मुम्बई एक happening city तो है ही...हमेशा चर्चा में रहती है . कुछ लोगो को पसंद आती है कुछ लोगो को नहीं, कोई इस शहर से बेपनाह मुहब्बत करता है तो कोई शिद्दत से नफरत तो किसी किसी के नफरत और मुहब्बत का पलड़ा बिलकुल बराबर का रहता है. इस शहर में कोई मजबूरीवश रहता है तो कोई शौक से रहता है . इस शहर के अन्दर भी हर तबके के लोगों के लिए जैसे एक अलग शहर बना हुआ है. और ये सारे शहर समानांतर चलते हैं. और सब अपने अपने शहर में मगन रहते हैं.एक दुसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करते.
इस शहर में हज़ार कमियाँ हैं . सडकों की हालत खस्ता है . रोड पर गड्ढे हैं.( मुम्बई की सडकों से कहीं अच्छी तो मेरी गाँव की सड़कें हैं .मेरा बेटा हैरान था ,वहाँ की सड़कों को देखकर..'माँ, एक भी गड्ढा नहीं है सड़क पर' ये उदगार थे उसके ) भयंकर ट्रैफिक जैम है . एक जगह से दूसरी जगह पहुँचने में घंटो लगते हैं. बेतहाशा महंगाई है . लगातार होती बारिश है... बहुत भीड़ है..गंदगी है... ढूँढने बैठें तो शायद लिखते थक जाएँ पर कमियों की फेहरिस्त ख़त्म न हो.
मुम्बई में कुछ महीने गुजार चुके एक मित्र ने एक दिलचस्प बात नोटिस की कि इस शहर में इतनी सारी कमियाँ होते हुए भी यहाँ रहने वाला एक भी व्यक्ति,उन्हें ऐसा नहीं मिला जिसे मुंबई से शिकायत हो, इस शहर को भला-बुरा कहे, कोसे ...यहाँ रहने वाले सभी को मुंबई पसंद है ....जबकि ऐसा किसी और शहर के लिए उन्होंने नहीं देखा ."
उनकी इस बात ने सोचने के लिए मजबूर कर दिया ,आखिर ऐसी क्या बात है, मुम्बई में ??
बाहर से आनेवालों को मुम्बई पसंद नहीं आती पर वही बाहर से आये लोग जब यहाँ के बाशिंदे बन जाते हैं तो उन्हें मुम्बई रास आ जाती है. हालात वहीँ रहते हैं पर नज़रें बदल जाती हैं...भावनाएं अलग सी हो जाती हैं .
इसका मतलब यही होगा कि जब लोग यहाँ बसने की सोच लेते हैं तो फिर इस शहर को अपना लेते हैं... उसके अनुसार रहने की आदत डाल लेते हैं . इसकी अच्छाइयां-बुराइयां उनकी अपनी हो जाती हैं. और जब किसी को भी, चाहे वो शहर हो या व्यक्ति या कोई वस्तु ,अपना लो तो उसकी बुराइयां दिखती तो हैं पर खलती नहीं. कुछ देर के लिए खीझ भी जाएँ...परेशान भी हो जाएँ पर ये भाव स्थायी नहीं होते क्यूंकि "जीना यहाँ,मरना यहाँ...इसके सिवा जाना कहाँ "
अब जिन शहरों में रहते हुए भी लोग नाखुश रहते हैं, उस शहर से शिकायत होती है तो शायद यही वजह होती हो कि उनके सामने हमेशा ये विकल्प खुला होता है , "उस शहर को छोड़ कर चले जाने का " . दुसरे शहर में बसने का सपना पलता रहता है उनके मन में . इसमें कोई बुराई भी नहीं ,हर किसी को बेहतर भविष्य के प्रयास का हक है. पर जिनलोगों ने उस शहर को अपना बसेरा बना लिया होगा, वे शायद शिकायत न करते हों, उस शहर को भला-बुरा न कहते हों या करते भी हों तो खुद के लिए नहीं अपने बच्चों के लिए क्यूंकि उन्हें बच्चों के भविष्य के लिए शायद साधन सीमित लगते हों,वहाँ .वरना अपनी पुरानी बनिए की दूकान, दूधवाला , सब्जीवाली , कपड़े की दूकान जिसे अब दादा के बाद पोता चला रहा हो..सब अपने से लगते होंगे .रास्ते में जमा पानी और नियमित पावर कट भी जीवन का हिस्सा बन गए होंगे .और अपने हिस्से से शिकायत कैसी ?
(वैसे कुछ लोगों की शिकायत की आदत ही होती है, हर चीज़ से शिकायत होती है,उन्हें ...उनका जिक्र नहीं हो रहा ,यहाँ )
मेरा गाँव |
वरना मेरे गाँव में ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं. बिजली नहीं रहती थी (अब भी नाम के लिए ही आती है ) ..शहर दूर था ,अच्छे डॉक्टर नहीं थे पर हमने अपने दादा जी को या गाँव के लोगो को कभी गाँव की बुराई करते नहीं सुना .क्यूंकि वो 'उनका गाँव' था .उस से अलग जीवन उन्होंने जिया नहीं था और ना ही जीने की इच्छा थी,इसीलिए उन्हें कोई शिकायत भी नहीं थी.
हर नगर का एक व्यक्तित्व होता है, निभ जाती है तो आनन्द आने लगता है।
जवाब देंहटाएंजहाँ बसेरा हो जाए वहीँ घर हो जाता है ..
जवाब देंहटाएंजहां रोजी रोटी मिले वही स्थान न्यारा लगता है
जवाब देंहटाएंहर शहर की एक संस्कृति होती हैं |
जवाब देंहटाएंमुम्बई का मेरा बड़ा मजेदार अनुभव रहा है दीदी! कभी लिखूंगा, लिखने का मन भी है!
जवाब देंहटाएंऔर बाकी आपने कितना सच कहा है!
वैसे, देखिये न अब मुझे दिल्ली में रहने की भी आदत हो गयी, हज़ार बुराईयों के बावजूद ये शहर अब थोड़ा थोड़ा पसंद आने लगा है! :)
इस पर एक पोस्ट लिखने का मन है मेरा भी....... मुंबई अन्य शहरों से निश्चित रूप से अलग है और यहाँ के रहने वाले भी |
जवाब देंहटाएंइस पर एक पोस्ट लिखने का मन है मेरा भी....... मुंबई अन्य शहरों से निश्चित रूप से अलग है और यहाँ के रहने वाले भी
जवाब देंहटाएंयही हाल विदेशों में रहने वालों का भी है, लाख गालियाँ देते हैं लेकिन जल्दी से छोड़ कर जाते नहीं हैं.। शायद इसका सबसे बड़ा कारण है कोई किसी के फटे में पाँव नहीं डालता, सब अपनी ज़िन्दगी अपनी तरह से जीते हैं, जैसा भी जीवन होता है वो अपना हो जाता है, न उधो का लेना न माधो का देना। 'लोग क्या कहेंगे' इसकी चिंता बहुत कम हो जाती है :)
जवाब देंहटाएंसुंदर आलेख है रश्मि जी ! दरअसल स्थान के प्रति जुड़ाव या अलगाव का भाव उस शहर की सुविधाओं या असुविधाओं के कारण नहीं होता ! यह लगाव तो अपने घर से होता है ! घर के सदस्यों, घर परिवार के परिवेश, अपने मित्रों और बंधु बांधवों से होता है जो उस जगह पर हमारी ज़िंदगी का अभिन्न अंग बन जाते हैं ! जहाँ इतना प्यारा घर परिवार हो, आत्मीयता और स्नेह प्यार हो वहाँ सडकों के गड्ढों या अन्य असुविधाओं की कोई अहमियत नहीं रह जाती ! वह स्थान तो स्वर्ग से भी सुंदर हो जाता है !
जवाब देंहटाएंजहाँ रहते हैं , वह अपना हो जाता है। जैसे अब मुझे जयपुर ही सबसे अच्छा लगता है !!यूँ जयपुर शहर है भी अच्छा ही :)
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की ६०० वीं बुलेटिन कभी खुशी - कभी ग़म: 600 वीं ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंजो जिसका शहर उसे वो ही भाये ...
जवाब देंहटाएंमुंबई देखा नहीं अभी तक ... हां छुआ जरूर है कई बार पर सुना है सबसे की मुंबई मुंबई है ...
हम जिस भी शहर में रहते हैं वो धीरे धीरे अपना हो ही जाता है... कभी मुंबई आया नहीं, शायद ऑफिस के काम से आना पड़े इसी महीने... :)
जवाब देंहटाएंजीना यहाँ,मरना यहाँ...इसके सिवा जाना कहाँ .... behtareen soch :)
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