पहले मुझे लगा यह विषय बहुत ही पुरातनपंथी सा है . वर्तमान युग में लोगों की ऐसी सोच नहीं हो सकती परन्तु पिछली पोस्ट पर आयी टिपण्णी देख लगा,अब भी कई लोग यही सोचते है कि स्त्रियों का श्रृंगार सिर्फ पुरुषों को आकृष्ट करने के लिए या उनके लिए ही होता है . उन टिप्पणीकर्ता का कहना था ,"आप भी सोचिये.... स्त्रियाँ क्यों सजती है, संवरती है , क्यों आकर्षक दिखने का प्रयत्न करती है .. एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिये जहाँ सिर्फ स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ हो , कोई पुरुष नहीं दूर दूर तक नहीं .. क्या स्त्रियाँ वैसे ही सजेगी , वैसे ही संवरेंगी " मैंने उन्हें विस्तार से जबाब दे दिया था और इस विषय को वहीँ छोड़ दिया था . पर अभी हाल में ही एक शादी में सम्मिलित होने का मौक़ा मिला . शादी की रस्मों में एक रस्म वर-वधू द्वारा सात वचन लेने की रस्म भी होती है . वहाँ पंडित जी ,एक वचन का बड़े विस्तार से वर्णन कर रहे थे , " पति ही पत्नी का श्रृंगार है, अगर वह दूर देश जायेगा तो वचन लो कि तुम श्रृंगार नहीं करोगी क्यूंकि तुम्हारा श्रृंगार अब सिर्फ पति के लिए है "
पास बैठी एक सहेली ने बताया कि उसके एक परिचित की मृत्यु हो गयी थी उनके श्राद्ध में भी पंडित जी उनकी पत्नी को यही सब कह रहे थे , "तुम्हारा श्रृंगार चला गया , तुम्हे अब बिलकुल सादगी से रहना होगा, सादा जीवन बिताना होगा...तुमने पिछले जनम में न जाने कैसे पाप किये हैं कि यह दिन देखना पड़ा..आदि अदि " उसकी छोटी सी बच्ची माँ के पास बैठी सब सुन रही थी .
घर के बहुत लोगों को ये सब सुन कर बहुत बुरा लगा होगा, पर माहौल कुछ ऐसा होगा कि पंडित को किसी को टोकते नहीं बना होगा.
कई समारोह -पूजा में शामिल होने का मौक़ा मिला है और मैंने अक्सर देखा है कि सारे लोग पंडित जी की बात ध्यान से सुनते हैं और शायद खुद को केंद्र में पाकर अधिकाँश पंडित जी लोगों की वाक्यचातुरता भी बढ़ जाती है .वे अपने तरीके से रस्मों की वृहद व्याख्या करने में लग जाते हैं .
पर लोगों की मानसिकता भी ऎसी ही है . हमारे शेरो-शायरी, कविता ,गीत में भी इस बात का बहुत ही प्रचार किया गया है, "सजना है मुझे सजना के लिए..." जैसे गाने सबकी जुबान पर होते हैं . वैसे इन सबमें में आंशिक सत्यता भी है. जब प्यार में हो तो एक दूजे के लिए सजना-संवारना अच्छा ही लगेगा . पर यह बात दोनों पक्षों पर लागू होती है. कोई लड़का भी लड़की से मिलने जाएगा तो गन्दी सी शर्ट ,उलझे बाल और टूटे चप्पल में नहीं ही जाएगा . जब ये ख्याल रहे कि कोई नोटिस करने वाला है...ध्यान देने वाला है तो अपने आप ही सजने संवरने का ध्यान आ ही जाता है.(प्रसंगवश एक बात याद आ गयी, एक सहेली अपने बेटे के विषय में बता रही थी कि उसने अपनी पसंद की लड़की से शादी करने का प्लान किया है . फ्रेंड हँसते हुए बता रही थी कि "अब तू उसे देखना बहुत स्मार्ट हो गया है, जबसे गर्लफ्रेंड आयी है, अपने कपड़ों का ध्यान रखने लगा है...पहले तो कुछ भी पहन लेता था :)}
पर ये कहना या सोचना कि लडकिया/स्त्रियाँ सिर्फ पुरुषों के लिए या पति के लिए ही सजती संवरती हैं ,बिलकुल गलत है . यूँ भी लड़कियों की प्रकृति ही होती है श्रृंगार की . वो जंगल में अकेले भी रहेगी तो एक फूल तोड़ कर बालों में लगा लेगी . प्रसिद्द लेखिका ,'शिवानी' का एक संस्मरण पढ़ा था जो उनके 'जेल के महिला सेल' के दौरे पर था .उन्होंने लिखा था जेल में महिलाओं के लिए कोई आईना नहीं था . लेकिन हर महिला के बाल संवरे हुए थे . जली हुई लकड़ी के कालिख से छोटी सी काली बिंदी लगी हुई थी माथे पर . एक बार शिवानी ने देखा, थाली में पानी भरा हुआ था और उसमें अपना प्रतिबिम्ब देख एक महिला कैदी अपनी बिंदी ठीक कर रही थी. अब जेल में कौन से पुरुष थे जिनके लिए ये महिलायें अपना रूप संवार रही थीं ??
और ऐसा सिर्फ आज के जमाने में नहीं है कि लडकियां ,घर से बाहर निकल रही हैं ,नौकरी कर रही हैं तो उन्हें खुद का ख्याल रखना पड़ता है ,सजना पड़ता है.,स्मार्ट दिखना पड़ता है. पहले जमाने में भी लड़कियों/औरतों का पुरुषों से मिलना-जुलना नहीं बराबर था फिर भी वे खूब सजती-संवरती थीं . गाँव में झुण्ड में मंदिर जातीं, शादी-ब्याह में चटख रंगों के कपडे पहने, जेवर से लदी, टिकुली, सिन्दूर, आलता लगाए औरतें क्या पुरुषों को दिखाने/रिझाने के लिए तैयार होती थीं ?? पता नहीं ,इस बात का उद्भव कहाँ से हुआ कि स्त्रियाँ पुरुषों के लिए श्रृंगार करती हैं . स्त्रियाँ श्रृंगार जरूर करती हैं , उन्हें सजने संवरने ,ख़ूबसूरत दिखने का शौक भी होता है, पर यह उनकी प्रकृति में ही है .
शादी की रस्मों का जिक्र हुआ है तो एक रस्म जो मुझे बहुत नागवार गुजरती है . वैसे बहुत सारे रस्मों के अर्थ अब समझ में नहीं आते और वे प्रासंगिक भी नहीं लगते . पर सदियों से ये रस्म वैसे ही चले आ रहे हैं . उनके अर्थ भी लोगों को नहीं मालूम पर पूरी निष्ठा से निभाये जाते हैं . एक रस्म जिसे मुझे लगता है कि अब दूल्हे बने लड़कों को इस रस्म से मना कर देना चाहिए ,वो है...द्वाराचार के समय वधू के पिता द्वारा एक बड़ी सी परात (पीतल की थाली ) में वर के पैर धोना. आपसे दुगुनी उम्र का व्यक्ति जिसे अब आप पिता कहने वाले हैं , उनके सामने आप पैर बढ़ा देते हैं और वह आपके पैरों को धोकर उनकी पूजा करता है .और आपको असहज नहीं लगता ?? हमारे यहाँ कहावत भी है .."पैर धोकर ऐसा दामाद उतारे हैं " पर मेरा ख्याल है, ये रस्म अब नहीं करनी चाहिए ,ठीक है आप टीका लगाकर स्वागत करें, फूल-माला भी पहना दें पर पैर धोना ??
बड़े बूढ़े इस रस्म को निभाने पर जरूर जोर देंगे ,हो सकता है ,पिता-मामा-चाचा-फूफा से दुल्हे राम को डांट भी पड़ जाए पर किसी एक को तो आवाज़ उठानी पड़ेगी . किसी को तो इस रस्म से मना करना पड़ेगा. दुल्हे के तो यूँ भी सौ नखरे उठाये जाते हैं . उसका कहा तो मानना ही पड़ेगा . अब देखना है ,ऐसी किस यू.पी. बिहार की शादी में शामिल होने का मौक़ा मिलता है, जहाँ दूल्हे जी अपने पितातुल्य बुजुर्ग से अपने पैर न धुलवाएँ . मेरे ब्लॉग के बैचलर ,युवा पाठक ..आपलोग पढ़ रहे हैं न ??
we all want others to follow the new rules saying they are from new gen or gen next but at one point of time we all from new gen , first of all we need to reform our own self
ReplyDeleteI endorse !
Deleteसहमत हूँ आपसे . . . महत्वपूर्ण लेख !!
ReplyDeleteमैनें तो आजतक पत्नी को भी मेरे पैरों को छूने नहीं दिया है। शादी के तुरंत बाद एक रस्म हुई थी ससुराल में जिसमें वहां की एक काम वाली "नाईन" ने मेरे पैरों को धोया था। उनकी उम्र देखकर मेरे पैरों को हाथ लगाना मुझे आजतक शर्मिंदा कर देता है। थोडा विरोध भी किया, लेकिन बुजुर्ग ससुरालियों के सामने नहीं चली।
ReplyDeleteप्रणाम
मेरे को तो कई रस्में आज के समय अनुसार उचित नहीं लगतीं और इनका विरोध होना ही चाहिए ... मेरा तो मानना ये भी है की इसकी शुरुआत लड़के को ही करनी चाहिए क्योंकि आज भी हमारा समाज पुरुष समाज ही ज्यादा है और उन्हें ही आगे आना चाहिए ...
ReplyDeleteहमारे यहाँ तो नहीं धोये जाते, कबकी बंद हुयी ये रस्म... जाने किसने आवाज़ उठाई हो...
ReplyDeleteदीदी, मैंने अपने यहाँ कभी बारात आती नहीं देखी अब तक... अब दूर-दूर तक कोई बहन ही नहीं तो देखें कहाँ से.... हाँ अपने भाइयों की शादियों में ऐसी रस्म नहीं हुयी थी ये याद है अच्छे से....
वैसे बारात निकलने से पहले दूल्हा अपने मुंह से आम के पत्ते का डंठल काटता है और उसकी माँ को उन झूठे ठंठलों को खाना पड़ता है.... ये रसम बहुत अजीब लगी थी.... सोच कर रखा है कि ये रस्म नहीं होने दूँगा चाहे जो हो जाये...
वैसे आपकी बात से सहमत हूँ कि शादियों में दूल्हा-दुल्हन के साथ साथ उनके माता-पिता भी ऐसे धुन में रहते हैं कि आस-पास वाले जो भी रस्म याद दिलाते जाएँ वो होती रहती है... कोई मैनिफेस्टो तो बंता नहीं, जिस भी रिश्तेदार को जो रस्म याद आ गयी, करवा दिया....
हाँ , बुरा तो लगता है | इसे खत्म करना होगा | अपने बच्चों के विवाह से ही इस पर पहल करनी होगी ,हम लोगों को |
ReplyDeleteसोचने वाली बातें हैं सारी.... पहल हमें ही करनी होगी ...
ReplyDeleteदामाद और बेटी के पैरो को धोने की परम्परा हमारे यहाँ यानि मालवा में भी है और इस परम्परा में न केवल दुल्हन के माता-पिता वरन दुल्हन पक्ष के सभी लोग पैरो को धो कर भेंट देते है जिसे कन्यादान कहा जाता है. और ननिहाल पक्ष के लिए तो कन्यादान स्वर्ग की प्राप्ति जैसा हो जाता है.
ReplyDeleteसही है , शुरुआत खुद से ही होनी चाहिये .
ReplyDeleteइतनी 'बोकवास' रस्म का अंत होना ही चाहिए :)
ReplyDeleteवैसे मेरे घर में ये रस्म नहीं हुई क्योंकि 'मोका' ही नहीं मिला न !
लेकिन सोच रही हूँ, अगर ऐसा होता तो, 'मेरे इनके' पाँव, मेरे बाबा छूते, क्यों भला ? अब इतनी भी अच्छी शक्ल नहीं है इनकी :)
ये तो हुई मजाक की बात, लेकिन ये रस्म वाक़ई किसी भी हिसाब से सही नहीं है, बड़े-बुजुर्गों से अपने पाँव छुवाना ? अब इतनी तो अक्ल लड़कों में खुद ही होनी चाहिए कि वो खुद मना करें, अब हर बात उनको बतानी पड़ेगी क्या ? मेरी सास मेरी पाँव छुवे क्या मेरे पतिदेव बर्दाश्त कर लेंगे, नहीं न ?? तो फिर ?? अब ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम अपने घरों से इस वाहियात रस्म को ख़तम करने की शुरुआत करें । मेरे बेटे की शादी में ये रस्म पूरी तरह से बॉयकाट होगा, पक्की बात है ।
सुन्दर दिखना मानव की प्राकृतिक या नैसर्गिक अभिलाषा है, बस कुछ लोग इसके लिए अधिक प्रयास करते हैं , इनमे बड़ी संख्या स्त्रियों की है और उन्हें सूट भी करता है तो परेशानी क्या है :)
ReplyDeleteससुर द्वारा दामाद के पैर धोना नागवार गुजरता ही है , मैं भी सोचती थी कि अपने पिता को नहीं करने दूंगी ऐसा ! अब सोचती हूँ कि अपने पति को भी मना करुँगी मगर वे स्वयं ही उद्यत हुए तो। …?
यूँ नवरत्रि में कन्याओं के पैर भी धोते है बड़े -बुजुर्ग !!
बड़े सदा ही बड़े रहें, मर्यादायें अपना अर्थ अनर्थ न कर बैठें।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की 750 वीं बुलेटिन 750 वीं ब्लॉग बुलेटिन - 1949, 1984 और 2014 मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteपूर्णतया सहमत !!
ReplyDeleteशेर शेरनी या मोर मोरनी कौदाहरण काफी होगा पोस्ट के पूर्वार्ध के लिए। वैसे 50 साल पुरानी मदर इण्डिया या अब के दौर की दीवार में नरगिस और निरूपा रॉय को भी बिंदी लगाते दिखाया गया है एक प्रतीक के तौर पर।
ReplyDeleteबुजुर्गों से पैर धुलवाने या प्रणाम करवाने की रस्म अब सिर्फ फिल्मों में ही होती होगी।
@बुजुर्गों से पैर धुलवाने या प्रणाम करवाने की रस्म अब सिर्फ फिल्मों में ही होती होगी।
Deleteआज भी कई विवाह-समारोह में ये रस्म देखने को मिल जाती है...सिर्फ फिल्मों में ही होती तब इस पर कुछ लिखने की आवश्यकता ही नहीं थी.
:) मैं जानता था!!
Delete:)
Deleteमैं जानता था!!
???
Deleteसलिल भईया की बात मानें तो मेरा पूरा परिवार ही फ़िल्मी है, काहे से कि हमरे बच्चे सारे बड़ों के पैर छूते हैं :)
Deleteपरीक्षा देने जाते हैं तो हमारा पैर छूटे हैं काहे से कि हम साक्षात सामने होते हैं और अपनी नानी को फ़ोन करके पैर छू लेते हैं :)
मेरा छोटा बेटा अमेरिका से जब भी आता है एयर पोर्ट पर ही पैर छूता है, फ़िल्मी इश्टाईल में :)
रस्में समाज व देशकाल के अनुसार ही तय होतीं हैं । उनकी प्रासंगकिता भी होती है । समय के साथ वे खत्म भी होजातीं हैं । पर्दा प्रथा ,बालविवाह ,विधवाओं की हीनावस्था अब अधिकांशतः समाप्तप्रायःहै और यह सचमुच बहुत ही सुखद है ।
ReplyDeleteसच कहा आपने , ऐसी रस्में शर्मनाक हैं और पुरुष के अहम् को ही बढ़ाने वाली हैं ...हम लोगों में ऐसी कोई रस्म नहीं होती ...श्रृंगार में तो ये लुभावना सा रिश्ता बोलता है ...ये प्यार तो दोनों तरफ होता है ...आकर्षण दोनों तरफ होता है ...नारी के बिना क्या पुरुष के जीवन में किसी रंग का कोई महत्व है ...दोनों एक दूसरे के बिन अधूरे हैं ...
ReplyDeleteअसुंदर दिखकर दुसरों को दुखी करने से अच्छा है जितना संभव हो सुंदर दिखने का प्रयास किया जाय। सुंदर दिखने, सजने-संवरने के मामले में लड़के थोड़े लापरवाह तो होते ही हैं। लड़कों की किस्मत अच्छी है कि लड़कियाँ लापरवाह नहीं होतीं। अब लड़के भी समझदार हो रहे हैं। लड़कियों का ध्यान रख रहे हैं। :)
ReplyDeleteबेकार की वाहियात रस्में हैं। इसका विरोध मैने तो अपने समय में ही कर दिया था। यह पहल लड़कों को ही करना पड़ेगा। अब उन्हें उतना कष्ट नहीं होगा जितना हमें हुआ था। अब समाज नई सोच का आदर करना भी सीख चुका है।
Badlav ham or aap ko hi lana hoga
ReplyDeletekya is badlav ke liye aap sabhi ready hai
आपसे सहमत श्रंगार सिर्फ पुरुषो के लिए नहीं होता अपने आप को सामने वालो के लिए प्रस्तुत करने के लिए होता है अपना प्रभाव जमाने के लिए होता है जब महिलाये कोई महिला संगीत (जो कि अब संगीत संध्या बन चूका है )या महिलाओ के कार्यक्रम में जाती है जहाँ दूर दूर तक कोई पुरुष नहीं होते वह भी महिला सजकर ही जाती है। पांव धुलाने कि रस्म के पीछे क्या अर्थ है ?थोडा पूछ परख के बताउंगी।
ReplyDeleteये पुरुषों का झूठा शगल मात्र है कि स्त्रियां केवल पुरुषों के लिये सजती हैं. हर व्यक्ति खुद के लिये सजता-संवरता है. सलीके से रहना किसी व्यक्ति विशेष के लिये नहीं, वरन खुद का आभिजात्य होता है ये. प्राचीन ग्रंथों में पुरुषों ने महिलाओं को पूरी तरह आश्रित करने के लिये उनका श्रृंगार पति के साथ जोड़ दिया. लेकिन अब स्वर्ग सिधारे पति देखते होंगे, कि उनकी पत्नियां आज भी सलीके से रह रही हैं.
ReplyDeleteहां, पैर पूजने की रस्म बंद होनी चाहिये एकदम.
लडके बहुत से मना भी कर देते हैं पर देखना यह है कि लड़कियाँ क्या करती हैं।पहले तो उन्हें ही आपत्ति होनी चाहिए ऐसी घटिया रस्म पर ।
ReplyDeleteसच मे मेरी शादी में भी मुझे ये रस्म बड़ी ही अचरज भरी लगी और मैने पंडित जी से कहाँ भी ऐसा नही होना चाहिए तो उन्होंने रीतिरिवाज का हवाला देकर टाल दिया और में कुछ न कर सका।
ReplyDeleteलेकिन अब जब भी किसी शादी में रहूँगा ओर मेरा बस चलेगा तो में ऐसा नही होने दूंगा।