चार दिन पहले बीस- पच्चीस साल पूर्व लिखी एक कविता पोस्ट की...जो उस वक़्त के हालात बयान करती थी. पर आज भी कुछ नहीं बदला ...हालात वैसे के वैसे ही हैं. कुछ महीने पहले भी कॉलेज के दिनों की लिखी एक रचना पोस्ट की थी, उसे पढ़कर भी सबने कहा, बिलकुल सामयिक रचना है .आज की परिस्थितियों का चित्रण . देश के हालात, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्ट्राचार स्वार्थलिप्तता ,कालाबाजारी सब कुछ आज भी वैसा ही है...जैसा पच्चीस साल पहले था .बल्कि हालात और बुरे ही हुए हैं .
अभी हाल में ही 'प्रवीण पाण्डेय जी' की पोस्ट पढ़ी "कृपया घंटी बजाएं " इस पोस्ट पर आयी टिप्पणियों में सबने कहा, "बहुत ही उत्तम विचार है. ऐसा अवश्य करना चाहिए. यह एक अच्छी पहल होगी. आदि आदि ." प्रवीण जी ने ये पोस्ट लिखी २०१३ में और मैंने भी २०१० में इसी विषय पर एक पोस्ट लिखी थी "प्लीज़ रिंग द बेल " . वहाँ भी सबने शब्द अदल-बदल कर यही विचार रखे थे .मैंने पोस्ट में ये जिक्र किया था कि दो साल पहले मुंबई में Please ring the bell मूवमेंट की जानकारी हुई थी यानि २००८ से यह मुहिम चल रही है .यानि पांच साल से हम यही आग्रह कर रहे हैं कि अपने आस-पास ऐसा कुछ देखें तो जरूर घंटी बजाएं .और सबलोग सर हिला कर कहते हैं ,"हाँ जरूर करना चाहिए. " शायद पांच साल बाद भी कुछ लोग ,यही पोस्ट लिखेंगे और फिर से घंटी बजाने का आग्रह किया जाएगा. और फिर सबलोग सर हिलाकर कहेंगे "बहुत सार्थक पहल है, जरूर करना चाहिए" पर अगर यह मूवमेंट सफल होता, इस से प्रेरित होकर लोगो ने ऐसे कदम उठाने शुरू किये होते तो फिर बार-बार आग्रह की जरूरत ही क्यूँ पड़ती ??पच्चीस साल पहले लिखी कविता,आज भी उतनी ही प्रासंगिक है .पांच साल पहले शुरू हुआ मूवमेंट ,वहीँ का वहीँ खडा है, घुटनों बल भी चलना शुरू नहीं किया .यानि कि कहीं कुछ भी नहीं बदल रहा . बदल भी रहा है तो कछुए की रफ़्तार से नहीं घोंघे की गति से . हाँ, भौतिक रूप से काफी कुछ बदल रहा है . टेलिग्राम से इंटरनेट की दूरी ,हाथ पंखे से ए.सी. की दूरी तो हम छलांग लगाकर पूरी कर रहे हैं पर ईमानदारी, लगन, मेहनत , संवेदनशीलता ,त्याग जैसे मानवीय गुण और विकसित क्या विलुप्त होते जा रहे हैं. लोग ज्यादा से ज्यादा आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं.अपने नजदीकी परिवार से आगे बढ़कर न कोई सोचता है न देखता तो फिर किसी दुसरे से कैसी आशा ?? क्यूँ कोई महिला आशा करे कि कोई दूसरी स्त्री या पुरुष उसके घर की घंटी बजाकर उसे अपने पति से पिटने से बचाएगी/बचाएगा ?? उन्हें खुद ही कदम उठा कर खुद को इस जलालत भरी ज़िन्दगी से मुक्त करना होगा .पर वही, कहना आसान है. जो स्त्रियाँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होतीं और जिनके पिता-भाई उन्हें आश्रय देने को तैयार नहीं होते, उनके लिए तो ऐसे कदम उठाना बहुत मुश्किल है क्यूंकि एक अकेली औरत तो छोटी मोटी नौकरी कर अपनी रोटी और सर पर छत का इंतजाम कर सकती है. पर उसके साथ बच्चे जुड़े होते हैं ,उनकी परवरिश, शिक्षा बहुत सारी चीज़ें होती हैं जिन्हें उनकी माँ की छोटी सी नौकरी पूरा नहीं कर सकती. यही वजह है कि घर छोड़ बहार निकल जाने का निर्णय वे नहीं ले पातीं. इसीलिए महिला का शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है.
सुनने में बहुत कड़वा लगेगा पर या तो महिला को इसकी आदत पड़ जाती है या फिर बच्चे बड़े होकर उसके रक्षक बन खड़े हो जाते हैं पर किसी बाहर वाले से ऐसी आशा रखना व्यर्थ ही है. हाल में ही एक परिचिता मिली. उसने दूसरा फ़्लैट ले लिया है और अब वहीँ शिफ्ट हो गयी है. बातों बातों में कहने लगी," पहले जहां रहती थी,वहाँ मेरे सामने वाले फ़्लैट से बहुत आवाजें आती थी, उस घर का आदमी अपनी पत्नी को बुरी तरह पीटता था. "
मैंने कहा "और बिल्डिंग के लोगों ने कभी कुछ नहीं किया, कोई विरोध नहीं किया ?"
वो बोली, "कोई क्या कहता , वो सबसे लड़ लेता. बिल्डिंग में किसी से मिलता-जुलता नहीं था " फिर खुद की सफाई देने लगी. "मैं तो अकेली दो छोटे बच्चों के साथ रहती हूँ, पति विदेश में है ,मैं क्या कर सकती थी. अभी दो दिनों पहले वो महिला मिली, अपने चेहरे पर के निशान छुपाने की कोशिश कर रही थी तो मैंने कहा ,"आखिर कब तक ये सब चलेगा ??"
तो कहने लगी.."अब तो आदत पड़ गयी है "
बहुत पहले जब 'बोमन ईरानी ' फिल्मो में नहीं आये थे तब वे थियेटर में काम करते थे. 'एम.टी.वी.' वालो ने एक एक्सपेरिमेंट किया था . बोमन ईरानी और उनकी एक सहभिनेत्री पति-पत्नी के रूप में मुंबई के एक पॉश इलाके के रेस्टोरेंट में गए .वहां दोनों ने झगड़ने का नाटक किया. बोमन ईरानी ऊँची आवाज़ में पत्नी को डांटने लगे ,ग्लास का पानी उसके मुहं पर फेंक दिया..पत्नी रोने लगी, उसे थप्पड़ मारने का भी नाटक किया . पूरा रेस्टोरेंट भरा हुआ था . लोग नीचे सर किये खाना खाते रहे .कुछ के साथ बच्चे भी थे, उनलोगों ने भी नहीं सोचा कि बच्चों पर क्या असर पड़ेगा, उठ कर उस पति को रोकें.
केवल एक लड़की उठी ,उसने बोमन ईरानी को कुछ कहा तो पलट कर उसने भी जबाब दिया. दूसरा कोई भी स्त्री या पुरुष उस लड़की का साथ देने के लिए नहीं उठा .वह बाहर चली गयी .अगर लोगों को शुरुआत करने में झिझक हो रही थी...तो कम से कम उस लड़की के स्वर में स्वर मिलाकर तो विरोध करते. पर सब समझते हैं यह पति-पत्नी के बीच का मामला है .पत्नी, पति की प्रॉपर्टी है,वो उसके साथ जो चाहे कर सकता है. लोग अपने संस्मरण में भी लिखते हैं कि एक रेस्टोरेंट में पति ने पत्नी को चांटा मार दिया ,ये देखकर उनका मन खराब हो गया और वे अपने दोस्त के साथ बाहर निकल गए.
यही होता है, कोई भी उनके बीच हस्तक्षेप नहीं करता. क्यूंकि पत्नी सिर्फ पत्नी होती है एक इंसान नहीं.
{ प्रसंगवश एक बात याद आ रही है ,एक फ्रेंड ने अपने बैंक की एक सहकर्मी के विषय में बताया था .वे ऊँची पोस्ट पर हैं. पचास वर्ष से ऊपर की हैं,पर हाल में ही उनका तलाक हो गया है और उन्हें कोई फ़्लैट किराए पर नहीं मिल रहा. एक बिल्डिंग में फ़्लैट एक मिला भी तो तीन महीने के अन्दर छोड़ना पड़ा क्यूंकि बिल्डिंग वालों ने आपत्ति की कि ये अकेली रहती हैं,पर इनके घर में लोग आते हैं, पार्टी होती है .एक अकेली औरत का पिटना समाज बड़े मजे में बर्दाश्त कर लेता है पर एक अकेली औरत का हँसना -बोलना उस से बर्दाश्त नहीं हो पाता }
हाँ, जिन लोगों को अपने आस-पास घट रही ऐसी घटना नागवार गुजरती है ,वे अपने अंतर्मन की सुन यूँ भी उस महिला की सहायता के लिए आते हैं और जो लोग निस्पृह बने रहते हैं ,चाहे उनके सर पर ही जोर जोर से घंटी क्यों न बजायी जाए ,उन्हें कुछ सुनाई न देगा...वे क्या किसी के घर की घंटी बजायेंगे .
बस एक काम में हम बहुत आगे बढ़ गए हैं. बक बक करने में. चाहे एफ.एम. की आर.जे. की रात-दिन की चकर चकर हो या चौबीसों घंटे चलने वाले सैकड़ों टी.वी. चैनल्स के एंकर्स की. बातें ..बातें और सिर्फ बातें .
किसी भी सोशल साइट्स पर नज़र डालो ,फेसबुक हो या ट्विटर लोग लगे हुए हैं बौद्धिक जुगाली करने में . हम भी ब्लॉग पर यही कर रहे हैं. मेरे ब्लॉग का तो नाम ही है ,'अपनी उनकी सबकी बातें' .बस अब बातों के ही शेर रह गए हैं हम.
क्या लिखूं टिप्पणी , मेरी पोस्ट " बातें है बातों का क्या " इसी विषय पर थी :(.
जवाब देंहटाएंबाते बातें और बातें !!
एक अकेली औरत का पिटना समाज बड़े मजे में बर्दाश्त कर लेता है पर एक अकेली औरत का हँसना -बोलना उस से बर्दाश्त नहीं हो पाता,
जवाब देंहटाएंयदि सच कहा जाये तो इस विषय में ना पहले कुछ बदलेगा और ना आगे. कहने को तो स्त्री आर्थिक रूप से स्वतंत्र है पर जितनी अधिक मात्रा में स्वतंत्र है उतने ही अधिक झगडे टंटे हैं. सामाजिक बदलाव शाय्द दो चार पीढियों में नही आते ये युगों की बात होगी.
जान पहचान और आसपडौस में आर्थिक रूप से मजबूत परिवारों का भी यही नक्शा दिखाई देता है फ़िर निम्न तबके की बात क्या करें?
रामराम.
सबसे पहले की बहुत ही सही अच्छी और मन की बात कह दी आप ने , अच्छा लेख |
जवाब देंहटाएंअभी हाल में ही मैंने दो ब्लॉग पर दो बाते कही एक तो नैतिकता को लेकर हम आम इंसान से कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रहे है दुसरे एक समझदार व्यक्ति कभी भी दूसरो की बकबक से नहीं समझने वाला है उसका खुद का अनुभव ही उसे किसी बात को समझा सकता है | लोग काफी पहले से आत्मकेंद्रित हो चुके है इसलिए उनसे दूसरो की मदद की उम्मीद करना हम कुछ ज्यादा ही सोच रहे है , पहले वो परिवार में किसी की मदद कर दे वही बड़ी बात होगी और ऐसा कह कर कई बार हम पीड़ित को भी ये सोचने के लिए उकसा देते है की वो खुद कुछ नहीं कर सकती है उसे इंतज़ार करना चाहिए किसी और के मदद करने की , कई बार युद्ध शुरू होने के बाद पता चलता है की हमारी रणनीति गलत है अब उसे बदल देना चाहिए , वैसा ही इस मामले में भी है दूसरो से उम्मीद करने की जगह अब हमें कहना चाहिए की इन मामलों में तो तभी कुछ होगा जब पीड़ित ही आगे बढ़ कर अपनी स्थिति के बारे में कुछ करे किसी की मदद मिलने को वो बस बोनस भर समझे , हम लोगो को मजबूर नहीं कर सकते है किसी की मदद के लिए और कई बार तो सामने वाला व्यक्ति खुद ही कमजोर और डरपोक होता है वो अपनी मदद न कर पाए तो किसी और की क्या करेगा , सो रणनीति इस बारे में बदली जाये तो ही अच्छा , दुसरे महिलाओ की मदद के लिए ज्यादा से ज्यादा केंद्र हो जो पुलिस से अलग हो , पुलिस की छवि एक तो अच्छी नहीं है दुसरे घरेलु मामले में पुलिस को लोग लाना नहीं चाहते है इसलिए कोई संस्था निजी रूप से ये काम करे उन्हें मदद देने की पति की जरुरत पड़ने पर काउंसलिंग की तो बात कुछ बन सकती है , तीसरे इन संस्थाओ की जानकारी ज्यादा से ज्यादा लोगो तक हो , हम लोगो से ये उम्मीद कर सकते है की वो खुद जा कर घंटी न बजा सके तो कम से कम इन संस्थाओ के एक फोन की घंटी ही बजा दे इस शर्त पर की उनकी जानकारी उजागर नहीं होने दी जाएगी तो भी महिलाओ का कुछ भला हो सकता है क्योकि कई बार ये भी होता है की लोग मदद तो करना चाहते है किन्तु बाद में होने वाले विवाद में नहीं पड़ना चाहते है , कई बार आस पास के लोग ही मदद करने वाले से कहने लगते है की उसे किसी के बिच में पड़ने की क्या जरुरत थी , बेचारा मदद करने के बाद पछताने लगता है की लोगो की तारीफ मिलने की जगह उसकी बदनामी हो रही है , सो अपना युद्ध महिलाओ को खुद लड़ने की हिम्मत दी जाये वही बेहतर | जब ये समझदार लोग अपने निजी अनुभव से सीखेंगे की कभी कभी हमें भी दूसरो की मदद की कितनी जरुरत पड़ती है तब ही लोग दूसरो की मदद के बारे में सोचेंगे | और ये बदलाव अभी तक तो घोंघे की चाल से भी धीमी है , ब्लॉग करते तिन साल से ऊपर हो गए इतनी छोटे से ब्लोग जगत में ज्यादा कुछ नहीं बदला जो बदलाव आये है या जो लोग बदले है वो इसलिए क्योकि वप पहले से ही अच्छे लोग थे महिलाओं के मामले में वो बदलाव के लिए तैयार थे , बाकि जो पहले से तैयार नहीं थे जिनकी सोच ख़राब थी वो आज भी वैसे ही है तो फिर इतनी बड़ी दुनिया से क्या उम्मीद करे |
स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' की इमेल से प्राप्त टिपण्णी
जवाब देंहटाएंबातों के शेर और मिटटी के शेर ही देख रही हूँ। और अब तो आदत भी हो गयी है सब देखने की । जल्दी में हूँ फिर आउंगी।
:)
दरअसल लगता है यह आभासी दुनिया हमें एक झूठी संतुष्टि देकर कर्तव्य विमुख कर रही है ,हर मामले में
जवाब देंहटाएंकितना कुछ कहने का मन है...कितना कुछ कहा जा सकता है.....मगर इस मसले पर पुरुष कुछ कहें तो अच्छा लगेगा.....
जवाब देंहटाएंसमस्या का समाधान औरतों को करना है मैं मानती हूँ....मगर कितना अच्छा हो कि पुरुष समस्याएँ पैदा ही न करें !!!!!
अनु
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(11-5-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
नैतिक मूल्यों और सुधार के संदर्भ में,वास्तव में होता क्या है कि हम सकारात्मक और नकारात्मक दोनो हथियारों का एक साथ वार करते है. उसी कारण कईं सुधार अभियान बीच में ही दम तोड देते है. एक तरफ हम कहते है नैतिक कर्तव्यों का पूरी तरह समापन ही हो गया है. ऐसे में एक ही उपाय रह जाता है कि ऐसे कर्तव्य बोध का पुनः स्थापन हो. जागृति अभियानों से नैतिक कर्तव्य बोध आ सकता है और कोई उपाय नहीं है. ऐसे उपाय छोटे छोटे प्रयास भी हो सकते है और असफल भी बन सकते है. किंतु ऐसे प्रयासों की आलोचना या नकारात्मक अभिगम उसे जोरदार हानि पहुँचाते है. असफलता की हताशाओं में से पुनः सुधार के प्रयास नहीं उगा करते. और असफल प्रयास अपने आप में पूरी तरह असफल नहीं होते,वे उस तक का मार्ग तो आसान करके ही जाते है. इसलिए जरूरत है ऐसे छोटे छोटे असफल प्रयासों को भी सकारत्मक दृष्टि से देखकर दूसरे प्रयासों के लिए हौसला बनाए रखने का.
जवाब देंहटाएंमैं नहीं समझता ब्लॉगिंग में या अन्यत्र हमारा प्रयास बातों के शेर जैसा है. जहां तक बात उत्तम नैतिक मूल्यों की है, हम लेखकों का मात्र पहला कर्तव्य है बीज रोपना और आशावादी बने रहना कि देर सबेर पेड अवश्य होगा. जितने बीज रोपे जाय इतने पेड न उगे तब भी बीज रोपना बंद नहीं किया जाना चाहिए. ब्लॉगिंग की ही बात करें तो मुझे तीन वर्ष हुए है. जब मैं आया था यहां हर दिन एक न एक विवाद व्यक्तिगत विवाद चलता ही रहता था. बडी सरगर्मी रहती थी. बात, बहसें, नाराजगी!! क्या वे हिंदी ब्लॉगिग के आदर्श दिन थे? हिंदी ब्लॉगिग आज स्थिर ठंडा ठंडा सा लगता है तो क्या यह अवनति है? नहीं!! उस समय लोग मात्र विवादों के मजे के लिए चल कदमी मचाए हुए थे. आज माहोल गर्म न होने का अर्थ है हम गम्भीर हुए है. अब विवाद नहीं,विमर्श होते है. यह तो और भी उत्तम स्थिति है.
बाकि अगली बार.........
अब विवाद नहीं,विमर्श होते है.
हटाएंसहमत !
सभी बातों से सहमत हूं..
जवाब देंहटाएंसमाज की असल तस्वीर है .. खास तौर पर
{ प्रसंगवश एक बात याद आ रही है ,एक फ्रेंड ने अपने बैंक की एक सहकर्मी के विषय में बताया था .वे ऊँची पोस्ट पर हैं. पचास वर्ष से ऊपर की हैं,पर हाल में ही उनका तलाक हो गया है और उन्हें कोई फ़्लैट किराए पर नहीं मिल रहा. एक बिल्डिंग में फ़्लैट एक मिला भी तो तीन महीने के अन्दर छोड़ना पड़ा क्यूंकि बिल्डिंग वालों ने आपत्ति की कि ये अकेली रहती हैं,पर इनके घर में लोग आते हैं, पार्टी होती है .एक अकेली औरत का पिटना समाज बड़े मजे में बर्दाश्त कर लेता है पर एक अकेली औरत का हँसना -बोलना उस से बर्दाश्त नहीं हो पाता }
बिल्कुल सही कहा आपने..
बहुत ही सार्थक बातें सामनें रखी हैं आपनें.. जागरुकता से ही यह हो पाएगा, पर इतना तो हम सभी कर ही सकते हैं कि हमारे आस-पास जब कुछ गलत होता हो तो हम आवाज उठाएँ...
जवाब देंहटाएंरश्मि जी आप सही कह रही है की हम लोग सिर्फ कागजी शेर हैं और बातें ही बना सकते हैं। पर मियां बीबी के झगड़े के विषय में आपको अपने अनुभव बता देता हूँ। मियां बीबी के झगड़े में मैंने जब भी अपनी नाक घुसाई हमेशा पीटने वाली महिला से मार खाई। मेरा तो अनुभव यही कहता है की अगर आपको अहसास है की ये झगडा मिया बीबी या गर्ल फ्रेंड बॉय फ्रेंड का है तो तभी हस्तक्षेप करो जब मामला खून खारबे वाला हो जाय। उससे पहले अगर बिच में आये तो हो सकता है की महिला ही आपकी बेइज्जती ख़राब कर दे। ध्यान रखें ये कागजों में आदर्श झाड़ने वाले की नहीं बल्कि एक वास्तविक भुक्तभोगी की सलाह है।
जवाब देंहटाएंपापा ने एक बार बताया था एक किताब में एक पैसेज लिखा था ...
जवाब देंहटाएं'आजकल समाज में बहुत बुराइयां बढ़ गयी हैं...चोरी डकैती की खबरें आम हो गए हैं...लोगों में सहनशीलता ख़त्म हो गयी है ..आदमी आदमी के खून का प्यासा है ...बीते ज़माने की बात कुछ और थी ...तब ऐसा कुछ नहीं होता था ....'
यह लाइन्स तीन बार दोहराई गयीं थीं
और हर पैसेज की सिर्फ तारीख अलग थी ...सबमें २०० साल का फर्क था
तो हालत कभी नहीं बदलते ..पर हर ज़माने में लोगों को लगता है ...पिछला ज़माना इससे बेहतर था
हस्तक्षेप लोग इसलिए भी नहीं करते क्योंकि अक्सर लडने वाले कपल का भी यही मानना होता है कि यह हमारा निजी मामला है, अक्सर पिटने या बेइज्जत होने वाली महिला भी यह नहीं चाहती कि कोई तीसरा बीच बचाव करे क्योंकि वे लोग खुद एक-आध दिन में सुलह कर लेते हैं। आज भी स्त्रियां सिर्फ इस उम्मीद में हिंसा सहती हैं कि एक दिन सब कुछ अपने आप (मानो किसी जादू से) ठीक हो जाएगा और वे खुद ही अपने आप को दोयम दर्जे का प्राणी मानती हैं। जब तक वह अपने आप को इज्जत नहीं देगी, कोई दूसरा उसकी इज्जत नहीं कर सकता।
जवाब देंहटाएंWAISE HI AAJ-KAL SANGEET BADAL GAYA LEKIN GEET NAHI BADALE. (RIMEK)
जवाब देंहटाएंAISE HI AAJ-KAL REMAKE BAN RAHE HAI.SANGEET BADAL GAYA PAR GEET NAHI BADALE.
जवाब देंहटाएंबस अब बातों के ही शेर रह गए हैं हम
जवाब देंहटाएंदुखद पर सत्य
जिस क्षण हम स्वयं को ऐसी घटनाओं से अलग कर लेते हैं, उसी समय समाज हजार टुकड़े और बिखर जाता है। भेदता आलेख।
जवाब देंहटाएंजरूरी नहीं है की सब बातें कर के ही चुप बैठ जाते होंगे ... कोई जरूर होते हैं जो कहे को अंजाम देते हैं ... घंटी जरूर बजाते हैं ... हालात कुछ तो बदलते हुए नज़र आते हैं ...
जवाब देंहटाएं"नर हो न निराश करो मन को
जवाब देंहटाएंकुछ काम करो ,कुछ काम करो "
रामविलास शर्मा की यह पंक्तिया याद आ गई
बाकि सबसे सहमत
सारगर्भित बात ....कभी कभी लगता है अभिव्यक्ति की इस आज़ादी और होड़ ने हमारी बातों के मायने खो दिए हैं ...... पोस्ट का हर भाव वैचारिक है
जवाब देंहटाएंएक विचारपूर्ण आलेख,सारगर्भित
जवाब देंहटाएंबधाई
आग्रह है पढ़ें "अम्मा"
http://jyoti-khare.blogspot.in
हमें अपराध सहन करने की आदत पड़ गयी है। मारपीट ही क्यों, लोग किसी भी गलत बात के लिए नहीं टोकते हैं। पता नहीं यह डर है या कुछ और।
जवाब देंहटाएंati marmik abhivyakti, sahee hai koi bhee aage nahin aata hai.
जवाब देंहटाएंbahut bahut badhai.