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गुरुवार, 19 मई 2011

जब आसमान कुछ ज्यादा करीब लगता था !!

पिछली पोस्ट में की गयी पत्रिकाओं में छपे आलेखों और पत्रों के जिक्र ने जैसे मुझे यादों की वादियों में धकेल दिया और अभी तक मैं उनमे ही भटक रही हूँ. कई लोगों ने उन  आलेखों और पत्रों के बारे में भी पूछा, वाणी गीत  ने जानना भी चाहा कि "उत्सुकता भी है कि तुमने बाद में इतने सालों लिखना क्यों छोड़ दिया "
सोचा आपलोगों को भी उन वादियों की थोड़ी सैर करा दूँ.


दसवीं उत्तीर्ण कर कॉलेज में कदम रखा ही था. स्कूल हॉस्टल के जेलनुमा माहौल के बाद, कॉलेज में आसमान कुछ ज्यादा करीब लगता. धूप नहलाती हुई सी....हवा सहलाती हुई सी और फिजां गुनगुनाती हुई सी प्रतीत होती.  मौलिश्री के पेड़ के नीचे बैठ गप्पें मारना, किताबें पढना, कमेंट्री सुनना हम सहेलियों का प्रिय शगल था. उसी दौरान एक पत्रिका 'क्रिकेट सम्राट' के सम्पादकीय पर नज़र पड़ी. पूरे सम्पादकीय में अलग अलग तरह से सिर्फ यही लिखा था कि 'लड़कियों को खेल के बारे में कुछ नहीं मालूम, उन्हें सिर्फ खिलाड़ियों से मतलब होता है'. मुझे बहुत गुस्सा आया क्यूंकि मेरी  खेल में बहुत रूचि थी. क्रिकेट,हॉकी,टेनिस कभी खेलने का मौका तो नहीं मिलता पर इन खेलों से सम्बंधित ख़बरों पर मेरी पूरी नज़र रहती. मुझे सब चलती फिरती 'रेकॉर्ड बुक' ही कहा करते थे.


यूँ तो दोनों छोटे भाइयों को क्रिकेट खेलते देख,मन तो मेरा भी होता खेलने को. पर मैं बड़ी थी. छोटी बहन होती तो शायद जिद भी कर लेती,"भैया मुझे भी खिलाओ" पर मैं बड़ी बहन की गरिमा ओढ़े चुप रहती. एक बार, मेरे भाई की शाम में कोई मैच थी और उसे बॉलिंग की प्रैक्टिस करनी थी. उसने मुझसे बैटिंग करने का अनुरोध किया. मैंने अहसान जताते हुए,बल्ला थामा. भाई ने बॉल फेंकी,मैंने बल्ला घुमाया और बॉल बगल वाले घर को पार करती हुई जाने कहाँ गुम हो गयी. भाई बहुत नाराज़ हुआ,मुझे भी बुरा लगा,ये लोग कंट्रीब्यूट करके बॉल खरीदते थे. ममी पैसे देने को तैयार थीं पर भाई ने जिद की कि बॉल मैंने गुम की है,मुझे अपनी गुल्लक से पैसे निकाल कर देने पड़ेंगे. शायद बॉल गुम हो जाने से ज्यादा खुन्नस उसे अपनी बॉल पर सिक्सर लग जाने का था. वो मेरी ज़िन्दगी का पहला और आखिरी क्रिकेट शॉट था

अखबार भी मैं हमेशा पीछे से पढना शुरू करती थी. क्यूंकि अंतिम पेज पर ही खेल की ख़बरें छपती थीं. इस चक्कर में एक बार अपने चाचा जी से डांट भी पड़ गयी. उन्होंने किसी खबर के बारे में पूछा और मेरे ये कहने पर कि अभी नहीं पढ़ा है. डांटने लगे,"लास्ट पेज पढ़ रही हो और अभी तक पढ़ा ही नहीं है?"
इस पर जब मैंने 'क्रिकेट सम्राट' में लड़कियों पर ये आरोप देखा तो मेरा खून जलना स्वाभाविक ही था. मैंने एक कड़ा विरोध पत्र लिखा और उसमे संपादक की भी खूब खिल्ली उडाई क्यूंकि हमेशा अंतिम पेज पर किसी खिलाडी के साथ, उनकी खुद की तस्वीर छपी होती  थी.सहेलियों ने जब कहा ,'ये पत्र तो नहीं छापेगा ' तो मैंने दो और पत्र, एक नम्र स्वर में और एक मजाकिया लहजे में लिखा और 'रेशु' और अपने निक नेम 'रीना' के नाम से भेज दिया. एड्रेस भी एक रांची, मुजफ्फरपुर और समस्तीपुर का दे दिया. सारी 'डे स्कॉलर' सहेलियों को नए अंक चेक करते रहने के लिए कह रखा था. हमारी केमिस्ट्री की क्लास चल रही थी और शर्मीला कुछ देर से आई. उसने 'में आई कम इन' जरा जोर से कहा तो हम सब दरवाजे की तरफ देखने लगे. शर्मीला ने मुझे 'क्रिकेट सम्राट' का नया अंक दिखाया और इशारे से बताया 'छप गयी है'. अब मैं कैसे देखूं?..मैं सबसे आगे बैठी थी और शर्मीला सबसे पीछे और 45 मिनट का पीरियड बीच में . नीचे नीचे ही पास होती पत्रिका मुझ तक पहुंची. देखा,एक अलग पेज पर मेरे तीनो पत्र छपे हैं,और एक कोने में संपादक की क्षमा याचना भी छपी है .फिर तो डेस्क के नीचे नीचे ही पूरा क्लास वो पेज पढता रहा और मैडम chemical equations सिखाती रहीं
दो महीने बाद छुट्टियों में घर जा रही थी. ट्रेन में सामने बैठे एक लड़के को 'क्रिकेट सम्राट' पढ़ते हुए देखा. जैसे ही उसने पढ़ कर रखी,मैंने अपने हाथ की मैगज़ीन उसे थमा,उसकी पत्रिका ले ली. {आज भी मुझे किताबें या पत्रिका मांगने में कोई संकोच नहीं होता.फ्रेंड्स के घर में कोई किताब देख निस्संकोच कह देती हूँ,पढ़ कर मुझे देना,इतना ही नहीं,रौब भी जमाती हूँ,इतना स्लो क्यूँ पढ़ती हो, जल्दी खत्म करो :)}.मिडल पेज पर देखा संपादक ने बाकायदा एक परिचर्चा आयोजित कर रखी थी."क्या लड़कियों का क्रिकेट से कोई वास्ता है??" पक्ष और विपक्ष के कई लोगों ने मेरे लिखे पत्र का उल्लेख किया था. अब मैं किसे बताऊँ? पापा,बगल में बैठे एक अंकल से बात करने में मशगूल थे, बीच में टोकना अच्छा नहीं लगा. यूँ भी छपने पर पापा ने ज्यादा ख़ुशी नहीं दिखाई थी. गंभीर स्वर में बस इतना कहा था 'ये सब ठीक है,पर अपनी पढाई पर ध्यान दो" उन्हें डर था कहीं मैं साइंस छोड़कर हिंदी ना पढने लगूँ. मैंने चुपचाप उसे पत्रिका वापस कर दी,ये भी नहीं बताया कि इसमें जिस 'रश्मि रविजा' ('रविजा'  तखल्लुस तब से है ) की चर्चा है,वो मैं ही हूँ. जान पहचान वाले लड़कों से ही हमलोग ज्यादा बांते नहीं करते थे,अनजान लड़के से तो नामुमकिन था.(ये बात, मुंबई की मेरी सहेलियाँ  बिलकुल नहीं समझ पातीं.)


वह पत्रिका फिर मुझे नहीं मिली पर इससे मेरे आत्मविश्वास को बड़ा बल मिला. मेरा लिखा सिर्फ  छपता ही नहीं, लोग पढ़ते भी हैं और याद भी रखते हैं. फिर तो मैं काफी लिखने लगी.खासकर 'धर्मयुग','साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के युवा जगत में मेरी रचनाएं अक्सर छपती थीं.जब पहली बार 100 रुपये का चेक आया तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. छप जाना ही इतनी बड़ी बात लगती.....इसके पैसे भी मिलेंगे, ये तो सोचा ही नहीं था. पर मुझे ख़ास ख़ुशी नहीं होती. चेक तो बैंक में जमा हो जाते.कैश होता तो कोई बात भी थी.


लोगों के पत्र आने भी शुरू हो गए. एक बार जयपुर से एक पोस्टकार्ड मिला. लिखा था,"मैं 45 वर्षीय पुरुष हूँ,मेरे दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ हैं,आपका साप्ताहिक हिदुस्तान में छपा लेख पढ़ा,अच्छा लगा,वगैरह वगैरह. हमलोग,नियमित रूप से सिर्फ 'धर्मयुग', 'सारिका' और 'इंडिया टुडे ' लेते थे. अबतक तो वह अंक बुकस्टॉल  पर भी नहीं मिलता. मैंने एक बार, पड़ोस के एक लड़के को..धूप सेंकते हुए...'साप्ताहिक हिन्दुस्तान'  पढ़ते देखा था. (कॉलेज में मेरी सहेलियां कहा करती थीं,'रश्मि को किताबों की खुशबू आती है...किसी ने कितनी भी छुपा कर कोई किताब रखी हो,मेरी नज़र पड़ ही जाती.) वे लोग नए आये थे,हमारी जान पहचान भी नहीं थी. मैंने नौकर को कई बार रिहर्सल कराया कि कैसे क्या कहना है और उनके यहाँ भेजा. आज तक नहीं पता उसने क्या कहा,पर उस लड़के ने 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के 3 , 4 अंक भेज दिए. कई दिन तक सब मुझे चिढाते रहें,'और तुम्हारा वो 45 वर्षीय मित्र कैसा है?"


पूरे भारत से ही पत्र आते थे पर अल्मोड़ा, इंदौर और नागपुर के पत्र कुछ ख़ास लगते क्यूंकि मेरी प्रिय लेखिका,शिवानी,मालती जोशी और सूर्यबाला के शहर से होते.(अब क्या बताऊँ...शरद कोकास जी की कविता पर लिखी पुस्तक के विमोचन समारोह में लेखिका 'सूर्यबाला' जी भी आनेवाली थीं...किन्ही कारणवश नहीं आ पायीं...उनसे मिलकर ,मेरा तो जीवन सफल हो जाता.)


 जबाब तो खैर मैने कभी किसी भी पत्र का नहीं दिया. सुदूर नाइजीरिया से जब किसी ने लिखा था,'पापी पेट के वास्ते यहाँ पड़ा हूँ' तो उसपर बड़ी दया आई थी. इनमे से कुछ पत्र जेनुइन भी होते. एक बार 'धर्मयुग' में मेरा एक संस्मरण छपा था जिसमे मैंने लिखा था,'घर में बहुत सारे मेहमान होने की वजह से मैं एक छोटे से कमरे में सो रही थी जो पुरानी किताबों, पत्रिकाओं से भरा हुआ था. एक टेबल फैन लगाया था. आधी रात को अचानक नींद खुली तो देखा टेबल फैन के पीछे से छोटी छोटी आग की लपटें उठ रही थीं. भगवान ने वक़्त पर नींद खोल दी वरना कमरे में आग लग जाती " इस पर चंडीगढ़ से एक लड़के ने अपने पत्र में बाकायदा उस कमरे का स्केच बनाया था और लिखा था कि कमरा छोटा होने की वजह से प्रॉपर वेंटिलेशन नहीं होगा.और आग की लपटों के साथ धुआं भी निकला होगा. जिससे आपका गला चोक हो गया होगा और नींद खुल गयी. इसमें भगवान का कोई चमत्कार नहीं है.'धर्मयुग' वालों ने भी यह नहीं सोचा था और मेरे संस्मरण का शीर्षक दे दिया था "जाको राखे  साईंयां  "


पर इन फैनमेल्स ने मेर अहित भी कम नहीं किया. पता नहीं मेरी कहानियाँ छपती या नहीं. पर मैंने डर के मारे कभी भेजी ही नहीं. (और अब आलस के मारे नहीं भेजती..) सोचा,इतने रूखे-सूखे सब्जेक्ट पर लिखती हूँ तब तो इतने पत्र आते हैं.पता नहीं कहानी छपने पर लोग क्या सोचें और क्या-क्या  लिख डालें.


हमलोग गिरिडीह में थे, वहां जन्माष्टमी में हर घर में बड़ी सुन्दर झांकी सजाई जाती. मेरे पड़ोस में छोटे छोटे बच्चों ने एक शहर का दृश्य बनाया था. सड़कों का जाल सा बिछाया था. पर हर सडक पर छोटे छोटे खिलौनों की सहायता से कहीं जीप और ट्रक का एक्सीडेंट, कहीं पलटी हुई बस तो कहीं गोला बारी का दृश्य भी दर्शाया था. यह सब देख मैंने एक लेख लिखा,'बच्चों में बढती हिंसा प्रवृति' और मनोरमा में भेज दिया.काफी दिनों बाद एक आंटी घर आई थीं,जन्माष्टमी की चर्चा चलने पर मैं उन्हें ये सब बताने लगी. उन्होंने कहा, 'अरे! ऐसा ही एक लेख मैंने मनोरमा में पढ़ा है' और मैं ख़ुशी से चीख पड़ी, 'अरे वो छप भी गया'.आस पास सब मुझे 'रीना' नाम से जानते थे.'रश्मि' नाम किसी को पता ही नही था. आंटी  ने दरियादिली दिखाई और वो पत्रिका मुझे हमेशा के लिए दे दी...(जिसे मैने बाद में खो दी )


दहेज़ मेरा प्रिय विषय था और कहीं भी मौका मिले मैं उसपर जरूर लिखती थी. एक बार शायद 'रविवार' में एक लेख लिखा था.'लडकियां आखिर किस चीज़ में कम हैं कि उसकी कीमत चुकाएं'. लेख का स्वर भी बहुत रोष भरा था. पापा व्यस्त रहते थे,उन्हें पत्रिका पढने की फुर्सत कम ही मिलती थी. हाँ, अखबार का वे एक एक अक्षर पढ़ जाते थे (आज भी). एक बार वे बीमार थे और समय काटने के लिए सारी पत्रिकाएं पढ़ रहे थे. उनकी नज़र इस लेख पर पड़ी और उन्होंने ममी को आवाज़ दी, 'देखो तो जरा, आजकल लड़कियां क्या क्या लिखती हैं' ममी ने बताया ,'ये तो रीना ने लिखा है'  मैं जल्दी से छत पर भाग गयी,कहीं बुला कर जबाब तलब ना शुरू कर दें.पर पापा ने कोई जिक्र नहीं किया.एक बार उन्होंने मेरा लेखन acknowledge किया था जब किसी स्थानीय पत्रकार ने उन्हें धमकी दी थी कि वो पत्रकार है...उनके खिलाफ लिखेगा "  पापा ने  जबाब में कहा था ,'मुझे क्या धमकी दोगे,मेरी बेटी नेशनल मैगजींस में लिखती है' (ये बात भी पापा ने नहीं, उनके प्यून ने बतायी थी)


फिर धीरे-धीरे एक एक कर सारिका ,धर्मयुग,साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सब बंद होने लगे. मैं भी घर गृहस्थी में उलझ गयी. मुंबई में यूँ भी हिंदी के अखबार-पत्रिकाएं बड़ी मुश्किल से मिलते हैं....मिलते हैं...ये भी अब जाकर पता चला...वरना ब्लॉग्गिंग से जुड़ने के पहले मुझे पता ही नहीं था .... हिंदी से रिश्ता ख़तम सा हो गया था. अब ब्लॉग जगत की वजह से वर्षों बाद हिंदी पढने ,लिखने का अवसर मिल रहा है. and I am loving it .


(ये पोस्ट भी पिछली पोस्ट के बाद २००९ में ही लिखी थी...वैसे भी...अलग-अलग ब्लोग्स पर पोस्ट किये गए अपने पसंदीदा पोस्ट्स को इसी ब्लॉग पर ,एक जगह इकठ्ठा करने की इच्छा है...उन दिनों काफी कम लोगो को ही मेरे ब्लॉग की खबर थी...अधिकाँश लोगो के लिए यह नयी पोस्ट सी ही है )

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