गुरुवार, 2 मार्च 2017

'काँच के शामियाने' पर स्वाति सक्सेना की टिप्पणी


 पाठक कभी कभी निशब्द कर देते हैं ।स्वाति सक्सेना है, 'काँच के शामियाने' पढ़ने के बाद उन्हें अपने स्त्री होने पर गर्व  हुआ कि एक स्त्री में ही इतनी जीवटता होती है कि सारी मुश्किलों का सामना करके भी वह अपने बच्चों का जीवन संवार देती है "
बहुत बहुत आभार स्वाति :)
 
"काँच के शामियाने"
बहुत इंतज़ार के बाद, 'काँच के शामियाने' मिली ।किसी वजह से दो दिनों तक नहीं पढ़ पाई ।आज दिन में दो बजे मैंने पढ़ना शुरू किया और इस वक्त रात के बारह बज रहे हैं, जब मैंने किताब खत्म की ।जब तक किताब पूरी नहीं हुई, मन ही नहीं हुआ कुछ करने का ।इवनिंग वाक पर गई और सिर्फ पाँच मिनट में वापस आकर किताब पढ़नी शुरू कर दी ।
किताब पढ़ते हुए शुरू में लगा, जया ये सब क्यों झेल रही है। वापस अपनेे घर चली क्यों नहीं जाती ,फिर बाद में लगा ,शायद इतना आसान भी नहीं सब कुछ छोड़ देना।कोई भी स्त्री पहले अपनी पूरी कोशिश लगा देती है, चीज़ों को ठीक करने के लिए।
पर जब बाद में उसने घर छोड़ दिया और खुद अपने पैरों पर खड़े होकर बच्चों को पाला तो लगा,उसने अब सही किया।
आपकी इस कहानी में मैंने समाज के दो रूप देखे। एक वो जो समाज पुरुष प्रधान है।,जिसमें नारी को सिर्फ घर गृहस्थी और बच्चों को सम्भालना चाहिए और त्याग की मूर्ति बनकर सारे दुःख सहन करने चाहिए ।क्योंकि उस समाज में औरत का जनम ही त्याग करने और सहने के लिए हुआ है ।
दूसरी तरफ समाज में दकियानूसी विचारों को बेधती हुई एक सोच भी है, जिसने समाज के दूसरे पहलू के दर्शन करा दिए ,जिसमें औरत अबला नहीं है।उसमें सहन करने की शक्ति है तो अपने अधिकारों के लिए लड़ने की ताकत भी है । वो कमजोर नहीं है, उसे कमजोर समझने की गलती करना एक भूल होगी ।
आपकी कहानी पढ़कर अपने औरत होने पर गर्व महसूस हुआ कि एक औरत ही इतना कुछ झेलकर भी अपना और अपने बच्चे का जीवन बना सकती है ।
मेरी शुभकामनाएँ, आपके साथ हैं ।आप इसी तरह अच्छा लिखती रहें ।
धन्यवाद
स्वाति सक्सेना ।

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