मंगलवार, 19 जनवरी 2010
बदलते वक़्त की जरूरत
इस तस्वीर में ये दोनों लडकियां हमारी और आस पास की बिल्डिंग से कचरा उठाती हैं.और उसके बाद बिल्डिंग के प्रांगण में झाड़ू लगाती हैं.आज सुबह यूँ ही इनपर नज़र पड़ी और मैंने गौर किया कि जो लड़की जींस में थी, वो आराम से अपने काम को अंजाम दे रही थी पर जिसने सलवार कुरता पहन रखा था,वो कभी अपनी चुन्नी संभालती ,कभी अपने कपड़े. चुन्नी उसने सामने लपेट कर बाँध रखी थी पर वह बार बार खुल जा रही थी.जींस वाली लड़की अपना काम ख़त्म कर किनारे खड़ी हो उसका इंतज़ार करने लगी.
ये लडकियां सातवें माले पर लिफ्ट से बडा सा ड्रम लेकर जाती हैं और फिर हर फ्लोर से कूड़ा उठा..ड्रम सीढियों से घसीटते हुए नीचे तक लेकर आती हैं.मैं सोचने लगी,यहाँ भी ये जींस वाली लड़की को ज्यादा आसानी हुई होगी.ये बिचारी अपनी चुन्नी और कपड़े संभालते हुए कितनी मुश्किल से अपना काम ख़त्म कर पायी होगी.उसके कपड़े भी काफी गंदे हो गए थे.
यही वजह है कि आज की पीढ़ी परंपरागत परिधानों से ज्यादा सुविधाजनक परिधानों को ज्यादा तरजीह देने लगी है.
कई लोग इसे पाश्चात्य का प्रभाव मानते हैं.और ऐसे परिधानों की आलोचना करते हैं.पर इसे पहनने वाले की रूचि पर छोड़ देना चाहिए.अगर वह इसमें comfortable महसूस करती है.तो इसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए.जब परिस्थितियाँ इतनी बदल गयी हैं.महिलायें घर के बाहर निकल हर तरह का काम करने लगी हैं तो कैसे उम्मीद की जाती है कि पोशाक तो उन्हें वही पुरानी धारण करनी चाहिए.सुबह सुबह जरूरी काम निपटा,पति और बच्चों का टिफिन तैयार कर जब स्त्रियों को जल्दी से ऑफिस भागना होता है तो उनके पास इतना समय नहीं होता कि वे अच्छे से साड़ी बांधे,लिहाजा,सलवार कुरता या जींस ही उन्हें आसान लगता है.
और साड़ी शायद कैसे भी बाँधी जा सकती है.पहले भी तो सारी महिलायें चाहे जितनी भी जल्दी हो साड़ी ही पहनती थीं. लेकिन आज स्त्रियों में सौन्दर्यबोध भी जाग गया है.वे हमेशा प्रेसेंटेबल दिखना चाहती हैं.अगर साड़ी ही बांधें तो उसे पूरी खूबसूरती से.पहले कहाँ स्त्रियाँ ब्यूटीपार्लर जाती थी.पर अब यह जरूरी आदतों में शुमार हो गया है.
इसलिए इस परिवर्तन को खुले दिल औ दिमाग से अपनाना चाहिए. हाँ,कुछ किशोरियां आधुनिकता के नाम पर ऐसे वस्त्र पहन लेती हैं,जिन्हें स्वीकार करना मुश्किल होता है.पर ऐसी किशोरियों और युवतियों का प्रतिशत बहुत कम है.और यह दौर भी बहुत कम दिनों के लिए रहता है....शादी और बच्चों के बाद खुद ही उनकी रूचि में परिवर्तन आ जाता है.
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वसन वही हो, जो तन ढके और मन का खुलापन बचाए रखे. हालांकि दुःखद यही है कि आज़ादी के नाम पर तो भले ही लड़के-लड़कियां धागे और कतरनें लपेट लें, पर मन से वैसे-के वैसे भोंदू बने रहते हैं, जैसा समाज है। खुलापन विचारों में सबसे ज्यादा ज़रूरी है, वो साड़ी में भी हो सकता है, शर्ट में भी और अच्छा लगे, तो मिनी स्कर्ट में भी. आपके लेख पर सीधी प्रतिक्रिया नहीं है ये, माफ़ कीजिएगा. वैसे भी--उन दोनों लड़िकयों के लिए ऐसे पहनावे सुविधाजन्य ढंग से मिले कपड़ों तक ही सीमित है. ज़िद, इच्छा, ललक और झगड़े जैसी कोशिशें-अहसास से तो वो दूर ही होंगी.
जवाब देंहटाएंek din ki analysis aur itna gyan,
जवाब देंहटाएंye ek samay mine kiya gaya hai aur kewal ek condition satisfy karta hai. ismein aapka nahi english education ka india mein level hai uska dosh hai
बात तो एक दम सही कही है ...वाकई आजकल लड़कियां बाहर जाकर लगभग हर तरह के काम करती हैं ..यहाँ तक की पेट्रोल पम्प पर भी....तो कपडे अगर सुविधानुसार होंगे तो काम ज्यादा आसन तरीके से हो सकेगा ..बाकी तो सब अपने अपने आराम का मामला है.:)
जवाब देंहटाएंchhotee chhotee baaton per gahraa dhyaan :D kahaa dete hain hum sabhee isske liye chaahiye ek paarkhi aankhein .....aur un aankhon de dekh likhaa kuch bahut hi rochak baatein :D
जवाब देंहटाएंDidi (Aapko kahne me mujhe achchha lagega)
जवाब देंहटाएंmere liye sochne ki baat ye nahi ki ladkiyon ka pahnawa kaisa ho..balki ye sonch raha hun ki is mudde par bawal karne wale logon ki nazar kaise is post par pade ya in dono ladkiyon par.
pahnawa aaramdayak ho kaun nahi chahta..
दोष पहनावे का नहीं, सोच का होता हैं।
जवाब देंहटाएंहां सच है. कोई भी परिधान किसी पर थोपा नही जाना चाहिये. यदि परिधान अशोभनीय नहीं है तो यह पहनने वाली पर छोड देना चाहिये कि उसे क्या सुविधाजनक लगता है. मैं खुद मौके और काम के अनुसार कपडे पहनती हूं. वैसे आज की लडकियों में इतनी जागरूगता आ गई है और अपनी पसंद-नापसंद ज़ाहिर करने की क्षमता भी.
जवाब देंहटाएंवन्दना अवस्थी दुबे की टिपणी को ही मेरी टिप्पणी समझा जाये. मुझे भी ये बिल्कुल व्यक्तिगत मामला लगता है कि पहनने वले पर ही वस्त्र चयन की भी जिम्मेदारी हो.
जवाब देंहटाएंसुट पहनाने वाली लडकी काम के समय अपने दुपट्टॆ को बांध भी सकती है, मै विदेश मै रह कर भी अपनी पोशाक की तरफ़ दारी इस लिये कर रहा हुं, क्योकि यही हमारी पहचान है, ओर जब जींन नही थी तब भी तो काम करती थी ओरते?
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
इस विषय पर ब्लॉगजगत में काफी कुछ लिखा जा चुका है ...मेरा फिर से यही कहना है कि वस्त्र आरामदायक होने चाहिए मगर मर्यादित भी ...बहुत सुलझा हुआ आलेख ....!!
जवाब देंहटाएंvery true,wear what you find comfortable and feel good in.
जवाब देंहटाएंआरामदायक और सुविधाजनक पहनावा ही सब पसंद करते हैं....लेकिन सब मर्यादा में हो तो....अच्छा लेख..
जवाब देंहटाएंजो पहनावा खुद को आरामदायक मर्यादित लगे वही पहनना चाहिए ...बाकी सही में इस विषय पर बहुत बात यहाँ हो चुकी है
जवाब देंहटाएं@वाणी एवं रंजना जी...यही वजह है कि मैंने पोस्ट इतनी छोटी लिखी है...कुछ लोगों ने शिकायत भी की कि बहुत जल्दी समेट दिया पर मैंने भी यही कहा,की कुछ कहने को बाकी नहीं है...यह भी सुनने को मिला कि सबका कहने का अंदाज़ अलग होता है...पर मैंने कमेंट्स में भी बहुत जगह अपनी बात कह दी थी.
जवाब देंहटाएंबस जब इन दोनों लड़कियों को इस अलग वेश भूषा में देखा तो तस्वीर लिए बिना नहीं रह सकी...और कहते हैं,ना तस्वीर बोलती है...इसलिए यहाँ शेयर कर लिया
@अरशद भाई,मुझे बहुत अच्छा लगा तुम्हारा दीदी कहना...और मैं नहीं चाहती कि कोई इस तस्वीर को लेकर कोई बहस शुरू करे...बहुत कुछ कहा जा चुका है...यहाँ...अब दूसरे मुद्दों पर बातें की जाएँ
जवाब देंहटाएंआरामदायक और सुविधाजनक परिधान जो आपके व्यक्तित्व को निखारने में सहायक और कार्य को संपन्न
जवाब देंहटाएंकरने में असुविधा न हो,ऐसी होनी चाहिए.सामाजिक मर्यादा का ध्यान रखना भी जरुँरी है वस्त्र को पहनने के क्रम में.
वस्त्र ऐसे ही हों जो जैवीय भावों को न उद्वेलित करें ,बस !
जवाब देंहटाएंवाकई आजकल लड़कियां बाहर जाकर लगभग हर तरह के काम करती हैं ..यहाँ तक की पेट्रोल पम्प पर भी....तो कपडे अगर सुविधानुसार होंगे तो काम ज्यादा आसन तरीके से हो सकेगा
जवाब देंहटाएंshikhaji se sahmat!
@ Vani ji,
जवाब देंहटाएंइस विषय पर ब्लॉगजगत में काफी कुछ लिखा जा चुका है ...मेरा फिर से यही कहना है कि वस्त्र आरामदायक होने चाहिए मगर मर्यादित भी ...बहुत सुलझा हुआ आलेख ....!!
ab ham kaa kahein...hamri naani jo bol gayi so bol gayi ..ham bhi wahi kahenge bas...
rashmi baat vivaad na khada kare magar kahunga jaroor raaj bhaatiya ji ki baat se sat prtishat sahmat ,,,
जवाब देंहटाएंaakhir kun hame paschim ki har chij subidhajanak lagti hai ,, aakhir unke aage bhi kuchh hai
saadar
praveen pathik
9971969084
नापा तुला सार्थक आलेख!
जवाब देंहटाएंरश्मि जी आपकी यह पोस्ट दिनांक 27 जनवरी 2009 के राष््ट्रीय सहारा दैनिक, नई दिल्ली के सहारा इंडिया मास कम्यूनिकेशन द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका आधी दुनिया में पंज नंबर 7 पर सचित्र प्रकाशित हुई है। बधाई स्वीकारें। और ऐसे विषयों को इसी शिद्दत से गहराई से ऊंचाई तक उकेरती रहें।
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