गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

पैरेंट्स की प्यार भरी सुरक्षा किसी पेड़ जैसी हो या शामियाने जैसी ??

यह विषय काफी समय  पहले से ज़ेहन में हलचल मचा रहा था...पिछली पोस्ट में जब  बच्चों  के साथ प्यार भरे व्यवहार पर चर्चा हुई तो लगा यही उचित समय है, इस विषय को छेड़ने का .पर मैं खुद भी कन्फ्यूज्ड  सी हूँ....कि हल आखिर क्या है?

बच्चों को हर माता-पिता अपनी सीमा से बढ़कर सुख-सुविधाएँ देने का प्रयत्न करते हैं. उनकी राहों से  कांटे चुन लेने की कोशिश करते हैं. अपनी शक्ति भर प्रयास करते हैं कि उनके जीवन से दुख का साया भी दूर रहें. और वे उत्फुल्लता के साथ अपना जीवन व्यतीत करें.

पर हाल में घटी  कुछ घटनाओं ने यह सब सोचने पर मजबूर कर दिया कि यह कहाँ  तक सही है??
मेरे बेटे का कॉलेज खुला और  दो दिन बाद ही इंजीनियरिंग फाइनल ईअर के एक स्टुडेंट ने अपनी बिल्डिंग के टेरेस से कूदकर आत्महत्या कर ली. वह रात भर जागकर एक प्रेजेंटेशन तैयार कर रहा था , सुबह चार बजे तक मोबाइल के जरिये अपने दोस्तों के संपर्क में था. और सुबह छः बजे कॉलेज जाने से पहले...उगते सूरज के साथ ही अपने जीवन को अलविदा कह दिया.

वह लड़का, अकेलेपन का शिकार नहीं था..कई दोस्त थे उसके. सुना, माता-पिता भी इतने सख्त नहीं थे. सिर्फ एक अच्छे प्रेजेंटेशन की चिंता, अपनी इहलीला समाप्त करने की वजह बन गयी??. इतना अहम आ गया है बच्चों में...कि जरा सी असफलता की आहट भी ऐसे भयानक अंजाम तक पहुंचा देती है. कितना असुरक्षित महसूस करने लगे हैं वे कि अगर टॉप पर ना पहुंचे या अपने तय किए स्टैण्डर्ड से नीचे रह गए तो जीना ही व्यर्थ हो उठता है.

एक जगह कुछ ऐसी ही घटना के बारे में पढ़ा था, जो हमारे  अज़ीज़ पूर्व राष्ट्रपति, ए.पी.जे. कलाम जी के साथ हुई थी. उनके प्रदर्शन से उनके प्रोफ़ेसर खुश नहीं थे, और उन्हें चेतावनी दे दी थी कि "अगर दो दिनों के अंदर वे  अच्छा प्रेजेंटेशन तैयार नहीं करते तो वे अपनी स्कॉलरशिप खो बैठेंगे." दो दिन बिना पलक झपकाए , वे प्रेजेंटेशन तैयार करते  रहें. तीसरे दिन सुबह ,प्रोफ़ेसर उनके लैब में आए और उनका शानदार काम देख उन्हें गले से लगा लिया.

आखिर वो क्या चीज़ थी जो कलाम जी से रात-दिन मेहनत करवाती रही और इस बच्चे ने बदले में अपना जीवन ही त्याग  दिया . जबकि अगर इसका एक साल भी खराब हो जाता  तो माता-पिता की  इतनी हैसियत थी कि वे उसे पढ़ा सकें.

पर आज के युवाओं ,बच्चों में संघर्ष करने की क्षमता घटती जा रही है और कहीं इसके कसूरवार हम तो नहीं. हम सबकुछ उनके लिए इतना सुगम बना देते हैं. स्कूल में किसी टीचर ने डांट दिया... (हाथ लगाने की तो अब सोच भी नहीं सकता) पैरेंट्स लड़ने पहुँच जाते हैं. अच्छे नंबर नहीं आए, डोनेशन देकर मनपसंद स्कूल-कॉलेज में एडमिशन दिलवा देते हैं. दुनिया की सारी सुख-सुविधाएं उनपर न्योछावर कर देते हैं. बच्चे इतने आदी हो जाते हैं, इन सारी सुविधाओं के कि एक बार भी अपने दम पर कुछ साबित करना हुआ और वे बिखर जाते हैं. ये  बच्चे इतनी कम उम्र के होते हैं कि जीवन का मोल नहीं समझ पाते.क्या इसलिए कि सबकुछ आसानी से मिल जाता है ?? पर पैरेंट्स भी क्या करें.....जानबूझकर तो बच्चों को सुख-सुविधा से वंचित नहीं रख सकते.

ये आत्महत्या की प्रवृत्ति तो इतनी बढती जा रही है कि माता-पिता की साँसे ही अटकी होती हैं. इतनी उम्र हो  जाने के बाद भी मैने  आत्महत्या की खबर सिर्फ अखबारों में ही पढ़ी थी. और वहीँ मेरे बेटे आठ  साल की उम्र से अपने आस-पास , परिचित चेहरों के आत्महत्या  की खबरे सुन चुके हैं. एक नवीं क्लास का लड़का..घर से स्कूल को निकला, पता नहीं माँ ने डांटा था पिता ने या क्या...हमारी दायीं तरफ की  बिल्डिंग के टेरेस से  जाकर कूद गया. बाईं तरफ  की बिल्डिंग का लड़का तो मेरे बच्चों के साथ खेलता था.  उसके पिता गल्फ में थे. यह अपनी माँ के साथ यहाँ रहता था. पिता ने वहाँ दूसरी शादी कर ली. पैसे भेजने बंद कर दिए. लड़के ने दसवीं के बोर्ड के इम्तहान दिए थे.मकान मालिक ने आकर धमकी दी, "घर खाली करो" और दूसरे  दिन इस लड़के ने भी टेरेस ही चुनी, उस जिल्लत से मुक्ति पाने के लिए. आस-पास की बिल्डिंग के बच्चे रोज शाम उसे याद करके रोते थे. मेरे बच्चे भी कहते, "वो पिज्जा  डिलीवरी बॉय का काम कर  सकता था..मैकडोनाल्ड ,CCD कहीं भी काम मिल जाता उसे....उसने ऐसा क्यूँ किया?? मैने भी उन्हें अपनी शक्ति भर समझाया कि यह बहुत ही कायरतापूर्ण कदम था.
पर खुद को नहीं समझा पायी. माना कि वह 16 साल का अबोध किशोर था. पर कितने ही किशोरों ने उसी उम्र से जिम्मेवारी संभाली है. पर आजकल युवाओं में संघर्ष करने का माद्दा ही नहीं रह गया है. सबसे आसान तरीका यही लगने लगा है. पहले बच्चे  मीलों दूर साइकिल चला कर जाते थे, रुखी-सूखी खाकर , दो कपड़ों में गुजारा करते थे .पर मानसिक अस्वस्थता से दूर होते थे. आज वे शारीरिक श्रम  में अपनी उर्जा नहीं खर्च  कर पाते और यह संचित उर्जा उनमे उग्रता को जन्म देती है. कोई फैसला शांत-चित्त मन से वे  कर ही नहीं पाते.
और ऐसे में सबसे जरूरी लगने लगता है "खेल-कूद की अनिवार्यता " . खेल  के मैदान में वे हारते भी हैं, साथी  खिलाड़ियों की डांट भी सुनते हैं. कोच कभी कभी हाथ भी चला देते हैं. मैच हारने पर दर्शकों  की हूटिंग से अपमान भी झेलना पड़ता है. यह सब उन्हें आनेवाले  जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार  कर सकता है.  पर कोई भी अनभिज्ञ  नहीं कि खेल-कूद को हमारे देश में कितना महत्त्व दिया जाता है. जिन स्कूलों में खेल की टीम बनायी भी जाती है उसमे अंडर 10, अंडर 12, अंडर 14 के वर्ग होते हैं . दो क्लास के बच्चे एक वर्ग के अंतर्गत आ जाते हैं. हर क्लास में आठ से दस डिविजन.एक डिविज़न में साठ बच्चे . यानि हज़ार -बारह सौ बच्चों के बीच खेलने का मौका मिलता है पच्चीस  बच्चों को, जिनमे ग्यारह ही नियमित रूप से खेल पाते हैं. बाकी बच्चे कहाँ से लें ये अनुभव? अगर गंभीरता से बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए कुछ कदम उठाने हैं तो मेरी समझ  से खेल-कूद को पढ़ाई से भी ज्यादा महत्त्व देना चाहिए.

आजकल रिअलिटी शोज़ में जिस तरह बच्चों को जज अपने कमेन्ट से एक सीमा तक अपमानित करते हैं, उस पर काफी लोगों ने अपना रोष जताया  हैं. मुझे एक बड़े पत्रकार की प्रतिक्रिया याद आती है. जिन्होंने कहा था, "आगे की ज़िन्दगी में पता नही कितनी बार अपमानित होना पड़ेगा, कितनी जिल्लतें उठानी पड़ेंगी, ये सारी नकारात्मक प्रतिक्रियाएँ उन्हें आने वाली ज़िन्दगी के लिए तैयार कर रही है."  हालांकि ,यह भी कितना सही है...नहीं कहा जा सकता क्यूंकि डांस शो में भाग लेने वाली  एक १४ वर्षीया लड़की, ऐसे कमेंट्स सुन...कोमा में चली गयी  .पर बात फिर वही है कि अब तक उस लड़की ने अपने लिए कहीं कुछ नकारात्मक सुना ही नहीं होगा.

मैने पहले भी इसी "रुचिका-राठौर  केस" विषय पर एक पोस्ट लिखी थी, खामोश और पनीली आँखों की अनसुनी पुकार लेकिन तब इस समस्या को दूसरी दृष्टि से देखा था कि आस-पास वालों को पता भी नहीं चलता , बच्चे इतने डिप्रेशन से गुजर रहें हैं. वे इसे नज़रंदाज़ कर देते हैं या सीरियसली नहीं लेते. उन्हें बच्चों का ख़ास ख्याल रखना चाहिए. पर आज दूसरी तरह से इस समस्या को देखने की कोशिश की है कि जब बच्चे , डिप्रेशन से लोहा ले, हंस-खेल रहें हैं, स्कूल-कॉलेज जा रहें हैं, दोस्त बना रहें हैं....फिर ऐसे कदम उठाने के विचार को भी क्यूँ नहीं त्याग पाते. और पैरेंट्स ऐसे कदम से दूर रखने के लिए क्या करें?

आजकल पैरेंट्स का प्यार और देखभाल एक शामियाने जैसा हो गया है, जो बच्चों को जीवन की आंधी,तूफ़ान, बारिश, धूप से महफूज़ रखता है जबकि उनका साया एक पेड़ की तरह होना चाहिए, जो प्यार,ममता की शीतल छाया भी दे और उसके पत्तों से छन, ज़िन्दगी की धूप, बारिश ,आंधी भी उन्हें प्रभावित करती रहें तभी वे जीवन की कठिनाइयों से लड़ने को तैयार हो पाएंगे.


47 टिप्‍पणियां:

  1. rashmi didi,

    aapko mujhe ye batlate hue bahut khushi ho rahi hay ki mere papa ne ham bhai bahno ko kuchh is tarah se pala hay ki ham andar se majboot bane rahe..

    ma ki tabiyat 1982 se kharab rahti aayi hay aur ham logon ne jab se hosh sambhala papa ne is problem me ham sabhi ko apni padhai likhai ke shath sath ma ko dekhne,samjhne ka koi bhi mauka gawane nahi diya ..mujhe yaad hay jab mai 9 saal ka tha tab hin mujhe ma ke doctor se papa ne baat karne ka himmat diya aur mujhe apni umar ke hisab se ma ke bimari ka pata chala...aur aisi aisi kai samshyaayon se jujhne ki himmat mili.

    aaj umr ke is padaw me aisa mahsus hota hay ki agar mujhe bhi shamiyane jaisi haalat me pala posa gaya hota to mai ab tak kai baar aatmhatya kar chuka hota..kayon ki bachchon ki chhoti si problem bhi unke liye bahut badi ho jati hay.

    mere naye post par aapko maine yaad kiya hay.

    जवाब देंहटाएं
  2. मेरे सामने ही दो ऐसे उदाहरण हैं - एक मेरे दोस्त हैं(जिनके बारे में आपको बताया था), कैरिअर और कुछ पर्सनल चीज़ों की वजह से वो अपने आप को नुक्सान पहुचाने का कोशिश भी कर चुके हैं..उस दिन अगर मेरा दिमाग न खटकता तो पता नहीं क्या हो जाता..
    वहीँ एक और मित्र हैं - जो घर से काफी सपन्न हैं, लेकिन पिछले दो साल से लगातार परिश्रम कर रहे हैं.वो जहाँ काम करते हैं, वहां पैसे बहुत कम मिलते हैं और दिन रात काम में डूबे रहना पड़ता है...लेकिन उनकी मेहनत सीख लेने वाली है.

    आपने सही कहा दी, बहुत से युवाओं में आजकल वैसा परिश्रम करने की क्षमता नहीं है..मैंने बहुत पहले एक पोस्ट में ये जिक्र भी किया था की जो मेहनत मेरे मामा/चाचा कर चुके हैं उसका आधा भी हमसे नहीं हो पाता.

    मैं यहाँ कई ऐसे लोग को जानता हूँ की जो छोटे छोटे परेशानियों की वजह से बिलकुल नेगटिव मोड में चले जाते हैं..
    लेकिन वहीँ एक दो ऐसे मित्र हैं जिन्होंने लगातार मेहनत किया और अभी भी मेहनत कर रहे हैं..

    कुछ तो ऐसे भी हैं जिनके माता पिता ने ऐसे सहेज कर रखा है की जिस दिन दुनिया की मुसीबतें का सामना होगा तो उनके बिखरने पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए..

    बहुत ही अच्छी पोस्ट लगी मुझे ये..

    और पिछले तीन पोस्ट बेहतरीन रहे हैं.

    जवाब देंहटाएं
  3. पेरेंट्स को सिर्फ़ इतना करना चाहिये कि बच्चों को सुरक्षा व सुविधाओ के साथ साथ ज़िन्दगी की सच्चाइयों और कठिनाइयों से रु-ब-रु करवाते रहना चाहिये सिर्फ़ सुविधायें देकर अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त नही हो जाना चाहिये बल्कि उसके आगे हर कदम पर चाहे सफ़लता हो या असफ़लता या ज़िन्दगी की कोई भी छोटी से छोटी उलझन्………हरेक के बारे मे बच्चों को बताना और समझाना चाहिये यहाँ तक कि यदि कोई आत्महत्या करता भी है तो उसके कारण पता चलने पर अपने बच्चों को हालात से लडना सिखाना चाहिये तभी उनका जीवन सफ़ल है अन्यथा आजकल तो पेरेंट्स भी सुविधायें देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं और बच्चे के रोजमर्रा के कामो पर ध्यान ही नही देते अगर थोडा सा समझदारी से इस तरफ़ ध्यान दें तो इन हालात से दो चार ना होना पडे।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत ही कठिन सवाल है ये ..परिवेश बदल गयाहै १-२ बच्चे होते हैं, डबल इन्कैम तो बच्चों को जबर्दास्त्ती सुविधाओं से बंचित कैसे रखें माँ बाप .तो जाहिर है परिस्थितियों को झेलने के क्षमता घटी हैं नई पीढी में .पर मेरे ख्याल से जो बच्चे इतने कमजोर होते हैं कि अपनी जिन्दगी ही ख़त्म कर लें उसके पीछे एक असुरक्षा की भावना जरुर होती है जो जाने या अनजाने उन्हें अपने घर से और घरवालों से ही मिलती है .वैसे ये अच्छा उपाय बताया आपने - कि खेल इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं .खेलों से खेल भावना ही नहीं अनुशासन और धेर्य भी विकसित होता है व्यक्तित्व में.
    विचारणीय पोस्ट.

    जवाब देंहटाएं
  5. बच्चों का एक सीमा तक नियंत्रित मार्गदर्शन आवश्यक है । उससे ज्यादा बच्चे को भी घुटन सी होने लगती है । यह बात पेरेंट्स को समझनी चाहिए । अक्सर पेरेंट्स का प्रेशर बच्चे के लिए घातक सिद्ध होता है ।

    जवाब देंहटाएं
  6. मेरे विचार से माता पिता को दोनो ही रोल अदा करने पढ़ते हैं समय अनुसार .... सही समय पर सही दिशा देना उनका कर्तव्य है ... ओवर प्रोटेक्शन बिल्कुल भी ठीक नही है ... उनको स्वालंबी बनाना चाहिए ... जीत के साथ साथ हार का स्वाद भी उनको चखाना चाहिए ... हर चीज़ की अति से बचना चाहिए ..... सहने की आदत डालनी चाहिए ... जैसे समाज में रह र्हे हैं उस समाज के हिसाब से उनको आदत डालनी चाहिए न की जो वो चाहें खुल कर करने देना या खर्च करने देना चाहिए ... (समाज से मेरा मतलब ... कुछ दिखावटी चन्द लोगों से नही है ..... अधिकतर समाज आज भी मेहनतकश और जूझता हुवा है)

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ही विचारणीय पोस्ट ... आभार

    जवाब देंहटाएं
  8. दी आपकी पिछली ३- ४ पोस्ट मेरे अन्दर चल रहे कई विचारो को एक दिशा देने में काफी मददगार हो रही है | और इस बार का मुदा तो आज की सबसे बड़ी समस्या को लेकर ही है, माँ हूँ और आपकी हर रचना से बहुत कुछ सीखती हूँ | एक बेहतर पेरेंटिंग के कई टिप्स आपसे मिल रहे है | बहुत अच्छी पोस्ट...

    बहुत बहुत धन्यवाद आपका....

    जवाब देंहटाएं
  9. मुझे लगता है बच्चों को थोड़ा थोड़ा कठोरपन से वास्ता पड़ने देना चाहिए ताकि वह धीरे धीरे उसके आदि हो जांय और उनसे जूझने की हिम्मत उनमें आती जाय।

    यह जूझने में कम होती क्षमता और तमाम निराशाओं का कारण हमारे द्वारा बच्चों को ज्यादा लाड़-प्यार देना ही है....उन्हें जू जू बनाकर रख दिया है, कभी कोई काम करने नहीं दिया जाता कि पढ़ाई करो....काम हम कर लेंगे....जबकि पढ़ाई के साथ साथ थोड़ा थोड़ा घर का काम करने के लिए उन्हें देते रहना चाहिए ताकि कभी काम करने की जरूरत पड़ जाय तो उन्हें शर्म न आए।

    मैं शर्म का एक उदाहरण दूंगा कि - अक्सर आपने देखा होगा कि मेहनत कश लोग कोई सामान या पेटी उठाकर सीधे कंधे पर रख लेते हैं जब कहीं सामान शिफ्ट करना हो तो । लेकिन वहीं जब किसी एजूकेटेड पढ़े लिखे शख्स को कोई सामान शिफ्ट करना हो तो वह कंधे पर रखने से हिचकता है कि लोग कहेंगे मजदूर लग रहा है जबकि उस वजनी सामान को कंधे पर रख लेने से उसे शिफ्ट करना आसान हो जाता है। इस सब की यदि आदत हो बच्चों में तो वह कभी यात्रा आदि के दौरान प्लेटफॉर्म वगैरह पर सामान ढोने में शर्माएंगे नहीं और आसानी से अपने सूटकेस या बैग को बिना किसी तकलीफ के ले जाएंगे।

    इस तरह की छोटी छोटी बातें उन्हें जाने अनजाने कई बातों से लड़ने में बहुत सहायक सिद्ध होती हैं।

    बढ़िया पोस्ट है।

    जवाब देंहटाएं
  10. ओशो की एक पुस्तक (नाम याद नहीं आ रहा) में इस विषय पर बेहद गहराई से चिंतन किया गया था। बाद में उन्होंने तीन शब्दों में जवाब दिया दोस्ती, खुलापन और सीमाएं। एक और बात मीडिया को भी आत्महत्या जैसी खबरों को ज्यादा तवज्जो नहीं देनी चाहिए। अगर समाचार लगाना ही है तो अंदर कहीं छोटा सा लगाया जा सकता है। हां, समाचार छुपाना कोई उपाय नहीं है मगर कम से कम कोई दूसरा तो प्रेरित नहीं हो जाएगा।

    जवाब देंहटाएं
  11. बच्चों के लिए बिना शर्त प्यार के साथ थोडा अनुशासन , थोड़ी कठोरता और प्रकृति और समाज के साथ सामंजस्य स्थापित करने का मौका देना भी जरुरी है ..
    एक छोटा सा उदाहरण दूं ...
    राजस्थान में गर्मी बहुत जल्दी शुरू होती है और देर तक रहती है ...हमारे घर कूलर सबसे देर से चलता है और सबसे आखिरी में बंद होता है ...किसी भी परिस्थिति में एयर कंडिशनर नहीं लगाने का इरादा है ...इसलिए जहाँ पॉवर कट के समय आस- पास बच्चे हाय तौबा मचाते घूमते हैं , हम आराम से अन्ताक्षरी खेल रहे होते हैं ...प्रकृति से सामंजस्य .. इसी तरह समाज के बदलते मापदंडों में अपने आप को स्थापित करने के लिए उन्हें थोड़ी स्वतंत्रता और अपना भला बुरा समझने जैसे संस्कार की भी आवश्यकता है ...यानि वही ...पेड से छन कर आती धूप , हवा ....!
    अच्छी पोस्ट ...!

    जवाब देंहटाएं
  12. आज की पोस्ट पर अपने विचार रख तुमने प्रश्न किया है कि माता - पिता पेड़ कि तह साया दें या शामियाने की तरह हिफाज़त ....

    तो बस मेरा कहना है कि पेड़ कि छाया प्रदान करें ..जहाँ से धूप , बारिश , छाया सब मिले ...बहुत ज्यादा प्रोटेक्शन से बच्चे ज़िंदगी में आई परेशानियों से नहीं जूझ पाते ...उनको अपने स्तर पर भी कुछ समस्याओं का हल निकालना आना चाहिए ..और यह बातें बचपन से ही सिखानी चाहिए ..यदि कभी बच्चा किसी भी प्रतियोगिता या पढाई में पीछे रह जाए तो उसको बजाये ताने मारने के या हतोत्साहित करने के , उसको आगे बढने कि प्रेरणा देनी चाहिए ...आज कल बच्चों से ज्यादा तो माँ -बाप के बीच में प्रतियोगिता चलती है ..जिसका खामियाजा बच्चों को उठाना पड़ता है ...

    जवाब देंहटाएं
  13. माँ बाप का साया एक पेड की तरह होना चाहिये ताकि बच्चे कुछ अपनी जिम्मेदारी समझें औरज़िन्दगी की धूप छाँव से लडने की क्षमता पैदा करें। वैसे आजकल के बच्चे डालडा ब्रँड है न सहनशीलता है न ही उत्साह है। बस ईज़ी गोईँग जीवन चाहते हैं। घर से ही उन्हें तैयार करना पडेगा। अच्छी पोस्ट है। शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  14. बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए एक संपूर्ण वातावरण की जरुरत होती है जिसमें से एक ही हिस्सा माता पिता के व्यवहार से जनित होता है किन्तु जो वातावरण बच्चे स्कूल, समुदाय एवं दोस्तों के बीच पाते हैं, वो भी माता पिता के विवेक एवं परामर्श से नियंत्रित किया जा सकता है. बहुत सूक्ष्म विषय है. कुछ चूकें स्वभाविक सी भी है तो एक संपूर्ण संर्वांगीण विकास की परिकल्पना उसके आस पास तक तो ले ही जा सकती है.

    एक तरफ जहाँ अनुशासन आवश्यक है तो वहीं इस बात की छूट भी कि यदि कोई भूल हो जाये तो बच्चा उसे खुल कर स्वीकार लें और उसे सुधारने का प्रयास करे बिना किसी हिसक और डर के. अक्सर बच्चे एक भूल छुपाने के लिए दूसरी भूल, फिर वो छुपाने के लिए तीसरी और एक कड़ी बनती चली जाती है. अक्सर तो यह भयवश या माँ बाप की अति अपेक्षा को न साध पाने के कारण होता है. यही उन्हें आत्महत्या या घर से भाग जाने को भी प्रेरित करने का कारण भी बन जाता है.

    बहुत समझदारी से, संतुलन बनाते हुए, बच्चों को इसके लिए एक उचित वातावरण देने की आवश्यक्ता है, जो कि हर अभिभावक के लिए अपने हिसाब से स्व विवेक से लिए गये उचित निर्णयों पर आधारित है. इसके लिए कोई संहिता नहीं बनाई जा सकती और न ही कोई मानक.

    बस, उद्देश्य एक हो कि बच्चे के सर्वांगीण विकास में क्या, कब और कैसे सहायक कदम उठाये जा सकते हैं.

    अच्छा विषय लिया है. आज के बदलते परिवेष में आवश्यक विमर्श!!

    जवाब देंहटाएं
  15. बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए एक संपूर्ण वातावरण की जरुरत होती है जिसमें से एक ही हिस्सा माता पिता के व्यवहार से जनित होता है किन्तु जो वातावरण बच्चे स्कूल, समुदाय एवं दोस्तों के बीच पाते हैं, वो भी माता पिता के विवेक एवं परामर्श से नियंत्रित किया जा सकता है. बहुत सूक्ष्म विषय है. कुछ चूकें स्वभाविक सी भी है तो एक संपूर्ण संर्वांगीण विकास की परिकल्पना उसके आस पास तक तो ले ही जा सकती है.

    एक तरफ जहाँ अनुशासन आवश्यक है तो वहीं इस बात की छूट भी कि यदि कोई भूल हो जाये तो बच्चा उसे खुल कर स्वीकार लें और उसे सुधारने का प्रयास करे बिना किसी हिसक और डर के. अक्सर बच्चे एक भूल छुपाने के लिए दूसरी भूल, फिर वो छुपाने के लिए तीसरी और एक कड़ी बनती चली जाती है. अक्सर तो यह भयवश या माँ बाप की अति अपेक्षा को न साध पाने के कारण होता है. यही उन्हें आत्महत्या या घर से भाग जाने को भी प्रेरित करने का कारण भी बन जाता है.

    बहुत समझदारी से, संतुलन बनाते हुए, बच्चों को इसके लिए एक उचित वातावरण देने की आवश्यक्ता है, जो कि हर अभिभावक के लिए अपने हिसाब से स्व विवेक से लिए गये उचित निर्णयों पर आधारित है. इसके लिए कोई संहिता नहीं बनाई जा सकती और न ही कोई मानक.

    बस, उद्देश्य एक हो कि बच्चे के सर्वांगीण विकास में क्या, कब और कैसे सहायक कदम उठाये जा सकते हैं.

    अच्छा विषय लिया है. आज के बदलते परिवेष में आवश्यक विमर्श!!

    जवाब देंहटाएं
  16. सबसे पहले कमेन्ट आख़िरी पैरे के दोनों सांकेतिक विकल्पों पर ...मुझे लगता है कि शामियाने वाले विकल्प में बच्चे के स्वावलंबन और स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में विकसित होनें पर खतरे के संकेत निहित है किन्तु पेड़ वाले विकल्प में सुनिश्चित आश्रय सह दुरुहता के विरूद्ध प्रशिक्षण के अवसर भी हैं सो मेरा वोट पेड़ को !

    अब आगे कथन ये कि पैरेंट्स और शिक्षकों की 'अपेक्षाओं'के आगे बच्चे के 'सामर्थ्य' की पराजय की आशंका , घनघोर अवसाद और आत्महत्या एक कारण हो सकती है ! अतः एक पीढ़ी की अपेक्षाओं और दूसरी पीढ़ी के सामर्थ्य के नाजुक संतुलन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है !

    जवाब देंहटाएं
  17. पेड़ की तरह! जिसके पत्तों से छन हवा, धूप, बारिश, आंधी, तूफ़ान उसको प्रभावित करता रहें! बाक़ी ज़िन्दगी के थपेड़े से परिपक्वता और मज़बूती आएगी। बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

    जवाब देंहटाएं
  18. बच्चों को पालना कैसे है ये कुम्हार से बेहतर कौन सिखा सकता है... वैसे ये मेरी सोच भर है.. अभी सिर्फ पला हूँ पालने का अनुभव शेष है..

    जवाब देंहटाएं
  19. आज तो एक छोटी सी टिप्पणी देकर फिर से न आने की सोचा था।
    पर अगर यह शे’र न सुनाया तो आपके प्रश्‍न पर आपने विचार के समर्थन में लगेगा कुछ छूट गया है। और समझिए कि आपने पेरेण्ट्स से कह रहा हूं कि मुझे शामियाने (कढ़े हुए तकियों) की ज़रूरत नहीं,
    "बहुत हसीन सा एक बाग मेरे घर के नीचे है,
    मगर सकून मिलता पुराने शज़र के नीचे है।
    मुझे कढ़े हुए तकियों की क्या ज़रूरत है,
    किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है।"

    जवाब देंहटाएं
  20. ज़रा सोच कर देखिये ....बच्चे तो क्या माँ -बाप ही आज हारने को कहाँ तैयार हैं ?
    हर चीज को जीत और प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखने का समय है |

    मेरा व्यक्तिगत विचार है कि ...... ऐसी घटनाओं का प्रतिशत अभी भी उतना नहीं है!
    अधिकांशतः बच्चे आने वालों से बदलावों के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं .....हाँ मूल्यों की बात बस नहीं करिएगा !

    चलते चलते सतीश जी बात से सहमति भी दर्ज कराना चाहूंगा !

    जवाब देंहटाएं
  21. बहुत ही शानदार पोस्ट.... यह बात तो आपने सही कही है कि आजकल बच्चों में स्ट्रगल करने का माद्दा नहीं रह गया है... और पैरेंट्स भी अब उतना ध्यान नहीं दे पाते हैं.... पैरेंट्स सोचते हैं कि हमने पैसा दे दिया.... अब उनकी ड्यूटी ख़त्म.... अब पैरेंट्स की ज़िम्मेदारी बढ़ गई है... सुविधाओं और टेक्नोलौजी के साथ....

    जवाब देंहटाएं
  22. मेरे विचर से भी होना तो पेड़ की छया की तरह ही चाहिए, लेकिन कई बार एक बड़े पेड़ के तले छोटे पौधे दम तोड़ देते हैं या पनप नहीं पाते. ऐसे में इतनी सवधानी तो बरतनी ही चाहिए कि रक्षा में हत्या न हो जाए. हर बच्चे के माथे पे लिखा होता है Handle with care.. बस यह बात जितनी जल्दी और स्पष्ट रूप से समझ आ जाए उतनी ही आसानी होती है.

    जवाब देंहटाएं
  23. आप की रचना 08 अक्टूबर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
    http://charchamanch.blogspot.com/2010/10/300.html



    आभार

    अनामिका

    जवाब देंहटाएं
  24. बहुत विचारणीय पोस्ट है रश्मि जी ! वोट मेरा भी पेड़ को ही जाएगा शामियाने को नहीं ! बच्चों में इस तरह की कायरता की प्रवृत्ति क्यों पैदा हो रही है इसके लिये समस्या के विश्लेषण की आवश्यकता है ! इसके कई कारण हैं !
    माता पिता बच्चों को धन से प्राप्त होने वाली भौतिक सुविधाएँ तो सारी जुटा देते हैं लेकिन उनके चरित्र निर्माण में कहीं चूक जाते हैं ! जिन बच्चों को घर में स्वस्थ वातावरण और माता पिता का संतुलित प्यार नहीं मिलता उनमें आत्मविश्वास की कमी होती है !
    माता पिता अपने बच्चों के माध्यम से अपनी महत्वाकांक्षाएं पूर्ण करना चाहते हैं और ऐसे लक्ष्य उनके सामने रख देते हैं जिन्हें वे पूरा नहीं कर पाते और अवसादग्रस्त हो जाते हैं !
    बच्चो पर होम वर्क का इतना प्रेशर होता है कि दूसरे बच्चों के साथ ग्रुप बना कर खेलने की संभावनाएं प्राय: समाप्त हो गयी हैं ! अत: उनमें खेल भावना विक्सित ही नहीं हो पाती ! रही सही कसर चौबीस घंटे चलने वाले टीवी चैनलों ने पूरी कर दी है ! बच्चे पढ़ाई से छूटते हैं तो टीवी के सामने जम जाते हैं ! बड़े होकर ये बच्चे अपनी अक्षमताओं को स्वीकार नहीं कर पाते और ज़रा सी असफलता उन्हें ऐसे कदम उठाने के लिये विवश कर देती है !
    इतनी अच्छी पोस्ट है कि टिप्पणी बॉक्स में ही दूसरा आलेख तैयार हो जाएगा ! इसलिए बंद करती हूँ ! शानदार पोस्ट के लिये आपका बहुत बहुत आभार !

    जवाब देंहटाएं
  25. बेहतरीन पोस्ट .
    नव-रात्रि पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं .

    जवाब देंहटाएं
  26. बच्चे के सकारात्मक और नकारात्मक होने में माँ बाप के के सोच का भी प्रभाव पडता है | दूसरे बच्चे को अपनी बात खुल कर माँ बाप से कहने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए ना की उनको संस्कार तमीज के नाम पर बाध देना चाहिए | क्योकि कई बार देख गया है बच्चे क्या बड़े भी इसलिए आत्महत्या कर लेते है क्योकि वो अपनी बात कह ही नहीं पाते है अपनी समस्या किसी को बता ही नहीं पाते है और धीरे धीरे यही घुटन उनको खुद को समाप्त कर लेने की और ले जाती है | कोई किसी एक बात से आत्महत्या नहीं करता है ये बातो की एक गठरी होती है जो धीरे धीरे बढाती जाती है और जिस दिन उससे ये संभाली नहीं जाती है वो ऐसे कदम उठा लेते है | इसलिए काम से काम बच्चे को अपनी बात कहने का मौका देना चाहिए एक बार जब वो घर में अपनी बात कहा देना सीख लेता है तो वो हर जगह अपनी बात कहा सकता है वह घुटन महसूस नहीं करता है | हा बात कहने के तरीके में अनुशासन तो जरुरी है ही |

    दूसरी बात ये बहुत सासनी से संभव है की आप संपन्न होने के बाद भी बच्चे को मानसिक ही नहीं शारीरिक रूप से भी हर परिस्थिति को झेलने की आदत डाल सकती है | हर बार बच्चे की जिद्द पूरी करने की जरूरत ही नहीं है | उसे वो सभी चीजे दिलाये जिसकी उसे जरुरत है ना की आप सामानों की जरुरत पैदा करे जब भी वो कहे उसे खिलौने दिलाने की जगह उसे जब और जिस खिलौने की आवश्यकता हो तभी दिलाये | कभी कभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में उन्हें बाहर ले जाये और घर में मिल रही लक्सरी सुविधाओ को २४ घंटे उन्हें देने की जगह उससे थोडा वंचित रखे चाहे ग्लोबल वार्मिंग के नाम पर ही |

    जवाब देंहटाएं
  27. The tree gets one more vote.
    Mine.
    I think when the results are declared the shamiaana will lose its deposit.

    Ragards
    G Vishwanath

    जवाब देंहटाएं
  28. @प्रवीण जी,.
    प्रतिशत तो ज्यादा नहीं..प्रवीण जी, पर एक ने भी ज़िन्दगी गंवाई तो क्यूँ गंवाई.....मुंबई में जब दसवीं और बारहवीं के रिजल्ट घोषित होते हैं तो ख़ुशी नहीं होती,दूसरे दिन अखबार खोलते डर लगता है कि ना जाने कितनी आत्महत्या की ख़बरें पढने को मिलेंगी..

    जवाब देंहटाएं
  29. रश्मि बहना,
    बच्चों की इस स्थिति के लिए हम खुद और हमारा एजुकेशन ज़िम्मेदार है...हम सक्सेस के पीछे भागते हैं, एक्सलेंस के पीछे नहीं...हम क्यों बच्चों से ये उम्मीद (या कहे दबाव बनाए) रखते हैं कि वो हमेशा सबसे अव्वल रहें...

    घर पर बाते करते रहते हैं कि फलाने के लड़के या लड़की को इतना बड़ा सेलरी पैकेज मिला है...हम खुद ही बच्चों को बी प्रैक्टीकल या बाइ हुक और क्रूक का पाठ पढ़ा कर सिर्फ अपना उल्लू सीधा करने को कहते हैं...लेकिन हर बच्चे की प्रकृति अलग होती है...खास तौर पर शहरों या महानगरों में रहने वाले बच्चों पर दबाव रहता है...क्यों हमने उन्हें दबाव सहने की कभी ट्रेनिंग ही नहीं दी...बच्चा पैदा होने के साथ ही उसे पलंग से उतरने तक नहीं दिया जाता...ज़रा सी ठंड लगने पर हैवी एंटीबॉयटिक्स तक दे दी जाती है...बच्चे की इम्युनिटी (मानसिक और शारीरिक) तो हम खुद ही खत्म कर देते हैं...और वो अपनी इच्छा से कुछ भी अलग होते देखता है तो दबाव में आ जाता है...चुनौती से निपटने का वो अपनी समझ के हिसाब से कोई अभिनव तरीका नहीं निकाल पाता...गांव के बच्चों को देखिए...मिट्टी में लोट-लोट कर बढ़े होते हैं, इसलिए लोह-लट्ठ हो जाते हैं...कहने का तात्पर्य यही है कि खामी बच्चों में नहीं हमारे पालन-पोषण में है...बस उनकी हर इच्छा को पैसे से पूरी कर देने से अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती...

    जय हिंद...

    जवाब देंहटाएं
  30. प्रतिशत तो ज्यादा नहीं..प्रवीण जी, पर एक ने भी ज़िन्दगी गंवाई तो क्यूँ गंवाई.....

    रश्मि जी !
    आपके इस क्यों से असहमति का सवाल नहीं है .....(मेरे प्रतिशत के सन्दर्भ में )
    संक्षेप में कहूं तो .... "मीठा मीठा गप्प ...कडवा कडवा थू !"

    कोई भी समाज में व्यवस्था पूर्णरूपेण सही नहीं हो सकती है कुछ किन्तु ...कुछ परन्तु के साथ हमारी जद्दोजहद के साथ !
    आज हम समाज के जिस रूप से बच्चों का परिचय करा रहे हैं ...उसमे हम कैसे इन दुष्परिणामों से बच सकते हैं ? जाहिर है जो बच्चे इस दौड़ में मिसफिट हों ...उनके लिए कोई और रास्ते हमने खोल रखें हैं कि नहीं?
    यह अंतर्द्वंद माँ-बाप और अध्यापक के साथ साथ समाज को समझना होगा !

    मीडिया भी सीजनल ख़बरों की थाली परोसता है .......सो उस छोटे से प्रतिशत को कम करने के लिए जो बच्चे उन दबावों को सकुशल निभा रहें हैं को भी मीडिया सामने लाये तो अच्छा !!!!!

    जवाब देंहटाएं
  31. ...शायद खुशदीप जी ने रह गयी बात को पूरा कर दिया है !!

    जवाब देंहटाएं
  32. @ प्रवीण जी,
    हाँ! सही है....खुशदीप भाई, साधना जी, समीर जी {for a change लम्बी टिप्पणी की उन्होंने :) }...अंशुमाला जी,सतीश जी, रवि जी, अली जी, अरशद, अभी,वंदना, शिखा, वाणी, संगीता जी....सबने बड़ी गहराई से इस विषय पर विमर्श किया. सबका बहुत बहुत शुक्रिया .

    ब्लॉग जगत में तो सभी संवेदनशील हैं और..अपने कर्तव्यों के प्रति सजग ...बस ये संवेदनशीलता बाकी सभी लोगों में दिखाई दे और वे बच्चों को मशीन बनाने से परहेज करें और उन्हें अपनी काबिलियत के आधार पर अपनी राह चुनने दें...यही अपेक्षा है.

    जवाब देंहटाएं
  33. आपकी बातों में सच्चाई है...माता पिता अब अपनी संतान के बारे में बहुत अधिक चिंतित रहते हैं...इस से बच्चों में संघर्ष का माद्दा कम हो जाता है और वो हर काम के लिए उनकी मदद चाहने लगते हैं...उनमें निर्णय लेने की क्षमता भी कम हो जाती है...जब तक बच्चा माता पिता की शरण में रहता है वो महफूज़ रहता है लेकिन ज़िन्दगी भर कोई बच्चा अपने माँ बाप की शरण में नहीं रह सकता उसे उस खोल या शामियाने से बाहर आना ही पड़ता है...और तब उसे असलियत मालूम पड़ती है...उसे वो सब कुछ अकेले झेलना पड़ता है जिसका वो कभी आदि ही नहीं रहा...ऐसे बच्चे जल्दी टूट जाते हैं या फिर किसी सहारे की तलाश करते हैं और चूंकि कोई सहारा माँ बाप की तरह भरोसे मंद नहीं होता इसलिए जल्द निराश होकर गलत निर्णय ले लेते हैं ...
    नीरज

    जवाब देंहटाएं
  34. जाने अनजाने पैरेंट्स बच्चों पर अच्चा परफोर्म करने का दबाव भी बनाते जाते हैं. ये भी एक अलग पहलु है इसका.

    जवाब देंहटाएं
  35. बच्चों के सम्बन्ध में केवल एक ही मापदण्ड अपना रहा हूँ। इतना न टोकूँ उन्हें कि वे अपनी सृजनात्मकता खो बैठें, इतना ढीला भी न छोड़ूँ कि जीवन उनकी पकड़ से निकल जाये, इतना उत्कण्ठा रहे कि कुछ अच्छा करने की उनकी चाह बनी रहे और इतनी सहनशक्ति रहे कि जीवन के क्रूरतम निर्णयों की नीरवता डिगा न सके।
    बहुत ही सुन्दर पोस्ट। इस विषय में और चिन्तन व चर्चा होनी चाहिये।

    जवाब देंहटाएं
  36. मैडम जी

    आपने एक संवेदनशील विषय के बारे में लिखा, इस से ब्लॉग जगत से काफी विचारणीय बातें जानने को मिली.

    इस पोस्ट के लिए आपका धन्यवाद|



    और खुशदीप सहगल जी की इन बातों से मैं सहमत हूँ कि

    "बच्चों की इस स्थिति के लिए हम खुद और हमारा एजुकेशन ज़िम्मेदार है...हम सक्सेस के पीछे भागते हैं, एक्सलेंस के पीछे नहीं...हम क्यों बच्चों से ये उम्मीद (या कहे दबाव बनाए) रखते हैं कि वो हमेशा सबसे अव्वल रहें..."


    बच्चो की इस समस्या के लिए परेंट्स अकेले जिम्मेदार नहीं है, स्कूल भी जिम्मेदार है, पालन पोषण का काम सिर्फ घर परिवार का नहीं , स्कूल का भी है|



    सच बात तो यह है कि बच्चो के ऊपर दबाव घर, स्कूल, और समाज से मिलता है|

    स्कूल में जिंदगी जीना नहीं सिखाते, घसीटना सिखाते हैं |

    जवाब देंहटाएं
  37. रश्मि जी
    आपकी पोस्ट ही अपने आप में पूर्ण है और साथ में टिप्णियोद्वारा दिए गये सुझाव भी उतने ही सार्थक |
    हम लोगो के जमाने में पांच सात भाई बहन आम बात होती थी जो एक दूसरे के दोस्त रिश्तेदार शुभचिंतक सभी कुछ होते थे जबकि माँ पिता से हमेशा दूरी ही रहती थी |(आज तो माता पिता फिर भी दोस्ताना व्यवहार करते है) और उन भाई बहनों में कोई प्रतिस्पर्धा भी नहीं होती थी आपस में |क्योकि ज्यादातर आसपास के लोगो और घर के लोगो का आर्थिक स्तर एक जैसा ही होता था |
    आज समाज में हर तरह से खुलापन आगया है जिसमे दिखवा ज्यादा है जिसमे भोतिक वस्तुओ की पूर्ति करके आज हर कोई यह दिखना चाहता है की हम अपने बच्चे को सबसे ज्यादा प्यार करते है और समाज और परिवार से दूर रखते है |बच्चा अपने आसपास या स्कूल को अपना प्रतिद्वंदी समझने लगता है और जब प्रतियोगिता में पिछड़ जाता है तो अपने को अकेला खड़ा पाता है और असफलता सहन नहीं कर पाता |माता पिता के साथ परिवार समाज नहीं होने कारण माता पिता की जिम्मेवारी और अधिक बढ़ जाती है |

    जवाब देंहटाएं
  38. समस्या बहुत गम्भीर है। मानसिक शक्ति और परिपक्वता की शिक्षा जितनी ज़रूरी है, जीवन का मूल्य समझना-समझाना भी उतना ही आवश्यक है।

    बहुत बढिया आलेख है। इस तरह की सामयिक समस्याओं पर ऐसे विचारों का फैलाव एक सामाजिक आवश्यकता है। धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  39. बहुत अच्छा विषय है रश्मि. मेरी परिचिता की बेटी ने पिछले दिनों इन्दौर में आत्महत्या कर ली, वजह वही, एक पेपर में बैक लग गया था, जबकि वह पढने में अच्छी थी. लेकिन उसके पिता बहुत कड़क थे, पेपर बिगड़ जाने की बात पर बेटी की खूब लानत अलमत की, रिज़ल्ट आया, और बेटी से हाथ धो बैठे.
    अब पुराना ढर्रा नही चल सकता, पिता का जो पारम्परिक रूप है उसे छोड़ना होगा, हालांकि नई पीढी के पिताओं ने छोड़ा भी है.

    जवाब देंहटाएं
  40. ्रश्मि जी,बहुत अच्छा लिखा आपने…माता-पिता तो एक पेड़ की तरह ही होते हैं जिनकी छाँव तले बच्चे पलते बढ़ते हैं…और माता पिता ही उन्हें सही दिशा क ग्यान भी कराते हैं…आपकि यह प्रस्तुती बहुत अच्छी लगी…धन्यवाद्॥पूनम

    जवाब देंहटाएं
  41. मेरे घर पर भी यही प्रेजेंटेशन की समस्या है ये और भी बड़ी तब हो जाती है जब पढ़ाने के लिए कोई इंडिया के बाहर से आता है उनका सोचना अलग और फिर उनके मान दंड पर खरा उतरना बाप रे बाप. मेरी बेटी के साथ पूरा घर लगा होता है मैं तो रात दो बजे तक सो जाती हूँ पर दोनों बहनें पूरी रात जागी होती हैं. सुबह उठाने आओ तो काम चालू पता लगा एक झपकी भी नहीं ली. बड़ा अफ़सोस लगता है तुरंत नाश्ता बना कर आगे का काम फिर मैं संभाल लेती हूँ. जैसे एडिटिंग ग्रामर या अपने कुछ व्यूज़. तकलीफ तब होती है जब काम कम पसंद आता है. फिर भी मैं यही समझाती हूँ कि अगर काम पसंद नहीं आया तो और अच्छा है दुबारा मेहनत करेंगे तो हमारा काम दूसरों से अच्छा और पक्का होगा. मैं तो पेड़ की ही पक्षधर हूँ

    जवाब देंहटाएं

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...