शेखर सुमन ने जब फेसबुक पर लिखा कि फिल्म ‘सुनो
अमाया ‘ देखते हुए उन्हें मेरी लिखी एक पोस्ट याद आयी तो ध्यान आया कि यह फिल्म तो
देखने से रह ही गयी . भला हो इस भले लड़के का,उसने लिंक भी दे दिया और अच्छी फिल्मों (मेरी रूचि
वाली ) की चट्टन मैंने उसी वक़्त वह फिल्म देख भी डाली . फिल्म की थीम उम्र
की सांझ में अकेले पड़ गए स्त्री/पुरुषों के फिर से अपना साथी चुनने के विषय पर है
.
कुछ संयोग ऐसा हुआ कि अगले ही दिन प्रसिद्द
कथाकार राजेन्द्र यादव के जन्मदिन पर युवा लेखिका ‘कविता राकेश’ का एक संस्मरण ‘जानकी पुल’ पर पढने को मिला. उस
संस्मरण में कविता जी ने अपनी एक कहानी ‘उलटबांसी ‘ की चर्चा की है कि कैसे इस
कहानी के कथानक को स्वीकारना सबके लिए मुश्किल हो रहा था क्यूंकि यह एक भरे -पूरे परिवार वाली उम्रदराज माँ ,जिनके बच्चे दूसरे शहरों में रहते हैं और जो अब अकेली पड़ गयी है ,के पुनः एक जीवनसाथी चुनने के निर्णय पर आधारित थी. पर फिर 'हंस' में यह कहानी प्रकाशित हुई और बहुत चर्चित रही और
खूब सराही गयी. मुझे इस कहानी को पढने की इच्छा हुई, कविता जी से इसके लिंक की
फरमाइश की तो उन्होंने गूगल बुक्स पर उपलब्ध होने की बात बतायी.
मैंने ढूंढ कर पढ़ी और इस कहानी ने जैसे निशब्द
कर दिया. एक माँ जो अपने बच्चों को बड़ा करती है, उनके सुख-दुःख का ख्याल रखती है, उनके
निर्णय में उनका साथ देती है पर जब बच्चे अपनी गृहस्थी में रम जाते हैं तो वह
कितनी अकेली पड़ जाती है. बच्चे उसका ख्याल रखते हैं, पर उनके जीवन की अपनी उलझनें
हैं...और प्राथमिकताओं की सूची में माँ की जरूरतें सबसे नचले पायदान पर चली जाती
हैं. माँ के मोतियाबंद का ऑपरेशन करवाना ,उनके जोड़ों के दर्द का इलाज टलता जाता है
...उनका झुक कर चलना, उनके व्यक्तित्व का ही हिस्सा मान
लिया जाता है.
बेटे-बेटियाँ अपने परिवार के साथ दर्शनीय स्थलों पर घूमने
जाते हैं. माँ तस्वीरें देख कर ही कल्पना कर लेती है कि पहाड़ कितने ऊँचे होते
होंगे...सागर की लहरें कैसे पैरों से टकराती होंगी.
ये कहानी जैसे सबको खुद से ही नज़रें चुराने पर विवश
कर देती है .
वही बीमार, नितांत अकेली पड़ गयी माँ, जब एक हमउम्र पुरुष के साथ शादी
का फैसला करती है तो बेटों-दामाद को
नागवार गुजरता है. उन्हें अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा खतरे में पड़ती दिखती है. वे
नाराज़गी जताते हुए, जैसे माँ से रिश्ता ही तोड़ कर चले जाते हैं. पर बेटी और पोती
माँ के अकेलेपन के दर्द को समझती है और उनके फैसले में उनके साथ खड़ी होती है .
बहुत ही सशक्त कहानी है और कहानी में रूचि रखनेवालों
को जरूर पढनी चाहिए.
फिल्म ‘सुनो अमाया’ में भी यही विषय है पर यहाँ
मॉडर्न, स्वाभिमानी बेटी जो अपने बॉस की
गलत
हरकत पर उन्हें थप्पड़ मार कर नौकरी छोड़ देती है , माँ का यह फैसला स्वीकार नहीं कर
पाती . जबकि माँ के उस पुरुष फोटोग्राफर मित्र से उसकी बहुत अच्छी जमती है . वह
उनके साथ मिलकर एक किताब लिख रही है ,जिसमे उसके संस्मरण और उनकी खिंची तस्वीरें
होंगी. पर जब अपनी माँ से उनकी दोस्ती का पता चलता है तो वह परेशान हो जाती है.
पहनावे और बोलचाल में आधुनिक दिखने वाली यह लड़की अपनी सोच में उतनी ही पुरातनपंथी
है . कहानी ‘उलटबांसी ‘ में मध्यम वर्गीय चालीस वर्षीय बेटे और फिल्म में उच्च वर्ग की बाईस-तेईस वर्षीया बेटी की प्रतिक्रया एक सी ही है , “अपने दोस्तों से क्या
कहेंगे...कि माँ शादी कर रही है ?? “
फिल्म में माँ –बेटी के रिश्ते को भी बहुत
खूबसूरती से उभारा गया है . बेटी माँ से नाराज़ हो जाती है , बात नहीं करती, उल्टा
जबाब देती है, खाने के लिए पूछने पर कहती है , " मैं बड़ी हो गयी हूँ ..अपना ख्याल
रख सकती हूँ ,जब मर्जी होगा खा लूंगी “ इस पर माँ कहती है , “तुम बड़ी हो गयी हो पर
मैं तुम्हारी माँ ही रहूंगी, यह रिश्ता नहीं बदल सकता . जब जब गिरोगी तुम्हे उठाने आउंगी, ये अधिकार मुझसे कोई नहीं ले सकता “ साथ ही यह भी कह देती है..”मुझसे इज्जत से बात किया करो “ वह
पुरातनपंथी माओं की तरह बेटी के हर नखरे चुपचाप बर्दाश्त नहीं करती . पर बेटी का
रुख देखकर अपने पुरुष मित्र से शादी के लिए मना भी कर देती है . बाद में बेटी को भी
अहसास होता है और वो माफ़ी मांग लेती है .
फिल्म में माँ का एक कैफे है (Book a coffee )वह सक्षम है, व्यस्त रहती
है. अपना ख्याल रख सकती है . उसके पास उसकी बेटी भी है .पति भी बहुत अच्छे थे , कोई
कडवी यादें नहीं हैं . अच्छा समय बिताया था पर बारह साल से अकेली है और जब एक पुरुष से दोस्ती होती है तो आगे की ज़िन्दगी
उनके साथ बिताना चाहती है क्यूंकि सिर्फ यादों के सहारे ज़िन्दगी नहीं बिताई जा सकती.
अविनाश कुमार सिंह द्वारा निर्देशित इस फिल्म में दीप्ती नवल, फारुख शेख, और बेटी के
रूप में 'स्वरा भास्कर' ने बहुत ही सहज अभिनय किया है. लगता ही नहीं फिल्म देख रहे
हैं..लगता है सब कुछ सचमुच सामने घट रहा है .
फिल्म के अंत में यह भी दिखाते हैं कि फारुख शेख
‘अल्जाइमर ' से पीड़ित हैं . (और दीप्ती नवल को यह बात मालूम है ) शायद यह सन्देश भी देना चाहते हैं कि जब उम्रदराज़ होने
पर किसी रिलेशनशिप में जाएँ तो इस उम्र के साथ आने वाली बीमारियों के लिए भी मानसिक रूप से तैयार रहें .
शेखर ने भी यहाँ फिल्म की बहुत अच्छी समीक्षा लिखी है
फिल्म में एक बात खटकी , यह एक हिंदी फिल्म है, हिंदी दर्शकों के लिए बनायी गयी है . कैफे(Book a coffee ) में जहाँ कॉफ़ी के साथ किताबें भी पढ़ी जा सकती हैं . वहां सारी किताबें अंग्रेजी की हैं . क्या हिंदी किताबें पढने वाले ऐसी कॉफ़ी नहीं अफोर्ड कर सकते ? पात्रों के बीच ज्यादातर बातचीत अंग्रेजी में ही दिखाई गयी है. पूरी फिल्म अंग्रेजी में भी बन सकती थी .जैसे 'लीला ' जैसी फ़िल्में बनायी गयी थीं .
ब्लॉग पर हम अपने मन की बात ,दिमाग में चल रही हलचल
उतार कर भूल जाते हैं . शेखर ने ही जिक्र किया कि मैंने इस विषय पर आपकी कुछ पोस्ट्स पढ़ी तो मुझे हैरानी हुई फिर देखा तो पाया हाँ, अक्सर इस विषय पर लिखती रहती
हूँ क्यूंकि एक असहायपन का अहसास होता है. इनका दर्द हम देख सकते हैं, समझ सकते हैं पर कुछ कर नहीं सकते .
अधिकाँश बुजुर्ग तो इस अकेलेपन को अपनी नियति
मान लेते हैं . पूजा-पाठ में मन लगाने की कोशिश करते हैं और जैसे दुनिया से
वैराग्य ही ले लेते हैं . उनके बच्चे शौक से उन्हें घुमाने ले जाना चाहें ,उनके
लिए आधुनिक सुख सुविधा की चीज़ें मुहैया करना चाहें तो इनकार कर देते हैं. उन्हें
लगता है वे अपने बच्चों पर बोझ डाल रहे हैं जबकि बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी करना चाहते हैं .
हज़ारों में एकाध बुजुर्ग महिलाए/पुरुष ऐसे होते हैं जो ज़िन्दगी को एक दूसरी पारी का मौक़ा देना चाहते हैं तो उनके निर्णय का सम्मान
करना चाहिए. समाज की चिंता करना व्यर्थ है . क्यूंकि समाज हमसे बना है , कोई समाज पहले से नहीं बना बनाया था कि हम
उसमे शामिल हुए .वैसे भी जो लोग समाज की परवाह नहीं करते ,समाज भी उनके सामने
घुटने टेकने में देर नहीं लगाता .
पहली बात तो मुझे इतना फुटेज मिलने पर थोडा असहज हो गया हूँ.. Sigh !!
जवाब देंहटाएंफिर आते हैं उलटबांसी पर, मैंने पढ़ी नहीं है अभी तक... पढनी है फुर्सत निकालकर... :-( फिर बात अंग्रेजी किताबों की तो मुझे भी अजीब लगा था लेकिन फिर मैंने सोचा कि इसमें एक कारण ये हो सकता है कि अमाया का परिवार शायद दक्षिण भारतीय हो इसलिए, क्यूंकि वो पापा को अप्पा कह कर बुलाती थी... खैर लेकिन हिंदी किताबें तो दिखानी ही थीं...
और अच्छा हुआ आपने लीला का जिक्र किया वो भी मिस हो गयी थी जल्दी ही देखेंगे... और पोस्ट के बारे में क्या कहें..
'फिल्म' भी अच्छी , 'समीक्षा' भी बहुत अच्छी और 'प्रति-समीक्षा' और भी बहुत अच्छी ।
जवाब देंहटाएंबुढ़ापा विषय बहुत कठिन, बहुत उलझा हुआ है. बहुत कठिन समय होता है स्वयं वृद्ध के लिए भी और उसके परिजनों व उसकी देखभाल करने वालों के लिए भी. भुक्त भोगी के अतिरिक्त किसी के लिए यह समझना कठिन है.
जवाब देंहटाएंयह फिल्म देखना व पुस्तक पढ़ना चाहूँगी, यदि कभी समय मिला तो.
घुघूती बासूती
सही कहा रश्मि...समाज हमसे है ..हम समाज से नहीं...अपने जीने के नियम हम स्वयं तै करेंगे...और समाज.... उसे तो हर हाल में टोकना है ...फिर क्यों न अपने मनकी की जाये ...वह जिससे सुख मिले..वह जिससे जीने का मकसद मिले ...वह जो वास्तव में जीना कहलाये...
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा है, देखनी पड़ेगी।
जवाब देंहटाएंये फिल्म देखने का मन है ..... अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की....
जवाब देंहटाएंऐसे विषय ज़रूरी है दर्शकों को नयी सोच से रूबरू कराने के लिए
बहुत संवेदनशील मुद्दा उठाया है रश्मि जी ! स्त्री कितनी भी आधुनिक हो जाये, शिक्षित हो जाये या व्यक्तिवादी हो जाये आज भी वह मानसिक रूप से अनेकों श्रंखलाओं से जकड़ी हुई है जिन्हें वह स्वयं ही नहीं खोल पाती या खोलने का साहस नहीं जुटा पाती और इसीलिये घर परिवार समाज के द्वारा खींची हुई लक्ष्मण रेखाओं के अंदर रहना ही अपनी नियति मान बैठी है फिर भाग्यवश जैसा व्यवहार उसे मिले उसे स्वीकार करने के लिये विवश होती है ! आपने अपनी पोस्ट में जिस कहानी और फिल्म का ज़िक्र किया है वे दोनों ही अभी मेरी नज़रों से नहीं गुज़री हैं ! आपने इतनी जिज्ञासा बढ़ा दी है कि जल्दी ही यह कहानी पढ़ने का और फिल्म देखने का प्रयत्न करूँगी ! इतना कोमल मन और संवेदनशील नज़रिया रखने के लिये आपका हार्दिक अभिनंदन !
जवाब देंहटाएंकमाल की बात तो ये है की जब मैंने ये फिल्म देखी थी तो कहीं न कहीं मुझे भी आपकी वो पोस्ट याद आ रही थी!
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत फिल्म है, नो डाऊट!