नारी ब्लॉग पर एक लंबा विमर्श हुआ। रचना जी ने एक लड़के का पत्र प्रकाशित किया है, उसने पत्र में जो भी लिखा है उसकी मुख्य बातें यूँ हैं,
मै उसे अपने दोस्तों के बीच में नहीं ले जा पाता हूँ क्युकी मुझे उसके बोलचाल का तरीका पसंद नहीं आता हैं . वो साथ में बैठ कर ड्रिंक इत्यादि भी सही तरीके से कम्पनी के लिये भी नहीं ले पाती हैं ..
मुझे उस लड़की मे कोई रूचि नहीं हैं .
मेरे लिये जिन्दगी में क्या ऑप्शन अब हैं ?
क्या मुझे ना चाहते हुए भी इस रिश्ते की आजन्म ढोना होगा ??
लेकिन सबसे बड़ी बात कि ये बेमेल वाली स्थिति पैदा ही क्यूँ होने दी जाए?? लडकियां क्यूँ हीन रहें?? उन्हें भी लड़कों की तरह महानगर भेजकर पढ़ाया जाए , नौकरी करने के अवसर दिए जाएँ (आजकल हो भी रहा है ,पर बहुत ही कम प्रतिशत में ) फिर उन्हें भी कोई नीचा नहीं दिखा पायेगा . और न ही किसी को उनसे शिकायत होगी।
"मेरे माता-पिता ने तकरीबन 1 साल पहले मेरा विवाह उन्होने बलिया में रहने वाली एक लड़की से तय किया था, मेरी इच्छा नौकरी करने वाली और दिल्ली में रहने वाली लड़की से शादी करने की थी पर मै अपने पिता के आगे नहीं बोल पाया ,उस लड़की का मेंटल मेकप मेरी सोच से बिलकुल नहीं मिलता हैं . उसको खाना बनाना बिलकुल नहीं आता हैं .
मेरे कहने से उसने वेस्टर्न कपड़े पहनने शुरू करदिये हैं लेकिन उसकी बोल चाल मे कोई फरक नहीं हैं .मै उसे अपने दोस्तों के बीच में नहीं ले जा पाता हूँ क्युकी मुझे उसके बोलचाल का तरीका पसंद नहीं आता हैं . वो साथ में बैठ कर ड्रिंक इत्यादि भी सही तरीके से कम्पनी के लिये भी नहीं ले पाती हैं ..
मुझे उस लड़की मे कोई रूचि नहीं हैं .
मेरे लिये जिन्दगी में क्या ऑप्शन अब हैं ?
क्या मुझे ना चाहते हुए भी इस रिश्ते की आजन्म ढोना होगा ??
अब मेरे लिये क्या जिन्दगी मे सब रास्ते बंद हो गए जो मुझे जीवन साथी से ख़ुशी मिल सके .
आज कल मे सुबह 6 बजे घर से जाता हूँ , और शाम को 10 बजे के बाद आता हूँ
आज कल मे सुबह 6 बजे घर से जाता हूँ , और शाम को 10 बजे के बाद आता हूँ
उस लड़के को सबने अपनी अपनी समझ से सलाह दी . वहां सारे कमेन्ट पढ़े जा सकते हैं।
टिप्पणियों में यह भी कहा गया, ये आजकल की आम समस्या है क्यूंकि माता -पिता लड़कों को पढने के लिए तो महानगर में भेज देते हैं पर उनकी शादी छोटे शहर की अपनी पसंद की लड़की से कर देते हैं। जिनका मानसिक स्तर लड़के से कम होता है और उनकी आपस में नहीं निभती .
पर ये समस्या आजकल की नहीं है। कुछ दिनों पहले ही सतीश पंचम जी ने अपनी पोस्ट में श्रीलाल शुक्ल जी के उपन्यास 'अज्ञातवास' का जिक्र किया है .जिसमे उस उपन्यास का नायक हू ब हू इसी समस्या से ग्रस्त है .और ये किताब पचास साल पहले लिखी गयी है।
इस उपन्यास का मुख्य पात्र एक विधुर रजनीकान्त है, जिसने कि अपनी पत्नी को इसलिये छोड़ रखा था कि वह गाँव की थी,रहने-बोलने का सलीका नहीं जानती थी। एक दिन जबरी अपने पति रजनीकान्त के घर आ डटी कि मुझे रहना है आपके साथ लेकिन रजनीकान्त ने डांट दिया। उसे साथ नहीं रखने की ठानी लेकिन एक दो दिन करके रहने दिया। रजनीकान्त बाहर जाता तो घर के दरवाजे, खिड़कियां बंद कर जाता कि कहीं बाहर निकली तो लोग इस गंवारन को देखेंगे तो क्या सोचेंगे। दो चार दिन तक ताला बंद करके जाने के बाद कहीं से कोई शिकायत नहीं सुनाई पड़ी तो मिस्टर रजनीकान्त बिना ताला लगाये ऑफिस जाने लगे। उधर क्लब मे इन्हें चिंता लगी रहती कि लोग उनकी पत्नी के बारे में सुनेंगे, उनके शादी-शुदा होने के बारे में सोचेंगे तो क्या सोचेंगे।
धीरे धीरे रजनीकान्त महाशय कुछ अंदर ही अंदर खिंचे खिंचे से रहने लगे। उधर लोगों को धीरे धीरे पता लगा कि इनकी श्रीमती जी आई हुई हैं। एक दिन उनका मित्र गंगाधर अपनी पत्नी को लेकर इनके यहां आ पहुंचा। मजबूरी में भीतर से पत्नी को बुलवाना पड़ा। ड्राईंग रूम में चारो जन बातें करने लगे। मित्र की पत्नी श्रीमती रजनीकान्त से गांव देहात की बातें पूछतीं, मकई,आम के बारे में चर्चा करतीं। सभी के बीच अच्छे सौहार्द्रपूर्ण माहौल में आपसी बातचीत चलती रही। श्रीमती रजनीकान्त भी सहज भाव से बातें करती रहीं लेकिन मिस्टर रजनीकान्त को लग रहा था जैसे उनके मित्र की पत्नी जान बूझकर उनकी पत्नी से गांव देहात की बातें पूछकर मजाक उड़ा रही है, खुद को श्रेष्ठ साबित कर रही है। उनकी नजर मित्र की पत्नी के कपड़ों पर पड़ी जो काफी शालीन और महंगे लग रहे थे जबकि अपनी पत्नी की साड़ी कुछ कमतर जान पड़ रही थी। जिस दौरान बातचीत चलती रही महाशय अंदर ही अंदर धंसते जा रहे थे कि उनकी पत्नी उतनी शहरी सलीकेदार नहीं है, गांव की है और ऐसी तमाम बातें जिनसे उन्हें शर्मिंदगी महसूस हो खुद ब खुद उनके दिमाग में आती जा रही थीं।"
पचास साल पहले एक पुरुष के मन में अपनी गाँव की पत्नी को लेकर ये हीन भावनाएं थीं। उसे अपनी पत्नी बिलकुल पसंद नहीं थी लेकिन फिर भी वह उस से शारीरिक सम्बन्ध बनाने से बाज नहीं आया।
उस उपन्यास में आगे लिखा है," उसके कुछ दिनों बाद एक रात शराब के नशे में अपनी पत्नी से जबरदस्ती कर बैठे। पत्नी लाख मना करती रही कि आपको उल्टी हो रही है, आप मुझसे दूर दूर रहते हैं फिर क्यों छूना चाहते हैं और तमाम कोशिशों के बावजूद पत्नी को शराब के नशे में धुत्त होकर प्रताड़ित किया। अगले दिन रजनीकान्त महाशय की पत्नी ने घर छोड़ दिया और जाकर मायके रहने लगी।
यह उपन्यास 1959-60 के दौरान लिखा गया है . और कहानी -उपन्यास में वही सब आता है, जो उस समय समाज में घट रहा होता है।
आज 2013 में उस लड़के के पत्र में भी यह जिक्र है , " हम पूरे एक साल में भी कभी एक साथ अकेले कहीं घुमने नहीं गए क्युकी मेरी इच्छा ही नहीं होती उसके साथ कहीं भी जाने की { हनीमून पर हम बस 1 हफ्ते के लिये गए थे }"
यहाँ भी इस लड़के को अपनी पत्नी सख्त नापसंद है, पर उसके साथ हनीमून जरूर मना आया। इसमें उस लड़की का गंवारपन आड़े नहीं आया .
उपन्यास में आगे लिखा है , " उधर रजनीकान्त एक अन्य शहरी महिला की ओर आकर्षित हुए जोकि अपने पति को छोड़ चुकी थी। दोस्तों के बीच शराबखोरी चलती रही। इनके दोस्तों में एक फिलासफर, एक डॉक्टर, एक अभियंता। सबकी गोलबंदी। इसी बीच खबर आई कि उस रोज छीना-झपटी और नशे की हालत में हुए सम्बन्ध से पत्नी गर्भवती हो गई है। बाद में पता चला कि एक लड़की हुई है। दिन बीतते गये और एक रोज खबर आई कि पत्नी की तबियत बहुत खराब है। श्रीमान रजनीकान्त किसी तरह अपने उस पत्नी को देखने पहुंचे लेकिन पत्नी बच नहीं पाई। उसका निधन हो गया। अब रजनीकान्त को भीतर ही भीतर यह बात डंसने लगी कि उन्होंने उसकी कदर नहीं की। दूसरा विवाह नहीं किया।
आज के युग में भी इस तरह पत्नी को तिरस्कृत करने वालों का यही हाल न हो। पत्नी या तो दुनिया से चली जाती है या आजीवन दुखी रहती है। पर पति भी कोई सुखी नहीं रह पाता
ये बेमेल विवाह शायद हमेशा से होते आये हैं। लड़के अपनी पसंद की पत्नी तो चाहते हैं, पर माता -पिता के सामने खुल कर बोल नहीं पाते। ये आदर्श बेटे की इमेज बनाये रखना उन्हें महंगा पड़ता है और उनमें इतना धैर्य और संयम भी नहीं होता, कि गाँव से या छोटे शहर से आयी लड़की को थोडा प्यार से नए तौर-तरीके सिखाएं और अपना आगामी जीवन सुन्दर बनाएं .
और ऐसा नहीं है कि लड़कियों को भी हमेशा मनचाहा पति ही मिल जाता है, पर वे मुहं नहीं खोलतीं। और ख़ुशी ख़ुशी एडजस्ट करने की कोशिश करती हैं .
अंशुमाला ने अपनी टिपण्णी में जिक्र किया है, " व्यापारिक घरानों में अधिकांशतः लडकियां बहुत ज्यादा शिक्षित होती हैं। लड़के अक्सर अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर दूकान संभालने लगते हैं। ऐसी अनेक शादियाँ होती हैं, जहाँ पत्नी ,पति से ज्यादा शिक्षित होती है। फिर भी वह सामंजस्य स्थापित कर लेती है। "
वैसे अपवाद दोनों ही स्थितियों में होते हैं .
पर ये बेमेल विवाह तभी रुकेंगे। जब माता-पिता अपनी मर्जी लड़के/लड़कियों के ऊपर नहीं थोपेंगे। लड़के भी संकोच छोड़कर अपनी पसंद की जीवनसंगिनी चुनने में सहयोग करेंगे .
लडकियां आत्मनिर्भर होंगी तो 'दहेज़ के लिए 'ना' भी कह सकेंगी। वरना अधिक दहेज़ देकर भी अपनी कमतर बेटियों के लिए सुयोग्य वर ढूंढें जाते हैं। पर तब लड़कों को कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए . लेकिन वे शिकायत तब भी करते हैं, जैसा उस लड़के ने अपने पत्र में यह भी लिखा है, " शादी पूरे रीति रिवाजो से हुई थी , यानी दान दहेज़ के साथ . लेकिन वो दान दहेज़ तो सब मेरे अभिभावक के पास हैं और मेरी पत्नी जिस से मेरा सामंजस्य कभी नहीं हो सकता मेरे पास हैं .
वैसे , इसके लिए तो दोषी वही है। पर दहेज़ क्या ज़िन्दगी भर काम आती है ?? शादी का नाम ही सामंजस्य है। चाहे दो लोगो ने एक जैसी पढाई की हो, एक से वातावरण में पले हों। एक सी आर्थिक स्थिति हो, फिर भी दोनों के स्वभाव और रुचियाँ अलग होती है . सुख भोगने की कल्पनाएँ और दुःख सहने की क्षमता अलग होती है। इसलिए आपसी सामंजस्य के बिना कोई भी शादी नहीं निभती .
अदा ने उस लड़के को उचित सलाह दी है ,
"शादी ही क्यूँ दुनिया का हर रिश्ता समझौता ही होता है, जब तुम अपने माँ-बाप से समझौता कर सकते हो, तो फिर अपनी पत्नी से क्यूँ नहीं। "
फिलहाल एक सरसरी तौर पर पढ़ी है पोस्ट ... विस्तार से पढ़ने फिर आता हूँ !
जवाब देंहटाएंआज की ब्लॉग बुलेटिन १९ फरवरी, २ महान हस्तियाँ और कुछ ब्लॉग पोस्टें - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
इंतज़ार रहेगा ,आपके वापस आकर विस्तार से पढने का :)
हटाएंहर सम्बन्ध एक समझौता ही होता है । कभी सम्बन्ध के प्रारम्भ में समझौता करना पड़ता है ,कभी अंत में । जो प्रारम्भ और अंत के दरमियान भी समझौता निभा ले जाते हैं ,बस वो सफल हो जाते हैं ।
जवाब देंहटाएंप्रारम्भ से अंत तक दोनों ही पक्षों द्वारा समझौता किया जाए तभी कोई भी सम्बन्ध सफल होगा .
हटाएंरश्मि यह लेख हमने भी पढ़ा था .....और काफी हद तक वह लड़का गलत भी लगा था ..खुद श्रवण कुमार बनने की छह में उसने कितनी जिंदगियां होम कर दीं ...हालाँकि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है ....हमने उस आर्टिकल में एक टिप्पणी दी थी जिसे यहाँ पोस्ट कर रहे हैं ....वैसे तुम्हारी बात से पूरी तरह मैं सहमत हूँ की बेटियों को इस काबिल बनाया जाये की ऐसी हीन भावना न उनके और न ही उनके जीवन साथी के मन में घर सके .....हालाँकि उस आर्टिकल में टिप्पणीयों में यही डिस्कस हो रहा था की ऐसा क्यों हुआ
जवाब देंहटाएं"बात यह नहीं है उसे क्या करना चाहिए था ...समस्या यह है की अब वह क्या करे ..साँप छछूंदर की इस हालत में ..उससे न थूकते बन रहा है न निगलते बन रहा है .....
हमारी समझ से उसे अपनी तरफ से कोशिश करनी चाहिए की वह अपनी पत्नी को वैसा बनाने का प्रयास पूरी निष्ठा से करे जैसा वह उसे बनाना चाहता है ..उसकी बातों से लगा की उसके एफ्फर्ट्स में अभी कमी थी .....उसे इस बात का महत्त्व समझाए....उससे मिलने वाली ख़ुशी और संतोष से अवगत कराये ...उस बदलाव से उनके अपने जीवन में उगे संत्रास...दिफ्फ्रेंसस कैसे ख़त्म हो सकते हैं इस बात का अहसास कराये .....जब वह स्त्री ..उसकी पत्नी इस बात की अहमियत को समझ जाएगी ...वह स्वयं अपनी तरफसे भी पूरी निष्ठा से प्रयत्न करेगी अपने आप को बदलने की ...बशर्ते वह भी उस व्यक्ति के साथ एक सुखी जीवन व्यतीत करने में रूचि रखती हो ..अन्यथा यह पूरी एक्सरसाइज बेकार है ....या इस में सहमती न हो तो दोनों डाइवोर्स ले लें
बिलकुल सही सलाह दी है, सरस जी।
हटाएंयदि विवाह में बच्चों का हित सर्वोपरि हो तो नियत विवाह सफल भी हो सकते हैं, होते भी हैं। हाँ यदि कुछ और ध्यान में रख कर विवाह किया गया है तो कोई न कोई तो भुगतेगा ही।
जवाब देंहटाएंसत्य वचन प्रवीण जी .
हटाएंगुड।
जवाब देंहटाएंथैंक्यू
हटाएंबड़ा वज़नदार और गंभीर लेख है....
जवाब देंहटाएंसमझ नहीं आ रहा कि लेखन और विषय की तारीफ़ करूँ या समाज के हालातों पर टिप्पणी,या फिर बेमेल विवाह पर अपनी प्रतिक्रिया....
आज सिर्फ उपस्थिति दर्ज समझ लो रश्मि.
अनु
सबपर एक एक कर प्रतिक्रिया दे सकती हो..:)
हटाएंवैसे तुम्हारी उपस्थिति ही बहत बड़ा संबल है,
पता है तुम बहुत ध्यान से पढ़ती हो, मेरा लिखा
उपन्यास और पत्र का सुंदर तालमेल।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंलाख मेल-मिलाप, कम्पाबीलिटी का फार्मूला लगाया जाता है पश्चिम में, फिर भी धाक के वही तीन पात :)
जवाब देंहटाएंबिलकुल अपनी पसंद से ही शादी किया जाता है, माँ-बाप का दख़ल सिर्फ इतना होता है कि वो शादी में शामिल होते हैं, दान-दहेज़ का प्रश्न ही नहीं उठता, फिर भी रिश्ते टूटते हैं, और जम कर टूटते हैं, आखिर क्यूँ ???
आपकी अपनी पसंद की नौकरी हो या अपने पसंद के जूते या फिर अपनी पसंद की शादी, या अपनी पसंद का कोई भी रिश्ता, समझौता तो करना ही पड़ेगा, इससे आप भाग नहीं सकते हैं। चाहे शादी के लिए आपके पाट्नर से आपके 36 के 36 गुण मिल जाएँ, दो इंसान एक जैसे हो ही नहीं सकते, भगवान् ने ऐसा काम ही नहीं किया है ।
इस लड़के को कोई बताये, विवाह में तो वैसे भी ' पहले मैं, मुझे और मेरा ' चलता ही नहीं है, और पिता बन जाने के बाद तो ये सोचना भी गुनाह हो जाता है।
trick of the trade is समझौता, ये शाश्वत सत्य है।
ज़ब्बर लिखी हो हमेशा की माफिक :) और हाँ हमको याद की हो उसका वास्ते नो थैंक्स :)
ज़ब्बर कमेन्ट है , हमेशा की माफिक :)
हटाएंसमस्या यह है कि हमेशा से समझौतों की जिम्मेदारी पत्नीयों पर ही रही है | जबकि एक सच ये भी है कि हर रिश्ता कुछ समझौते तो मांगता ही है | और ये पहले भी था आज भी है |
जवाब देंहटाएंबिलकुल मोनिका जी, पत्नियों ने तो समझौते किये ही हैं, अब ज़रा दुसरे पक्ष से भी इसकी शुरुआत हो।
हटाएंई रोज़- रोज़ की चिक-चिक को थोडा हल्का कर रहे हैं हम, और अगर असुविधा लगे तो कमेन्टवा पब्लिसे मर करना ...
जवाब देंहटाएंहम ई जानना चाहते हैं कि, ई सब लभ-बर्ड जो हुए हैं, जैसे लैला-मजनूँ, शिरी-फरहाद, रोमियो-जुलिएट की शादी हो गयी होती, तो कितने दिन टिकती ?? मजनूँ भी कहीं बिसूर रहा होता कि लैला कोयल सी काली है, जुलिएट कितनी गोरी है :):)
ज़रा इसपर भी विचार करो और इसपर भी कुछ लिख मारो :):)
हा हा तुम्हारा आइडिया है, तुम्ही लिख डालो।
हटाएंवैसे भी बड़े दिनों से तुम्हारा ब्लॉग राह तक रहा है, कुछ नया लिखे जाने की :)
मुझे लगता है की इन सभी के विवाह के बाद के जीवन पर बनी फिल्मे ज्यादा हिट होती , क्योकि वो सच्चाई के और आम आदमी के जीवन के ज्यादा करीब होती । वैसे ये बात तो है की इन सभी की शादी हो जाती तो ये सब भी खोई खास नहीं हम जैसे आम हो जाते ,आटे दल का भाव पता चल जाता और सारा प्यार फुर्र हो जाता और फिर इन पर फिल्म ही क्यों बनती , किताबे क्यों लिखी जाती :)
@ तुम जब अपने माँ बाप से समझौता कर सकते हो तो पत्नी से क्यों नहीं ....ये स्त्री पुरुष दोनों पर सामान रूप से लागू होना चाहिए !
जवाब देंहटाएंउस लड़के की सभी दलीलें हास्यास्पद हैं .
विवाह के बाद आपसी सामंजस्य ना हो पाना एक अलग समस्या है , अपनी पसंद से किये गए विवाह भी टूटते ही हैं !!
सही कहा वाणी,
हटाएंपत्नी की तरफ से भी समझौते किये जाने चाहिए। और अक्सर वे करती भी हैं।
शायद यह बात 'नारीवादी' सी लगे लेकिन पत्नी की तरफ से शादी के साथ ही समझौते की शुरुआत हो जाती है।
अपना घर परिवार, रिश्तेदार-परिचित, जाना सुना गाँव-शहर छोड़ना किसे अच्छा लगेगा ? पर वो सब छोड़ पति के साथ चली जाती है, न।
पति की नौकरी किसी जंगल में हो, रेगिस्तान में या किसी बर्फीले इलाके में , पति दिन भर दफ्तर में गुजारे और पत्नी घर में बोर होती रहे फिर भी वो साथ रहने से इनकार नहीं करती।
बदले में थोडा प्यार-सम्मान की दरकार होती है,वो भी अक्सर नहीं मिलता उन्हें .
लीजिये जिस बात को आज कल के युवा की समस्या बताया जा रहा था असल में तो ये पुरुष का दिमागी खुराफात ज्यादा दिख रहा है ( हा ये आज कल लड़कियों में भी आ गई है ) :)
मै मन चाह शादी का विरोध नहीं कर रही हूँ , कहने का अर्थ ये है की भावी पति और पत्नी असल में अपने जीवन साथी में चाहते क्या है वो ठीक से यही बात नहीं जानते है , पुरुष आज कल पढ़े लिखे हो गए है आधुनिकता का लबादा भी ओढ़ लिया है किन्तु पत्नी को लेकर उनकी पुरातन सोच अज भी नहीं गई है , पहली की हम पत्नी को पसंद करेंगे मतलब पहला हक़ मेरा है लड़की का नहीं , दुसरे आधुनिक ज़माने की पत्नी तो चाहिए किन्तु वो भी उनके हाथ की कठपुतली ही हो । मै इसी विषय में पोस्ट भी देना चाह रही थी फुरसत में देती हूँ ।
अंशुमाला ,
हटाएंइन्तजार रहेगा आपकी पोस्ट का।
आजकल काफी व्यस्त रहती हैं, पोस्ट भी कम आ रही हैं,आपकी
जल्दी लिखियेगा
बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति,आभार.
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण तो इसमें कुछ भी नहीं था .
हटाएंतल्ख़ सच्चाई थी।
दीदी, मुझे तो यही लगता है कि ये समस्या है बहुत व्यापक, लड़का दोषी है ही क्योंकि बहुत से दम्पत्ति ऐसे हैं जो एक-दूसरे से बिल्कुल मेल न होते हुए भी निभाते रहते हैं. कई बार रहते-रहते प्रेम हो जाता है, तो कई बार बिना प्यार के ही निभाते हैं. लेकिन दोष 'सिर्फ' लड़के का भी नहीं है. दोष उस पूरी व्यवस्था का है, जिसमें लड़कों को तो बाहर भेजकर पढ़ाया-लिखाया जाता है और लड़कियों को नहीं.
जवाब देंहटाएंआपने जो ये बात कही मैं उससे पूरी तरह सहमत हूँ---
"पर ये बेमेल विवाह तभी रुकेंगे। जब माता-पिता अपनी मर्जी लड़के/लड़कियों के ऊपर नहीं थोपेंगे। लड़के भी संकोच छोड़कर अपनी पसंद की जीवनसंगिनी चुनने में सहयोग करेंगे .
लेकिन सबसे बड़ी बात कि ये बेमेल वाली स्थिति पैदा ही क्यूँ होने दी जाए?? लडकियां क्यूँ हीन रहें?? उन्हें भी लड़कों की तरह महानगर भेजकर पढ़ाया जाए , नौकरी करने के अवसर दिए जाएँ (आजकल हो भी रहा है ,पर बहुत ही कम प्रतिशत में ) फिर उन्हें भी कोई नीचा नहीं दिखा पायेगा . और न ही किसी को उनसे शिकायत होगी।"
हाँ.. अराधना
हटाएंपूरी व्यवस्था ही दोषी है
पर इसे बदलने का दारोमदार अब नयी पीढ़ी पर ही है।
व्यवस्था अब बदल रही है, और बदलाव कष्ट देता है।
हटाएंये झूठ की व्यवस्था कैसे बनी इसका एक बहुत बड़ा कारण है। एक ज़माना था जब लोग लड़की देखने जाते थे। आज भी देखना होता है, लेकिन तब की बात कुछ और ही थी।
जब लड़की देखने लोग जाते थे तो लड़की को सामने बुलाया जाता था, लड़की को उठाया जाता था, बिठाया जाता था, चलाया जाता था, हंसाया जाता था, बुलवाया जाता था । उनकी चाल-ढाल, बाल, दांत, नाखून, पैर सब देखे जाते थे। उससे खाना बनवाया जाता था, सिलाई-कढाई के नमूने देखे जाते थे, कहीं कहीं तो उससे गाना भी गवाया जाता था। मतलब कि सर्व-गुण संपन्न लड़की की तलाश होती थी। जैसे लड़की न हुई कोई नुमाईश हो गयी। अब हर लड़की, हर गुण में माहिर तो हो नहीं सकती, इसलिए कुछ बातों में झूठ का सहारा लिया जाता था। खाना-नाश्ता कोई और बना देता था, सिलाई-कढाई के नमूने मोहल्ले वालों से मांग कर लाया जाता था। मैं ये नहीं कहती कि ये सब सही था। लेकिन लड़की वालों की भी मजबूरी ही होती थी। अगर ऐसा नहीं करते तो उस ज़माने में लड़की की शादी ही नहीं होती। अब भी झूठ वही है, बस उसका रूप बदल गया है। लड़केवालों की अवास्तविक अपेक्षाएं, लड़की वालों को झूठ बोलने पर मजबूर करतीं हैं। इसी केस में लड़के की अपेक्षाएं वास्तविकता से कोसों दूर हैं।
यह व्यवस्था तभी बदलेगी जब अपेक्षाएं बदलेंगी। लड़के पिन-उप सुंदरी के साथ-साथ genius, brilliant, able, proficient, creative, stylist, talented, star, brainy, expert, mature, organised इत्यादि, जैसी बहुत सारी लडकियां एक ही लड़की में ढूँढना छोड़ दें। जो लड़की जैसी है वैसी ही स्वीकार होनी चाहिए। हाँ माँ-बाप को और लड़की को भी खुद में गुणों का विकास करना होगा और सच्चे रूप में सामने आना होगा, देख लीजियेगा यह व्यवस्था बदल जायेगी। :)
विवाह आपसे सहमति से होना चाहिए ... माता पिता को थोपना नहीं चाहिए कुछ भी ... आज के समय में लड़की पूरी तरह से आत्मनिर्भर बने ये बहुत जरूरी है ... जहाँ तक पोस्ट ओर इस उपन्यास की बात है ... पुरुष प्रधान मानसिकता हावी है ऐसे लड़कों में ... सब कुछ करने के बाद शोदे बनते हैं ... दूसरों पे दोष डालते हैं ...
जवाब देंहटाएंबस इसी की तो रस्साकस्सी है .
हटाएंपहले सर झुकाए स्त्रियाँ सब कुछ मान लेती थीं,
अब नहीं मानतीं तो आपसी तकरार बढती है।
वह पांस्ट मैंने भी पढी थी, यह एकतरफा बयान है, जिस पर हम चर्चा कर रहे हैं। यह बात मैंने वहां भी लिखी थी। पुरुषों की फितरत रही है कि वे पत्नी पर कैसा भी आरोप लगा देते हैं। इसलिए बहस इस विषय पर नहीं होनी चाहिए कि उक्त पुरुष क्या लिख रहा है अपितु बहस का विषय बेमेल (मानसिक) विवाह होना चाहिए। यह सच है कि ऐसी परिस्थितियों का शिकार हमेशा महिलाएं ही रही हैं। न जाने कैसे-केसे पतियों को सहन किया है महिलाओं ने। समाज पुरुषों की सुरक्षा का ध्यान रखता है, इसी कारण हमेशा छोटी पत्नी, कम पढी हुई पत्नी की ही तलाश की जाती है। लेकिन उसके बाद भी अक्सर पति, पत्नी के सामने बोना ही सिद्ध होता है। यही कारण है कि वह अपनी हीनभावना छिपाने के लिए तरह तरह के स्वांग भरता है।
जवाब देंहटाएंवहां मैंने टिपण्णी जानते बूझते हुए नहीं की - लेकिन तुम लोगों की सब टिप्पणियां पढ़ीं । बहुत कुछ कहना चाहती थी इस बारे में , बल्कि चाहती हूँ भी । चाहती हूँ , लेकिन चुप रह जाना ही बेहतर है ।
जवाब देंहटाएंक्या शिल्पा तुम भी न !!
हटाएंहमेशा कुंडा खड़का कर भाग जाती हो :) और हम सोचते रह जाते हैं कि कौन था !!
:)
अगर पोस्ट पर विमर्श के बाद ये सब ने मान लिया हैं की "असली दोष व्यवस्था में एक ही हैं "स्त्री पुरुष असमानता / भेद भाव " तो पोस्ट में वो पत्र देना सार्थक हुआ . हम कहीं से भी घूम कर कहीं आये समस्या एक ही हैं की 1947 से लाकर आज तक हमने अपनी बेटियों को स्वाबलंबी नहीं बनाया हैं . अपने बेटो को हम हमेशा आगे बढने को प्रेरित करते हैं , बेटियों को घर में रह कर "आगे " बढने की सलाह देते हैं .
जवाब देंहटाएंवह लड़का भी तो उसी गांव की उत्पत्ति है. जब वह शहर आया होगा तो अचानक शहरी तो नहीं बन गया. फिर लड़की को कुछ समय देने में क्या विवाद हो सकता है.
जवाब देंहटाएंसार्थक विमर्श.
विवाह में शुरू शुरू में ऐसा लगता है पर समय बीतने के साथ साथ वैवाहिक जीवन में परिवक्ता आ जाति है और लड़का लड़की स्वमेव की एडजस्ट कर लेते है ... पर इसमें समय लगता है. सब्र से काम लेना चाहिए. वक्त ही दोनों के बीच सामजस्य बिठा लेता है.
जवाब देंहटाएंइतना हो-हल्ला ये लड़का अब कर रहा है। जबकि इसे अपनी पसंद नापसंद का लेख जोखा शादी से पहले अपने माँ-बाप को देना था। अब ये सब सोच सोच कर खुद को भी तकलीफ दे रहा है और अपनी पत्नी को भी, माँ-बाप भी कहाँ सुखी रहेंगे अगर उनको पता चले की उनका बच्चा सुखी नहीं है। और गारंटी है कि उसके माता पिता को तो समझ में ही नहीं आएगा कि ई बोल का रहा है ??
जवाब देंहटाएंजीवन में अपनी पसंद को भी, अपनी पसंद बनाए रखने के लिए, मेहनत करनी पड़ती है। हर रिश्ते पर काम करना पड़ता है। इस लड़के की शिकायतें ऐसी भी नहीं हैं जो बहुत सीरियस हों, वो सबकुछ हो सकता है, जो वो चाहता है अगर वो ज़रा धीरज से काम ले। जैसे वाशिंग मशीन, माइक्रोवेव इत्यादि को चलाने में लड़की को वक्त लगा। अरे बोल तो ऐसे रहा है जैसे ये सब कुछ बलिया छपरा वाले युगों से चला रहे हैं। कभी-कभी इन मशीन्स को समझने में अच्छे-अच्छों के छक्के छूटते देखा है। थोडा टाईम तो लगता ही है। रही बात खाना बनाने की, तो हर घर का अपना एक तरीका और स्वाद होता है। मुझे याद है जब मैं गयी ससुराल तो मुझे ज्यादा घी डाल कर पराठे बनाने की आदत थी और मेरे ससुर जी बहुत कम घी पसंद करते थे, नहीं चाहते हुए भी हमसे ज्यादा घी पड़ ही जाता था, टाइम लग गया था हमको अपना हाथ रोकने में। मेरे भाई की पत्नी हर चीज़ में पचफोरन डाल देती थी, और हमलोगों को आदत नहीं थी, कुछ सब्जियों के लिए सबने आदत कर ली :) और कुछ के लिए उसने नहीं डालना सीख लिया :) ससुराल वालों के हिसाब से अगर बहू, खाना नहीं बनाए तो यही कहा जाता है, अरे इसको खाना बनाना ही नहीं आता है :(
दारू नहीं पीना, ये कब से डिसकुआलिफ़िकेशन हो गया है भारत में ? गनीमत मनाये कि लड़की को इंटरेस्ट नहीं है। कहीं लत लग गयी, तो लड़की बन जायेगी छोटी बहु और खुद बन जाएगा भूतनाथ :):) लड़की किसी कम्पीटीशन की तैयारी कर रही थी शादी से पहले, फिर उसकी शादी हुई, ससुराल से ही वो एग्जाम देने गयी, नहीं पास हुई। इसमें अचरज क्या है ? एक तो ये कम्पीटीशन इतने आसान नहीं होते और फिर इतना डिसट्रैकशन, जीवन में इतने सारे बदलाव ???
जुम्मा-जुम्मा आठ दिन तो हुए हैं शादी के और जनाब को टोटल मेटामोर्फोसिस चाहिए। 28 साल की आदत, 1 साल में कैसे बदल सकती है ???
ऐसा भी नहीं है कि ये दुनिया का अकेला इंसान होगा जो अडजस्ट करेगा। कमो-बेसी सभी करते हैं। फिर जिसको भी अपनी लाईफ स्टाईल में फेर-बदल चाहिए, उसे तो जुटना ही पड़ेगा। ऐसा भी नहीं लगता कि इसे बचपन से अत्याधुनिक ज़िन्दगी की आदत रही है और अब अचानक उसका सामना गँवई लड़की से हो रहा हो। बल्कि लग तो ये रहा है कि नया-नया मुल्ला पाँच की जगह 10 बार नमाज़ पढ़ रहा हो। और फिर जब इतनी ज्यादा मुसीबत हो गयी है इसके लिए तो अपनी कम-पसंद, या ना-पसंद को, अपनी पसंद में तब्दील करने के लिए, लग जाए वार फुटिंग पर। कौन जाने आज जो ना-पसंद है, थोड़ी सी मेहनत करेगा तो महा-पसंद बन जाए :) आज कल के बच्चों को सबकुछ फास्ट चाहिए, फास्ट फ़ूड, फ़ास्ट लाइफ़, फ़ास्ट लेन, जबकि फ़ास्ट इज आलवेज डेंजरस।
एक बात और है, बिहार की लडकियां अगर सीखने पर आ जाएँ तो, दे कैन लीव एवरीबोडी बिहाइंड :) क्यों ?
हम और तुम भी तो एक्स बिहारिन हूँ !! :)
हम कहाँ...तुम हो एक्स बिहारिन हम तो अब भी पक्के बिहारिन हैं :):)
हटाएंहाँ, हम एक्स झारखंडी जरूर हो गए हैं :((जन्मस्थान रांची जो है )
आज मां-बाप ही अपनी बिरादरी-इज्जत और न जाने क्या-क्या की परवाह करके ऐसे बेमेल रिश्ते अपने बच्चों पर थोप देते हैं जिन रिश्तों को भुगतना उन बच्चों को पड़ता है..बाद में कोई भी सुख का जीवन नहीं बिता पाता...
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
आभार।।।
रश्मि जी, सबसे पहले तो मुझे गुस्सा इन हज़रत पर आ रहा है जिन्होंने अपनी हीन मानसिकता को जाने परखे बगैर ही एक लड़की का जीवन सिर्फ इसलिए बर्बाद करने के लिए हामी भर दी क्योंकि ये अपने माता-पिता से शायद एक लायक बेटे होने का प्रमाणपत्र हासिल करना चाहते थे ! संभव है इसमें भी उनका कोई हित सध रहा हो ! ऐसे लोगों को मैं उच्च शिक्षित नहीं केवल डिग्री धारक मानती हूँ ! क्योंकि यदि ये सचमुच शिक्षित होते तो ज़रूर इस बात की गंभीरता को भी समझ पाते कि हमारे परम्परावादी समाज में एक लड़की के माथे पर तलाकशुदा या परित्यक्ता का साइनबोर्ड लटका देने का क्या अर्थ होता है और अगर समझ पाते तो ऐसे घटिया विचार उनके दिमाग में कभी नहीं आते ! अगर लड़की के मानसिक स्तर, बोलचाल के तौर तरीके और रहन सहन के लिए इतने ही पर्टीकुलर थे तो इन सब की जांच परख शादी से पहले ही कर लेनी चाहिए थी ! लेकिन उस समय तो सारी बहादुरी हवा हो गयी थी ! अब अपनी भूल और कायरता की सज़ा अपनी पत्नी को देने का इन्हें कोई हक़ नहीं है ! इनकी पत्नी को तो इनसे कोई शिकायत नहीं है जबकि इनका व्यवहार उसे कितना कष्ट देता होगा इसका अनुमान लगाना भी असंभव नहीं है ! जब वह इन्हें बर्दाश्त कर सकती है तो ये स्वयं अपनी रचाई हुई परिस्थितियों के साथ समझौता क्यों नहीं कर सकते ? क्या सिर्फ इसलिए कि ये पुरुष हैं और इन्हें अपनी मनमानी करने का लाइसेंस समाज से मिला हुआ है ? समय और अभ्यास और लगन से हर व्यक्ति सब कुछ सीख लेता है ! बस धैर्य प्यार और प्रोत्साहन की ज़रुरत होती है ! फिर एक बात और ! इन महाशय का तो अपनी पत्नी के साथ कोई रागात्मक सम्बन्ध नहीं जुड़ पाया है इसलिए विवाह विच्छेद का निर्णय ये महाशय तो आसानी से ले सकते हैं लेकिन क्या इनकी पत्नी के साथ भी यही सच है ! अधिकतर भारतीय लडकियां आज भी विवाह जैसी संस्था में ना केवल पूरी आस्था रखती हैं वे सात फेरों के साथ अपने पति का वरण सात जन्मों के लिए तय हो जाना भी सच मानती हैं ! एक लड़की, जिसकी मांग में इन्होंने स्वयं सिन्दूर भरा है, के हृदय को तोड़ने का भी इन्हें कोई अधिकार नहीं है ! सच बात तो यह है कि इनकी पत्नी को इनके अनुरूप ढालने की कवायद की जाए इससे बेहतर यह होगा कि ये किसी काउन्सलर के पास जाकर अपनी चिकित्सा करवाएं ! चिंतनीय पोस्ट के लिए आपका आभार ! इसी आशय की मेरी भी एक पोस्ट है समय मिले तो देख लीजिएगा ! नीचे लिंक दे रही हूँ !
जवाब देंहटाएंhttp://sudhinama.blogspot.com/2013/01/blog-post_28.html
शादी से पहले ही अपनी पसंद -नापसंद बताने का साहस जो नहीं कर पाते बाद में बेमेल होने के कारण पत्नी से अलग रहना या उसे अपनी मित्र मंडली से अलग -थलग रखना सबसे बड़ी नपुंसकता है
जवाब देंहटाएंशादी दो लोगो के विचारों का एक होना है..इसमें कोई नियम तो बनाया भी नहीं जा सकता न ही शादी से पहले किसी का मानसिक स्तर जानना हमेशा संभव हो पाता है न ही जल्दी किसी के आदतों और व्यव्हार को परखा जा सकता है ..इस बात की क्या गारंटी है की लड़के को अपने मन से साथी चुनने दिया जाए तो वो शादी टिकी रहेगी...ये तो दोनों की मानसिकता पर निर्भर करता है वो अपना भविष्य और रहन सहन कैसे रखना चाहते है..
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