आज Zee tv पर एक सीरियल या कहें रियलिटी शो देख रही थी Connected HUM TUM ...ये वही शो है ,जो मुझे भी ऑफर हुई थी और मैंने मना कर दिया था {अब ये बताने से क्यूँ चूकें हम :)} खैर, हमें अपने निर्णय पर अफ़सोस तो पहले भी नहीं था और अब ये शो देखकर तो जैसे एक सुकून की सांस ले ली ,यूँ कैमरे का हर वक़्त अपनी ज़िन्दगी में झाँक कर देखना मंजूर नहीं था, मुझे . वैसे, जैसा मुझे बार बार आश्वस्त करने की कोशिश की थी उन्होंने... सच में इस शो में कोई मिर्च मिसाले नहीं हैं बल्कि औरतों के मन में क्या चलता रहता है ,वे क्या सोचती हैं, उनकी ज़िन्दगी क्या है ,किसी सिचुएशन पर कैसे रिएक्ट करती हैं...यही सब है.
साथ में इस शो के होस्ट 'अभय देओल ' पुरुषों के व्यक्तित्व का भी विश्लेषण करते जाते हैं. एक मजेदार बात कही उन्होंने कि "पुरुषों की 'सेलेक्टिव हियरिंग पावर' होती है यानी अगर उनसे तीन वाक्य कहा जाए तो वे उसमें से दो शब्द अपने मतलब का या अपने मन से चुन कर बस उसी पर प्रतिक्रया देंगे " और उसी शो में से कुछ दृश्य रीपीट कर वे, इसे दिखाते भी हैं .खैर ये उस शो के होस्ट का कहना है, गलत भी हो सकता है सही भी...हमें स्त्री-पुरुष के विवाद में नहीं पड़ना ..आज देखा और याद रह गया सो जिक्र कर दिया (अब ब्लॉग तो है ही इसीलिए )
मैं, इस शो के विषय में नहीं..पर इस शो के बहाने कुछ और चर्चा करना चाहती थी . इस शो की एक प्रतिभागी पल्लवी बर्मन है . सुन्दर है...स्मार्ट है..एक कंपनी में ऊँचे पद पर काम करती है. (और बहुत मेहनत से काम करती है ,अक्सर रात के दस बज जाते हैं, काम ख़त्म करते ) शो की शुरुआत में वो एक चहकती हुई, ज़िन्दगी से भरपूर लड़की थी जो अपने प्रेम विवाह को लेकर बहुत उत्साहित थी. हर वक़्त मुस्कुराती रहती थी और अपनी शादी के लिए जेवर, लहंगे, कपड़े की ही शॉपिंग में व्यस्त रहती.
अब शादी हो गयी है . रोज ऑफिस से घर आते वक़्त गिल्ट महसूस करती है कि 'रात के दस बज गए, बाकी सबलोग घर पर आ गए हैं ,मुझे आज भी देर हो गयी .'
पति अक्सर देर रात तक अपने दोस्तों और उनकी पत्नियों के साथ पार्टी में शरीक होता है, वीकेंड्स पर लोनावाला, खोपोली ,फार्महाउस पर जाता है और पल्लवी से पूछे बिना, उसकी तरफ से भी 'हाँ' कर देता है. सारे दिन ऑफिस में थकी पल्लवी मन न होते हुए भी पति के साथ देर रात पार्टी में जाती है कि कहीं उसे बुरा न लगे .
पति और ससुर का बिजनेस है ...घर में ऐशो आराम की चीज़ें , नौकर चाकर सब हैं .फिर भी वो घर की थोड़ी साफ़-सफाई करती है और पूरे वक़्त कोशिश में लगी रहती है कि कोई ये न कह दे कि वो नौकरी के चक्कर में घर का अच्छी तरह ध्यान नहीं रख रही. ससुर को खुश करने के लिए उनके बर्थडे पर एक शानदार पार्टी का आयोजन करती है, सबको आमंत्रित कर लेती है . ढेर सारी शॉपिंग करती है ,पर जन्मदिन वाले दिन की सुबह ससुर बताते हैं कि ,वे कल रात डॉक्टर के पास गए थे और डॉक्टर ने उन्हें परहेज करने के लिए कहा है. पार्टी कैंसल हो जाती है .
पल्लवी के पति और ससुर ,पल्लवी से अपनी नौकरी छोड़, उनका बिजनेस ज्वाइन करने के लिए कहते हैं. पल्लवी दुविधा में है कि अपनी नौकरी छोड़े या नहीं? पति उसके तुरंत 'हाँ' न कहने से नाराज़ है, और कहता है 'वो पैसों के पीछे भाग रही है ' दोनों में तनाव बढ़ता जा रहा है, और अब हर वक़्त पल्लवी की आँखें आंसू भरी होती हैं.
ये हंसती- मुस्कुराती पल्लवी के जीवन को क्या हो गया ? और ये सिर्फ अकेली पल्लवी की ही कहानी नहीं है. मैं अपने बच्चों को लेकर एक डॉक्टर के पास जाती थी. वो डॉक्टर भी बहुत खुशमिजाज़ थी. हर वक़्त कलफ लगी कॉटन की कड़क साड़ी पहने अपनी उजली हंसी के साथ मिलती. कुछ दिनों बाद उसकी शादी हुई...वो थकी थकी सी बुझी बुझी सी रहने लगी. चेहरे की उदासी ,उसके कपड़ों तक फ़ैल गयी थी. कभी कभी बुझी सी मुस्कान लिए कह भी देती.."शादी नहीं करनी चाहिए " उसे क्या परेशानी थी ,यह तो नहीं पता पर कुछ तो था, जिसने उसकी हंसी गुम कर दी.
पर इन सब परेशानी की वजह क्या ये खुद नहीं है? क्यूँ ये अपने को सुपरवुमैन समझती हैं? क्यूँ इस कोशिश में रहती हैं कि वे खुद को एक अच्छी बहू,एक अच्छी गृहणी, एक अच्छी पत्नी , एक अच्छी माँ साबित करें . जबकि उनके पास भी वही दो हाथ,दो पैर और दिन के चौबीस घंटे होते हैं. क्यूँ वे सबको खुश रखना चाहती हैं और नहीं रख पातीं तो फिर उदास रहने लगती हैं.
वैसे नए परिवेश, नए घर, नए व्यक्ति के साथ ज़िन्दगी शुरू करने में कुछ समझौते तो करने ही पड़ेंगे ,पर ये समझौते ऐसे तो न हों कि इनकी हंसी ख़ुशी ही उसकी भेंट चढ़ जाए . पर लगता है, अगली दो तीन पीढ़ी की स्त्रियों को ये कुर्बानी देनी ही पड़ेगी. आज भी किसी भी स्त्री से सबसे पहले एक अच्छी गृहणी, बहू , पत्नी, माँ बनने की ही अपेक्षा की जाती है .इसके साथ ही वो एक सफल डॉक्टर, इंजिनियर, टीचर, अफसर हो तो सोने पर सुहागा. वरना 'खरा सोना' तो उनका 'घरेलूपन' ही है.
कई बार सुनने में आता है, इतनी सफल डॉक्टर/टीचर/अफसर है पर सास-ससुर को देखते ही सर पर पल्लू रख कर पैर छूती है. पति से पूछे बगैर कोई काम नहीं करती, त्योहारों पर पकवान खुद बनाती है ...आदि आदि . बड़ों को इज्जत देना , घर की देखभाल करना प्रशंसनीय है ..पर इस बात को इतना महत्व दिया जाता है कि उसके तले उनका दुसरा और असली रूप गौण हो जाता है. और अगर स्त्रियाँ ये सब न करें तो सुनने को मिलेगा, क्या फायदा इस पढ़ाई-लिखाई का,अफसरी का ..घर पर तो ध्यान ही नहीं देती .
यही वजह है कि आजकल की नौकरीपेशा महिलायें इस कदर पिस रही हैं. हर मोर्चे पर खुद को अव्वल साबित करने के चक्कर में उनका वजूद टुकड़े टुकड़े हुआ जा रहा है.
बस, अब आने वाली पीढियां उनका हाल देख यही तय करें कि अपनी ज़िन्दगी, वे अपनी मर्जी, अपनी ख़ुशी से जियेंगी , उन्हें किसी के सामने खुद को साबित करने की जरूरत नहीं है. उनके पास भी सबकी तरह दो हाथ ,दो पैर और एक दिमाग है और वो दिमाग किसी मायने में कम नहीं है...अपने चौबीस घंटे वे कैसे बिताएं ,ये वे खुद तय करेंगी. उनके होठों की मुस्कराहट कोई कर्ज़ नहीं , जिसे वे किस्तों में चुकाती रहें .
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन हर बार सेना के योगदान पर ही सवाल क्यों - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएं'कार्य प्रसंग में मंत्री, गृहकार्य में दासी, भोजन कराते वक्त माता, रति प्रसंग में रंभा, धर्म में सानुकुल, और क्षमा करने में धरित्री'- ये सब प्राचीनकाल से एक आदर्श नारी के लक्षण कह कर उस पर लाद दिये गए और सारे उपदेश-आदेश उसी को ढालने के लिये -जिसमें आदमी सुखपूर्वक निश्चिंत हो कर रहे!
जवाब देंहटाएंअब सोचा जाय कि वह सहचरी है या अनुचरी ?
बिलकुल सही कह रही हैं आप ,आदर्श नारी की यही छवि लाद दी गयी है, स्त्रियों पर और वे इस पर खरी उतरने के लिए जी जान से लगी होती हैं.
हटाएंपर अब पुरुषों द्वारा थोपी गयी आदर्श नारी की ये परिभाषा बदलनी होगी .
निजि जीवन में तांक झांक वाले शो तो मुझे भी पसंद नहीं , हां पल्लवी की जो कहानी आपने सुनाई वो अब सुनी सुनाई या देखी दिखाई सी लगती है , बहुत सारे घरों में यही हो रहा है और मुझे भी ऐसा महसूस हो रहा है कि भविष्य में विवाह नाम की संस्था आने वाली पीढियों के लिए औचित्यहीन हो जाने वाली है । पल्लवी के बहाने आपने कामकाजी महिलाओं की वस्तुस्थिति सामने रख दी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अजय जी,
हटाएंबहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आपका पदार्पण हुआ :)
ख़ुशी हुई कि आपने इस समस्या को गहराई से समझा.
वैवाहिक संस्था तो बनी रहनी चाहिए पर उसमे सहभागिता बराबर की होनी चाहिए. शादी को सफल बनाने की सारी जिम्मेवारी सिर्फ स्त्रियों की ही नहीं होनी चाहिए
कामकाजी महिलाओं पर दोहरी मार है , इसमें कोई शक नहीं . उन्हें घर और बाहर दोनों ही दुनिया में अपने आपको साबित करना पड़ता है ,
जवाब देंहटाएंमगर रश्मि , मैं देखती हूँ आजकल घरेलू महिलाएं भी इतनी परवाह नहीं करती कि उन्हें अच्छी बहू समझा जाए , वही करती हैं , जो उनका मन करता है .
ज्यादा परेशानी उन्हें ही होती है जो समझदार(!) हैं , अच्छा बने रहने का प्रयास करते हैं . इन समझदार महिलाओं की तारीफ़ करते हुए कई बार मैं खुद पर भी सवाल उठाती हूँ कि आखिर हम चाहते क्या हैं , एक ओर संस्कार है , एक ओर खुला दिमाग है :)
हाँ ,समझदार लोग ही तो ये दोहरी जिम्मेवारी उठाने के लिए उतावले रहते हैं...और सबकी नज़रों में अच्छा बने रहना चाहते है तो फिर भुगतते भी हैं.
हटाएंरश्मि जी अच्छा लगा आपका लेख ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शारदा जी .
हटाएंयही हकीकत लगती है, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
हकीकत तो है पर ये सूरत अब बदलनी चाहिए .
हटाएंआपको भी शुभकामनाएं :)
जवाब देंहटाएंकभी कभी लगता है जैसे कोई टेलीपैथी है आप के और हमारे बिच :)
हमें तो विस्तार में कहने की आदत है आ कर कहते है :) ।
टेलीपथी इसलिए है कि आपकी 'रश्मि' नाम की कोई बहुत अच्छी फ्रेंड थी न :)
हटाएंआपकी विस्तृत टिपण्णी का हमेशा ही इंतज़ार रहता है ,वह पोस्ट को एक नया आयम देती है.
अभी हाल में ही पति देव ने शिकायत की महिलाओ को बिजनेस करने नहीं आता है , कंपनी की एक महिला डिस्तुब्यूटर से परशान थे उनका कहना था की बिजनेस में कभी फायदा कभी नुकशान होता रहता है हर महीना ही आप कुछ कमाए ये जरुरी नहीं है , किसी किसी महीने आप को माल ख़रीदे दाम में भी निकालना पड़ता है किन्तु वो समझती नहीं है , उन्होंने बताया था की महिला पहले कही नौकरी करती थी किन्तु बच्चे के बाद नौकरी छोड़ दी अब बच्चा स्कुल जाता है सो बचे समय में उसने अपना बिजनेश शुरू कर दिया ताकि अपने समय के हिसाब से काम कर सके और बच्चे को समय भी दे सके । तब मैंने उनसे यही बात कही थी की महिलाओ को अपने आप को साबित करने की मजबूरी होती है , दुनिया में कितने ही पुरुष होते होंगे जो बिजनेस शुरू करते होंगे और घाटा खाते होंगे किन्तु महिलाओं के ये दिखाना होता है की उन्हें हर हाल में फायदा ही लाना है , वरना लोगो से सुनना पड़ता है की देखो बिजनेस करने का सहूर नहीं है बस शुरू कर दिया , पैसे डूबा दिया और न जाने क्या क्या । उनकी मजबूरी है जब वो आगे बढ कर कुछ करती है , खासकर जो समाज की सोच के हिसाब से न हो तो उन्हें हर हाल में मे सफल होना होता है , एक असफलता एक फिसलन लोगो को उनका मजाक उड़ाने उनका आत्मविश्वास कम करने का मौका देता है साथ की कई अन्य महिलाओ के रस्ते का रोड़ा भी बना जाता है । आप की इस बात से सहमत हूँ की आखिर उन्हें जरुरत ही क्या है हर किसी को खुश करने की , मुझे जब कभी किसी के मुंह से ये सुनने को मिलता है की हमेसा अपने मन का करती हो किसी की सुना भी करो तो मई सभी को धोबी उसके दो लडके और गधे वाली कहानी सूना देती हूँ की दुनिया को खुश करना बहुत मुश्किल है खुद को खुश रखो , मै खुश रहूंगी तो परिवार को अपने आप खुश रखूंगी :)
हटाएंकरीब ढेड साल पहले बिटिया को पता चला की मै बचपन में इस घर में नहीं रहती थी , मै तो अपने मम्मी पापा के साथ बनारस में रहती थी , शादी कर के उन्हें छोड़ कर यहाँ आई हूँ , उसके लिए ये बेहद आश्चर्य की बात थी की मै अपने मम्मी पापा को छोड़ कर यहाँ आई हूँ , फरमान सूना दिया वो कभी शादी नहीं करेंगी और हमें छोड़ कर नहीं जाएँगी ,तब वो करीब साढ़े चार साल की थी , मैंने बस हा कहा दिया । मै ये कार्यक्रम तो नहीं देखती किन्तु पल्लवी ( मै गलत नहीं हूँ तो पल्लवी की ये दूसरी शादी है ) की शादी वाला सिंन देख रही थी जब वो अपने पापा के साथ रोने लगती है , तब मुझसे पूछने लगी की क्यों रो रही है वही शादी की के बाद घर छोड़ने वाली बात सुनते हुई मुझे घुर कर देखा , तुम मुझे कभी शादी करने के लिए नहीं कहना , मै कभी शादी नहीं करुँगी , मैंने तुमसे कब कहा शादी करने के लिए मैंने कहा तो बोली ठीक है पापा कहेंगे तो भी नहीं करुँगी । अभी वो बस छ साल की है ,उन्हें देख कर सोच रही थी , क्या पता भविष्य में इसका उलटा हो आखिर देनी वाले ने दिमाग के साथ दिल मजाक करने के लिए थोड़े ही दिया है :)))
हटाएंइस उदाहरण से न तो यह पता चलता है कि महिलाओं को बिजनेस करना नहीं आता और न यह पता चलता है कि वह महिला किसी दबाव मे ऐसा कर रही है।यदि उनका निष्कर्ष गलत था तो आपका भी सही नहीं है।पर महिला के मामले ऐसा ही होता है यदि कोई गलत निर्णय ले तो या तो उसे पूरे महिला वर्ग से जोडकर ये कह दिया जाएगा कि महिलाओ को ये काम करना नही आता या ये कह दिया जाएगा कि उसकी कोई मजबूरी होगी जबकि ये दोनो बाते सच हो कोई जरूरी नही है।ऐसे ही महिला कोई अच्छा निर्णय ले तब भी सकारात्म और नकारात्मक दोनो ही तरीके से उसके निर्णय को बस उसके महिला होने से जोड़ दिया जाता है जैसे कि महिलाएँ बस फायदे के लिए काम करती है या ये कहना कि महिलाए तो होती ही बड़ी समझदार है।ये उदाहरण कुछ कुछ ऐसा है जैसे आपको रात को ऑटो से कही जाना है आप किसी ऑटो वाले को रुकवाती है पर वह मनमाना किराया वसूलना चाहता है और आप मना कर देती हैं।तो उसे खाली टैक्सी ले जाना मंजूर लेकिन ऐसे नहीं कि थोडे कम पैसे में भी सवारी ले चलूँ।पर उसे तो हर हाल में उतना ही फायदा चाहिए जितना वो चाहता है।कुछ लोग लोंग टर्म बिजनेस रिलेशनशिप में विश्वास नहीं करते और कोई समझौता नहीं करते।
हटाएंमेरी एक मित्र एक psychiatrist के पास गयी, उसने उसे एक ही बात कही आप सबको खुश नहीं रख सकते . एक बार खुद को खुश रख कर देखो।
जवाब देंहटाएंलेकिन प्रक्टिकली ये हमेशा ही मुश्किल होता है :(
मैंने बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि "आप चाहे कुछ भी करो आधे लोग आपको अच्छा कहेंगे ,आधे बुरा .ये इक्वेशन नहीं बदलने वाला इसलिए बस वही करो जो खुद को ठीक लगे " पर ऐसा होता है क्या ??
हटाएंसबके मन में यही लालसा रहती है, सब उसे अच्छा कहें और फिर पिसते रहते हैं .
काम काजी महिलाओं की इस स्थिति को लेकर ही इसके निदान खोजने का प्रयास हो रहा है और हर कोई अपने अपने तरीके से इसका समाधान ढूंढना चाहता है ... हर समाज को ऐसे प्रश्नों के जवाब अपने आप ही मिलते हैं समय के द्वारा ... किसी समाज को जल्दी किसी को देरी से ...
जवाब देंहटाएंहमारे समाज में कुछ ज्यादा ही देरी हो रही है .
हटाएंरश्मि
जवाब देंहटाएंप्रोग्राम देखा नहीं इस लिये उस पर कमेन्ट नहीं कर रही हूँ
आप ने जो समस्या उठाई हैं वो " अपने को सुपर वुमन " साबित करने की केवल और केवल विवाहित महिला तक ही सिमित नहीं हैं
अविवाहित महिला भी जो नौकरी करती हैं उनकी भी अनेक समस्या होती हैं , देर से घर आने पर घर के लोगो की बाते उनको भी सुननी ही पड़ती हैं .
पलट कर जवाब देने पर आज भी कहा जाता हैं " संस्कारी की लड़की की तरह रहो "
" कल को दुसरे घर जाना होगा "
समस्या ये हैं ही नहीं की लड़की अपने को सुपर वुमन साबित करना चाहती हैं , या सबको खुश रखना चाहती हैं और समझोते करती हैं
समस्या हैं
लड़कियों के लिये शादी उनकी "नियति " हैं और जब तक ये रहेगा लडकियां आय अर्जित करने के पश्चात शादी की बाध्यता से बंधी हैं
आज नयी पीढ़ी ने नए रास्ते चुन लिये हैं , लडकियां बहुत जल्दी अलग हो कर अलग घर ले कर रह रही हैं , अभी पीछे हिन्दुस्तान टाइम्स में पूरी एक सिरीज़ थी इन लड़कियों और लडको पर जो व्यसक होते ही अपने माता पिटा से अलग रह कर अपने जीवन के विषय में सोचना चाहते हैं और बड़ी अच्छी तरह अपनी जिन्दगी व्यतीत कर रहे हैं वो घर से अलग भी हैं और जुड़े भी पर वो मानते है उनके माँ पिता कर कर्तव्य उनकी शादी करना नहीं हैं और शादी करना जरुरी भी नहीं हैं
१९ ८ ५ में जब मै रात को दस बजे ऑफिस से घर आती थी और ऑफिस का ड्राइवर कार से घर छोड़ कर जाता था तो अगले दिन पड़ोस की महिला माँ से पूछती थी " कल जो रचना को छोड़ने आया था क्या शादी कर रही हैं उस से !!!:) , देखने में अच्छा था , गाडी भी बढ़िया थी , अब शादी कर ले वो इतना अच्छा लड़का नहीं मिलेगा ""
शादी और नौकरी चल जाती हैं लेकिन शादी और कैरियर नहीं चलता हैं लड़कियों से क्युकी अभी भी हमारे समाज में लड़कियों के लिए शादी से बेहतर करियर है ही नहीं .
और दूसरी बात शादी करनी वाली महिला को ये भी देखना चाहिये की उन्होने शादी क्यूँ की हैं ?? क्या सामाजिक सुरक्षा के लिये ? तो फिर उस सुरक्षा की कोई ना कोई फीस तो देनी ही होती हैं
रचना जी,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया अपने विचार रखने का . पर यहाँ कई बातों पर मैं आपसे सहमत नहीं हूँ,लडकियां/औरतें अपनी मर्जी से हर मोर्चा संभालना चाहती हैं या कहें खुद को 'सुपर वुमैन' साबित करना चाहती हैं क्यूंकि इसके बिना उनका गुजारा ही नहीं है. हमारे यहाँ यह परम्परा चली आ रही है कि लड़कियों को खाना बनाना, घर संभालना तो आना ही चाहिए. शिक्षित महिलाओं पर बच्चों की जिम्मेवारी अपनेआप आ गयी है क्यूंकि उनके अन्दर मातृत्व की भावना होती है और वे अपने बच्चों को हर क्षेत्र में सबसे अच्छा करते हुए देखना चाहती हैं. आजकल के पिता अक्सर बच्चों के लालन-पालन ,उनकी पढ़ाई-लिखाई में विशेष भूमिका नहीं निभाते. शायद वे इसलिए भी नहीं करते क्यूँकि सोचते हैं,बच्चों की देखभाल में पत्नी सक्षम है ,पर घर ,परिवार नौकरी के साथ एक added responsibility तो आ ही जाती है, उनपर .
जो लडकियां शादी नहीं करतीं ,ज़िन्दगी उनके लिए भी बहुत आसान नहीं है, जैसा आपने कहा पड़ोसियों के ,रिश्तेदारों के ताने सुनने ही पड़ते हैं. माता-पिता भी शादी के लिए जोर डालते हैं, पर उनकी ज़िन्दगी में हर वक़्त कोई हस्तक्षेप नहीं करता, उनके ऊपर अपने निर्णय नहीं थोपता, ससुराल और बच्चों की जिम्मेदारी से वे बची रहती हैं. जबकि शादी-शुदा महिलाओं को इन सबका सामना करना पड़ता है और उनकी राह थोड़ी सी ज्यादा कठिन है.
नयी पीढ़ी जरूर अब अपने ज़िन्दगी के फैसले खुद कर रही है पर एक तो इनका प्रतिशत कितना है? महानगरों में रहने वाले मुट्ठी भर युवा. हमारा देश छोटे शहरों, कस्बों, गाँवों तक फैला हुआ है. गाँव में टीचर की नौकरी करने वाली महिला भी घर आते ही चौके चूल्हे में लग जाती है, घर और बच्चों का ख्याल रखती है.मैं अब भी दुहराती हूँ, स्त्रियों की स्थिति बदलने में अभी एक सदी लगेगी क्यूंकि समाज की, पुरुषों की मानसिकता में परिवर्तन नहीं आ रहा है और महिलायें अपनी सोच अपनी ज़िन्दगी में परिवर्तन लाना चाह रही है,इसके लिए कोशिश कर रही हैं इसीलिये कई मोर्चे पर एकसाथ जूझ रही हैं.
और शादी सिर्फ सामजिक सुरक्षा के लिए ही नहीं की जाती. इस पोस्ट में जिस पल्लवी का जिक्र है,वो self sufficient है.उसे कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं चाहिए थी .उसपर शादी का कोई दबाव नहीं था , वह अपने पति से एक पार्टी में मिली,प्यार हुआ और दोनों ने शादी का फैसला ले लिया .पर शादी के बाद की उसकी ज़िन्दगी बिलकुल बदल गयी, जबकि पति की यथावत है. वो शादी के बाद ऑफिस से आता है, जिम जाता है फिर दोस्तों के साथ पार्टी करता है.जबकि पल्लवी से अपेक्षा की जाती है कि वह घर जल्दी आये ,घर की देखरेख करे..पति के शौक में उनका साथ दे.और ये सब अपेक्षा इसलिए की जाती है क्यूंकि सदियों से यही चला आ रहा है.
हर मानव स्वभाव एक साथी चाहता ही है, जिसके साथ वो अपने सुख-दुःख शेयर कर सके...हंस-बोल सके .इसी प्रोग्राम में RJ मलिश्का भी है, जिनसे सारा मुंबई परिचित है...और वे बहुत लोकप्रिय भी हैं. वे सिंगल हैं , उनके पास पैसा है, फेम है, विदेश में अकेले वैकेशन पर जाती हैं.वे बहुत हंसी-ख़ुशी अकेले अपनी ज़िन्दगी बिता सकती हैं.पर उनका एक बॉयफ्रेंड भी है और अक्सर वे शादी के विषय में सोचती रहती हैं.
@ लड़कियों के लिये शादी उनकी "नियति " हैं और जब तक ये रहेगा लडकियां आय अर्जित करने के पश्चात शादी की बाध्यता से बंधी हैं.
ये नियति न हो...बाध्यता न हो, लड़के लड़की दोनों की ही अच्छी आय हो फिर भी शादियाँ होती रहेंगी .बस दोनों पार्टनर एक दुसरे की जरूरतों को समझें ,साथ दें तो शादी सफल होगी, वरना टूटती भी रहेंगी या फिर घिसट घिसट कर चलती भी रहेंगी. पर ये वैवाहिक संस्था ख़त्म होने वाली तो नहीं.
रश्मि
हटाएंमैने तो आप की किसी भी बात से असहमति नहीं कही हैं . मेरी नज़र में स्त्री का विवाहित होना या अविवाहित होना कभी मुद्दा होना ही नहीं चाहिये . दोनों ही केस में स्त्री को अपने को निरंतर प्रोव करना ही होता हैं कारण बस इतना हैं की हमारा समाज आज भी स्त्री के लिये नौकरी करने को सही मानता ही नहीं हैं .
बात शादी करने या ना करने की है ही नहीं , बात हैं की स्त्री के लिये शादी ज्यादा जरुरी मानी जाती हैं और पुरुष के लिए नौकरी . बिना नौकरी वाले पुरुष की शादी ज़रा मुश्किल हैं क्युकी हाउस हसबंड का कांसेप्ट नहीं हैं जबकि हाउस वाइफ़ हैं . बिना नौकरी वाली लड़कियों की शादी आसन होती हैं बिना नौकरी वाले पुरुष के मुकाबले .
जो लडकिया जीवन साथी इस लिये चाहती हैं की कोई साथी हो अपनी बात कह सकने के लिये जैसा आपने कहा वो कहीं ना कहीं भारतीये समाज के मूल ढांचे के विरुद्ध हैं जहां शादी परिवार से होती हैं केवल पति से नहीं .
आज एक पुराना गाना बज रहा था काफी पॉपुलर पिक्चर का "शर्म आती है मगर आज ये कहना होगा अब हमें आप के क़दमों ही में रहना होगा" यानी स्त्री पर्म का इजहार भी करे तो पुरुष के कदम में ही जगह चाहती हैं . इस सभ्यता में पति को दोस्त समझ कर शादी करने वाली स्त्रियाँ शादी के बाद बहुत असंतुष्ट रहती हैं क्युकी उनको लगता हैं क्या इसी सब के लिये शादी की थी .
बात विवाह के ख़तम होने की हैं ही नहीं , बात महज इतनी हैं की विवाह स्त्री के लिये सामाजिक सुरक्षा का साधन हैं वहीँ पुरुष को सामाजिक सुरक्षा की जरुरत ही नहीं मानता हमारा समाज .
बहुत से घरो में विवाहित बेटियाँ अपनी माँ को साथ रख सकती और उनके इस कदम को बहुत "बड़ा " माना जाता हैं पर वही अपनी सास से अलग भी होती हैं ऐसा क्यूँ हैं ??
विवाहित स्त्री को अगर पति और बच्चो के साथ अपने को बांटना हैं तो पति और बच्चो से सुख भी उसे ही मिलते हैं . देर रात तक वो अपने पति के साथ घूम सकती हैं और अविवाहित अपने दोस्त के साथ पिक्चर भी चली जाए तो उसके लिये असंख्य बाते कहीं जाती हैं .
जब तक हम हर समस्या को बिना स्त्री को किसी भी खांचे में डाले नहीं समझेगे पुरी तरह उसका निदान मिलना संभव हैं पर ऐसा होता ही नहीं हैं . एक लिंक दे रही हूँ अगर ना पढ़ा तो पढियेगा http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2011/08/segmentation-of-women.html
@जो लडकिया जीवन साथी इस लिये चाहती हैं की कोई साथी हो अपनी बात कह सकने के लिये जैसा आपने कहा वो कहीं ना कहीं भारतीये समाज के मूल ढांचे के विरुद्ध हैं.
हटाएंये तो मैंने पहले ही लिखा है कि अभी एक सदी लगेगी इस सामाजिक ढाँचे के बदलने में , संतोष बस यही है कि बदलाव की जरूरत समझी जा रही है और बदलाव की शुरुआत की कोशिश भी शुरू हो गयी है.
हिंदी फिल्मो के पॉपुलर गानों से क्या निष्कर्ष निकाला जाए ,जब जैसी सामाजिक व्यवस्था रहती है, कमोबेश फिल्मो, कहानियों ,गीतों में वही झलकता है.
पति और बच्चों का सुख पाने के लिए किसी शर्त की शर्त नहीं होनी चाहिए कि परिवार का सुख मिल रहा है ,इसलिए यह सब सहना ही होगा.
इसी बदलाव पर तो विमर्श हो रहा है कि महिलायें शादी भी करें तो अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता...अपनी हंसी ख़ुशी न खो दें..और अगर शादी न करने का निर्णय लें तब भी शांतिपूर्वक अपनी मर्जी से जी सकें .
:)
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(29-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
शुक्रिया
हटाएंयह द्वंद्व तो है ही ...... दोहरी जिम्मेदारी काफी तनाव भी देती होगी ....
जवाब देंहटाएंदेती ही है , आपने भी औब्ज़र्व किया ही होगा .
हटाएंआज जबकि माता पिता लड़कियों के करियर के लिए सतर्क हैं उन्हें लड़कियों को सिखाना होगा की उनकी ख़ुशी उनका आराम भी जरूरी है .मेरे घर में हम लोग थोड़े बहुत सिलाई कढ़ाई सदी फल लगाना जैसे कई काम घर में ही करते थे . शादी के बाद मेरी ननद आयी उसका कंप्यूटर सॉफ्ट वेयर डेवलपमेंट का बिजनेस था . कहने लगी दो तीन साड़ी रखी है पर न फाल लगाने का समय है न ब्लाउज सिलने का .किसी दिन देर रात में करुँगी .मैंने उसे समझाया पैसा कमा रही हो तो उसे खुद के आराम के लिए भी तो खर्च करो नहीं तो कमाने का क्या फायदा .वे काम पर काम करती चली जाती है सबकी ख़ुशी के लिए खुद का ही खेल नहीं रख पाती .
जवाब देंहटाएंहाँ, औरतें अपने आप पर कुछ ज्यादा ही बोझ डाल रही हैं . एकसाथ दोहरी जिम्मेदारी निभाना उनके स्वास्थ्य पर असर डालता है.
हटाएंI don't want to leave a comment here but i am doing . I am doing this because i want to see your reaction on this..!!!!!
जवाब देंहटाएंYou all are old in age as well as experience than me.I am looking that you all understanding and admitted marriage as a "sanstha". is it "sanstha"? It is a part of sixteen sanskar which is necessary for completion of life as a household. I am not surprise or socked because i hearing this word from many speekers and many person who says themself as a good analyser. I know that you all are loking towards matarial life and searching happiness in matarial life. This type of living is increasing in boyes as well as girls also. Continue it ... I know the final result of it but i don't know when will it arrive But again i am sure, That will give you a movement of think again but time will passed....................
जनाब शुभम जी ,
हटाएंआपकी अंग्रेजी इतनी धांसू है कि कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा. कई सारे शब्द तो बिलकुल नए हैं, जैसे socked ,speekers ,loking , boyes ,इन सबका अर्थ डिक्शनरी में ढूंढती हूँ फिर समझने की कोशिश करती हूँ....कई सारे वाक्य भी सर के ऊपर से निकल जा रहे हैं.
भाई, हम जैसे हिंदी वालों का ख्याल कर ज़रा हिंदी में लिखने की कोशिश करिए...कष्ट तो बहुत होगा क्यूंकि आपको अंग्रजी में ही लिखने की आदत है पर हमारा अंग्रेजी ज्ञान इतना कम है, समझ ही नहीं पा रहे, हिंदी ब्लॉग वालों के लिए इतना कष्ट उठा लीजिये...प्लीज़ :)
https://en.wikipedia.org/wiki/Institution
हटाएंhttps://en.wikipedia.org/wiki/Marriage
http://en.wikipedia.org/wiki/Ritual
the first example given in the article on institution is marriage.
the definition of marriage uses the term institution
"ritual" is a set of procedures followed before entering into a new phase of life.
the english dictionary has two different words "wedding" the ritual of entering into "marriage" the institution where the two partners live together following a certain understanding approved by the established social rules.
in hindi too - "anna praashan" "mundan", "janeu sanskaar", "paanigrahan sanskar" ..... finally "antim sanskar" are rituals for entering into a new state of life.
by the way - shaadi (i think) is not the indian term - vivaah sanskar is the "entry ritual" to the "institution" of "vaivaahik jeevan" (just as nikaah to shaadi and wedding to marriage)
is par ek post likh rahi hoon - yahaan link doongi - with permission from the blog owner rashmi ji :)
हटाएंख्यालों और हकीकत में फर्क धीरे धीरे बहुत भारी पड़ता है.
जवाब देंहटाएंसही कहा ,आपने
हटाएंसंतुलित जीवन में मुस्कराना बहुत आवश्यक है।
जवाब देंहटाएंकाम काजी महिलाओं की तो छोडिये गाँवों -कस्बों में भी कितने ही हंसते मुस्कुराते चेहरे शादी के बाद श्रीहीन हो जाते हैं !
जवाब देंहटाएंहम्म
हटाएंdhiry ki bhi kam hai aaj kal
जवाब देंहटाएंpost - very nice-***
अभय देओल जैसा बेतुका तर्क तो कहीं देखा ही नहीं।खैर थीम ही ऐसी है पहले ही लिखने वाले ने तय कर लिया कि पुरुषों के बारे में क्या कहना है और महिलाओं के बारे में क्या ।सीरियलों में लेखन की तरह दोनों पक्ष दिखाने की जरूरत ही नहीं समझी जाती।वर्ना देखने वाला ये भी देखता कि अपने ही मतलब की बात निकालना और कहना कोई ऐसी विशेषता नहीं जो सिर्फ पुरुषों में ही मिले ऐसा महिलाएँ भी करती है कई बार इसका कारण ये भी होता है कि हम केवल उन्हीं बिन्दूओं पर अपनी राय देते है जिसके विषय में हमें थोड़ी जानकारी हो बाकी को छोड देते है।मुझे हैरानी है कि इसे पुरुष से जोड़ा जा रहा है और इस पर यहाँ कोई कुछ कह नहीं रहा है।वही ऐसे भी बहुत से पुरुष आपको अपने आस पास इतने लापरवाह मिलेंगे जो अपने मतलब की बात पर भी ध्यान नहीं देते।रश्मि जी,आपने सीरियल में से ये उदाहरण ही पोस्ट के लिए उठाए तो क्या आप भी सेलेक्टिव थिंकिंग पावर रखती हैं?
जवाब देंहटाएंनहीं न?
फिर पुरूषों की किसी बात से ऐसे सामान्य निष्कर्ष कैसे निकाले जा सकते हैं?ऐसी अच्छाई या बुराई व्यक्तिगत हुआ करती है।
मुझे लग ही रहा था कोई न कोई इस विषय पर कहेगा जरूर...हम्म चलिए आपने कह दिया .इसीलिए मैंने स्पष्टीकरण भी दे दिया था , "खैर ये उस शो के होस्ट का कहना है, गलत भी हो सकता है सही भी...हमें स्त्री-पुरुष के विवाद में नहीं पड़ना ..आज देखा और याद रह गया सो जिक्र कर दिया (अब ब्लॉग तो है ही इसीलिए ) "
हटाएंमेरी सेलेक्टिव थिंकिंग तो खैर नहीं है, पर राजन ये कडवी सच्चाई है ,पुरुषों द्वारा स्त्रियों को पूरा सम्मान देने वालों का प्रतिशत बहुत कम है. मैं ये नहीं कह रही कि कोई भी पुरुष ,महिला की बात को गंभीरता से नहीं लेता पर अक्सर ये होता है, अधिकाँश लोग महिलाओं की बातों को अनावश्यक समझते हैं. तमाम चुटकुले बने हैं, "दो महिलायें बैठी थीं और चुप थीं " आदि आदि . पुरुष भी कम बातें नहीं करते पर गॉसिप करने का इलज़ाम सिर्फ महिलाओं पर ही आता है.
यह प्रकरण उस समय प्रासंगिक था, इसलिए जिक्र कर दिया...वरना बातें तो स्त्री-पुरुष दोनों की बहुत होती हैं...चाहूँ तो रोज ही एक पोस्ट लिख दूँ :) पर आप सब बोर हो जायेंगे .
रश्मि जी मैंने कहा ही नहीं कि आप सेलेक्टिव नजरिया रखती हैं।आपका उदाहरण देकर सिर्फ ये बताना चाहा था कि यदि देओल की बात मान ली जाए तो सभी मतलबी साबित हो जाएँगे जबकि ये कोई जरूरी नहीं आपकी जगह मैं ये पोस्ट लिखता तो मैं भी चुनिंदा ही उदाहरण रखता।और चलिए आपने संदर्भ बताकर अच्छा किया।तो मतलब अभय देओल के उदाहरण से ये पता चलता है कि पुरुष मतलबी होने के कारण कम बातूनी होते है लेकिन उनकी तर्क को आपने खुद यह कहकर काट दिया कि पुरुष भी कम बातें नहीं करते।मेरा तो कहना है कि पुरुष दोनों ही तरह के होते है ऐसा ही महिलाओ के बारे में है।और महिलाओ के बारे में कुछ गलत बातें प्रचलित है तो इसका मतलब ये नहीं कि अब पुरुषों के बारे में किसी गलत बात का सामान्यीकरण किया जाए।वैसे मैंने लडकियों के बातूनी होने की बात सबसे पहले अपनी एक टीचर से ही सुनी थी वे हम लड़कों को चुप कराते कहती थी कि क्या गर्ल्स की तरह बाते करते रहते हो।पुरूष की सोच के बारे में आपसे सहमत हूँ पर यहाँ मै एक बुराई जो स्त्री पुरुष किसी मे भी हो सकती है उसे केवल पुरुष से जोड़े जाने का विरोध कर रहा हूँ।आपकी बातों से अभी तक तो कभी बोरियत नहीं हुई।आप तो जो चाहे लिखा करें।
हटाएंपोस्ट के विषय से बिल्कुल सहमत अभी भी विवाहित महिलाओं पर अच्छी बहू बनने का ही दबाव सबसे अधिक होता है।एक नये परिवेश में नये लोगों के बीच कदम रखने के कारण कुछ दबाव आना स्वाभाविक भी है।पर ये पूरा मामला पति की मानसिकता से ज्यादा जुडा है पुरुष ये मानकर चलते हैं कि पत्नी को मदद की जरूरत है ही नहीं।खुद महिलाएँ भी मानती हैं कि पति को केवल बाहर के मामलों से मतलब रखना चाहिए।जबकि पति साथ दे तो बाकि लोगों के उलाहनों का उतना फर्क नहीं पड़ता लेकिन पुरुष खुद तो भले बने रहते हैं पर उनकी पत्नियाँ बुरी बन जाती है ।कुछ मामले तो ऐसे देखे बहू यदि आज्ञाकारी है तो इसका क्रेडिट भी उसे नहीं बल्कि अपने बेटे को ही दिया जाता है।और कहीं कही पत्नी का साथ पति ने दे भी दिया तो पुरूषों के लिए भी घरवाले बात बनाने लगते हैं लेकिन मैं पुरुषों के लिए भी यही कहूँगा कि आप भी दूसरों की परवाह न करें और वह करे और कहें जो सही हो।
जवाब देंहटाएंऔर महिलाओं को भी ये अपेक्षा छोड़ देनी चाहिए कि बिना मदद के लिए कहें ही उनकी मदद की जाएगी।कर्तव्यों का सारा बोझ केवल अपने ऊपर लेना छोड़ें।समाधान के लिए पहल उसे ही करनी पड़ती है जिसे समस्या है।
ये सौ टके की बात कही है..."समाधान के लिए पहल उसे ही करनी पड़ती है जिसे समस्या है।"
हटाएंहाँ ,ये बात अब औरतें कितना समझेंगी कि " ये अपेक्षा छोड़ देनी चाहिए कि बिना मदद के लिए कहें ही उनकी मदद की जाएगी। " ..पर जितनी जल्दी समझ जाएँ उनके हक़ में ही अच्छा है.
नब्बे के दशक की नवविवाहिताओं के साथ ये एक आम समस्या थी. उस वक्त की लड़कियां आज से कहीं अधिक संस्कारों, माता-पिता के नाम और खुद की इमेज के प्रति सजग रहती थीं. लेकिन आज की तमाम नयी बहुओं में मैने वैसा संकोच नहीं देखा है. मेरे अपने ही घर की कई बेटियां जिनकी शादियां दो हज़ार के बाद हुई, अपनी तरह से जी रही हैं. जो पहनना है पहनती हैं, जो करना है वो करती हैं. कभी मैं खुद भी ऐसे संकोच की मारी थी, लेकिन अब खुद को ही पता नहीं कितना बदल डाला है :) नहीं बदलती तो इसी तरह घुटन की शिकार होती :)
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