गुरुवार, 2 मार्च 2017

परतीमा (कहानी )


प्रशांत ऑफिस में काम में उलझा था कि मोबाइल बजा , बिना नंबर देखे ही उठा कर हलो बोला ,"उधर से किसी स्त्री की जोर की आवाज़ आई ,"हलोss हलोss "…प्रशान्त ने फोन कान से थोड़ी दूर कर लिया ,उसे लगा, रोंग नम्बर है .कट करने ही जा रहा था कि फिर आवाज़ आई,"हलो आप परसांत बोल रहे हैं....परसांत ...प्रशांत शर्मा  " अब ये तो कोई उसके घर की तरफ की ही हो सकती थीं. पर आवाज़ पहचानी सी नहीं लग रही थी। "

  "अरे हम परतीमा …पह्चाने हमको ?' दिमाग पर बहुत जोर डाला पर उसे बिलकुल याद नहीं आ रहा था तभी आगे बोलीं वे, " याद है, तुम मोतीपुर में सातवीं में पढ़ते थे ,हमारे घर के बगल में रहते थे..... चचा का फोन नंबर मिला तो तुम्हारा नंबर भी लिए , खूब बड़े अफसर बन गए हो, अच्छा लगा सुन कर , सादी कर लिए ,बच्चा लोग कैसा है , सबको मेरा आशीर्वाद देना , चलो तुम ऑफिस में बिज़ी होगे ,हमको तो तुम्हारा नंबर मिला तो इंतज़ारे नहीं हुआ। ये मेरा नंबर है, सेव कर लेना , फुर्सत से फोन करना कभी ,अपनी वाइफ से भी बात करवाना … चलो, बाय। " 
जैसे अचानक फोन आया था ,वैसे ही बंद भी हो गया। वो कुछ देर तक फोन घूरता रहा। उसके बाद काम में मन नहीं लगा , बार बार जी उचट जाता आखिर एक कॉफी मंगवाई और कप लेकर खिड़की के पास चला आया। खिड़की से नीचे नज़र आती सड़क पर तेजी से  गाड़ियां आ जा रही थीं. दूर सडक के पार वाला बाउंड्रीवाल,गुलाबी बोगनवेलिया से ढका हुआ था . ऐसे ही तो बचपन के गुलाबी दिन थे वो और उसका मन भी उन गाड़ियों संग तेजी से भाग  निकला. . मोतीपुर में उसके पापा ट्रांसफर होकर गए थे। प्रतिमा और उसका घर पास पास था ,सिर्फ एक दीवार थी बीच में। सामने का बरामदा ,ऊपर जाने वाली सीढ़ी और छत सब साझे थे। प्रतिमा पूरे महल्ले की बिल्ली थी, जब तक सबके घर एक बार न घूम ले उसका खाना हज़म नहीं होता था.. सबको उसके आने जाने की इतनी आदत भी पड़ गयी थी कि जिस घर में शाम तक न गयी हो , लोग चिंतित हो ,आस-पास से उसका हाल चाल पूछने लगते थे कि प्रतिमा ठीक तो है। जिस घर में प्रतिमा की पसंद की चीज़ बनती,एक कटोरी अलग से उसके लिए रख दी जाती. प्रशांत के घर में तो उसका डेरा ही जमा रहता। अपने घर में तो वो टिकती ही नहीं. किसी काम में हाथ नहीं बटाती, चाची छत पर से कपड़े लाने को कहती और वो प्रशांत के यहाँ आकर बैठ जाती। चाची जब गुस्से में उसे ढूंढते हुए आतीं तो वो किचन में छुप जाती। छोटा भाई विशाल खी खी करके मुँह छुपाये हँसता पर उन्हें बताता नहीं. प्रशांत किचन की तरफ इशारा कर देता ,चाची किचन की तरफ बढ़तीं उसके पहले ही प्रतिमा तीर की तरह निकलतीं और बाहर भाग जाती। "तू आ, आज घर में , आज तेरी टाँगे न तोड़ दीं तो कहना ' चाची बड़बड़ाती हुई छत से कपडे लाने चली जातीं। " पर प्रतिमा लौटकर अपने घर में नहीं प्रशांत के घर में पहले आती और फिर जी भरकर उससे लड़ती कि उसने चाची को क्यों बताया कि वो किचन में छुपी है। प्रशांत भी अकड़ता, 'मैं झूठ नहीं बोलता "
    "तो राजा हरिश्चंदर रख लो न अपना नाम " ऐसे मुहं चिढ़ा कर वो कहती कि प्रशांत गुस्से मे उसकी तरफ झपटता . प्रतिमा भागती और उसकी लहराती लम्बी छोटी उसके हाथ में आ जाती। वो चीखती ,"चाची ss ' और मम्मी आकर प्रशांत को डांटने लगती ,'छोडो उसकी चोटी …तमीज नहीं है जरा भी …एक लड़की के साथ ऐसा बिहेव करते हैं "…वो गुस्से से भर जाता , "लड़की होने के बड़े फायदे हैं,अपनी माँ का कहना न मानो, उनसे छुप का बाहर भाग जाओ। लोगो को झूठ बोलना सिखाओ और सब करके साफ़ बच जाओ क्यूंकि लड़की हो ' लड़कियाँ बड़ी चालाक होती हैं। वो गुस्से में भर चल देता। पर प्रतिमा दूसरे दिन ही सब भूल भाल धमक जाती, "चल खेलने चलें"
"हमको नही खेलना तेरे साथ"...वो उसकी कल की बदमाशी भूला नहीं था.
"काहे  हार जाता है इसलिए"....प्रतिमा उसकी हंसी उडाती हुई बोलती.
"कब हारें हैं रे तुझसे "वो लाल आँखें दिखाता
    "तो चल न"...प्रतिमा,उसका हाथ खींचती हुई ले जाती। वो हाथ झटक कर आगे बढ़ जाता। शाम को महल्ले के सब लड़के मिल कर पिट्टो,डेगा-पानी,लंगडी, आइस पाइस खेलते। लडकियां रस्सी कूदतीं या इक्ख्त दुक्ख्त खेलतीं. नहीं तो बातें करती हुई टहलती रहतीं.पर प्रतिमा को तो कूद -फंड पसंद थी. वो क्या लड़कियों के साथ खेलती. वो लडकों के संग सारे खेल खेलती. प्रशांत  पिट्टो में प्रतिमा पर जोर से बॉल का निशाना लगाता कि प्रतिमा को खूब चोट लगे पर वो बहुत तेज थी हर बार बच जाती और उसे अंगूठा दिखाती। कभी कभी प्रशांत  छुपकर कंचे भी खेलता .मम्मी -पापा की तरफ से कंचे खेलने की सख्त मनाही थी. मम्मी कहतीं, 'कंचे गली के लडके खेलते हैं '.उसे समझ नहीं आता, ये गली के लडके कौन होते हैं. वे लोग भी तो सडक के किनारे ही खेलते थे . पर तब आज के बच्चों की तरह , फट से माता-पिता से सवाल करने का रिवाज नहीं था. उनकी जितनी बातें समझ में आईं,समझो वरना सर के ऊपर से गुजर जाने दो.  प्रतिमा उसे कंचे खेलते देख लेती तो फिर ब्लैकमेल करती कि मैथ्स का ये सवाल बना दो वरना  चाची को बता दूंगी। खीझते हुए भी उसे उसका  होमवर्क करना ही  पड़ता.
प्रशांत ने कॉफ़ी का एक लम्बा घूँट भरा...क्या दिन थे वे भी , सिर्फ पढना  लिखना, खेलना, कूदना। पढाई का भी कोई बोझ नहीं. सिर्फ हिसाब वाले मास्टर जी कुछ सवाल घर से बनाने कर लाने  को देते .वरना कोई होमवर्क नहीं. ना परीक्षा का कोई खौफ ,ना परसेंटेज की कोई होड़.
आये दिन कोई न कोई त्यौहार पड़ता और सारा महल्ला ही वो त्यौहार मिलकर मनाया करता था। होली, दिवाली दशहरा ,सरस्वती पूजासब खूब धूमधाम से मनाते.  दशहरे का मेला सारे बच्चे मिलकर देखने जाते , एक बार प्रतिमा ने पचास पैसे की एक पीतल की अंगूठी खरीदी थी। शरारती तो थी ही पता नहीं अंगुली में कैसे दाँत से दबा कर पिचका ली थी। अंगुली सूज कर मोटी हो गयी थी और उसका रो रो कर बुरा हाल। वो चिढाता,'अब तो अंगुली काटनी पड़ेगी' प्रतिमा का रोना और बढ़ जाता.दोनों की मायें परशान हो गयी थीं। पिता ऑफिस गए हुए थे , फोन तो था नहीं जो उन्हें बुलाया जा सके। उस छोटे से कस्बे में औरतें बाज़ार नहीं जातीं थीं. और तब ये जिम्मेवारी उसे सौंपी गयी थी। वो महल्ले के बच्चों की फ़ौज के साथ बड़ी जिम्मेवारी से सुनार के यहाँ से उसकी अंगूठी कटवा कर ले आया था। प्रतिमा ने भरी आँखों से रुंधी आवाज़ में पहली बार उसे 'थैंक्यू 'कहा था। मन तो हुआ फिर से चिढ़ाने लगे पर उसकी रोनी सूरत देख दया आ गयी थी। दो दिन प्रतिमा ने उसका अहसान मान लड़ाई नहीं की पर तीसरे दिन ही सब भूल भाल…'चाची देखिये, परसाांत पढाई का किताब नहीं कॉमिक्स पढ़ रहा है " और उसकी गुस्से से लाल आँखे देख अंगूठा दिखा भाग गई थी। उसे सचमुच अफसोस हो गया था , बेकार ही ले गया था सुनार के पास। हो जाने देता उसकी अंगुली, हाथी के पाँव जैसी।

    पर दिवाली के समय प्रतिमा सारी दुश्मनी भूल जाती। उसका और प्रतिमा का सामने वाले घर के  गगन और मिथिलेश से पटाखे छोड़ने का कम्पीटीशन होता । अपने सारे बचाये पैसे उसे दे देती कि वो पटाखे ले आये। किसी भी बच्चे को बहुत ज्यादा पैसे तो मिलते नहीं थे ,तो कम्पीटीशन होता कि किसने सबसे अंत में पटाखे छोडे. प्रतिमा  घर-घर की   बिल्ली तो वो थी ही ,चुपके से उनके घर में जाकर देख आती कि उन्होंने कौन से पटाखे और कितने पटाखे खरीदे हैं और फिर दोनों उसी हिसाब से पटाखे छोड़ते. बहुत देर तक मिथिलेश और गगन के घर के सामने से पटाखों की आवाज़ नहीं आती तो प्रशांत अंतिम रॉकेट छोड़ने के लिए उद्धत होता पर प्रतिमा कहती, 'नहीं.,रुको अभी ..उनका एक अनार अभी बचा हुआ  है, हम गिने हैं.वो लोग अभी तक पांच ही अनार जलाया है जबकि छः लाया था . और फिर उनके अनार जलते ही ,प्रशांत विजयघोष सा अंतिम राकेट छोड़ देता. किसकी छत पर दिए देर तक जले, इसका भी कम्पीटीशन होता। छत तो साझा थी, दोनों देर रात तक  जागकर दिए में तेल डाला करते। एक भूली सी मुस्कराहट प्रशांत के चहरे पर आई. आज तो रंग बिरंगे बिजली के बल्ब लगा दो वे दूसरे दिन तक जलते रहेंगे। बस एक स्विच ऑन ऑफ करना ही तो  होता है.
 खिड़की छोड़कर प्रशांत  ने वापस काम में मन लगाने की कोशिश की पर बचपन के वे दिन, मोतीपुर की गालियां ही जेहन में घूमती रहीं। आजकल न्यू इयर पार्टी का बड़ा शोर होता  है. इकतीस  दिसंबर को देर रात तक पार्टी करते हैं लोग और फिर नए साल की सुबह देर तक सोये रहते हैं। नए साल का सूरज तो कोई देखता ही नहीं. और एक उनका बचपन था। सुबह सुबह नहा धोकर वे लोग मंदिर जाते और फिर जलेबी पूरी का नाश्ता करते और फिर सारे बच्चे मिलकर छत पर पिकनिक मनाते। उस दिन कोई झगड़ा नहीं होता। सबकी मम्मियां भी भरपूर मदद करतीं। छत पर  आकर चूल्हा सुलगा देतीं पर इस से ज्यादा कोई मदद नहीं लेते वे लोग। आज के दिन लड़कियों के रौब सह लेते . शोभा, रीता, निर्मला सब लडकों के  उम्र की ही थीं, पर बड़े सलीके से सारे काम कर लेतीं.  आलू गोभी मटर की खिचड़ी और चटनी बनती .खिचड़ी का वैसा स्वाद फिर  कभी नहीं आया । लडके पानी ढो कर लाने का , आलू छील देने का, पत्तलें लगाने का, उठाने का काम  बखूबी करते। कौन ज्यादा काम करता है ,इसकी ही होड़ लगी होती।

 पिकनिक ख़त्म होते ही सरस्वती पूजा की तैयारियां शुरू हो जातीं। सारे बच्चे मिलकर सीढ़ी के ऊपर थोड़ी सी खाली जगह थी, वहीँ प्रतिमा लाते। हर घर से वे लोग चंदा इकठ्ठा करते. और फिर उन पैसों से साधारण सा प्रसाद लाते. थोड़ी सी बूंदी , बताशे और फल. सजावट के लिए मम्मी लोग उदारता पूर्वक साड़ियां दे देतीं। रंगीन कागज़ों को तिकोना काटकर वे लोग पताका बनाते। लडकियां साड़ियों से सजावट करतीं। लड़के रस्सी टांगकर रंगीन कागज़ों की झंडियां लगाते। प्रसाद काटना ,प्रसाद बांटना हर काम वे लोग मिलकर करते।
 पर  मोतीपुर छोड़ने से पहले अंतिम सरस्वती पूजा में बड़ा हंगामा हुआ था ।एक नई लड़की आई थी महल्ले में ।बहुत सज संवर कर रहती. अपने पिता के अफसर होने का उसे बड़ा घमंड था ।खूब कीमती फ्रॉक, सुन्दर सैंडल पहन और रंग बिरंगे हेयर बैंड लगा कर शाम को आती ।खुद भी नहीं खेलती और लड़कियों को भी नहीं खेलने देती,उन्हें बिठा कर लंबी लंबी डींगे हांक करती ।लड़कों पर उसका रौब नहीं चलता, इसलिए उनसे चिढ़ी रहती ।अब तक सरस्वती पूजा में सबलोग एक बराबर चन्दा दिया करते थे । इस नई लड़की ने ज्यादा पैसे दिए । अपनी माँ की ढेर सारी कीमती साड़ियां लाई और विसर्जन के लिए अपने पिता से कहकर एक जीप  अरेंज कर दी थी।
प्रतिमा को छोड़कर बाकी सारी लडकियां उसकी मुरीद हो गयी थीं ।लड़कों ने मूर्ति लाने का ,सजावट का सारा काम तो किया पर दूसरे दिन लडकियों ने उन्हें गैरों की तरह एक एक प्रसाद का दोना देकर चलता कर दिया ।
    इस तरह मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिए जाने पर लड़के कड़वा घूँट पीकर रह गए ।विसर्जन के लिए भी जीप में बैठकर सिर्फ लडकियां ही गईं . उस अपर्णा के पिताजी का एक चपरासी और ड्राइवर साथ था . लडकों को बिलकुल ही नहीं पूछा.
    पर वे भी ताक में थे जैसे ही लडकियां विसर्जन के लिए गयीं ,वे बंचा हुआ  सारा प्रसाद चुरा लाये । कुछ खुद खाया और बाकी रास्ते पर आने जाने वालों में बाँट दिया ।लड़कियों को आग बबूला तो होना ही था , खूब चीखी-चिल्लाएँ.। घर वालों से भी इस हरकत के लिए बहुत डांट पड़ी ।पर किसी को बुरा नहीं लगा।सब सर नीचा किये मंद मंद मुस्काते रहे ।सामूहिक रूप से डांट खाने का मजा ही कुछ और होता है ।
एक ठंढी सांस निकल गई । आज अपनी मोबाइल और लैपटॉप में घुसे गेम खेलते बच्चे क्या जानें ये मिलजुल कर खेलना, शैतानियाँ करना और डांट खाना .
    प्रतिमा ,उसके घर में इतनी ज्यादा रहने लगी थी कि अनजान लोग उसे मम्मी पापा की बेटी ही समझते ।बस फर्क ये था कि वो और विशाल पापा से बहुत डरते थे जबकि प्रतिमा बिलकुल नहीं झिझकती । बड़े आराम से कह देती ,'चचा इस शर्ट में आप बहुत स्मार्ट लग रहे हैं ।'...पापा के सामने भी गाना गाती रहती ।अब वो दसवीं में आ गई थी ।और अब तक पढ़ाई को टाइमपास की तरह लेने वाली और जैसे तैसे पास होने वाली प्रतिमा घबराने लगी थी ।उसका मैथ्स बहुत कमजोर था ।उसके घर में पढ़ाई को और वो भी लड़की की पढ़ाई को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता था ।ट्यूशन का तो सवाल ही नहीं ।आखिर उसकी रोनी रोनी सूरत देख पापा ने कहा ,वे उसे पढ़ायेंगे ।और उसके बाद प्रतिमा का एक दूसरा रूप ही सामने आया ।सुबह सुबह ही वो किताब कॉपियां लेकर बरामदे में जम जाती। कोई सम सौल्व नहीं कर पाती तो सोते हुए पापा को झकझोर कर जगा देती,"चचा उत्तर नहीं मिल रहा है " और आश्चर्य पापा, जरा भी नहीं गुस्सा करते ।चश्मा लगाते और सवाल समझाने लगते ।वरना सोते हुए पापा के कमरे के बाहर भी व लोग डरते डरते गुजरते थे कि कहीं आवाज़ न हो जाए ।पाप के ऑफिस जाने से पहले वो पढ़ती,दोपहर में पापा के दिए सम्स सौल्व करती ।रात में भी देर तक पढ़ती । यहाँ तक कि उसे और विशाल को डांट पड़ने लगी थी कि "देखो ,'कितना मन लगाकर पढ़ती है ..सीखो कुछ उस से " प्रतिमा की बोर्ड की परीक्षा तो हो गयी, पेपर भी अच्छे हुए थे ।पापा ने मैथ्स का पेपर सौल्व करवाया था और संतुष्ट भी थे ।पर उसका रिजल्ट आने से पहले ही उनका ट्रान्सफर हो गया और वे लोग नए शहर में आ गये थे । रिजल्ट आने के बाद,प्रतिमा ने पापा को चिट्ठी लिखी थी और पापा बहुत खुश हुए थे । आने जाने वाले सबको पापा बड़े गर्व से प्रतिमा के रिजल्ट के बारे में सुनाते । उसके बाद प्रतिमा की याद धीरे धीरे धूमिल होती गई ।मम्मी कभी कभी पड़ोस की आंटियों से उसकी शरारतों की चर्चा करतीं । वो तो अपने खेल ,कॉलेज ,कैरियर में प्रतिमा को बिलकुल भूल गया था । आज उसके फोन कॉल ने पूरा बचपन लौटा दिया, उसका ।रात में माँ का फोन आया ," प्रतिमा का फोन आया था कि उसने तुमसे बात की है ।बहुत खुश लग रही थी "
    "हाँ माँ, बिलकुल  वैसी ही है अभी भी चिल्ला चिल्ला कर बोलती है, और अपना नाम अब भी परतीमा बताती है,प्रतिमा नहीं  "...प्रशांत हंस पड़ा था .

    "नहीं बेटा, वो तुमसे बातें करने की ख़ुशी में बोल रही होगी । दुःख का पहाड़ टूटा है उसपर । शादी अच्छे घर में हुई थी पर बच्चे छोटे थे तभी पति की मृत्यु हो गई ।पर प्रतिमा ने सबकुछ अच्छे से संभाल लिया ।बेटी की शादी कर दी ।बेटा भी नौकरी में आ गया है ।वो ,टीचर है एक स्कूल में । हमारे बगल के फ़्लैट में एक सज्जन आये हैं ।वे प्रतिमा के ससुराल के रिश्तेदार हैं ।एक दिन तुम्हारे पापा,अपनी नौकरी की बातें कर रहे थे उसी क्रम में जैसे ही मोतीपुर का नाम लिया । उन्होंने बताया कि मोतीपुर की प्रतिमा उनके रिश्ते में है और फिर तो पापा ने उनसे नंबर लेकर प्रतिमा  से बात की  ।मुझ से भी बात हुई. तुम सबलोग का हाल चाल पूछ रही थी ।तुम्हारा नंबर लिया ।तुमसे बात करने के बाद भी मुझे फोन करके बताई पर बोल रही थी तुम ऑफिस में थे ,ज्यादा बात नहीं हुई ।बात कर लेना बेटा ,बहुत खुश होगी ।"

    "हाँ मम्मी जरूर किसी सन्डे सैटरडे करूँगा .." यह सब सुनकर उदास हो गया वह.विधाता ने  किसके भविष्य की टोकरी में क्या सहेज कर रखा है, किसी को पता नहीं होता. उछलती-कूदती,शरारती प्रतिमा के इतने जिम्मेवार रूप की कल्पना भी नहीं कर पा रहा था . कैसे उसने सम्भाला होगा सबकुछ . या शायद इतनी एक्टिव, मिलनसार, हंसमुख होने के कारण ही उसने सब अच्छे से सम्भाल लिया  वरना कोई  सरल सहमी सीधी सी लडकी होती तो बिखर ही जाती. पहली फुर्सत में ही प्रतिमा को कॉल करेगा  और फिर ढेर सारी बातें करेगा . उसने सोच तो लिया था  पर छुट्टी के दिन कुछ आराम में ,कुछ परिवार के साथ समय बिताने, कुछ बाहर जाने, कुछ मेहमानों की खातिर तवज्जो में याद ही नहीं पड़ा और कई महीने गुजर गए ,वो फोन करना भूल ही गया.
    पर आज टी वी पर बिलकुल प्रतिमा जैसी गोल चेहरे वाली गोरी सी कमर तक दो चोटी लटकाए एक लड़की को कूदते - फांदते, शरारतें करते देखा तो प्रतिमा की बेतरह याद हो आई । बिना एक पल गंवाए उसने प्रतिमा को फोन मिला दिया ।पर उसने फोन नहीं उठाया ।बाद में प्रतिमा ने कॉल बैक किया तो वो बाथरूम में था । उसने फिर से फोन किया पर पूरे रिंग के बाद फोन नहीं उठा ।पर उसे भी जैसे जिद हो आई थी ,आज प्रतिमा से बात करनी ही है । उसके बाद पांच पांच मिनट पर उसने कई बार फोन मिलाया पर प्रतिमा ने फ़ोन नहीं उठाया ।और जब काफी देर बाद प्रतिमा ने कॉल बैक किया तो वो गुस्से में फट पड़ा ,"कहाँ थी ? कब से फोन कर रहा हूँ ...फोन नहीं उठाया जाता "
    "शान्ति शान्ति अरे बाबा गुस्सा वैसा ही है,तुम्हारा  " प्रतिमा के ये कहने पर ध्यान आया कि वह पूरे तीस  साल बाद उस से बात कर रहा है । प्रतिमा ने कहा," मंदिर में थी न ,इसलिए फोन नहीं उठा पाई ।सिद्धिविनायक आई हुई हूँ न"
    "अरे तुम मुंबई में ..मेरे शहर में हो ...कब आई एक फोन भी नहीं किया ।"
    " वो  चेक अप के लिए आई थी...पर आज ही रात की वापसी है "
"चेक अप...कैसा,किसका  चेक अप
.अरे मुझे ही पांच साल पहले ब्रेस्ट कैंसर हो गया था. ऑपरेशन हो गया है , अब ठीक  हूँ .पर छः महीने में चेक अप के लिए आना पड़ता है. आज ही  रात की ट्रेन है,इसलिए फोन नहीं कर पाई,अगली बार पक्का बताउंगी "
 वो दुःख से भर उठा .विधाता ने  दो बच्चे सौंप कर पति छीन लिया , इतने से भी संतोष ना हुआ  तो  कैंसर की सौगात भी दे डाली .कोई अगर बर्दाश्त करने में सक्षम है तो उसे दुःख पर दुःख दिए जाओ. किसी की जिंदादिली की ऐसी कठिन परीक्षा भी ली जाती है.
 अपराधबोध भी सताने लगा ,"प्रतिमा ने इतने उत्साह से फोन किया था पर उसने पलट कर एक बार भी फोन नहीं किया ,प्रतिमा ने सोचा होगा उसे बात चीत करने में कोई रुचि नहीं है ।
पर अब ज़रा भी समय नही गंवाना है. प्रशांत ने कहा "ठीक है रात की ट्रेन है न ...मैं अभी आता हूँ तुम्हे लेने ...रात को स्टेशन छोड़ दूंगा ।चिंता मत करो ।"
    "तुम आओगे, फिर लेकर जाओगे सारा समय तो आने जाने में ही चला जायेगा ...हम ही आ जाएंगे लोकल से "
    "ठीक है साथ में कौन है उसे फोन दो मैं रास्ता समझा देता हूँ "
    "अरे मैं अकेले ही आई हूँ । पांच साल से आ रही हूँ, कई महीने रही हूँ. मुम्बई पूरा जाना -पहचाना है . वैसे भी कौन खाली है ,सब अपने काम में बिज़ी हैं । किसी को परेशान भी क्यूँ करें. हमको ही बताओ ,हम आ जायेंगे ।"
उसने सोचा ,प्रतिमा तो शुरू की स्मार्ट है ।यहाँ सालों से रहने वाले भी लोकल से अकेले सफ़र करने की हिम्मत नहीं कर पाते और ये बाहर की लड़की 'और फिर हंस दिया.. "लड़की??" ...उसकी बेटी की शादी हो चुकी है ।उसने प्रतिमा को समझाया कि अमुक स्टेशन पर वेस्ट साइड में आकर खड़ी रहे ।वो लेने आ जाएगा ।
स्टेशन पहुँच वो इधर उधर देख रहा था ।इतने चेहरों की भीड़ में उस चेहरे को ढूंढें भी कैसे जिसकी अब उसे पहचान भी नहीं ।तभी दाहिनी तरफ से एक आवाज़ आई," परसांssत..." मुड़ कर देखा ,"अरे तो ये है प्रतिमा ।वक़्त की मार से प्रतिमा का गोरा रंग कुम्हला गया था ।कमर तक लटकती काली चोटियों की जगह अब कंधे तक कच्चे पक्के बाल एक क्लिप में बंधे थे ।पतली छरहरी देह थोड़ी फ़ैल गई थी .
उसे अपनी तरफ देखते पा कर प्रतिमा पास आ गई ,बोली, "हम तो पहचान ही नहीं पाते पर तुम अब बिलकुल वैसे ही दिखते हो, तब जैसे चचा दिखते थे .पर चचा तुमसे पतले थे " और फिर हंस कर बोली ,"कितना मोटा गए हो "
 चश्मे के पीछे से झांकती प्रतिमा की आँखों की चमक और शरारती हंसी वैसी ही थी ।उसके हाथ से उसका बैग लेते हुए उसने भी हंस कर कहा ,"और तुम नहीं मोटाई . ,एकदम बुढ़िया लगने लगी हो ।"
    "बुढ़िया कहेगा ,मुझे ..."प्रतिमा ने उसे जोर की कोहनी मारी और दोनों के बीच से बीच के वर्ष छलांग लगा, कहीं बिला गए  । दोनों स्कूली बच्चे से ठठा कर हंस पड़े ।




15 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दिनों बाद कहानी लिखी आपने और बहुत अच्छी..बचपन में कितनी यादें होती हैं लगता है सब भूल गए पर कोई बचपन का साथी मिल जाए तो सारी बातें आँखों के सामने आ जाती है।प्रतिमा की ज़िंदादिली दिल को छूती है।

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  2. बचपन की ओर लौटा ले जाने वाली प्यारी सी कहानी है परतिमा। जो कहानी पढ़ेगा, वो एक बारगी अपने बचपन में ज़रूर पहुँच जायेगा। बचपन के रिश्ते इतने ही मजबूत और निश्छल होते हैं। बढ़िया कहानी। बधाई।

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  3. वक़्त कहीं थमा हुआ सा खड़ा रहता है न ,यह कहानी पढ़ कर यही एहसास हुआ ,बेहतरीन कहानी लगी ,कुछ चीजे बचपन की वाकई नहीं बदलती है मौका पाते ही फिर से दिल में गुनगुन करने लगती है

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  4. Bachpan ki yaad dilati hai ye story ...wo pitto ,chhupanchhupai,denga pani kona koni ye sab khelte time life kitni bekhabar hoti hai naa ...hamare grp me v ek ladka hua karta tha beimani karne me sabse aage ...aksar isi baat pe hamari ladai v ho jati thi ..par ek dusre k bina khelte v Nahi the ....ab pata nhi kaha hai wo beiman :D par bachpan ki yadein sabse pyari hoti hai ...very lovely story written by u .....

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  5. Kya gajab ka likhti hai Aap..Sach me bachpan yaad dila diya...pitto, kancha khelna , patang urana aur na Jane Kitne games the...picnic ka to maja hi kuch aur tha...pura bachpan hi lauta diya Aapne...bina tv aur mobile phone ke hum jyada Khus the...humare bachhe Sach me ye Choti Choti khusiyan miss karte hai..parhte parhte emotional ho gayi mai

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  6. बहुत प्यारी कहानी!आपके लिखे की फैन हूँ!😊

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  7. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-03-2017) को
    "खिलते हैं फूल रेगिस्तान में" (चर्चा अंक-2602)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  8. बचपन की यादों को ताज़ा करती बहुत रोचक कहानी...

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  9. बचपन का बहुत हसीन दर्पण । बधाई

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  10. हर किसी के पास एक अतीत होता है और ऐसी ही कुछ कहानियाँ... पता नहीं मुझे हर कहानी अपनी सी क्यूँ लगती है जैसे घटी हो कहीं आस पास....

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  11. बचपन की याद दिला दी दीदी आपने,,,,, बचपन की वो शरारतें , अल्हड़ता समय के साथ जिम्मेदारियों में बदल जाती हैं लेकिन वहीं जब बचपन के साथी मिल जाएं तो वही बचपन फिर वापस आ जाता है। रोचक कहानी दी,,,,।

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