अभी मध्यप्रदेश में भगदड़ में 115 लोगों की मौत हुई. कितने पुरुष और कितनी स्त्रियाँ इस हादसे की शिकार हुईं...सही आंकड़े तो मुझे नहीं पता पर टी.वी. पर ब्लर्ड तस्वीरों में भी लाल -पीले -हरे रंग ही ज्यादा दिख रहे थे. जाहिर हैं महिलाओं की साड़ियों के रंग थे . भगदड़ में वैसे भी महिलायें और बच्चे ही ज्यादा हताहत होते हैं. शारीरिक रूप से वे लोग ज्यादा कमजोर होते हैं .पर एक सच यह भी है देवी दर्शन के लिए जाने वालों में महिलाओं की संख्या ही ज्यादा होती है.
कहीं भी देवी दर्शन हो, पूजा हो ..माता की चौकी हो...महिलायें ही अधिक संख्या में शामिल होती है . इन तथाकथित गुरुओं के यहाँ जाने वालों में भी महिलायें ही ज्यादा होती हैं. जब आसाराम काण्ड ,प्रकाश में आया तो कई जगह पढने को मिला, उनके प्रवचनों में महिलायें ही अधिक संख्या में उपस्थित होती थीं . ये सवाल भी उठाये जाते हैं, स्त्रियों के साथ शोषण भी होता है और फिर भी बेवकूफ की तरह स्त्रियाँ ही सैकड़ों की संख्या में उनके भक्तों में शामिल होती हैं.
गाँव-क़स्बों में औरतें जिन दयनीय हालात में जी रही होती हैं कहीं न
कहीं उनका कारण भी वह नसीब या पिछले जन्म को मानने लगती हैं और धार्मिक
अंधविश्वासों की चपेट में आकर अपने वर्तमान और अगले जन्म की तकलीफों को दूर
करने के फेर में पड़ जाती हैं . उन्हें अपने दुखों से छुटकारे का दूसरा उपाय
नज़र नहीं आता. वे करुणा से इतनी भरी होती हैं कि ईश्वर से
अपने पति और बच्चों के बुखार तक को ठीक करने की खातिर जाने कितने कर्मकाण्ड
करने को तैयार रहती हैं, जबकि खुद को कैंसर भी हो तो यूँ ही मजाक में उड़ा
देती हैं.
जिस घर में जितनी अधिक समस्या, वहां की अशिक्षित या अल्पशिक्षित महिलायें
उतनी ही अधिक धर्म के नाम पर अंधविश्वास की तरफ़ झुकी होती हैं, ज़रा किसी
को कुछ हुआ नहीं कि थैलाछाप या छुटभैये देवी देवताओं से लेकर बालाजी और
केदारनाथ तक के देवताओं से मनौतियाँ मांगने लगती हैं .
इन सबकी वजह अशिक्षा ,तार्किक बुद्धि का अभाव , धार्मिक आस्था तो है ही. इसके साथ ही उनकी दैनंदिन की एकरसता भी एक वजह है. ज्यादातर मध्यमवर्गीय स्त्रियाँ नौकरीपेशा नहीं हैं और बचपन से वे वही काम कर रही हैं,घर संभालना...खाना बनाना , घर के सदस्यों की देखभाल . उनके जीवन में गहन नीरसता व्याप्त हो जाती है. हमारे यहाँ कभी भी मनोरंजन के लिए जीवन में कोई स्थान नहीं होता. आजकल टी.वी. आया है...पर वो भी तो घर के अन्दर ही देख सकती हैं . घर से बाहर जरा अच्छे कपडे पहन कर ,तैयार होकर निकलें ऐसा मौक़ा बहुत कम मिलता है. पिकनिक, पार्टियों का कोई प्रचलन नहीं है. गरीबी तो एक वजह है ही. पर हमारे कल्चर में भी यह शामिल नहीं है. जब दूसरे देशों का साहित्य पढ़ती हूँ तो पाती हूँ, वहाँ गाँव-गाँव में भी हॉल बने होते हैं, जहां सप्ताहांत में या महीने में एकाध बार ,स्त्री पुरुष मिलजुलकर गाते -बजाते -नाचते हैं .और उसके बाद रिफ्रेश होकर फिर से अपने रूटीन काम में लग जाते हैं.
इन सबमें शामिल होने के लिए न तो घरवाले न ही रिश्तेदार उन्हें बातें सुनाते हैं. वरना यही महिलायें अगर फिल्म देखने ,पार्टी-पिकनिक के लिए जाने लगें तो उन्हें सौ बातें सुननी पड़ेंगीं .हमारे यहाँ भी दूसरे रूप में यह सब विद्यमान था . पहले गाँव -कस्बों में किसी की शादी की तैयारियां ही पंद्रह दिन चलती थीं. स्त्रियाँ अपने घर का काम ख़तम कर शादी ब्याह वाले घर में काम संभालतीं . मंगलगीत गाते हुए पापड, बड़ियाँ,अचार बनातीं ....हंसी-मजाक के साथ -साथ सिलाई -कढ़ाई का काम चलता रहता .ढोलक की थाप पर नाच-गाना होता था ,पर अब वे सब कहीं पीछे छूट गए हैं. संयुक्त परिवार से एकल परिवार होते जा रहे हैं. मनोरंजन के नाम पर बस एक टी.वी. का सहारा . पर उस से कितना मनोरंजन होता है, यह सबको ज्ञात है. बल्कि टी.वी. मोबाइल ने घर वालों की ही आपस में बातचीत बंद करवा कर रखी है. फिर रूटीन में थोड़े से बदलाव के लिए यही पूजा-पाठ ,धरम करम , माता की चौकी , गुरुओं के प्रवचन सुने जाते हैं.
अपना ही अनुभव बताती हूँ. मुझे फिल्मों का शौक है, यह तो मेरे ब्लॉग पोस्ट्स से ही ज्ञात होता है . सहेलियों के साथ फिल्मे देखने जाना .एक दुसरे के बर्थडे पर साथ मिलकर लंच के लिए जाना हमें अच्छा लगता है . हम सब FB पर अपनी आउटिंग की तस्वीरें भी डाला करते थे . मुझ सहित मेरी हर सहेली को रिश्तेदारों से सुनना पड़ा..."ये लोग तो मजे करती हैं...बस घूमती रहती हैं " इतनी दूर बैठे रिश्तेदारों को क्या पता कि हम घर की जिम्मेवारियों से मुहं घुमा कर या सारी जिम्मेवारियां पूरी कर के जाते हैं ?? पर उन्हें तो उंगलियाँ उठाने से मतलब . वैसे हमें परवाह नहीं होतीं, पर बेकार के व्यंग्य कौन सुने ,यह सोच हमने तस्वीरें डालनी ही बंद कर दीं . आज भी हमारे समाज में स्त्रियों का हँसना -बोलना, खुश रहना, घूमना-फिरना सहज स्वीकार्य नहीं है.
पर यही अगर तीर्थस्थान ,मंदिर, पूजा-पाठ के लिए स्त्रियाँ जाएँ तो लोग ऊँगली नहीं उठाएंगे . बल्कि शायद धरम-करम करने के लिए तारीफ़ ही मिले. इसलिए स्त्रियों को दोष देना कि वे बाबाओं के प्रवचन में जाती हैं...व्यर्थ के कर्मकांड करती हैं...फ़िज़ूल है. सारी स्त्रियों को अच्छी शिक्षा मिले , वे भी व्यस्त रहें , उन्हें भी मनोरंजन के मौके मिलते रहे तो इन सबमें ,उनका शामिल होना शायद कम हो जाए .
एक दम सोलह आने सच्ची बात कही रश्मि.....दरअसल खुश औरतें लोगों को सुहाती नहीं.....धीरे धीरे रेंग रेंग कर रोते रोते काम करने वाली बहुएँ अच्छी हैं और चटपट अपने काम निपटा कर मस्तियाने वाली बहुएँ "नामंजूर " !!!
जवाब देंहटाएंवैसे तुमने अपनी सखियों के साथ फोटो डालना बंद क्यूँ किया.....तानों से डरने वाली तुम तो नहीं ??? या शायद हम सभी तानों से डरते नहीं मगर बचना तो चाहते ही हैं !!!
हाँ असली मुद्दा तो रह गया कि औरतें ही ज्यादा धर्मांध होती हैं,शायद कोमल मन की होना इसकी एक वजह हो....पूरे घर की पूजा का भार इनके सर जो रहता है !!!
:-)
अनु
खग ही जाने खग की भाषा ..है न :)
हटाएंबड़े दिनों से लिखने का मन हो रहा था, बस लोग सवाल करते हैं...सोचते नहीं कि आखिर औरतें क्यूँ करती हैं ,इतना पूजा - पाठ ...क्यूँ जाती है प्रवचन सुनने .
और जहाँ तक फोटो डालने का सवाल है...हम कहाँ डरते हैं...हम तो दो तीन झूठ मूठ का भी खींच कर डाल दें अपनी...हा हा ..पर वो पंचों की राय थी :)
सही कहा तुमने भारत में मनोरंजन के साधन वैसे भी कम हैं, सच पूछा जाए तो हर व्यक्ति के लिए 'मनोरंजन; भी एक ज़रुरत है, इसके बारे में न सरकार ने कभी ध्यान दिया, न समाज ने और न ही परिवार ने सोचने की कोशिश की.। स्त्रियों की तो बात ही दूर है, उनके लिए तो मानो मरोरंजन के बारे में सोचना भी पाप है । यह बहुत बड़ा कारण है कि भारत की अधिकतर नारियाँ आये दिन नए-नए कर्म-काण्डों को अपना कर अपना दिल लगातीं हैं और यही कर्म-काण्ड धीरे-धीरे रस्मों में तब्दील हो जाते हैं.। गौर तलब बात ये हैं कि आजकल पहले की अपेक्षा ऐसे रीति-रिवाज़, रस्में ज्यादा देखने को मिल रहे हैं और इनको बनाने में महिलाओं का ही प्रमुख हाथ है.। कम पढ़ी-लिखी, गाँव, कस्बों में रहने वालियों के लिए गिने-चुने स्थान ही बचते हैं, या तो धार्मिक स्थल या फिर किसी ढोंगी बाबा का आश्रम, ऊपर से उनकी धर्मभीरुता भी उनको आर्थिक, शारीरिक, मानसिक रूप से शिकार बन जाने की ओर ले जाती है। उसपर समाज का स्त्रियों के प्रति जो रवैया है वो उनको चुप्पी साधने को विवश कर देता है.।
जवाब देंहटाएंएक सार्थक और ज्वलंत प्रकरण उठाया है तुमने। वेरी गुड :)
पोस्ट पर भारी है, आपकी टिपण्णी बहन जी
हटाएंथैंक्यू :)
ऐ लो, कहाँ तो इस पोस्ट के लिए हम अ-भारी हैं और तुम हमरी टिप्पणी को भारी कह रही हो :):)
हटाएंऔर हाँ फोटू-शोटू लगाना बंद मर करो मईडम, हमलोग तो ईंट का जवाब पत्थर से देने में यकीन करते हैं , बोले तो विडिओ डालना शुरू कर दो :):)
:):)
हटाएंNice suggestion from Manjusha ma'm .... :D start posting videos !! great !
हटाएंसहमत आपकी बात से .... एकदम सच है ये, आपका अवलोकन भी सटीक है ....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मोनिका जी
हटाएंआपने जो लिखा वो सोलाह आने सच्ची बात हैं मगर अपने यहाँ तो लोगों औरतों पर उंगली उठाने के लिए जैसे हमेशा मौके की तलाश ही रहा करती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है की लोग यह देखते रहते है कब कौन सी स्त्री ज्यादा खुश नज़र आरही है आखिर वह इतनी खुश है कैसे ?? ज़रूर कोई न कोई खास बात होगी :) जो उन से सहा नहीं जाता और फतबे कसना ताने मारना शुरू कर देते हैं। रही दरमिक स्थानो पर महिलाओं की मौजूदगी की ज्यादा संख्या वाली बात तो अगर मन न भी हो लोग ही मजबूर करते हैं ऐसे कामों में मन लगाने के लिए और जो न लगाए वो बुरी और भी न जाने क्या क्या ...
जवाब देंहटाएंसही लिखा है दी। हमारा ही उदाहरण है। मैं और शिल्पा अक्सर बाहर घूमने चलते जाते हैं तो उसे इधर-उधर से कमेंट्स सुनने को मिलते हैं कि बड़ा घूमती है शिल्पा। सो, करें तो करें क्या। मैं उसे कहता हूं, टेंशन क्या लेनी। हम घूमते रहेंगे और जिन्हें जो बोलना है बोलने दो। अपने आप वक्त के साथ चुप हो जाएंगे।
हटाएंसही कहा पल्लवी
हटाएंरवि, बिलकुल भी परवाह नहीं की जानी चाहिए बल्कि अपने से छोटों के लिए उदाहरण भी बन जाओगे तुमलोग.
हटाएंआत्मालोचन आप ही लोग करें और कोई निष्कर्ष निकाल कर हमें भी बतायें ! हम भी तो जाने ज़रा , भक्ति भाव में महिलाओं की विशेष रूचि के क्या कारण हो सकते हैं !
जवाब देंहटाएंएक बात ज़रूर कह सकते है कि टिप्पणी दर टिप्पणी आप सखियाँ कितना प्रेम / स्नेह उड़ेल देती हैं एक दूसरे पर ...थोडा बहुत स्नेह इधर भी छलकाया जाये वर्ना आप लोगों की पारस्परिकता से जलन सी होने लगी है :)
अली जी,
हटाएंआत्मालोचन क्यूँ, सिर्फ हमारी ही जिम्मेवारी थोड़े ही है, इसका विश्लेषण करने की. एक पर्यवेक्षक की दृष्टि से आपलोग भी मीमांसा कर सकते हैं. एक समाजशास्त्री होने के नाते आपके विचार ज्यादा ही महत्त्व रखेंगे .
और हमारे बहनापे से ज्यादा तो आप सबका भाईचारा है. वो अलग बात है, हमलोग बड़े दिलवाले हैं ...जलते नहीं :)
ये लो हमारी टिप्पणी अब तलक लाइन में लगी है ! उसका बेचारी का नंबर कब आएगा ?
जवाब देंहटाएंयह सही है कि अधिकांश स्त्रियाँ दैनिक जीवन की एकरसता से उब कर ही देवी देवता की शरण में आती है क्योंकि इसके लिए अपने परिजनों को सफाई नहीं देनी पड़ती …भगवान् के नाम पर स्त्रियों के मुक्त हास परिहास को देखती हूँ विभिन्न अवसरों पर कॉलोनी में होने वाले भजन /गीतों में :) और तो और जन्माष्टमी पर अजब गजब नृत्य करते नौनिहालों को भी !!
जवाब देंहटाएंबिलकुल सच है ,वाणी .... माता की चौकी में उम्रदराज महिलायें जितना उन्मुक्त होकर नाचती हैं, किसी पार्टी में तो संकोच कर जायेंगी, लोग भी हंसने से बाज नहीं आयेंगे ...पर मन तो सबका होता है, धरम -करम के नाम पर ही मिलना-जुलना, घूमना -फिरना ,हँसना -बोलना सब हो पाता है.
हटाएंआपका विश्लेषण सही है लेकिन एक बात ध्यान में आती है कि विदेशों में भी महिलाएं ही धार्मिक गतिविधियों में सबसे अधिक आगे रहती हैं। इसलिए घर से बाहर निकलने की चाहत के अतिरिक्त भी कुछ ऐसे अन्य कारण भी हैं जिनके विश्लेषण की भी आवश्यकता है। मुझे लगता है कि सभ्यता की दौड़ में पुरूष आगे रहता है लेकिन संस्कृति की दौड़ में महिलाएं आगे रहती हैं।
जवाब देंहटाएंविदेशों का तो नहीं पता पर हमारी कॉलोनी में जहाँ कैथोलिक लोग ही ज्यादा हैं. उनकी धार्मिक गतिविधियों में पुरुष भी बराबर रूप से हिस्सा लेते हैं. कई बार चर्च जाने का मौक़ा मिला है . वहाँ भी पुरुषों की संख्या , महिलाओं से अधिक ही होती है.
हटाएंआपकी पोस्ट से पूरी तरह सहमत हूँ पर कई अन्य कारण भी है महिलाओं के ज्यादा धार्मिक होने का.
जवाब देंहटाएंमहिलाएं ज्यादा भावुक होती है तथा बच्चो के लिए उनके मन में ज्यादा डर होता है. परिवार की सलामती और ख़ुशी के लिए हर संभव प्रयत्न करती है। इसके अलावा मौजूद जिन्दगी से बेहतर जिन्दगी अगले जनम में मिले ये चाहत भी उन्हें धर्मगुरु और धार्मिक स्थानों पर जाने के लिए प्रेरित करती है. यदि किसी महिला के बच्चे न हो तो समाज और परिवार में जो बुरी स्थिति होती है वो हम सब जानते है इसलिए बच्चे के लिए धार्मिक स्थानों पर जाना स्वाभाविक है. सिर्फ बच्चा ही नहीं बेटे के लिए भी।
हम्म...ये भी है ,स्त्रियाँ कोमल मन की और भावुक तो होती ही हैं और यही उन्हें धर्मभीरु भी बना देता है
हटाएंऐसा कुछ नहीं है कि सिर्फ महिलाएं ही धर्म भीरु होंती हैं। … हमारे
हटाएंसमाज में कुछ गलत बातें बचपन से ही परिवारों में बताई जाती है। ।बिल्कुल बेसिर पैर की भ्रांतियां फैलाई जाती हैं। .वो भी घर के बड़े लोगो जैसे ( पिछली पीढ़ी ) के द्वारा ,…. . कुछ गलत बातें ऐसे बताई जाती है की बच्चे बड़े होकर अंध विश्वासी हो जाते हैं। । इतना गहराई तक कि बड़े होकर भी उन आडम्बरों से मुक्त नहीं हो पाते … उदहारण के तौर पर … मेरी सहेली और उनके पति जो दोनों खुद बैंक में कार्यरत है.… ग्रेजुएशन तक साइंस / मैथ्स से पड़ने के बावजूद अपनी बेटी से एक दिन बोलती है " मंगलवार का व्रत लड़कियां नहीं रखती....... हनुमान जी नाराज हो जाते हैं " …ये लो किस पुराण में लिखा है की हनुमान जी उन लड़कियों से नाराज हो जाते हैं जो मंगल को उनकी पूजा वगेरह करती हैं। …… we are taught like that since our childhood that we become God fearing instead of God Loving.
महिलायें ही क्यूँ बाबाओं के यहाँ दिखाई देती हैं... इस पर एक बहुत ही अच्छा वैज्ञानिक एक्सप्लेनेशन है.. ओशो ने अपने एक प्रवचन में इसकी बड़ी सुन्दर व्याख्या की है.. अभी यहाँ लिखने लगा तो जगह कम पड़ जायेगी..
जवाब देंहटाएंप्लीज़ रश्मि जी! माफ कीजियेगा... इधर कई बार आपके पोस्ट पर मैं इस तरह अधूरी बात करके चल देता हूँ..!! मगर इसे नोट कर लीजिए.. कभी डिटेल में बात करेंगे इस पर!! सौरी एक बार फिर!!
सलिल जी ...Not again :(
हटाएंखग ही जाने खग की भाषा :-)
जवाब देंहटाएंनया दृष्टिकोण दिया है सोच को ... ओर इसी बहाने सामाजिक मान्यताओं पे चुटकी भी ले ली ...
जवाब देंहटाएंकारण तो जो आपने बताए सब सही है।लेकिन ज्यादा कमी तो जागरुकता की ही है मैं अजित जी की टिप्पणी से सहमत हूँ कि इस पर और विश्लेषण होना चाहिए।भगदड में महिलाओं के अधिक संख्या में हताहत होने का कारण ये साड़ी लहंगा भी होता होगा ।
जवाब देंहटाएं