदी बन जाती है. चंबा की चिड़ियां अक्सर कांच में चोंच मारा करती है. उसकी कोशिशों का दौर थमता नहीं. खुरदुरे यथार्थ का कड़वा स्वाद लेती हुई वह लड़की अक्सर उम्मीद की तरह झांकती है शामियाने से बाहर. जहां कैद है वहां सहरा से दिन और अंधें कूंए सी रातें ही होंगी न ! वह कहीं भी महफूज नहीं कि जीवन की ये तल्खियां और दुश्वारियां उसे धीरज नहीं धरने देते. दुख से दोस्ती करने वाली वह लड़की देखती है बार बार सपने .
रश्मि रवीजा के उपन्यास की वह लड़की अब तक मेरी चेतना में रहती आई है. पहली बार उसे दर्ज होते देखा. कांच के भीतर की छटपटाहट उस लड़की से कितनी मिलती है...जिसे मैं बचपन से अब तक साथ लिए घूम रही हूं...!
यह वही लड़की है जो मेरे मोहल्ले में रहा करती थी बिना पिता के घर में. दुनियाभर के वहशत उसका पीछा करते थे और वह अपने आप में सिमटती चली जाती थी. उसे हर कोई अपने शीशे में उतार लेना चाहता है. घरवाले बोझ समझ कर उसे जल्दी निपटा देना चाहते हैं.
वह सिर झुका कर निपटने देती है खुद को. शायद बेहतर की उम्मीद में कि बंजर में फूल खिला सके. उपन्यास की मुख्य पात्र जया पर गुस्सा भी आया.थोडा संघर्ष तो करती. इतनी आसानी से अपने जीवन का समर्पण कैसे कर दिया? दुख कहां खत्म होते हैं जल्दी. वे पसरते चले जाते हैं थिर पानी पर शैवाल की तरह. जया का दुख विस्तार लेता चला जाता है. एक निरीह लड़की के ऊपर एक मर्द के अहंकार की विजयगाथा चलती रहती है. लड़की की आंखें गरीब के झोपड़े में बरसात की तरह टपकती रहती हैं.
फिर गुस्सा आता है मुझ जैसे पाठक को. मैरिटल रेप और डोमेस्टिक वायलेंस झेलते हुए वह मुझसे दूर होती जा रही है. वह लड़की से औरत में बदल रही है और दो बच्चों की मां भी बन गई.
और सहते सहते एक दिन उसकी सहनशक्ति खत्म ! उसे अपने अस्तित्व का बोध हुआ और वह उस विवाह रुपी कैद को छोड़ कर बाहर निकल आई. आर्थिक निर्भरता ने उसमें आत्मविश्वास भर दिया और वह लड़ सकी ! खुद को कविता में अभिव्यक्त कर सकी. सारे पहरे यकायक हट गए और उसके अरमानों को आकाश मिल गया. अब वह सुकून से है.
रश्मि रविजा के इस उपन्यास में एक लड़की की जीवन यात्रा है. बिहार के परिवेश की जीवंत और सच्ची कथा है. सुधा अरोड़ा ने सटीक लिखा है कि "इसमें एक स्त्री के बहाने से उन बेशुमार स्त्रियों के संघर्ष को बयान किया गया है जिन्हें उनका सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हक ताउम्र नहीं मिलता. एक पढ़ा लिखा पति भी पितृसत्तात्मक समाज के लूप-होल का फायदा उठाते हुए उस पर साधिकार कहर ढ़ाता चला जाता है और स्थितियों को प्रतिकूल पाकर गिरगिट की तरह रंग बदलता है. जाहिर है स्त्री के लिए विवाह संस्था एक शोषण संस्था बन चुकी है. "
सुधा जी से सहमत होते हुए कुछ और जोड़ना चाहती हूं कि कई बार कस्बे की लड़कियों के लिए विवाह भी मुक्त करता है. ऐसे समाज में आजीवन अविवाहित रहने का फैसला बहुत आसान नहीं. आर्थिक निर्भरता आते आते कई लड़कियां निपटा दी जाती हैं. जया के सामने कोई विकल्प नहीं. विवाह से उसकी मुक्ति जल्दी नहीं, देर से हुई. तब तक उसके अरमां निकल गए.
रश्मि...बहसतलब कथानक है! नायिका के साथ सहज संबंध बनने के वाबजूद मैं उद्वेलित रही. एक अच्छा उपन्यास ! बधाई !
रश्मि रवीजा के उपन्यास की वह लड़की अब तक मेरी चेतना में रहती आई है. पहली बार उसे दर्ज होते देखा. कांच के भीतर की छटपटाहट उस लड़की से कितनी मिलती है...जिसे मैं बचपन से अब तक साथ लिए घूम रही हूं...!
यह वही लड़की है जो मेरे मोहल्ले में रहा करती थी बिना पिता के घर में. दुनियाभर के वहशत उसका पीछा करते थे और वह अपने आप में सिमटती चली जाती थी. उसे हर कोई अपने शीशे में उतार लेना चाहता है. घरवाले बोझ समझ कर उसे जल्दी निपटा देना चाहते हैं.
वह सिर झुका कर निपटने देती है खुद को. शायद बेहतर की उम्मीद में कि बंजर में फूल खिला सके. उपन्यास की मुख्य पात्र जया पर गुस्सा भी आया.थोडा संघर्ष तो करती. इतनी आसानी से अपने जीवन का समर्पण कैसे कर दिया? दुख कहां खत्म होते हैं जल्दी. वे पसरते चले जाते हैं थिर पानी पर शैवाल की तरह. जया का दुख विस्तार लेता चला जाता है. एक निरीह लड़की के ऊपर एक मर्द के अहंकार की विजयगाथा चलती रहती है. लड़की की आंखें गरीब के झोपड़े में बरसात की तरह टपकती रहती हैं.
फिर गुस्सा आता है मुझ जैसे पाठक को. मैरिटल रेप और डोमेस्टिक वायलेंस झेलते हुए वह मुझसे दूर होती जा रही है. वह लड़की से औरत में बदल रही है और दो बच्चों की मां भी बन गई.
और सहते सहते एक दिन उसकी सहनशक्ति खत्म ! उसे अपने अस्तित्व का बोध हुआ और वह उस विवाह रुपी कैद को छोड़ कर बाहर निकल आई. आर्थिक निर्भरता ने उसमें आत्मविश्वास भर दिया और वह लड़ सकी ! खुद को कविता में अभिव्यक्त कर सकी. सारे पहरे यकायक हट गए और उसके अरमानों को आकाश मिल गया. अब वह सुकून से है.
रश्मि रविजा के इस उपन्यास में एक लड़की की जीवन यात्रा है. बिहार के परिवेश की जीवंत और सच्ची कथा है. सुधा अरोड़ा ने सटीक लिखा है कि "इसमें एक स्त्री के बहाने से उन बेशुमार स्त्रियों के संघर्ष को बयान किया गया है जिन्हें उनका सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हक ताउम्र नहीं मिलता. एक पढ़ा लिखा पति भी पितृसत्तात्मक समाज के लूप-होल का फायदा उठाते हुए उस पर साधिकार कहर ढ़ाता चला जाता है और स्थितियों को प्रतिकूल पाकर गिरगिट की तरह रंग बदलता है. जाहिर है स्त्री के लिए विवाह संस्था एक शोषण संस्था बन चुकी है. "
सुधा जी से सहमत होते हुए कुछ और जोड़ना चाहती हूं कि कई बार कस्बे की लड़कियों के लिए विवाह भी मुक्त करता है. ऐसे समाज में आजीवन अविवाहित रहने का फैसला बहुत आसान नहीं. आर्थिक निर्भरता आते आते कई लड़कियां निपटा दी जाती हैं. जया के सामने कोई विकल्प नहीं. विवाह से उसकी मुक्ति जल्दी नहीं, देर से हुई. तब तक उसके अरमां निकल गए.
रश्मि...बहसतलब कथानक है! नायिका के साथ सहज संबंध बनने के वाबजूद मैं उद्वेलित रही. एक अच्छा उपन्यास ! बधाई !
किसी कथानक पर जब स्थापित कथाकार अपनी स्वीकृति की मुहर लगाता है, तो वह कथानक न केवल सफल हो जाता है, वरन उन तमाम मुंहों को भी बन्द करने की ताक़त देता है, जो पूर्वाग्रही हैं.गीता जी की यह संक्षिप्त टिप्पणी कई लम्बी समीक्षाओं पर भारी है. बधाई रश्मि.
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