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रविवार, 10 जनवरी 2010

शिक्षको को अब निभानी पड़ेगी काउंसिलर्स की भी भूमिका


मेरी पिछली पोस्ट 'खामोश और पनीली आँखों की अनसुनी पुकार" पर कई मिश्रित प्रतिक्रियाएँ मिलीं.कुछ लोग मेरी बात से सहमत थे,कुछ को ऐतराज़ हुआ और कुछ लोग इस लेख को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं देख पाए.

मैंने यह कहीं नहीं कहा कि इसके जिम्मेवार शिक्षक हैं और यह देखने की जिम्मेवारी उनकी है कि बच्चा डिप्रेशन में ना जाए.बच्चों के डिप्रेशन और आत्महत्या के लिए उनका परिवार और सामजिक परिवेश ही ज्यादा जिम्मेवार है.पर मेरा ये मानना जरूर है कि टीचर बच्चों के सबसे करीब होते हैं,इसलिए वे ज्यादा मददगार साबित हो सकते हैं.

ख़ुशी हुई यह देख कि कुछ स्कूल अधिकारी भी ऐसा ही समझते हैं. Times Of India के 9 जनवरी के अंक में एक लेख छपा है." Schools ask Teachers to be Counsellors too " इस लेख में भी टीचर्स की विशेष जिम्मेवारियों का ही उल्लेख है.बच्चों में बढ़ता डिप्रेशन और आत्महत्या की घटनाएं देख,स्कूल अधिकारी भी घबरा गए हैं और पूरी कोशिश कर रहें हैं कि उनके स्कूल में कोई ऐसी घटना ना हो. और इसके लिए वे अपने स्कूल के टीचर्स की मदद चाहते हैं.क्यूंकि स्कूल टीचर्स ही बच्चों के व्यवहार में आए बदलाव पर नजदीकी नज़र रख सकते हैं...और जरा भी शंका होने पर उसे वे काउंसलर के पास लेकर जा सकते हैं.

और इसीलिए,करीब करीब सारे स्कूल में काउंसिलर्स हैं लेकिन फिर भी स्कूल के ट्रस्टी ,प्रिंसिपल अपने टीचर्स की तरफ सहायता के लिए देख रहें हैं.

Holy Family School में सात टीचर्स को काउंसिलर्स की प्रशिक्षण दी गयी है,जबकि उनके स्कूल में दो कौंसिलार्स हैं.पर उनका मानना है कि टीचर बच्चों के ऊपर अच्छी तरह नज़र रख सकते हैं क्यूंकि,उनका बच्चों से रोज का मिलना होता है.

The Archdiocese Board of Education (ABE) जिनके अन्दर 150 स्कूल हैं.उनलोगों ने भी हर स्कूल से कुछ टीचर्स का चयन कर उन्हें प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया है ताकि वे बच्चों में डिप्रेशन के लक्षणों को पहचान सकें और उन्हें उस से बाहर लाने में मदद कर सकें.

"जमनाभाई नरसी स्कूल" ने सबसे नायाब तरीका निकला है,बच्चों का ध्यान रखने का.उन्होंने अपने स्कूल में एक स्पेशल सेल बनाया है जिसमे ९वी से १२वी कक्षा तक के कुछ बच्चों का चयन किया जाता है.और उन्हें प्रशिक्षित किया जाता है.ये बच्चे अपने जूनियर क्लास के बच्चों और अपने साथियों पर नज़र रखते हैं और किसी बच्चे के व्यवहार में कोई भी बदलाव देखते हैं या उन्हें 'आत्महत्या' को लेकर मजाक करते भी सुनते हैं तो काउंसिलर के पास ले जाते हैं.

प्रत्येक स्कूल ने शिक्षकों को यह निर्देश दिया है कि बच्चों में यह भावना भरने की कोशिश करे कि "पढाई में अच्छा नहीं करने वाले लोग भी ज़िन्दगी में आगे चलकर बहुत अच्छा करते हैं.सफलता,असफलता जीवन के दो पहलू है..सिर्फ अच्छे नंबर लाना ही सबकुछ नहीं".

अभिभावकों को भी अपने बच्चों के लिए 'प्लान बी' हमेशा तैयार रखना चाहिए ताकि एक में कामयाबी ना मिले तो बच्चा अवसाद के गर्त में ना डूब जाए. बच्चों की ज़िन्दगी में हमेशा एक से ज्यादा लक्ष्य होने चाहिए.

इन स्कूलों के तर्ज़ पर ही अगर भारत का हर स्कूल यह अपनाने की कोशिश करे तो कुछ बच्चों के होठो की खोयी हुई मुस्कान फिर से लौट आएगी और असफल होने पर या किसी और तरह के दुःख का सामना वे पूरे हौसले के साथ कर पायेंगे क्यूंकि उनके कमजोर नन्हे हाथों को सहारा देने के लिए हमेशा तैयार रहेगा एक स्नेहसिक्त मजबूत हाथ.

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