मेरा पहला स्कूल, सेन्ट्रल एकेडमी रांची |
आज फेसबुक पर सबको
अपने शिक्षकों को याद करते देख हमें भी अपनी सारी शिक्षिकाएं/ शिक्षक सिरे से याद हो आये. सबसे पहले तो के.जी. की क्लास टीचर 'मिस डे ' का ही ख्याल आता है. ,उनका गोल चेहरा और
उसके ऊपर चेहरे जितना ही बड़ा और गोल जूडा याद आता है और पूरी क्लास में हर थोड़ी देर बाद उनकी गूंजती आवाज़ , 'फिंगर ऑन योर लिप्स " .इस से आगे कुछ याद नहीं
उसके बाद पिताजी का
ट्रांसफर एक छोटे से शहर में हुआ था और हमारा दाखिला , एक आनंदमार्गी स्कूल में हुआ . जिसकी पढाई तो बहुत अच्छी थी ही, साथ ही रोज सुबह छोटे छोटे बच्चों से
मेडिटेशन करवाया जाता .(वह स्कूल पांचवीं कक्षा तक ही था ) हम
सब आँखें बंद कर के बैठते और जब आँखें खोलते तो पाते सबकी दिशा बदल गयी है . स्कूल के दाढ़ी वाले प्रिंसिपल रोज कुछ अच्छी बातें सिखाते . रोज सुबह उठकर माता-पिता को प्रणाम करने पर जोर देते . कुछ
शैतान बच्चों पर जिनपर उन्हें भरोसा नहीं होता . उनके घर पर प्यून को भेज देते कि घर
से पूछकर आओ, उसने प्रणाम किया है या नहीं. (छोटी जगह थी..छोटा स्कूल, जहां यह सब
संभव था ). साथ ही, मांसाहार की बुराइयां बताकर शाकाहार पर जोर दिया जाता . शायद मेरे
कच्चे मस्तिष्क पर उनकी बातों का कुछ ऐसा प्रभाव पडा कि मैं आज तक विशुद्ध
शाकाहारी हूँ. (हालांकि मेरी चाची कहती हैं कि तीन साल की उम्र से ही मुझे नॉनवेज पसंद
नहीं था ) जबकि मेरे घर में सब नॉनवेज के शौक़ीन थे और मुझे नॉनवेज खिलाने की बहुत
कोशिश की जाती थी . इस वजह से मैंने न जाने घर की कितनी प्लेटें तोड़ी हैं .तब चीनी
मिटटी के बर्तन में ही नॉनवेज परोसा जाता था .मैं बहाने से प्लेट ही टेबल से गिरा देती
और फिर भाग जाती . जब आठवीं में होस्टल में गयी और अपना नाम शाकाहर खाने वालों में
लिखवा लिया. तब जाकर घर वालों की इस कोशिश को विराम मिला.
इसके बाद एक साल हम गाँव के स्कूल में जाते रहे . सचमुच सिर्फ जाते ही रहे
. वहाँ की पढाई के स्टैण्डर्ड से हम बहुत ज्यादा जानते थे ,इसलिए मैं और मेरा भाई
बिना कुछ पढ़े ही क्लास में फर्स्ट आये.
तब तक पिताजी नए शहर में व्यवस्थित हो गए
थे और उनके ऑफिस के दो कर्मचारी वहाँ के स्कूल में हमें दाखिले के लिए ले गए . इस स्कूल
की पढाई बहुत ही अच्छी थी और यहाँ के हेडमास्टर बहुत ही सख्त . उन्होंने हमारा
टेस्ट लिया और मुझे सातवीं की बजाय पांचवी में और भाई को तीसरी कक्षा में एडमिशन देने
को तैयार हुए . सिर्फ सबसे छोटे भाई को पहली कक्षा में दाखिला मिल गया था . हमारे
लिए यह डूब मरने की बात थी . हम शर्म से सर झुकाए घर आ गए और आँगन में एक दीवार की
तरफ मुहं कर के खड़े हो गए. पिताजी का ऑफिस पहली मंजिल पर था और ग्राउंड फ्लोर पर
हमलोग रहते थे . उन्हें खबर मिली और वे धम धम करते सीढियां उतर कर आये . आज भी उन
कदमों की धमक जैसे कानों में है. पहले तो मम्मी-पापा दोनों से हमें खूब डांट पड़ी फिर
उनलोगों ने अपनी गलती भी समझी. पापा हेडमास्टर साहब से मिले और उन्हें आश्वासन
दिया कि तीन महीने में अगर हम उस क्लास के स्तर तक नहीं पहुँच सके तो बेशक वे हमें
निचली कक्षाओं में डाल दें . हमारा एडमिशन तो अपेक्षित कक्षाओं में हो गया पर उसके
बाद जो हमारी रगड़ाई शुरू हुई . पिताजी मैथ्स ,इंग्लिश साइंस पढ़ाते , माताश्री
हिंदी, इतिहास, भूगोल का घोटा लगवातीं . पर यह हम सबकी ज़िन्दगी का 'टर्निंग पॉइंट'
था. इस से पहले हमारे पिताजी ने कभी हमारी पढाई में रूचि नहीं ली थी. अब तक हम
दोनों अपनी अपनी क्लास में फर्स्ट आते रहे थे. इसलिए उन्होंने कभी जरूरत भी नहीं समझी
.पर उस वक़्त जो बच्चों को पढ़ाने में उनकी रूचि जागी वो अब तक कायम है .( अपने बच्चों की गरमी
की छुट्टियों में जब मैं पटना जाती तो पापा रोज सुबह मेरे दोनों बेटे को मैथ्स और
इंग्लिश पढ़ाते ).
इस पढ़ाई का नतीजा ये निकला कि फिर से छमाही परीक्षा में हम दोनों अपनी अपनी
क्लास में प्रथम आये और हेडमास्टर साहब ,जिन्हें हम ‘हेड सर’ कहते थे निस्संकोच हमारे घर पर विशेष रूप से माता-
पिता से मिलने आये (शायद थैंक्स कहने )
‘हेड सर’ बच्चों की पढ़ाई में बहुत रूचि लेते थे . उन दिनों सातवीं कक्षा में जिला
स्तर पर स्कॉलरशिप की परीक्षा होती और पूरे जिले में दो बच्चों को आगे पढने के लिए
१०० रुपये मासिक (जो तब बड़ी रकम थी ) स्कॉलरशिप प्रदान किया जाता. हेड सर की ये
कोशिश होती कि स्कॉलरशिप उनके स्कूल के बच्चों को ही मिले. और इसके लिए वे एक
क्लास टेस्ट लेते और आठ-दस बच्चों को चुनकर ,उनकी अलग से पढाई लेते . मेरी क्लास
में आठ बच्चों को चुना गया था ,छः लड़के और दो लडकियां . लड़कों में हरि, विनोद,
विभूति के नाम याद हैं लड़कियों में, मैं और झूमा चटर्जी थे . हमारी कक्षाएं बरामदे
में अलग से लगतीं . हमारा टाइम टेबल अलग होता .स्कूल के ही सारे टीचर क्लास लेते
पर बिना एक रुपया भी अलग से चार्ज किये . (शायद तब कोई स्कूल फीस भी नहीं थी ) .
स्कॉलरशिप की परीक्षा भी दो स्तर पर होती . प्रीलिम्स और फाइनल . प्रीलिम्स
में तो हम आठों निकल गए पर फाइनल में मैं ही सफल हो पायी. और फिर आठवीं से आगे की पढाई के लिए हॉस्टल में चली गयी .
मेरे बाद भी शायद हर साल, इस स्कूल के ही बच्चों को स्कॉलरशिप मिलता रहा . तीन
साल बाद मेरे भाई को भी मिला जबकि मेरे भाई की क्लास में ही हेड सर का बेटा भी था
. पर उन्होंने बिना स्वार्थ के सभी छात्रों को समान रूप से शिक्षा प्रदान की .
पता नहीं, अब इतने समर्पित शिक्षक होते हैं या नहीं जो स्कूल के बच्चों को
उन्नति करते देख ही खुश हो जाएँ . निस्स्वार्थ रूप से बस छात्रों का भविष्य उज्जवल
बनाने का प्रयत्न करें. आस-पास के इलाकों का वह इकलौता मिड्ल स्कूल था . उस स्कूल
की पढ़ाई अच्छी होती या खराब , उस स्कूल में बच्चे पढने आते ही. अगर ‘हेड सर’ इतना अतिरिक्त
मेहनत नहीं करते फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ता .पर वे अपने छात्रों को एक बेहतर
भविष्य देने के लिए कटिबद्ध थे .
‘हेड सर’ ने हमारे पूरे परिवार को ही एक नयी दिशा दी . अगर वे हमें उस दिन एडमिशन
दे देते (क्यूंकि पापा के ऑफिस के कर्मचारियों ने उनकी बहुत चिरौरी की थी, मेरे
पक्ष में तो इतना तक कहा था कि ये तो लड़की है, इसकी शादी हो जायेगी, क्या फर्क
पड़ता है,किसी क्लास में पढ़े, पर वे अपने निर्णय पर दृढ रहे )हमें एडमिशन मिल जाता तो हम भी जैसे-तैसे पढ़ाई करते रहते. पिताजी भी
इतनी रूचि नहीं लेते और हो सकता है हम सबके जीवन की दिशा कुछ और ही होती .
‘हेड सर’ तो हमेशा ही याद आते हैं. आज शिक्षक दिवस पर उन्हें कोटिशः नमन
हेड सर की जय हो... :)
जवाब देंहटाएंगुरुजन याद रहते हैं ..
जवाब देंहटाएंजीवन आगे बढ़ जाता है ...और यह यादें..हमारी धरोहर बनकर साथ रहती हैं....
जवाब देंहटाएंगुरुजनों के श्रम के कारण ही हम कुछ बन पाये हैं।
जवाब देंहटाएंतुम्हारी स्मृतियों में हेड सर से मिलना अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंअसल में आज प्राइवेट स्कूलों पर पूर्णकालिक अध्यापक नहीं होते, वे तो समय व्यतीत करने वाली गृहणियां अधिक होती हैं, इसलिए अध्यापन और बच्चों पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता। लेकिन गाँवों में आज भी अध्यापक बच्चों पर ध्यान देते हैं।
जवाब देंहटाएंहम सबके जीवन में गुरुजनों महत्व सदैव बना रहेगा ..... नमन
जवाब देंहटाएंjai ho aise gurujano ki :)
जवाब देंहटाएंpyara sansmaran ......
जो असल गुरु का फर्ज निभाते हैं ऐसे लोग कम ही होते हैं पर होते हैं तो हमेशा याद रहते हैं उम्र भर ... नमन है ...
जवाब देंहटाएंसमर्पित शिक्षक आज भी मौजूद हैं , पर आजकल उन्हें अपने छात्रों से वो सम्मान प्राप्त नहीं होता जो प्राप्य है।
जवाब देंहटाएंअजित गुप्ता जी की बात से थोड़ी असहमत हूँ। गृहणियां समय व्यतीत करती हैं ऐसा कहना उन्हें अपमान करना हुआ। घर संभालना भी एक काम है ,और ये तो स्कूल की ज़िम्मेदारी है की देखे बच्चे उचित शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं की नहीं……
ये अभी की तस्वीर है या आपके पढने के समय की? अच्छा दिखता है स्कूल।
जवाब देंहटाएंबढ़िया संस्मरण!
रश्मिरविजा जी,
जवाब देंहटाएंशिक्षक दिवस पर लिखा आप का लेख "जीवन को नयी दिशा देता'हेड़ सर' का निर्णय" पढ़ा।किसी ने ठीक ही कहा है "समय बीत जाता है पर यादें याद आती हैं"आप सच में ब हुत अच्छा लिखती हैं।
जरा समय मिलने पर मेरे ब्लोग"Unwarat.com" में भी झाँकिये और नया लेख,"प्याज रुलाता है ज़ार-ज़ार"पढ़ कर अपने विचार व्यक्त कीजिये।
विन्नी,