सोमवार, 4 जुलाई 2016

"कांच के शामियाने" पर नीलिमा शर्मा जी के विचार



नीलिमा शर्मा जी आपका बहुत शुक्रिया आपने उपन्यास पढ़ा और अपने विचार भी रखे .परन्तु पहले अपनी आँखों का अच्छी तरह ख्याल रखिये ...किताबें तो हमेशा रहने वाली हैं .

नीलिमा जी ने एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाया है, " क्या ऐसी महिलाओं का संघर्ष हमेशा सफल होता ?? उनके बच्चे हमेशा उनकी कदर करते ? "
बहुत दुःख होता है ये कहते कि अक्सर ऐसा नहीं होता. बच्चे माँ को जली कटी सुनते देख, प्रताड़ित होते देख सहानुभूति तो रखते हैं पर अक्सर वे भी माँ का दिल दुखा जाते हैं. नाराज़ होने पर, परेशान होने पर वे भी माँ को ही चार बात सुना जाते हैं क्यूंकि वे माँ को सब कुछ सहन करते देखते आये हैं तो उन्हें लगता है...माँ है ही सहने के लिए और माँ का सारा संघर्ष, त्याग व्यर्थ चला जाता है .

                                                    "कांच के शामियाने" 
 
काफी समय से इस उपन्यास के बारे में फेसबुक पर पढ़ रहीथी |
और एकदिन उपासना के कहने पर मैंने COD मंगवा ही लिया | उपन्यास पढना हो तो काफी समय की जरुरत होती हैं समय निकालना ही मुश्किल होता हैं समय का न होना एक बहाना होता हैं सबके पास |

एक सप्ताह उपन्यास साइड टेबल पर रहा | एक दोपहर ऐसे ही कुछ पन्ने पलटे तो जया के कुछ संवाद पढ़े | और उपन्यास ने खुद मेरे को पढने के लिय उत्प्रेरित कर किया | मैंने पढना शुरू किया तो पन्ना दर पन्ना पढ़ती गयी | लाइट चली गयी तब भी कांच के शामियाने मेरे हाथ में रही | इन्वर्टर भी अंतिम सांसे लेने लगा \( गलती से चार्जिंग ऑफ हो गयी होगी ) और मैं हाथ से पंखा झलती हुयी नावेल पढ़ती रही | कहानी में लगातार रोचकता बनी रही |प्रवाहमयी कथानक एक पल को को बोझिल नही लगा | कभी भोजपुरी भाषा से सम्पर्क नही रहा लेकिन यहाँ सब संवाद समझ आ रहे थे |

नायिका के सपने , पिता से लगाव , बहनों जीजाओ का स्नेह , माँ का आत्मिक प्रेम सब अपना सा लगा | क्षेत्र कोई भी हो भावनायें वही रहती हैं | राजीव का चरित्र बहुत अच्छे से सामने आया हैं आपके शब्दों द्वारा |एक पाठक होने के नाते मैं सब चरित्रों के साथ सम्वेदानाताम्क रूप से जुड़ रही थी | हर दृश्य एक चलचित्र सा जैसे सामने घटित हो रहा था | मुखोटे पहने सब चरित्रों की कलई खोलते शब्द, शब्द ना होकर तस्वीर बन जाते हैं | संघर्ष नियति हैं | "बिना खुद मरे स्वर्ग नही पा सकते हो", अक्सर मेरी माँ कहा करती थी और "दिल जलाने से अच्छा होता हैं अपने पाँव जलाओ और सिध्ह करो सब कारज |"

आज माँ ज़िंदा होती तो उनको सुनाती यह कथा | माँ के कहे मुहावरे उनकी देशज भाषा में नही कह पायी हूँ लेकिन भोजपुरी के सब देशज मुहावरे और संवादों से खुद को अवश्य जोड़ पायी हूँ | राजीव का चरित्र हो या अमित का , सास ससुर का हो या माँ का कोई भी अपने होने को फ़िज़ूल नही ठहराता हैं सब अपने अपने स्थान पर जया के चरित्र को उभार रहे हैं |भाषा शैली अच्छी लगी |

रश्मि जी लेकिन क्या ऐसी महिलाओं का संघर्ष हमेशा सफल होता ?? उनके बच्चे हमेशा उनकी कदर करते ? वास्तविक जिन्दगी में लोग प्रैक्टिकल सोच रखते आज के बच्चे भी अपवाद नही | कुल मिलकर एक ही सिटींग में उपन्यास एक लम्बे अरसे के बाद पढ़ा वो भी आँखे दर्द ( अभी लैज़र सर्जरी करवाई थी) होने के बावजूद | बहुत डांट भी खायी अपने पति से लेकिन उपन्यास पढने के बाद उनसे और प्यार हो गया | इश्वर से शुक्र मनाया कि हमारी जिन्दगी में राजीव जैसा या अमित जैसा पुरुष नही | आपने देखा अपने उपन्यास का असर मेरी जिन्दगी की जगह भोजपुरी हम लिख गयी मैं :D |
.बहुत बहुत शुभकामनाये |

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