"कश्मीर' शब्द का जिक्र सुनते ही मस्तिष्क की नसें, सजग हो जाती हैं और टेंस भी. तुरंत ही एक बने बनाए विचार प्रकोष्ठ में हमारी सोच कैद हो जाती है...या तो पक्ष में या विपक्ष में. खुल कर इस समस्या पर सोचने की कोई कोशिश ही नहीं करता...या तो हमारी हमदर्दी विस्थापित कश्मीरी पंडितों के साथ होती है या फिर कश्मीर में रहनेवाले सामान्य जीवन गुजारने से वंचित लोगो के साथ.
पर फिल्म " I am " में बिना किसी का पक्ष लिए दोनों पक्षों की पीड़ा को तटस्थ रूप में देखने की कोशिश की गयी है.
श्रीनगर में प्लेन उतरने को है...मेघा बीस साल बाद लौट रही है....पर उसके हाथ आगे बंधे हुए हैं...और सख्ती से होंठ भिंचा हुआ है...उसे कोई ख़ुशी नहीं हो रही...बल्कि एक गुस्सा सा उबल रहा है...कि उसका अपना शहर है..पर वो वहाँ नहीं रह सकती. उसकी बचपन की सहेली, रुबीना (मनीषा कोइराला ) उसे लेने आती है...बहुत खुश होती है...कार में, उस से कश्मीरी में उन स्थलों का जिक्र करती है...जहाँ दोनों साथ जाया करते थे. पर मेघा रुक्षता से कह देती है.."उसे कुछ भी नहीं याद....और अब उस से कश्मीरी में बात ना किया करे...हिंदी या अंग्रेजी ही बोले" और कुछ रोष से नज़रें कार से बाहर टिका देती है. रुबीना के माता-पिता, मेघा से बहुत ही प्यार से मिलते हैं... हाल-चाल पूछते हैं...यहाँ भी मेघा...अपनापन से जबाब नहीं देती.
मेघा, छत पर अपने घर के ढेर सारे सामान जो ट्रंक में बंद थे...के बीच उदास सी खड़ी रहती है...जब वो अपने चाचा के घर के खंडहर बनी दीवारों को देखती हैं...जिसपर एक पुरानी तस्वीर, एक फटे पोस्टर का कोना,वैसे ही चिपके होते हैं..तब अपने को रोक नहीं पाती...और उसे वो सारे मंज़र याद आने लगते हैं...जिन हालातों में उसे आधी रात को अपना घर छोड़ भागना पड़ा था.
मेघा का ये दर्द मैने किसी की आँखों में रु ब रु देखा है. दिल्ली में एक मेरी कश्मीरी सहेली थी...उसने पूरा ब्यौरा बताया था कि पूरी रात लाउड स्पीकर से मुल्लाओं के भाषण और पकिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे थे. सारे कश्मीरी पंडित अपने-अपने घरो में काँप रहे थे. पौ फटते ही...उसे उसके भतीजे के साथ जम्मू भेज दिया गया..तब उसकी शादी नहीं हुई थी. उसके भाई -भाभी बैंक में कार्यरत थे...उनका भी ट्रांसफर हो गया...और पूरा परिवार श्रीनगर छोड़...दिल्ली में बस गया...जब उसकी शादी तय हुई..तो उसकी माँ और भाभी, एक पड़ोसी की सहायता से ... अपने ही घर में चोरो की तरह बस कुछ घंटों के लिए गयीं...उन्हें शादी में देने को कुछ सामान और केसर लेना था . उसके घर में कुछ बेगाने लोगो ने कब्ज़ा कर लिया था.....अकसर वो अपने घर की...बागों...की बात किया करती थी. मुझे फिल्म में मेघा का और अपनी सहेली का दर्द..एकाकार होता दिख रहा था...शायद उसकी भी ऐसी ही प्रतिक्रिया होती.
रुबीना...देर तक मेघा की तरफ देखती है..और दोनों सहेलियों को वे बातचीत याद आ जाती हैं...जब रुबीना जिद करती थी कि 'मेरे भाई से शादी कर के मेरे घर में रहने आ जा'. आंसुओं में सारे गिले -शिकवे बह जाते हैं....बातचीत शुरू हो जाती है...मेघा, रुबीना से उसके प्रेमी अज़ान के बारे में पूछती है..कि दोनों ने शादी क्यूँ नही की??
रुबीना बताती है कि वो अमेरिका चला गया....मेघा के ये कहने पर कि "तुम क्यूँ नहीं साथ चली गयी?...रुबीना कहती है .."सब तुम्हारी तरह लकी नहीं हैं."
और मेघा गुस्से में बोल उठती है, "मैं लकी हूँ??....आधी रात को अपने ही घर से चोरों की तरह भाग निकलना ....रिफ्यूजी कैम्प में दिन बिताना...दिन रात-अपने माता-पिता को अपने घर की याद में घुलते देखना...ये सब क्या खुशकिस्मती है??"
रुबीना पलट कर कहती है,"अगर तेरी जगह मैं यहाँ से निकल जाती...और तुझे यहाँ रहना पड़ता तो तुम्हे कैसा लगता??...सड़कें सुनसान हैं...जगह - जगह कंटीले तार..और बन्दूक लिए सुरक्षाकर्मी खड़े हैं...जहाँ जाओ...हर तरफ से दो निगाहें...नज़र रखती हैं... पूछताछ की जाती है...सारे सनेमा हॉल बंद हो चुके हैं...शाम होते ही लोग अपने घरो में दुबक, बस टी.वी. देखते हैं.....जब-तब गोलियों की आवाजें आती रहती हैं...मेरे भाई ने छः साल पहले...सरेंडर कर दिया, बीमार है...ठीक से चल नहीं पाता...फिर भी रोज पुलिस किसी ना किसी का फोटो लिए शिनाख्त करवाने आ जाती है...इस सरेंडर करने से तो अच्छा होता वो शहीद हो जाता...और लोग कहते हैं..'कश्मीर' जन्नत है..नहीं चाहिए मुझे ये जन्नत."
अब, मेघा उसका दर्द समझती है...
वहाँ रहनेवालों की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है...उनलोगों ने गलतियाँ की..लेकिन आखिर कब तक उसकी सजा भुगतेंगे और हर एक कश्मीरी तो आतंकवाद में शामिल नहीं था/ है . फिर कुछ सिरफिरों के करतूत की सज़ा पूरे कश्मीर को क्यूँ मिल रही है??...जब वे लोग टी.वी. पर दूसरे शहरों में लोगो को आज़ादी से घूमते...देर रात तक एन्जॉय करते देखते होंगे...तो क्या बीतती होगी,उन पर...
जूही चावला ने बहुत ही कम संवादों का सहारा ले..सिर्फ चेहरे के भाव से सब कुछ जीवंत कर दिया है..मनीषा कोइराला भी छोटे से रोल में बहुत ही भली लगीं.
( अगली पोस्ट में कश्मीर पर एक वृत्तचित्र बनाने के दौरान मेघा के विचार जानने की कोशिश करने वाले....अभिमन्यु (संजय सूरी) की कहानी जो बचपन में यौन शोषण का शिकार होता रहा था.)
पर फिल्म " I am " में बिना किसी का पक्ष लिए दोनों पक्षों की पीड़ा को तटस्थ रूप में देखने की कोशिश की गयी है.
मेघा (जूही चावला ) के माता-पिता का कश्मीर में घर है..पर वे इस आस में कि कभी अपनी जमीं पर लौटेंगे...उसे बेचना नहीं चाहते. पिता की मृत्यु के बाद किसी तरह...मेघा, माँ को घर बेचने के लिए तैयार करती है...और पेपर पर साइन करने...कश्मीर जाती है.
श्रीनगर में प्लेन उतरने को है...मेघा बीस साल बाद लौट रही है....पर उसके हाथ आगे बंधे हुए हैं...और सख्ती से होंठ भिंचा हुआ है...उसे कोई ख़ुशी नहीं हो रही...बल्कि एक गुस्सा सा उबल रहा है...कि उसका अपना शहर है..पर वो वहाँ नहीं रह सकती. उसकी बचपन की सहेली, रुबीना (मनीषा कोइराला ) उसे लेने आती है...बहुत खुश होती है...कार में, उस से कश्मीरी में उन स्थलों का जिक्र करती है...जहाँ दोनों साथ जाया करते थे. पर मेघा रुक्षता से कह देती है.."उसे कुछ भी नहीं याद....और अब उस से कश्मीरी में बात ना किया करे...हिंदी या अंग्रेजी ही बोले" और कुछ रोष से नज़रें कार से बाहर टिका देती है. रुबीना के माता-पिता, मेघा से बहुत ही प्यार से मिलते हैं... हाल-चाल पूछते हैं...यहाँ भी मेघा...अपनापन से जबाब नहीं देती.
हाल के दिनों में मेरे कुछ फ्रेंड्स कश्मीर से होकर आए हैं...एक एडवेंचरस फ्रेंड ने तो अपनी पत्नी, दोस्त और उसकी पत्नी के साथ मुंबई से कश्मीर तक की यात्रा कार से की थी. सबने एक जुबान से वहाँ की मेहमानवाजी की बहुत तारीफ़ की. एक घुमक्कड़ दंपत्ति, ट्रेन में मिले थे और भारत का चप्पा-चप्पा देखने की योजना थी,उनकी..उनलोगों ने भी कहा कि,"इतनी जगह घुमे पर कश्मीर वाले जैसे दिल निकाल कर रख देते हैं' .इसके पीछे कहीं कोई ग्लानि तो नहीं....या वे खुद को कुछ अलग -थलग महसूस करते हैं....और इस तरह ज्यादा खिदमत कर अपना प्यार जताना चाहते हैं??
मेघा, छत पर अपने घर के ढेर सारे सामान जो ट्रंक में बंद थे...के बीच उदास सी खड़ी रहती है...जब वो अपने चाचा के घर के खंडहर बनी दीवारों को देखती हैं...जिसपर एक पुरानी तस्वीर, एक फटे पोस्टर का कोना,वैसे ही चिपके होते हैं..तब अपने को रोक नहीं पाती...और उसे वो सारे मंज़र याद आने लगते हैं...जिन हालातों में उसे आधी रात को अपना घर छोड़ भागना पड़ा था.
मेघा का ये दर्द मैने किसी की आँखों में रु ब रु देखा है. दिल्ली में एक मेरी कश्मीरी सहेली थी...उसने पूरा ब्यौरा बताया था कि पूरी रात लाउड स्पीकर से मुल्लाओं के भाषण और पकिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे थे. सारे कश्मीरी पंडित अपने-अपने घरो में काँप रहे थे. पौ फटते ही...उसे उसके भतीजे के साथ जम्मू भेज दिया गया..तब उसकी शादी नहीं हुई थी. उसके भाई -भाभी बैंक में कार्यरत थे...उनका भी ट्रांसफर हो गया...और पूरा परिवार श्रीनगर छोड़...दिल्ली में बस गया...जब उसकी शादी तय हुई..तो उसकी माँ और भाभी, एक पड़ोसी की सहायता से ... अपने ही घर में चोरो की तरह बस कुछ घंटों के लिए गयीं...उन्हें शादी में देने को कुछ सामान और केसर लेना था . उसके घर में कुछ बेगाने लोगो ने कब्ज़ा कर लिया था.....अकसर वो अपने घर की...बागों...की बात किया करती थी. मुझे फिल्म में मेघा का और अपनी सहेली का दर्द..एकाकार होता दिख रहा था...शायद उसकी भी ऐसी ही प्रतिक्रिया होती.
रुबीना...देर तक मेघा की तरफ देखती है..और दोनों सहेलियों को वे बातचीत याद आ जाती हैं...जब रुबीना जिद करती थी कि 'मेरे भाई से शादी कर के मेरे घर में रहने आ जा'. आंसुओं में सारे गिले -शिकवे बह जाते हैं....बातचीत शुरू हो जाती है...मेघा, रुबीना से उसके प्रेमी अज़ान के बारे में पूछती है..कि दोनों ने शादी क्यूँ नही की??
रुबीना बताती है कि वो अमेरिका चला गया....मेघा के ये कहने पर कि "तुम क्यूँ नहीं साथ चली गयी?...रुबीना कहती है .."सब तुम्हारी तरह लकी नहीं हैं."
और मेघा गुस्से में बोल उठती है, "मैं लकी हूँ??....आधी रात को अपने ही घर से चोरों की तरह भाग निकलना ....रिफ्यूजी कैम्प में दिन बिताना...दिन रात-अपने माता-पिता को अपने घर की याद में घुलते देखना...ये सब क्या खुशकिस्मती है??"
रुबीना पलट कर कहती है,"अगर तेरी जगह मैं यहाँ से निकल जाती...और तुझे यहाँ रहना पड़ता तो तुम्हे कैसा लगता??...सड़कें सुनसान हैं...जगह - जगह कंटीले तार..और बन्दूक लिए सुरक्षाकर्मी खड़े हैं...जहाँ जाओ...हर तरफ से दो निगाहें...नज़र रखती हैं... पूछताछ की जाती है...सारे सनेमा हॉल बंद हो चुके हैं...शाम होते ही लोग अपने घरो में दुबक, बस टी.वी. देखते हैं.....जब-तब गोलियों की आवाजें आती रहती हैं...मेरे भाई ने छः साल पहले...सरेंडर कर दिया, बीमार है...ठीक से चल नहीं पाता...फिर भी रोज पुलिस किसी ना किसी का फोटो लिए शिनाख्त करवाने आ जाती है...इस सरेंडर करने से तो अच्छा होता वो शहीद हो जाता...और लोग कहते हैं..'कश्मीर' जन्नत है..नहीं चाहिए मुझे ये जन्नत."
अब, मेघा उसका दर्द समझती है...
वहाँ रहनेवालों की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है...उनलोगों ने गलतियाँ की..लेकिन आखिर कब तक उसकी सजा भुगतेंगे और हर एक कश्मीरी तो आतंकवाद में शामिल नहीं था/ है . फिर कुछ सिरफिरों के करतूत की सज़ा पूरे कश्मीर को क्यूँ मिल रही है??...जब वे लोग टी.वी. पर दूसरे शहरों में लोगो को आज़ादी से घूमते...देर रात तक एन्जॉय करते देखते होंगे...तो क्या बीतती होगी,उन पर...
जूही चावला ने बहुत ही कम संवादों का सहारा ले..सिर्फ चेहरे के भाव से सब कुछ जीवंत कर दिया है..मनीषा कोइराला भी छोटे से रोल में बहुत ही भली लगीं.
( अगली पोस्ट में कश्मीर पर एक वृत्तचित्र बनाने के दौरान मेघा के विचार जानने की कोशिश करने वाले....अभिमन्यु (संजय सूरी) की कहानी जो बचपन में यौन शोषण का शिकार होता रहा था.)
कश्मीरियों की पीड़ा ....जो निष्पक्ष लोंग अभी वहां रहते हैं ,या मुश्किल हालात में जिन्हें पलायन करना पड़ा ,दोनों की पीड़ा अपनी जगह कम नहीं है ...
जवाब देंहटाएंरोचक और मर्मस्पर्शी !
अगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा ...
फेसबुक पर लिंक दिया था कश्मीर पर लिखी एक बुक का ...देखा ?
हम्म....करना पड़ेगा बंदोबस्त यह फिल्म देखने का.
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (5-5-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
@वाणी
जवाब देंहटाएंहां,देखा था....उसका रिव्यू भी पढ़ आई थी..
aapko ab magazines me review likhne chahiye!
जवाब देंहटाएंाब तो हमे भी जरूर देखनी पडेगी। शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंअच्छी ...समीक्षा. गंभीर सिनेमा का मैं प्रशंसक हूँ.... आपकी समीक्षा.के बाद यह फिल्म देखना आवश्यक हो गया है....!!!!
जवाब देंहटाएंयथार्थ पर आधारित बहुत संवेदनशील फिल्म जान पड़ती है ! सच कौन कितना दर्द और पीड़ा भोग रहा है कहना मुश्किल है, लेकिन दर्द और पीड़ा का कोई मज़हब नहीं होता, कोई सीमा नहीं होती, कोई मुल्क नहीं होता ! यह इंसानी दिलों की पीड़ा है और इसे हर वह इंसान महसूस कर सकता है जिसके सीने में दर्दमंद दिल बसा होता है ! फिल्म देखने की उत्सुकता और बढ़ गयी है ! सुन्दर समीक्षा के लिये बधाई !
जवाब देंहटाएंरोचक और हृदयस्पर्शी !
जवाब देंहटाएंअगली कड़ी का इंतज़ार रहेगा ...
_____________________________
निरामिष: अहिंसा का शुभारंभ आहार से, अहिंसक आहार शाकाहार से
बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंन जाने कितनों की कहानी है यह।
जवाब देंहटाएंमुझे तो समीक्षा पढऩे पर सुकून मिल रहा है। बेहद अच्छा और सही भी लिखा है। मेरे भी कुछ मित्र कश्मीर गए थे और आज तक वहां की मेहमाननवाजी की तारीफ करते हैं। जब हम जम्मू गए थे, तब भी वहां के लोगों ने बताया था कि जितना है नहीं उससे ज्यादा दिखाया और लिखा जाता है।
जवाब देंहटाएंयह फ़िल्म तो अब जरुर देखेगे,,, कश्मीरियों की पीड़ा इस का जिम्मेदार तो हमारे राजनेता ही हे,सब से ज्यादा जिम्मेदार नेहरू, जिस ने इस के बीज पहले दिन ही बो दिये थे, सजा हम जैसे लोग भुगत रहे हे.... आज भी नेता बस बकवास करते हे कोई हल नही ढुढते...
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा समीक्षा है ,फ़िल्म देखने की इच्छा बलवती हो गई
जवाब देंहटाएंमै कई बार यहाँ देख चुकी हूँ की लोग कश्मीरी पंडितो के साथ तो सहानभूति जताते है किन्तु कश्मीरियों के साथ बैर भाव रखते है दर्द तो दोनों को है एक का घे छुटा है तो दूसरा अपने ही घर में आजादी से नहीं रह सकता | दिल्ली में मेरी बुआ की कुछ मित्र कश्मीरी है इतने सालो में वो दिल्ली में इतने रच बस गए है की अब वो खुद कश्मीर नहीं जाना चाहते है हा ये जरुर चाहते है की उनका घर बार उन्हें वापस मिल जाये ताकि वो उसे अपनी छुट्टिया बिताने की जगह की तरह इस्तेमाल कर सके |
जवाब देंहटाएंहम और हमारे कुछ मित्र इन छुट्टियों में कश्मीर जाने वाले थे महीने भर पहले से हमारी बुकिंग थी किन्तु लादेन की मौत के कारण दोस्तों ने डर के मारे पूरा टूर ही कैंसिल करा दिया हमें भी न चाहते हुए कैंसिल करना पड़ा कश्मीर देखने का मौका अब न जाने कब मिले |
आपकी समीक्षा की जो सबसे प्रमुख बात मुझे लगती है वह यह कि यह हमेशा सकारात्मक होती है। मतलब आप पाठक को प्रेरित करती हैं फ़िल्म देखने को। दूसरे जब पाठक इसे पढ़ता होता है तो सारे दृश्य आंखों के सामने होते हैं।
जवाब देंहटाएंएक जीवन्त समीक्षा।
भावनाओं के साथ की गई एक सुंदर समीक्षा ... पिछले वर्ष मुझे भी श्रीनगर के इन हालातों को देखने का अवसर मिला था।
जवाब देंहटाएंलगता है सही में जबरदस्त फिल्म है, लेकिन पटना में ये फिल्म लगी ही नहीं अभी तक :(
जवाब देंहटाएंअब बैंगलोर जाऊँगा तो ही देख पाऊंगा.
हमारे शहर में तो आने से रही लेकिन टीवी पर आँखे गड़ाए रखनी पडेंगी कि कभी तो आएगी। लेकिन आपने सारी ही तो कहानी बता दी। अब कोई क्या आनन्द लेगा? कोई संस्पेस वाली फिल्म के साथ ऐसा मत करना।
जवाब देंहटाएं@अजित जी,
जवाब देंहटाएंमैं किसी सस्पेंस...सुपर हिट...ब्लॉक बस्टर फिल्म के बारे में लिखती ही नहीं....
और मेरा तो लिखने का यही अंदाज़ है....सबको पता है....कई सारी फिल्मो के बारे में लिख चुकी हूँ...अगर आपको फिल्मो का शौक है....तो आप मेरी ऐसी पोस्ट ना पढ़ें...:)
बडबोलापन लगेगा....पर अक्सर मैं जिन फिल्मो,नाटकों, के बारे में लिखती हूँ...कई बार लोगो ने उसका नाम तक नहीं सुना होता....
and I am sure कुछ फिल्म में रूचि रखने वाले youngsters को छोड़कर इस फिल्म का भी नाम नहीं सुना होगा, किसी ने...
रश्मिजी, सही कह रही हैं आप, मैं पिक्चर हॉल में जाकर तो मूवी न के बराबर देखती हूँ लेकिन टीवी पर ऐसे ही नवीन विषयों को ढूंढती रहती हूँ। अरे आपकी रिपोर्टिंग अच्छी है, मैं तो वैसे ही लिख रही हूँ। आप ही तो हैं जो पूरी बात खुलकर लिखती हैं। कभी टीवी पर आएगी तो जरूर देखने का प्रयास करूंगी।
जवाब देंहटाएंऐसी फिल्में कहानी के लिए तो शायद कम ही देखी जाती हों, जितनी कि अभिनय और ट्रीटमेंट के लिए।
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा पढना, देखनी तो है फिल्म कभी अच्छी फुर्सत में।
किसी लिंक की चर्चा हुई है सो हमें भी दिया जाए !
जवाब देंहटाएंजूही मेरी पसंदीदा अभिनेत्री रही हैं...जिनकी आंखें हमेशा हंसती रहती हैं..
जवाब देंहटाएंरश्मि जी! इस फिल्म को देखने का मन पहले से बना रखा है, इसलिए इस पोत को स्किप कर गया था कि यहाँ फिल्म की कथा और पटकथा पर आप विस्तार से चर्चा करेंगी. किन्तु आपका जीवंत और संजीदा विवरण और रिव्यू पढ़ने के बाद लगा कि इतना खूबसूरत रिव्यू छूट जाता मुझसे.
जवाब देंहटाएंआपकी अभिव्यक्ति, फिल्मकारों की सफलता है.. क्योंकि आप कथानक के साथ उसी फ्रीक्वेंसी से जुड पायी हैं, जो आपकी समीक्षा से साफ़ झलकता है!! इंतज़ार अगली कड़ी का!
Agalee kadee ka intezaar to rahegaa hee...film dekhne kee zabardast ichha ho rahee hai! Pata nahee dekhte banega yaa nahee!!
जवाब देंहटाएंफिल्म की समीक्षा के साथ साथ कश्मीरी लोगो के संस्मरण फिल्म को वास्तविकता के साथ जोड़ देते है जो आपके कथन की उपलब्धी है |
जवाब देंहटाएंआभार
hmmmm....पढती जा रही हूं, लगातार.
जवाब देंहटाएंइस वीकेंड कहीं से ढूंढ़ कर देखता हूँ. शायद आपका रिव्यू पूरा होने के पहले ही देख डालूं.
जवाब देंहटाएं@अभिषेक
जवाब देंहटाएंआपने फिल्म देखने का पूरा मन बना रखा है....फिर भी आप मेरी पोस्ट पढ़ते जा रहे हैं??...आश्चर्य...घोर आश्चर्य :)
अक्सर लोग फिल्मे नहीं देखते....इस तरह की तो बिलकुल ही नहीं...फिर भी शिकायत कर जाते हैं { ऐसा नायाब मौका क्यूँ छोड़ें :)}....कि आपने सब लिख दिया....
@ अली जी,
जवाब देंहटाएंआप शायद वाणी की टिप्पणी में जिक्र किए गए लिंक की बात कर रहे हैं...
अब मैने वो लिंक सेव नहीं की, इसलिए लिंक देने में असमर्थ हूँ....वैसे भी वो पुस्तक कश्मीर समस्या पर नहीं है....बल्कि उसमे कश्मीर की नैसर्गिक सुन्दरता और उसकी भौगोलिक स्थिति का वर्णन है.
फिल्म काफी संवेदनशील लग रही है ..... देखने की इच्छा है..... ऐसे विषय सच में विचारणीय हैं....
जवाब देंहटाएं@रश्मिजी: मेरा केस उल्टा है. मैं नहीं डरता रिव्यू से. ऐसी फिल्म हो तो देखना ही पड़ता है. अभी तो बस देखने की बात कर रहा हूँ, फिल्म देखने के बाद अगर अच्छी लगी तो फिर पूरा रिसर्च ही कर डालता हूँ :)
जवाब देंहटाएंअक्सर कोई रिकमेंड कर दे (मन से) तो मैं वो फिल्म देखता ही हूँ. अभी आपका नजरिया पढ़ रहा हूँ फिर फिल्म भी देख लूँगा, अब आपका लिखा नहीं पढता तो पता ही नहीं चल पाता की ऐसी कोई फिल्म भी है. और फिर फिल्म मैं अपने हिसाब से देखूंगा, आपका नजरिया फिल्म देखते समय हावी तो होगा नहीं. आज वाली समीक्षा पढ़ने के बाद तो पक्का हो गया की देखनी ही चाहिए. अगर आज की समीक्षा नहीं पढता तो शायद ही ये फिल्म देखता ! ऐसी फिल्में वैसे भी सस्पेंस के लिए नहीं देखि जाती.
एक बार पहले पढ़ चुकी हूँ दुबारा पढ़ने पर भी अच्छा लगता है.... रियाद में सालों से कश्मीरी पंडित और मुसलमान दोस्त हैं...यह अलग बात है कि कुछ एक साथ मिलना जुलना पसन्द नहीं करते... 2-3 तीन साल पहले वरुण 15 दिन के लिए श्रीनगर रह कर आया जो यादगार सफ़र रहा...पिछले साल विद्युत का बचपन का दोस्त अदनान कनाडा से श्रीनगर गया तो कर्फ्यू के कारण घर में नज़रबन्द हो गया था..किसी तरह वहाँ से निकल कर दिल्ली हमारे यहाँ 20 दिन के लिए रुका...कश्मीरी पंडित जो कॉलेज के दौरान वहाँ से निकले,,उनका कहना है कि हमारा दर्द सिर्फ हम ही जानते हैं. सच तो यह है कि दोनों पक्षों का दर्द उन जैसा मुक्तभोगी ही समझ सकता है....
जवाब देंहटाएंओह...फिल्म समीक्षा की तो बात ही नहीं की लेकिन देखो.. इस समीक्षा को पढ़ कर ही इतना कुछ लिख गई... जूलिया की फिल्म समीक्षा पढकर का आनन्द और बढ गया था...इस समीक्षा को पढने के बाद देखने के लिए फिल्म ढूँढी जा रही है...
आपाधापी में कल ही देखा था पर आज के पढ़ने के लिये बचाये रखा था।
जवाब देंहटाएंअभी तक फिल्म नहीं देखा हूँ, पर देखने की इच्छा पनपी है, आपकी समीक्षा को पढ़ते हुये, सो आपके इस समीक्षा लेखन को सकारात्मक न कहूँ तो क्या कहूँ! मुझे कोई दिक्कत नहीं है, समीक्षा के बाद फिल्म देखनी हो तो। भला ऐसी कौन सी फिल्म होगी जिसकी समीक्षा सभी पाठकों के देखे जाने के बाद हो सके?? इस दृष्टि से मैं अभिषेक जी के मत का समर्थक हूँ।
कश्मीर पर क्या कहूँ??
अजीब व्यथा कथा है, नापसंद करता हूँ सेना के जमावड़े को, लेकिन सेना के हट जाने पर कोई विकल्प नहीं है जो कश्मीर को बचा सकेगा यानी अखण्ड भारत की सोच में शामिल रख सकेगा! वही एक दूसरा सच यह भी है कि वहाँ के स्थानीय मुस्लिमों को भी पर्याप्त बरगला दिया गया है-जन्नत/कुरान/इसलाम के फ़ार्मूले में।
काश्मीरी पंडितों पर अलग से क्या कहूँ, जरा यह यू-टुबही प्रस्तुति जरूर सुनियेगा जिसमें निर्मल वर्मा जी के शब्द हैं, जिन पर हिन्दूवादी होने का आरोप भी छद्म-प्रगतिशीलों ने कुछ ज्यादा ही लगाये हैं:
http://www.youtube.com/watch?v=x2x1X4eE7w0
हाँ, अगर भारतीय राजनीति की इच्छाशक्ति ( पोलोटिकल-विल ) दमदार होती तो आज यह दशा न होती/रहती। सर्वाधिक वीक-प्वाइंट यही है। और बुद्धिजीवी से क्या शिकायत की जाय, ये तो विवाद के मूल-दाता भी होते हैं अक्सर ! अच्छे बुद्धिजीवियों से क्षमासहित!!
अगली समीक्षा की किस्त का और भी तीव्र इंतिजार है। सादर..!