बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

क्या हम पीछे की तरफ लौट रहे हैं ??

कुछ मित्रों ने अपने अनुभव शेयर किये . एक मित्र दफ्तर से छुट्टी ले ,पहाड़ों की तरफ अकेले निकल गए। कोई प्लान नहीं, कोई शेड्यूल नहीं। शिमला, मसूरी, नैनीताल, ऋषिकेश  जिस जगह जब तक मन हुआ रुके और फिर आगे चल दिए। एक और मित्र हैं जो हर सन्डे आस-पास के गाँवों की तरफ निकल जाते हैं। खेतों में घूमते हैं, किसी किसान के साथ हल चलाते हैं, किसान के घर उसके परिवार संग उनका सादा सा भोजन करते हैं। गाँव के बच्चों के साथ पतंग उड़ाते हैं, कंचे खेलते हैं और शाम तक घर वापस।  

इस तरह के शौक बहुत कम लड़कों में ही होते हैं। पर वे अपने शौक पूरे कर तो पाते हैं। ऐसे ही ख्याल आया अगर किसी लड़की के भी ऐसे शौक हों तो क्या वह ऐसे बेधड़क, बेखटके, निडर होकर घूम पाएगी ?? अपनी यह उलझन फेसबुक पर लिख दी और फिर कई लोगो ने तो कहा यह संभव नहीं, वो ज़माना जाने कब आएगा .
 कुछ का यह भी कहना था कि सोचना  नहीं चाहिए निकल जाना चाहिए .अनुराधा मंडल जी ने कहा कि  वे तो अकेले निकल जाती हैं। मनीषा पांडे ने अपनी एक दोस्त के विषय में बताया कि  साइकिल से वो आधा राजस्थान घूम चुकी है।

एक सहेली से चर्चा की तो उसने अपने अनुभव बताये कि आज से बीस साल पहले कॉलेज के दिनों में वो ,उसकी छोटी बहन और दो और सहेलियां कुल चार लडकियां कहीं भी घुमने चली जाया करती  थीं। अचानक प्रोग्राम  बना और बैग उठा धर्मशाला, चंडीगढ़, शिमला ..कहीं भी जाने के लिए वो दिल्ली के बस स्टॉप की तरफ चल देती थीं। उक्त शहर में जाकर भी वे किसी बड़े या फ़ाइव स्टार होटल में नहीं ठहरती थीं बल्कि छोटे होटलों में रुकतीं ,आराम से तीन चार दिन तफरीह करतीं और फिर घर वापस। उनके माता -पिता ने भी उन्हें कभी नहीं रोका . उनके पैरेंट्स को उनपर पूरा विश्वास था। , वे लोग भी उनसे कुछ भी छुपाती नहीं थीं। उन दिनों मोबाइल फोन्स भी नहीं थे . पर पैरेंट्स उनकी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त थे। 

पर अब पता नहीं यूँ बेफिक्र हो चार  टीनेज़ लडकियां किसी अनजान शहर में घूम सकती हैं या नहीं। क्या उनके पैरेंट्स उनकी सुरक्षा को लेकर उतने  ही आश्वस्त होंगे ?
तो क्या आज से बीस साल पहले लडकियां ज्यादा सुरक्षित थीं?
 क्या हम पीछे की तरफ लौट रहे हैं ??
जिन हब्बा खातून की शायरी से कश्मीर की वादियाँ गूंजती थीं अब तीन  बच्चियों का  एक बैंड 'प्रगाश ' का निर्माण कुफ्र हो गया। लड़कियों के मोबाइल रखने ,शाम को घर से बाहर निकलने पर पाबंदी। स्कूल के यूनिफॉर्म स्कर्ट और फ्रॉक की जगह सलवार कुर्ते दुपट्टे में बदल गए . लड़कियों पर अंकुश के रोज नए फरमान। 

कुछ लडकियां हिम्मत वाली होती हैं, अकेले कहीं भी चली जाती हैं। किसी ने चूं चपड़ की तो थप्पड़ जड़ देती हैं। ऐसी लड़कियों से सब डरते भी हैं। सीधी सादी लड़कियों को ही छेडछाड, फिकरों का ज्यादा सामना करना पड़ता है ( अपवादों को छोड़कर ) यह बात मैंने भी बहुत पहले ही जान ली थी। सत्रह वर्ष की उम्र में जो कहानी लिखी थी,उसमे भी जिक्र है ," उसे आत्मविश्वास दिया था उसकी ‘जूडो कराटे‘ की ट्रेनिंग ने...इनका इस्तेमाल करने की जरूरत तो नही ंपड़ी लेकिन इसने इतनी हिम्मत जरूर दे दिया कि ईंट का जवाब पत्थर से दे सके। और तब जाना कि लड़के भी छुई-मुई सी कतरा कर निकल जाने वाली... लेकिन इस कतराने के क्षण में भी जतन से सँवारे अपने रूप की एक झलक देने का मोह रखनेवाली लड़कियों को ही निशाना बनाते हैं। किसी ने स्वच्छंदता से खुल कर सामना करने की कोशिश की नहीं कि भीगी बिल्ली बन जाते हैं। 

आज सभी लड़कियों से अपील की जाती है कि वे बहादुर बने, किसी से डरें नहीं, सताने वाले को थप्पड़ जड़ दें, वगैरह वगैरह . पर हर लड़की एक सी नहीं होती। सबका स्वभाव एक जैसा नहीं होता। बस में धक्का लगने पर जहाँ एक लड़की पलट कर एक झापड़ रसीद कर देती है, वहीँ एक दूसरी लड़की खुद में ही और सिमट जाती है। और उसे और भी धक्के खाने पड़ते हैं। पर इसलिए कि वह आगे बढ़कर चिल्ला नहीं सकती, उल्टा थप्पड़ नहीं जड़ सकती ,उसे यह सब सहना पड़ेगा ?? 

यह सही नहीं है। यह स्थिति ही बदलनी चाहिए . लड़कियों के लिए सुरक्षित माहौल होना चाहिए .वे जहाँ चाहें बेखटके आ जा सकें। अंकुश अगर जरूरी है तो लड़के लड़कियों दोनों पर। इन सब बातों पर भी मेरी उस फ्रेंड का कहना था कि तब मोबाईल , टी वी , इंटरनेट का ज़माना नहीं  था। इन सबने युवाओं को और भी करप्ट कर दिया है। कच्चे मस्तिष्क पर इन सबका बहुत ही गलत प्रभाव पड़  रहा है। लड़के/लडकियां दोनों  फिल्मों , सीरियल्स में देखे प्रसंगों को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करते हैं। और फिर खामियाजा भुगतते हैं। अदा ने अपनी पोस्ट में एक प्रकरण का जिक्र किया है ,जहाँ लड़कियों ने एक दुसरे की वस्त्रहीन तस्वीरें खींची थीं। उनकी किस्मत अच्छी थी कि उन्होंने एक भले लड़के को मोबाइल रिपेयर करने के लिए दिया और उसने वो तस्वीरें डीलीट कर दीं .किसी गलत हाथों में वो मोबाइल पड़ जाता तो वे लडकियां मुसीबत में पड़ सकती थीं। 

ऐसी हरकतों की एक और वजह हो सकती है, बंधन से आजादी महसूस करने कोशिश। जब ढेर सारे बंधन लगाए जाते हैं तो उन बंधनों के ज़रा सा ढीले पड़ते ही ऐसी हरकतें सामने आ जाती हैं। भेड़ बकरियों को भी अगर बाँध कर रखा जाता है तो दडबा खुलते ही वे सीधी सामने वाले रास्ते पर नहीं चलतीं, इधर उधर भागने लगती हैं। यही बात मानव स्वभाव के लिए भी कही जा सकती है .अगर उन पर विश्वास किया जाए, अनावश्यक बंधन न लगाएं जाएँ तो शायद वो अपना सही गलत खुद तय करें। विद्रोह जताने या यह महसूस करने के लिए कि वे कुछ भी करने के लिए आज़ाद हैं,  कुछ उल्टा-सीधा न करें। क्यूंकि कुछ लोग तो ऐसे होते  हैं जिन्हें बंधन की इतनी आदत पड़  जाती है कि बंधन खोल भी दिए जाएँ फिर भी वे उसी दायरे में घूमते हैं पर कुछ ऐसे भी हैं, जो सरपट भाग  निकलते हैं और नहीं देखते कि राह में खाई है या बड़े बड़े  गड्ढे। 

हालांकि जब कोई हादसा होता है तो उसे अंजाम देने वाले विकृत मनोवृत्ति के होते हैं। हाल में  जो दामिनी के साथ हुआ उन छह नरपिशाचों में से कोई भी इंटरनेट से प्रभावित तो नहीं था। वे स्वभाव से ही अधम थे। 
नयी नयी चीज़ों का आविष्कार होता रहेगा। विकास को तो अवरुद्ध नहीं किया जा सकता . लेकिन उसके इस्तेमाल के लिए बहुत ही सावधानी बरतने की जरूरत है। अगर लापरवाही बरती गयी तो उससे होने वाले फायदे के साथ नुकसान का खतरा भी उठाना ही पड़ेगा। 

46 टिप्‍पणियां:

  1. रश्मि जी

    अपने बचपन से लड़कियों के असुरक्षित होने की बाते सुनती आ रही हु , और उनके साथ हो रही अनेको घटनाओ के बारे में भी , मुझे नहीं लगता है की किसी भी ज़माने में महिलाए हमारे देश में सुरक्षित महसूस करती होंगी , हा जो दूसरी बात आप ने कही है वही सच है वो है आत्मविश्वास , आत्मविश्वास हर व्यक्ति को हर परिस्थिति का सामना करने के लायक बना देता है और हिम्मती भी , जैसा की आप ने कहा की सहने वाले के साथ जुर्म ज्यादा होता है और हम सभी को यही प्रयास करना चाहिए की ये आत्मविश्वास और हिम्मत सभी लड़कियों में आये ।

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    1. आपका कहना बिलकुल सही है अंशुमाला,
      'हम सभी को यही प्रयास करना चाहिए की ये आत्मविश्वास और हिम्मत सभी लड़कियों में आये '

      पर हम जब हर क्षेत्र में प्रगति कर रहे हैं तो फिर एक सभ्य समाज का निर्माण क्यूँ नहीं कर प् रहें, जाह्न सबल-निर्बल ,बोल्ड-शर्मीले हर लोग सुरक्षित महसूस करें।
      कई लडकियां संकोची -शर्मीली भी होती हैं तो क्या वे यह सब सहती रहें ?? नहीं, बल्कि समाज की ये सूरत ही बदलनी चाहिए .

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    1. तुम सोनल रस्तोगी ही हो न,
      ये nice लिखने वाले तो कोई सुमन हुआ करते थे /हैं :)

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  3. दुरूपयोग तो हर चीज़ का किया जा सकता है..... तकनीक का भी | पर हाँ , हिम्मत बनी रहे तो हालात संभाले तो जा सकते हैं

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  4. हमारे देश क्या और भी कई विकसित देश हैं जहाँ लडकियाँ सुरक्षित नहीं....
    एक तो हमारे समाज में ज़रा सा "ऊंच नीच" हुआ और लडकियाँ जात बाहर....अब इससे शादी कौन करेगा टाइप टैग लग जाता है....
    अब कौन हिम्मत दिखाए भला....
    लडकियां तो हिम्मती हैं ही,शुरू से हैं.... अब हिम्मत समाज को और समाज के पुरुषों को दिखानी है..लड़कियों का साथ देने की हिम्मत.

    अनु

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    1. हाँ अनु,
      अब सारे पुरुषों से यही अपेक्षा है कि लड़कियों को भी वे सिर्फ लड़की न समझकर ,एक इंसान समझें हालात तभी सुधरेंगे

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  5. दिल्ली बम्बई की बात हम नहीं जानते हैं, रांची में क्राइम अपने शीर्ष पर है, लूट-पाट, अपहरण, हत्या, आम बात है। छेड़ छाड़, बलात्कार कोई क्राईम नहीं माना जाता। इसको टाईम पास अफ़ेयर कहा जाता है। किसी दिन हमरे साथ कुछ घटित हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि कुछ घटित नहीं होना आश्चर्य की बात है अब। हम कहीं बाहर जाते हैं और सुरक्षित घर लौट आते हैं तो माँ कहती है शुक्र है तुम आ गयी, हम तो बहुत घबरा रहे थे । तो हालत ई है, कि अब कुछ हो जाना लोग एक्स्पेक्ट करते हैं। पहले हमलोग सिर्फ नाईट शो ही देखने जाते थे फिल्म घर से, अब कोई सोच भी सकता है क्या ???
    हम तो एतना जानते हैं आज से 19 साल पहले कनाडा नितांत अकेले आये, अकेले ही रहे, नौकरी ढूंढें फिर बेटों को और उनको बुलाये ...अब पता नहीं ई 'हिम्मत' और 'बहादुरी' में आएगा या नहीं ..बाकी बात रही हम वापिस जा रहे हैं कि नहीं यही कहेंगे कि हम जोन धरती मईया का छाती पर मूंग दर रहे हैं, ऊ एकदम गोल हैं। हम सब घूम के वहीँ पहुँच रहे हैं, जहाँ से चले थे।

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    1. अच्छा याद दिलाया, अब तो परिवार के साथ 'नाइट शो' जाना एक भूली हुई बात लगती है।
      कितनी अजीब सी बात है, अपने देश के बजाय विदेश में भारतीय स्त्रियाँ खुद को ज्यादा सुरक्षित समझती हैं।
      आज ही एक फ्रेंड बता रही थी, विदेश में वो कहीं भी अकेले घुमने निकल जाती है पर अपने ही देश में डरती है और यह बात तुमसे अच्छी तरह और कौन जानता है।

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  6. ye bat to sahi hai..pahle ladkiyan jyada surakshit thi ab to adhunikta ke nam par samaj aadim hota ja raha hai. vicharneey post..

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  7. घूमना बन्द नहीं करना चाहिये, आवारगी मेरे लिये तो मौलिक सुख है, सबके लिये होगा। सतर्क रहने की आवश्यकता है बस।

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    1. यह मौलिक सुख सबको बराबर रूप से मिले, यही कामना है

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  8. यह सच ह‍ै कि बचपन में हम ज्‍यादा सुरक्षित थे। हम सायंकाल हमेशा दो-तीन लड़कियां एकदत एकान्‍त में घूमने जाते थे, जहाँ मिट्टी के ऊँचे ऊँचे टीलों के अतिरिक्‍त कुछ नहीं था लेकिन तब हमें डर छू भी नहीं गया था। लेकिन शायद अब नहीं है।

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    1. अजित जी,एक पुरानी बात याद दिला दी , जिसका जिक्र मैंने अपनी एक पोस्ट में किया भी है।
      अपनी एक फ्रेंड के साथ कॉलेज में किसी काम से जाती तो हम कैंटीन की भीड़ में न बैठकर पास के एक निर्माणधीन घर में चले जाते। आस-पास मजदूर काम करते रहते .ठेकेदार उनसे काम करवाता रहता और हम निश्चिन्त हो किचन के प्लेटफॉर्म पर बैठकर गप्पें लड़ाते रहते .
      आज के दिन में इसकी कल्पना भी भयावह लगती है।

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  9. अपनी युवावस्था में अपनी सुरक्षा के लिए कभी इतना नहीं डरे , जितना इस समय में अन्य लड़कियों के लिए डरते हैं , जबकि हमारा समय बीता डकैती के लिए बदनाम इलाकों में अथवा मुस्लिम बहुल इलाकों में!
    अब इससे आगे क्या कहे !!
    सतर्क और सजग रहना होगा , रुकना नहीं !

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    1. रुकना तो नहीं ही है और लडकियां रुक भी नहीं रही हैं .
      बस उनके रास्ते सरल सुगम हो जाएँ, यही तमन्ना है .

      गिरिडीह जैसे छोटे से शहर में अक्सर मैं और मेरी सहेली रूबी दोपहर का शो देखने चले जाते .
      पूरा हॉल करीब करीब खाली रहता . बालकनी में तो सिर्फ हम दो जन होते .पर कभी कोई अप्रिय घटना नहीं हुई।
      आशा है अब भी वहां ऐसा ही माहौल होगा।

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  10. ऐसा तो नहीं कहना चाहिए की पीछे की ओर लौट रहे हैं ... पर आगे जाने की रफ़्तार इतनी तेज है की बहुत कुछ खो रहे हैं हम जो समाज में ऐसे कई विकार पैदा कर रहा है ...

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    1. ऐसा कहने का मन तो हमारा भी नहीं है, कहते दुःख भी हो रहा है।
      पर एक शंका तो उठती ही है मन में,

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  11. विश्‍लेषण अधूरा है। विकास वस्‍तुओं का हो रहा है, मानवीय मस्तिष्‍क का नहीं। नरपिशाच इंटरनेट नहीं टी वी के सम्‍पर्क में तो थे ही। क्‍या इसमें कम झीझालेदर मची हुई है लाइव शो के नाम पर।

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    1. वस्तुओं का विकास अपने आप तो नहीं हो रहा, उसके पीछे मानव-मस्तिष्क ही है।
      पर समाज के एक जरूरी पक्ष के विकास की तरफ से ये मानव-मस्तिष्क इतना उदासीन क्यूँ है ??

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    2. मानवीय मस्तिष्‍क वस्‍तुओं के विकास के पीछे ही है, इसी बात को तो दुख है। मस्तिष्‍कीय स्‍तर मौलिकता और नैतिकता प्राप्‍त नहीं कर पा रहा है।

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    3. मेरे कहना का वही तो तात्‍पर्य है कि मस्तिष्‍क सिफ वस्‍तुओं और इनके प्रतिलाभ के पीछे ही लगा है, दुख है कि मस्तिष्‍क सामाजिक मौलिकता और नैतिकता का आह्वान नहीं कर रहे हैं।

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  12. ज़माना शराफ़त का है ही कहां. शराफ़त को लोग कमज़ोरी मान लेते हैं. यह बात पुरूषों पर भी लागू होती है. शरीफ़ को कोई भी हड़का लेता है.

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    1. तो ये शराफत का ज़माना कब आएगा ?
      हाँ, कई बार पुरुष भी ज्यादती के शिकार हो जाते हैं।
      पर ज्यादा भुक्तभोगी महिलायें ही हैं, इस से तो इनकार नहीं किया जा सकता।

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    2. मतलब ये कि शरीफों के पास दो ही विकल्प हैं ...या तो वो हड़क जाएँ या फिर बदमाशी पर उतर आयें ...
      अगर हड्कें तो कमज़ोरी मानी जायेगी और अगर ....:)
      इधर कुवाँ उधर खाई,
      वाह ! हमने भी क्या किस्मत पाई !!!
      भारत में जन्में हैं भाई !

      जननी जन्म भूमि, नरक से महान :)

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  13. लेख का विषय गहन विचार -विमर्श मांगता है.
    आप ने कई बातें यहाँ एक दम सही लिखी हैं.

    यह सच है मैं भी शाम अँधेरा होने के बाद दिल्ली में अकेले कभी बाहर निकलने का सोच लार अजीब सी घबराहट होती है !जबकि एमिरात में मैं खुद को अधिक सुरक्षित समझती हूँ.

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    1. यह हमारे देश का दुर्भाग्य है अल्पना जी,
      हम देशवासियों के लिए शर्म की बात है कि हम एक सुरक्षित अच्छा माहौल नहीं तैयार कर सके।

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  14. आज का समय पहले से बहुत बदल गया है ....सिर्फ 12 पहले सन 2000 में भारत ने 100 करोड़ को पार किया था ...और आज 2011 census* के मुताबिक़ 127 करोड़ हैं हम लोग .मतलब 11 साल में 27 करोड़ की बढ़त !! ... ( जो की 1947 के समय सिर्फ 40 करोड़ था ) . आज जब मैं अपने शहर जाती हूँ तो इतनी भीड़ देख कर सोचती हूँ क्या ये वहीँ सीधा साधा सा सहर है जहाँ हर व्यक्ति तीसरे व्यक्ति को जनता था . आपकी पोस्ट पढ़ कर मुझे वो दिन याद आ गए जब मैं अपनी सहेली नमिता के साथ 9 वें की practical परीक्षा दे कर घर लौट रही थी .. स्कूल शहर से थोडा बाहर था और करीब 2 km हाईवे पर चलना पड़ता था ....मैं और नमिता साइकिल रोक कर हाईवे के दोनों तरफ फैले हुए खेतों में चले गए .. जहाँ मेढ के सहारे 4 बांस लगा कर 1 छप्पर लगा था . छप्पर के निचे tube well fix था। खेत के मालिक / मजदूर ने tube well ON किया हुआ था .... हम दोनों ने उसका पानी पिया ... इतना अच्छा अहसास आज तक किसी भी पार्टी / पिकनिक / रिसोर्ट etc etc में नहीं आया . बात फरवरी की है क्योंकि सरसों के पीले फूलों से पूरा खेत पटा पड़ा था .....

    अब वो स्कूल शहर के अन्दर आ गया है .. खेतों का नमो निशान नहीं है .. सारे खेत मायावती XXXX हाउसिंग बोर्ड योजना के तहत प्लाट बना कर बेच दिए हैं . वहां जो भी घर बने हैं, उसके नाले पीछे से नदी में गिरते हैं ........बात सिर्फ सुरक्षा की नहीं है .. वो वातावरण लौट के जाने कब आएगा ....समझ में नहीं आता हम लोग पीछे जा रहे हैं ..या पीछे को भी बहुत पीछे छोड़ चुके हैं ...........
    आज माता पिता बच्चों को गाँव की तरफ जाने से रोकते हैं .. क्यों की अपराध बढ़ गए हैं ..अपराधी शहर से भाग कर गाँव में छुप जाते हैं ....वैसे देखा जाये तो गाँव के लोग सीधे होते हैं ...

    * According to a report 2011 census are not yet completed in the states of UP & Bihar . Till Jan 2013 UP census were about to get finished . more info here
    http://dailypioneer.com/nation/102511-after-missing-2-deadlines-upas-caste-census-still-on.html
    So we can assume that we are 144 crore ....

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    1. @बात सिर्फ सुरक्षा की नहीं है .. वो वातावरण लौट के जाने कब आएगा
      वो वातावरण तो खैर क्या लौटेगा पर जैसा भी हो, सुखद हो, खुशनुमा हो, सुरक्षित हो ,लेकिन जनसंख्या वृद्धि की जो भयावह स्थिति है ,उसमे कोई संभावनाएं नज़र नहीं आतीं :(

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    2. Correction : हर व्यक्ति तीसरे व्यक्ति को जानता था .

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    3. ये तो तुम्हारे करेक्शन के बाद देखा कि वहां कोई त्रुटि भी थी :)

      सच वो बेफिक्र वाले दिन इस देश में कहीं तो सांस ले रहे हों। किसी कोने में तो लडकियां बेख़ौफ़, किसी ट्यूबवेल से पानी पीती हों, टीले पर घुमती हों , एकांत में बैठ गप्पें लगाती हों , जमीन का कोई टुकड़ा तो उन्हें महफूज़ लगता हो

      BTW 4 बांस लगा कर जो छप्पर लगाया जाता है,उसे मचान कहते हैं .जिस पर रातों को बैठकर किसान फसल की रखवाली करते हैं (hope जंगली जानवरों से आदमी के वेश धरे जानवरों से नहीं )

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  15. देखो जहाँ तक आविष्कारों की बातें हैं...वे तो होते रहेंगे....हर आविष्कार के अपने फायदे नुकसान हैं...लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं की उसका बहिष्कार कर दिया जाये......यह तो समझ और मानसिकता ही है ..जो उसका सही ..या गलत इस्तेमाल करवाती है ...ज़रूरी है सोच बदलने की ...मानसिकता बदलने की ...हमेशा की तरह बहुत ही बढ़िया ...प्रवाहमय लेख..जो एक ही साँस में पढ़ गए ......:)

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    1. @ प्रवाहमय लेख..जो एक ही साँस में पढ़ गए ......:)

      शुक्रिया आपका ये कहना हमेशा मेरे लेखन को बल प्रदान करता है, स्नेह बनाये रखियेगा:)

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  16. ye sab maansikta ke hi upar nirbhar karta hai....meri ek dost jo US mein rahti hai wo apne 2 saheliyon ke saath kai trip par gayi hai..wo yahan bhi aati hai akele hi....lekin hamare desh men to....

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    1. lekin hamare desh men to....

      तुम्हारे इस अधूरे छोड़े वाक्य ने ही सबकुछ कह दिया

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  17. रश्मि, हमारी सामाजिक व्यवस्था लड़कियों के लिये ऐसा बेफ़िक्र माहौल कभी मुहैया नहीं करवा पायेगी. उसके अनुसार तो लड़कियों को सुरक्षित रहना है, तो चारदीवारी में रहें" का जुमला है ही. हमारे समाज से लड़की का आकर्षण इतनी जल्दी खत्म नहीं होने वाला, सो उसके साथ असुरक्षा शब्द हमेशा जुड़ा रहने वाला है. हर लड़की अकेले निकलने पर ऐहतियात तो बरतती ही है, लेकिन तब भी सुरक्षित नहीं है. मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी ऐसे ही बेफ़िक्र बिंदास घूमे, लेकिन क्या मैं उसे अकेले सफ़र पर भेज पाउंगी???

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    1. वंदना ,
      माँ का दिल तो कभी नहीं मानेगा यूँ अकेले भेजने पर लेकिन आजकल लडकियां ही बहुत हिम्मत वाली हैं।
      और ईश्वर उनकी हिम्मत बनाए रखे

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  18. हर मुद्दा विचारणीय है लेकिन हजारों परेशानियों के पीछे प्रशासन के अभाव की कहानी भी है। किसी गुंडे को कोई लड़की थप्पड़ मार भी दे तो इस बात की गारंटी नहीं है कि भरे बाज़ार या उसी के घर मे घुसकर उस पर तेज़ाब न फेंका जाएगा। ऐसे में कुछ दिमागी पैदलों की धमकी आने पर लड़किया उसे इगनोर करें भी तो कैसे। जिन्हें जेल मे होना चाहिए वे हर रोज़ अपने-अपने फतवे खुलेआम टीवी, इंटरनैट पर पढ़ते दिखते हों तो सभ्य समाज के रिवाज कैसे पनपेंगे?

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    1. सही कहा अनुराग जी,
      स्थिति चिंताजनक ही है , यही तो मुश्किल है, जिन्हें जेल की चहारदीवारी के भीतर होना चाहिए, वे खुलेआम घूम रहे हैं। और उनके डर से लडकियां दुबकी हुई हैं .

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  19. ये तो नहीं कहा जा सकता कि पहले महिलाओं के खिलाफ ऐसे अपराध कुछ कम होते होंगे लेकिन जनसंख्या बढ़ने की वजह से भी कुछ प्रभाव पड़ा है जैसा कि summary जी ने भी कहा वहीं लडकियाँ पहले की तुलना में घर से बाहर ज्यादा निकल रही हैं पढाई या नौकरी के सिलसिले में भी।लेकिन जैसा कि आज भी यौन शोषण घरों में ही ज्यादा होता है और नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा किया जाता है तो पहले ऐसे ही मामले ज्यादा होते होंगे।लेकिन शिकायत शायद इतनी नहीं हो पाती थी।मीडिया का तंत्र भी इतना विकसित नहीं था।पर हाँ आजकल कुछ नए तरीके आ गए हैं जैसे छुपे कैमरों से तस्वीरें उतार नेट पर अपलोड कर देना या ब्लैकमेल करना आदी ।
    आप अपनी पोस्टों में तस्वीरें बडी चुनकर लगाती हैं।

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    1. हाँ, राजन अब लडकियां चुपचाप नहीं सह्तीं ,सामने आ कर अपने जुर्म की दास्तान सुना जाती हैं।
      वरना पूरी तरह महफूज़ तो वे घर के भीतर भी नहीं रही हैं।

      और फोटो पर भी ध्यान देते हो , शुक्रिया :):)

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  20. अगर बात सिर्फ सुरक्षा की है ..तो कौन महफूज़ है कातिल से इस कत्लगाह में ...even women holding top most posts have been the victim several times .

    http://aajtak.intoday.in/story/minister-talks-of-dms%E2%80%99-looks-at-public-event-1-720963.htmllooks-at-public-event-1-720963.html

    The whole system is built up on top of wrong foundation . वैसे आप क्या सोचतीं हैं रश्मि जी दिए गए लिंक को पढ़ने के बाद ...
    क्या करना चाहिए था उन महिला पदाधिकारियों को उस वक़्त ? क्या चुप बैठ कर इधर उधर देख कर टाइम पास करना चाहिए था या फिर माइक हाथ से छीन कर प्रतिउत्तर देना चाहिए था उसी वक़्त ?

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    1. उक्त लिंक पढ़ा, इन नेताओं से तो कोई उम्मीद नहीं। न उनके इस कथन पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ।
      मैंने पिछली पोस्ट में यही बात लिखी है कि अधिकाँश पुरुषों को पता ही नहीं, उच्च शिक्षित, ऊँचे पद पर आसीन महिलाओं के साथ उनका व्यवहार कैसा होना चाहिए। वे सदियों से यही जानते हैं कि खूबसूरती की तारीफ़ स्त्रियों को अच्छी लगती है। जरूर अच्छी लगती है पर यूँ किसी भी ऐरे गैरे नत्थू खैरे द्वारा नहीं .और मौका और रिश्ता सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।
      उस लिंक पर कुछ कमेंट्स भी हैं। दो चार टिपण्णी पढ़कर ही पता चल गया कि अधिकाँश पुरुषों की मानसिकता कैसी है .

      माइक छीनने की बात तो मैं नहीं कहूंगी पर जोर से 'एक्सक्यूज़ मी' या 'एक मिनट' कहकर उन्हें बीच में ही जरूर टोकना चाहिए था। तब भी वे अंट शंट बकने से बाज़ न आते तो बाद में माइक लेकर बहुत ही कड़े शब्दों में आपत्ति जतानी चाहिए थी, कि वे अपने द्वारा किये गए कार्य पर उनके विचार जानना चाहेंगी। मंत्री जी की टिपण्णी उस पर होनी चाहिए , यूँ व्यक्तिगत रूप से नहीं।

      हटाएं

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