शनिवार, 19 जनवरी 2013

अभी वक्त लगेगा, दिमाग की खिड़कियाँ खुलने में

हाल ही में कुछ दरिंदो द्वारा दामिनी की नृशंस हत्या ने पूरे देश को आंदोलित कर दिया है। और टी वी , पत्रिकाओं, फेसबुक और हमारे ब्लॉगजगत में भी समाज में स्त्रियों के स्थान , उनकी सुरक्षा, उनके अधिकार और कर्तव्य  पर जम कर चर्चा  हो रही है। 


जब भी ऐसी कोई घटना घटती है, कई चेहरों से मुखौटे  उतर जाते हैं। और उनकी सोच देख कर हैरानगी होती है। उच्च शिक्षित ,उच्च पद पर आसीन लोगों की सोच इतनी सतही कैसे हो सकती है? इसमें स्त्री-पुरुष दोनों शामिल हैं। लोग ऐसी ऐसी प्रतिकियाएं देते हैं कि उनकी बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है। और यह भी आशंका होती है कि ऐसी सोच रखने वाले लोग,अपने घर की स्त्रियों की कितनी सहायता कर पाते होंगे ?, उन्हें आगे बढ़ने के कितने मौके देते होंगे ?

पर ऐसा है क्यूँ ? मुश्किल ये है कि समाज में पुरुषों के स्थान, उनके अधिकार-कर्तव्य ,उनकी जीवन शैली में समय के साथ कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी घर के मुखिया वही होते हैं। घर से या के घर सदस्यों से सम्बंधित महत्वपूर्ण निर्णय लेने का अधिकार उनके पास ही होता है। घर की देखभाल,वे अपना कर्तव्य मानते हैं। और उनकी जीवनशैली होती है, घर से बाहर  जाकर पैसे कमा कर लाना और फिर घर में आराम फरमाना, उनके खाने-पीने, कपडे लत्ते  का ख्याल घर की महिलायें ही रखती  हैं चाहे वे माँ हो या फिर पत्नी।

लेकिन महिलाओं की जीवन शैली में आमूल चूल परिवर्तन आ चुका  है। आज भी अधिकाँश महिलायें, घर का ख्याल रखते हुए गृहणी का ही रोल अदा  करती हैं। पर पहले जहाँ वे लकड़ी के चूल्हे पर काम करती थी, फिर कोयले के चूल्हे, मिटटी तेल के स्टोव पर काम करने लगीं। पर अब गाँव गाँव में भी गैस के चूल्हे का प्रवेश हो चुका  है। अब बिना धुएं के बिना हकलान हुए बस नॉब घुमाती हैं और चूल्हा जल जाता है। मिक्सर  में सेकेण्ड भर में मसाला पिस जाता है, वाशिंग मशीन में कपड़े  धुल जाते हैं। 

पुरुषों को सुबह का चाय-नाश्ता, दोपहर का खाना, रात्रि-भोजन  हमेशा से सामने परस कर मिलता है। अब ये खाना, लकड़ी के चूल्हे पर बना है या गैस के इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी तरह उनके कपडे भी धुले- प्रेस किये हुए आलमारी में सहेजे हुए मिलते हैं . अब वे कपडे जमीन पर पटक पटक कर धोये गए हैं, या वाशिंग मशीन में ,लोहे वाली इस्त्री से आयरन किये गए हैं या बिजली वाले, इस से उन्हें क्या मतलब? उनकी दिनचर्या तो सदियों से वही चली आ रही है। टेबल पर खाना हाज़िर ,  आलमारी में तहाये हुए कपड़े, व्यवस्थित .
सुबह उठे, अखबार पढ़ा, इंटरनेट पर समय बिताया, नहा  धोकर गंदे कपड़े बदल कर इस्त्री किये हुए कपडे पहने ,काम पे गए ,शाम को वापस आये, चाय पी, धुले हुए कपडे पहने ,टी वी देखा ( पहले रेडियो पर समाचार सुनते थे ),खाना खाया , नींद आयी तो साफ़-सुथरा बिस्तर भी सामने।

अगर स्त्री भी घर से बाहर जाकर काम करती  है , फिर भी पति की दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं होता। स्त्री सुबह उठ  कर वैसे ही  किचन में जाती है, कपड़ो का ख्याल रखती है, बच्चो का ख्याल रखती है, शाम को फिर से किचन का रुख करती है । हाँ, जहाँ दिन में ,थोड़ी देर आराम कर लिया करती  थी, अब सारा दिन ऑफिस में  काम करती है।
स्त्रियों के पहनावे में भी बदलाव आया है। अब सर पर पल्लू नहीं है, साड़ी की जगह सलवार-कमीज़ और जींस ने ले ली है . पर पुरुषों के लिए वही पैंट कमीज़। 

इन सबसे इतर, घर में पुरुषों के नाज़-नखरे (pampering ) भी उठाये जाते हैं। बढ़िया भोजन, दूध-फल ,उन्हें देने के बाद ही  स्त्री खाती है बल्कि अक्सर नहीं ही खाती है। और बहुत कम घरों में ऐसा होता  है कि पुरुष भी स्त्री के खाने-पीने का उतना ही ख्याल रखें। और यह सब पुरातन जमाने से चला आ रहा  है। 

तो कहने का अर्थ यह है कि जब पुरुषों के जीवनचर्या में कोई बदलाव आया ही नहीं तो एकाएक उनके विचार, उनकी मानसिकता कैसे बदल जायेगी?? उनका रोल नहीं बदला है और इसी तरह वे स्त्री को भी बदले हुए रोल में स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।  अब स्त्रियाँ,आँखें मूँद कर उनकी बात नहीं मान रही हैं। वे भी अपनी इच्छा-अनिच्छा जाहिर कर रही हैं। उनकी गलत बातों का विरोध कर रही हैं। तो पुरुषों के अहम् को ठेस लग रही है। जो स्त्री अब तक चारदीवारी में कैद थी। उनका हर कहा मानती थी। पति-बेटे ने जैसा कपडा ला दिया, पहन लिया। जहाँ घुमाने ले गए चली गयीं  .अब वे अपनी पसंद-नापसंद  बताती  हैं। इनकार भी कर देती हैं, कहीं जाने से। 

और स्त्रियों के इस बदले हुए रूप से पुरुष कैसे सामंजस्य करे ,समझ नहीं  पा रहा। पुरुषों को  मदद की जरूरत है। उनके दिमाग की खिड़कियाँ खुलने में अभी वक्त लगेगा। क्यूंकि यह सब उनके लिए बहुत ही असुविधाजनक भी है। वे स्त्रियों को घर के अन्दर सहमी-सिकुड़ी से देखने के आदी थे, अब सडकों पर यूँ बेख़ौफ़ घूमते देखेंगे तो असहज तो होंगे ही।

अगर वे किसी महिला को आत्मविश्वास से लबरेज़, आत्मनिर्भर  देखते हैं तो थोडा सा डर जाते हैं, थोड़े सशंकित होते हैं कि कहीं वो उनसे आगे न निकल जाए या फिर उनके घर की स्त्रियाँ जो अब तक उनके शासन में हैं, कहीं वे उक्त स्त्री का अनुकरण न करने लगें . और वे उसकी भरपूर आलोचना करते हैं, उसकी योग्यता को नकारने की पूरी कोशिश करते हैं। उसके कपड़ों पर , उसके काम पर , उसके घुमने-फिरने सब पर अंगुली उठायी जाती है। 

 इस तरह की सोच अकेले पुरुष की ही नहीं महिलाओं की भी हो सकती है जैसा हमने हाल में ही उनके बयान देखे किसी महिला वैज्ञानिक ने दामिनी के चुपचाप  आत्मसमर्पण नहीं करने के फैसले को गलत बताया था तो किसी महिला ने उसके शाम को घर से बाहर रहने को गलत ठहराया था। इन महिलाओं की सोच भी पुरुषवादी सोच ही होती है, वे भी हर बात में पुरुषों का वर्चस्व ही सर्वोपरि  मानती हैं। 

यह  पुरुषवादी सोच जल्दी नहीं बदलने वाली , ऐसी सोच का विरोध, इसकी आलोचना  जारी रहनी चाहिए  पर इस सोच के बदलने की स्त्रियों को धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। और शायद पूरी तरह ये सोच तभी बदलेगी जब हमारे देश की एक -एक लड़की शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जायेगी . हालांकि इस बात का संतोष और ख़ुशी भी है, गिने-चुने ही सही पर कुछ पुरुष हैं जो स्त्री का अलग अस्तित्व ,उनके अलग व्यक्तित्व को स्वीकार करते हैं और उनका सम्मान भी करते हैं। बस इनकी संख्या में लगातार इज़ाफे की ही तमन्ना है, हर स्त्री को। 

41 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे तो लगता है कि पुरुषों की सोच कभी बदलेगी ही नहीं...
    जो दावा करते हैं "खुली सोच" का मुझे तो उनकी सच्चाई पर भी शक होता है सच्ची....
    स्त्रियाँ पुरुषों की सोच के बारे में बात करना बंद कर दें तो अच्छा...मगर वो भी संभव नहीं दीखता...अजीब चक्कर है..

    अनु

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  2. सही कह रही हो रश्मि, आपात काल में ही लोगों की पहचान होती है ...
    इतने नृशंस कांडों को देखने सुनने के बाद भी लोगों की सोच के बारे में जान कर दिमाग का फ्यूज उड़ जाता है।
    बस वही चक्करघिन्नी चलती रहती है, लडकियों को रात में बहार नहीं जाना चाहिए, लड़कियों की ही गलती होती है, क्या ज़रुरत थी दामिनी को सिनेमा जाने की ...इतना गुस्सा आता है कि क्या बताऊँ ..
    दामिनी अगर हॉस्पिटल से आ रही होती तो क्या बच जाती ???

    लेकिन अच्छा है ऐसे हादसे दुखदाई तो होते हैं लेकिन, चेहरों को न सिर्फ बेनकाब करते हैं, कुछ लोगों को सचमुच बदल भी देते हैं। समाज में जागरूकता तो आ ही रही है, साथ ही लडकियां ज्यादा अवेयर हो रहीं हैं, वोकल हो रही हैं ...वो दिन दूर नहीं जब हमारी अपनी एक जगह होगी, एक मकाम होगा, हम एक पुतली नहीं इंसान माने जायेंगे।

    बहुत अच्छा लिखा है, हमेशा की तरह ...

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  3. जब बहस अधिक हो जाती है, तो छीछालेदर होने लगती है, सब अपने आप को उड़ेलने लगते हैं, बिना सोचे समझे।

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  4. आशा है समय के साथ बदलाव आएगा और आना भी चाहिए | लगता है शुरुआत तो हो चुकी है......

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  5. पुरुषवादी सोच में बदलाव आ भी रहा है लेकिन यह प्रक्रिया धीमे धीमे ही आगे बढ़ेगी. यह महिलाओं में आई स्वतन्त्रता से दीखता भी है.

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  6. जब पुरुषों के जीवनचर्या में कोई बदलाव आया ही नहीं तो एकाएक उनके विचार, उनकी मानसिकता कैसे बदल जायेगी??
    बहुत सही. समस्या की जड़ यही है असल में. स्त्री अगर नौकरी करती है तो ये उसकी इच्छा मान ली जाती है. बिना ये देखे कि उसके नौकरी करने से घर के आर्थिक स्तर में क्या सकारात्मक बदलाव आये, या पुरुष की खर्च चलाने की ज़िम्मेदारियां कितनी कम हुईं? ऑफ़िस से लौट के कई महिलाओं का ये कहना कि थक गयीं हैं, उन्हीं पर वार की तरह लौटा दिया जाता है कि -तो क्यों नौकरी करती हो? छोड़ दो" और अगर काम न करें, तो मध्यम वर्गीय परिवार में अकेले खटने का राग सुनना स्त्री की मजबूरी होती ही है. हां इधर नयी पीढी की मानसिकता में बदलाव आया है.

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  7. बदलाव की प्रक्रिया धीमी ही सही मगर असर लायेगी

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  8. स्त्री विमर्श ,चर्चा कर लोग अपने आप को स्त्रियों का हितैषी मान बैठते है ?
    हम सब कहती है हमे नहीं चाहिए ये विमर्श ?यही से शुरुआत करनी होगी ।
    बहुत अच्छा लिखा है ।

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  9. :) मैं पहले अपनी सफ़ाई दे दूँ !बचपन से आदत रही है अपना सारा काम स्वयं करने की। वाशिंग मशीन का प्रयोग श्रीमती जी करती हैं पर मैं वाशिंग मशीन का काम अपने हाथ से करता हूँ। यह क्रम आज भी जारी है, इसलिये पड़ोस की कुछ महिलाओं को रेखा से ईर्ष्या होती है। एक महिला जी ने यहाँ तक बोल दिया -रूप की न सरूप की मगर किस्मत देखो इसकी, रानी जैसी रहती है, हसबैण्ड अपने कपड़े ख़ुद धोता है। एक ने कहा, जोरू का गुलाम है। एक ने कहा, काश! मेरी शादी इसीसे हुयी होती।

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    1. आपको कोई सफाई देने की जरूरत नहीं थी, मैंने पोस्ट की ये पंक्ति आप जैसे लोगों के लिए ही लिखी है।
      "इस बात का संतोष और ख़ुशी भी है, गिने-चुने ही सही पर कुछ पुरुष हैं जो स्त्री का अलग अस्तित्व ,उनके अलग व्यक्तित्व को स्वीकार करते हैं और उनका सम्मान भी करते हैं।" (अर्थात, घर का काम करने में अपनी हेठी नहीं समझते )

      आपका यह उल्लेख करना किसी और का कहा ही सही, "रूप की न सरूप की मगर किस्मत देखो इसकी, रानी जैसी रहती है, हसबैण्ड अपने कपड़े ख़ुद धोता है। "
      मुझे बिलकुल सही नहीं प्रतीत हुआ।आपकी पत्नी के लिए ऐसी आपत्तिजनक बात किसी ने कही और जिसका विरोध करना चाहिए, भुला देना चाहिए ,उसे यूँ सार्वजनिक रूप से आप मजे ले कर सुना रहे हैं। मेरा विरोध है इस कथन पर।

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    2. "हम वेरी-वेरी हम्ब्ली आपसे अपील करते हैं कि आप अपने फ़ैसले को बदलने की मेहरबानी करें।"
      "...ठक..ठक..ठक.. द ऑब्जेक्शन इज सस्टेण्ड"
      "...मी लॉर्ड! जिन्होंने यह टिप्पणी की थी वे बहुत पढ़ी-लिखी महिला हैं। डिग्रियों के मामले में हम उनके आगे कहीं नहीं लगते। उस दिन उनकी टिप्पणी पर हम दोनों ही अपने घर में मज़े लेलेकर चाय पीते रहे। सुन्दरता के मामले में उनकी परिभाषा जो भी हो। हमारी परिभाषा भिन्न है। हमदोनों ने ही उनकी बात का न तो कोई ज़वाब दिया न ही बुरा माना। सो मी लॉर्ड! काइण्डली सस्पेण्ड द ऑब्जेक्शन इंस्टियेड सस्टेण्ड"
      "नो-नो, नेवर! आपने सार्वजनिक रूप से अपनी पत्नी का परिहास करने वाली स्त्री के कमेण्ट को ज़ाहिर किया और उस स्त्री का विरोध नहीं किया। यह स्त्री विरोधी मानसिकता का प्रतीक है। अगली पेशी में गवाहों को भी पेश किया जाय। द कोर्ट इज एड्जॉर्नड टिल नेक्स्ट हियरिंग। ठक..ठक..ठक..।"

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    3. डिग्रियां हासिल कर लेने से समझदारी और संस्कार नहीं आते यह तो उक्त महिला के कथन से स्पष्ट हो ही गया। आप उनकी उच्च शिक्षा और डिग्रियों से कितने आतंकित हैं, यह तो आपके इस कथन से भी जाहिर है कि " वे बहुत पढ़ी-लिखी महिला हैं। डिग्रियों के मामले में हम उनके आगे कहीं नहीं लगते।"

      आपको उनका यह कथन बुरा नहीं लगा यह भी दिख ही रहा है अन्यथा आप उसे यहाँ उद्धृत नहीं करते ।

      अब फर्ज कीजिये पड़ोस के कुछ पुरुष एक सुघड़ सुन्दर महिला को अपने पति और घर का अच्छी तरह ख्याल रखते हुए उन पति पत्नी के सामने ही कहते हैं ," कितना बदसूरत पति है इसका, न रूप है न गुण है, पर किस्मत देखो,पत्नी कितना ख्याल रखती है।काश मेरी शादी इस स्त्री से हुई होती "
      तो क्या पति यह बात सुन कर घर में बस मजे मजे से चाय पीता रह जाता। बिलकुल नहीं।
      यही मानसिकता तो बदलनी चाहिए। पति ने अगर अपने कपडे धो लिए (निश्चय ही पत्नी के कपडे नहीं धोये होंगे ) तो इतना महान बन गया कि स्त्रियाँ उस से शादी करने की इच्छुक होने लगीं?
      और इस तरह की गंभीर बात पर इस तरह के मजाकिया टिपण्णी अच्छे नहीं लगते . इस से बात हलकी नहीं पड़ जाती . यह कोई मजाक का विषय नहीं है।

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    4. मजाकिया टिपण्णी से मेरा आशय आपके ये सब लिखने से है ,

      "हम वेरी-वेरी हम्ब्ली आपसे अपील करते हैं कि आप अपने फ़ैसले को बदलने की मेहरबानी करें।"
      "...ठक..ठक..ठक.. द ऑब्जेक्शन इज सस्टेण्ड"
      अगली पेशी में गवाहों को भी पेश किया जाय। द कोर्ट इज एड्जॉर्नड टिल नेक्स्ट हियरिंग। ठक..ठक..ठक..

      हटाएं
    5. रश्मि, अभी कौशलेन्द्र जी का कमेंट पढा और मेरी निगाह भी बस इसी वाक्य पर अटक गयी-रूप की न सरूप की.....
      बाद में तुम्हारी आपत्ति देखी. इस ज़रूरी आपत्ति को दर्ज़ कराने के लिये तुम बधाई की पात्र हो. ऐसा लिख के कौशलेन्द्र जी ने ज़ाहिर कर दिया कि उनकी पत्नी खूबसूरत नहीं हैं, और यदि स्त्री खूबसूरत नहीं है, तो उसे प्यार/सम्मान का अधिकार कैसे मिल सकता है? किसी महिला की ऐसी आपत्तिजनक टिप्पणी पर निश्चित रूप से उन्हें तुरन्त विरोध दर्शाना चाहिये था. उनकी सौंदर्य की जो भी परिभाषा हो, इन्हें अपनी परिभाषा ज़रूर बतानी चाहिए थी. कौशलेंद्र जी की पत्नी भी उन महिला की इस अपमानजनक टिप्पणी केवल इसलिये सह गयीं क्योंकि उनके पति इन बातों में रस ले रहे थे. कौशलेन्द्र जी, आपको ऐसा लिखते समय ज़रा सा भी संकोच नहीं हुआ? कोई भी पत्नी अपने पति के कुरूप होने पर भी ऐसा नहीं लिखेगी, ये मेरा दावा है.

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    6. शुक्रिया वंदना ,
      तुम्हे भी यह बात बुरी लगी और तुमने खुलकर अपना विरोध जताया।

      किसी पुरुष का अपने कपडे धोना इतना महान कार्य हो गया कि उनसे कहीं ज्यादा पढ़ी -लिखी, उनसे ज्यादा डिग्रियां हासिल करने वाली महिला उनसे शादी करने के लिए लालायित हो गयी ??
      हास्यास्पद सी बात है,यह .

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    7. आप लोगों को बुरा लगा इसके लिये हम खेद व्यक्त करते हैं। वैसे जो हुआ ..जैसा हुआ मैंने वही लिखा। यदि यह बात हास्यास्पद है तो यह उस महिला की अपनी सोच रही है। गम्भीर मसले पर हल्की-फुल्की टिप्पणी के लिये भी मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। भविष्य में ध्यान रखूँगा,आपको किसी शिकायत का अवसर नहीं मिलेगा।

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    8. हां रश्मि. केवल बुरी नहीं लगी, बहुत बुरी लगी. लिखने पढने वालों की कौम इस तरह से सोचे, लिखे, बहुत हास्यास्पद है. कौशलेन्द्र जी को उन महिला को आड़े हाथों लेना चाहिये था, जो उनसे विवाह को तत्पर थीं, जैसे पुरुष का कपड़े धोना कोई नायाब काम हो. ऐसी महिलाओं से भी मुझे आपत्ति है, जो पुरुष द्वारा किये गये किसी भी घरेलू काम को इस तरह से लेती हैं जैसे उसने पता नहीं पत्नी पर कितना एहसान कर दिया दो. पत्नी पुरुष की तरह काम करती है तब?

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    9. meri aapatti bhi darj kar lo rashmi - bahut apmaanjanak hai yah baat is tarah se yahaan likha jaana |

      @vandana ji - sahmat hoon - aksharshah sahmat hoon ....

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  10. उफ़्फ़ ! इतनी अच्छी टिप्पणी के लिये भी आपकी अनुमति की ज़रूरत? चलिये कोई बात नहीं, अब दे ही दीजिये अपनी अनुमति-स्वीकृति। कृपया मेरे शब्दों का मान रखिये और मेरे अनुरोध को स्वीकार कीजिये। जय राम जी की!

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    1. मुझे अपने ब्लॉग पर मोडेरेशन क्यूँ लगाना पड़ा, आपको यह बात भली भांति ज्ञात है।

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    2. रश्मि, तुमने मॉडरेशन क्यों लगाया इसकी सफ़ाई देने की तुम्हें जरूरत नहीं है. ये तुम्हारी इच्छा है बस. किसी को आपत्ति करने का अधिकार है ही नहीं.

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  11. ल्लो कल्लो बात! बेर-बेर एकई सूचना आय रई ए "आपकी टिप्पणी स्वीकृति के बाद दिखने लगेगी"। सिपारस के लय बी स्वीकिर्ती ! जंगल के लोगन के लाने हर जगे परमीसन की ज़रूरत पड़े भइया!

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  12. दरअसल सब मसलों की जड़ यही है ... ओर स्त्री को चाहिए की जो पुरुश् कामकाज में हाथ नहीं बंटाते उनको मजबूर करे ... ये आसान नहीं है पर अगर नारी स्वाभिमानी रहे ओर अपने अस्तित्व का एहसास कराये तो मुझे लगता है पुरुष में बदलाव की शुरुआत जरूर होगी ...
    वैसे कोशलेन्द्र जैसे कई लोग मिल जाएंगे समाज में ... पर जरूरत ज्यादत ऐसे पुरुषों की है ....

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  13. पुरुषों को जब तक संस्‍कारित नही किया जाएगा उनकी सोच में बदलाव नहीं आएगा।

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  14. दरअसल हमारा पूरा सामाजिक फेब्रिक ही इसका दोषी है . सदियों से चली आ रही कंडिशनिंग ..
    घर की औरतों का रहन सहन ...उनके प्रति घर के पुरुषों की उदासीनता ....घर की बेटियां देखती हैं ....उनके प्रति घर के पुरुषों का बर्ताव , घर के लड़के देखते हैं - और मान लिया जाता है की यही सही तरीका है ....जैसे कोई unwritten law ....इस दृष्टिकोण ...इस law को बदलने में कुछ समय तो लगेगा ....बस उसी वक़्त का इंतज़ार है

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  15. समय के साथ बदलाव आएगा और आना भी चाहिए
    http://madan-saxena.blogspot.in/
    http://mmsaxena.blogspot.in/
    http://madanmohansaxena.blogspot.in/
    http://mmsaxena69.blogspot.in/

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  16. इसमें कोई शक नहीं की पुरुषों के नजरिये में बदलाव से ही सामाजिक स्थितियों में बदलाव आएगा ...
    जहाँ तक पति पत्नी के आपसी सामंजस्य की बात है , वह उन दोनों की आपसी सहमति की बात है , कौन क्या करे !

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  17. हमारे घरों में जिस तरह हर बात में लड़कों को प्राथमिकता दी जाती है चाहे बात खाने पीने की हो पढ़ने की यहाँ तक कि इलाज की भी,लड़कों को ही आगे रखा जाता है।स्त्री और पुरुषों के काम तो इस तरह बँटे हुए हैं कि न पुरुष महिलाओं को वो काम करते देखना चाहते हैं जो खुद उनसे अपेक्षित है न महिलाएँ(ज्यादातर) पुरुषों को वो कामकरते देखना चाहती हैं जो महिलाओं के समझे जाते है।पुरुषों के हिस्से में कर्तव्य बहुत कम है।महिलाओं की मदद करने वाला पुरुष खुली मानसिकता वाला नहीं होता बल्कि आपकी मानसिकता खुली तब कहलाएगी जब आप स्त्री को इस रुप में स्वीकार कर लें कि वह खुद भी जरूरत पड़ने पर आपकी मदद करने में सक्षम है।
    वैसे मुझे कभी कभी ये भी लगता है कि महिलाओं की सफलता को भी आजकल मीडिया और कुछ नारीवादियों(या नारी सशक्तिकरण की बात करने वालों जो आप ठीक समझें)द्वारा गलत रूप में पेश किया जा रहा है ।पुरुष सहज होना चाहता है पर उसे होने नहीं दिया जा रहा।आपने कहा पुरुषों को मदद की जरूरत है ।कृप्या आप पहले स्पष्ट करें कि यह मदद किस तरह की होगी और कैसे की जा सकती है?

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    1. राजन,
      जैसा कि तुमने भी लिखा, "पुरुष सहज होना चाहता है पर उसे होने नहीं दिया जा रहा।"
      अब पुरुष सहज होना चाहता है और उसे होने नहीं दिया जा रहा ,इस बात का नहीं पता ,पर इस बात का पक्का पता है कि अधकांश पुरुष ,नारी के इस बदले हुए रूप के प्रति सहज नहीं हैं।

      मैंने मदद की बात इस सन्दर्भ में कही कि , पुरुष तो खुद को घर का स्वामी समझते ही है, घरवालों द्वारा भी उनके इस विश्वास को बनाए रखने की भी पूरी कोशिश की जाती है।
      उनका निरादर या उनकी हर बात नकार देने की बात नहीं कही जा रही। पर कभी कभी उन्हें भी अहसास दिलाया जा सकता है कि वे खुद पानी लेकर पी सकते हैं। वे खुद अपना बिस्तर लगा सकते हैं, अपने कपडे संभाल सकते हैं। ऐसे छोटे मोटे काम से शुरुआत की जा सकती है। ठंढ सबके लिए एक सी होती है पर अक्सर देखा गया है, स्वेटर पहने, चादर ओढ़े,मफलर लपेटे,अंगीठी सेंकते पुरुषों के सामने, खाने की थाली परसी जाती है। और स्त्रियाँ पतली सी शॉल ओढ़े, (पहले अक्सर स्त्रियाँ स्वेटर नहीं पहनती थीं ) उतनी ठंढ में पानी में हाथ भिगा कर काम काम रहती हैं। ठंढ उन्हें भी उतनी ही लगती है।
      पर वे रसोई का सारा काम ख़त्म कर देर रात में सोने जाती हैं। अपना काम अपने आप करके वे थोड़ी सहायता कर सकते हैं या फिर उनसे कहा भी जा सकता है।
      पुरुष अगर ऑफिस जाते हैं तो पीछे से ये लोग गाव-तकिया लगा कर सो नहीं जातीं ।
      अगर पति ऑफिस से आ गया और पत्नी को पडोसी के यहाँ से या बाज़ार से आने में देर हो गयी तो उन्हें बातें भी सुननी पड़ती हैं और वे खुद अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती है। एक दिन अगर पति ने खुद चाय बना ली, तो कोई क़यामत नहीं आ जायेगी। ये सब स्त्रियों को ही समझना होगा कि उनका भी कोई अस्तित्व है और पति उसका सम्मान करे ,इस बात का ध्यान उन्हें ही रखना है।

      दूध-फल भी अक्सर पुरुषों को दे दिए जाते हैं, एक स्त्री शरीर को भी पौष्टिक भोजन की उतनी ही जरूरत होती है। पर पुरुषों का ध्यान नहीं जाता, स्त्रियों को यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए।
      सारे महत्वपूर्ण निर्णय पुरुष ही लेते हैं ,अगर स्त्रियों को उनका निर्णय सही नहीं लगता, तो अपना विरोध जाहिर करना चाहिए। तभी जाकर पुरुषों को भी समझ में आएगा कि वे ही सर्वोपरि नहीं हैं, दूसरे की इच्छा भी मायने रखती है।
      इस तरह की कई बातें हैं, जबतक उन्हें अहसास नहीं दिलाया जाएगा कि स्त्रियों का भी अलग अस्तित्व है,वे उसकी अहमियत समझें। वे, क्यूँ समझेंगे क्यूंकि उनकी ज़िन्दगी तो आराम से कट रही है।
      अगर स्त्रियों को समाज में बदलाव चाहिए तो कोशिश उन्हें ही करनी पड़ेगी।

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    2. @ Rajan

      >> "पुरुष सहज होना चाहता है पर उसे होने नहीं दिया जा रहा।"

      क्या वाकई ? कौन मजबूर करता है स्त्रियों को शःरीर बेचने पर ? कौन होते हैं उनके खरीदार ? 2 हाथ 2 पैर तो स्त्रियों के भी होते हैं ..उन्हें कोई दूसरा काम क्यूँ नहीं मिलता रोज़ी चलाने के लिए ?
      क्यूँ मजबूर हो जाती हैं वो दलदल में जाने के लिए ....आप सोचेंगे ये तो निचले स्तर के लोगों की बात है। मद्धयम वर्ग ऐसा नहीं है ...** मद्धयम वर्ग के लिए निचे दिया लिंक पढ़िए

      >> "आपने कहा पुरुषों को मदद की जरूरत है ।कृप्या आप पहले स्पष्ट करें कि यह मदद किस तरह की होगी और कैसे की जा सकती है?"

      पुरुषों को सबसे पहले तो आत्म नियंत्रण सीखना चाहिए ... पराई स्त्री को भी उसी नज़र से देखना चाहिए जिससे वो घर की औरतों को देखते हैं . .... कितने लोग मिल जाएंगें आस पास ...कनखियों से , या घूरते हुए किसी महिला को ....
      .** सबसे अच्छा उदहारण आप यहाँ पढ़ सकते हैं .
      >> http://www.nytimes.com/2003/11/07/world/for-sterilization-target-is-women.html

      change the attitude first . Women too are human beings . Nature has not given them contract to run progeny .
      Just because women can give birth that doesnt mean that men can't even take responsibility for family planning .
      उनका पत्नी के प्रति रवय्यिया होता है .. "इस ऑपरेशन के पचड़ों में तुम्ही पड़ो ..."

      This is only 1 example out of in-numerous others.

      हटाएं
    3. Take the movie 'English Vinglish' as example . I am not sure how many of you have watched this movie.

      Was the Character Shashi's Husband cruel towards her ? NO ..rt? Was he creating any difference between his girl child or boy child ? NO . in fact , he was very good father . but what was missing in him ? .. Attitude towards her wife . He could have helped her in improving her English instead of making her mockery .

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    4. रश्मि जी,जहां तक बात है महिलाओं द्वारा पुरुषों को छोटे मोटे काम करने के लिए कहने की तो मुझे लगता है की ये जरूरी है लेकिन ऐसा नहीं हो पाता जैसा की मैंने पहले कहा की दोनों के रोल पहले ही बंटे हुए हैं और दोनों वही निभाते आ रहे हैं।इसका इलाज तभी हैं जब लड़कों को बचपन से अपना काम खुद करने की आदत डाली जाये।रही बात महत्त्वपूर्ण फैसलों में महिलाओं को न शामिल करने की तो ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अब तक महिलाओं की दुनिया केवल घर की चारदिवारी तक सीमित रही उन्हें बाहर की दुनिया की इतनी मालूमात थी ही नहीं लकिन अब इस स्थिति में कुछ हद तक परिवर्तन आया है क्योंकि अब महिलाएं पढ़ लिख गई हैं बाहर निकलकर काम करने लगी हैं।बल्कि मैंने देखा है की आजकल के युवक अपने लिए कोई "गैली राधा" नहीं बल्कि एक समझदार पत्नी चहते हैं जो अच्छे बुरे की समझ रखती हो और वक़्त पडने पर उन्हें भी सलाह दे सके।हाँ फिर भी बहुत से पुरुष है जो अपनी बात काटना पसंद नहीं करते लेकिन वो दूसरे पुरुषों के साथ भी ऐसा ही करते है चाहे वह उनका पिता ही क्यों न हो।

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    5. ...लेकिन जब महिलाओं के साथ ऐसा होगा तो आप इसे कोई दूसरा रुप दे देंगे।कुछ समय तक पुरुषों को लगेगा कि हमारा महत्तव अब कम हो जाएगा(ये अलग बात है कि आजकल उन्हें कुछ समझदार लोगों द्वारा अनजाने में ही ये बातें महसूस करवाई भी जाती है पहले ये काम समाज खुद करता था 'जोरू का गुलाम' जैसी बातें तभी आई होंगी) जैसे कभी कभी नई बहू के आने पर सास को शुरूआत में सास को लगता है लेकिन धीरे धीरे सब ठीक हो जाता है।हम कई बार अपने बारे में सामने वाले को स्पष्ट नहीं कर पाते अब जैसे कि कुछ लोग ये जताने की कोशिश करते हैं कि हम चूँकि बेटी वाले हैं इसलिए ज्यादा संवेदनशील है।अब उन्हें कैसे समझाएँ कि भाई ये कोई जरूरी नहीं और दूसरों में भी ये गुण हो सकता है।फिर भी आपकी सभी बातों से सहमत।अभी बहुत बदलाव की जरूरत।और ये छोटे छोटे प्रयास करने से ही आएगा।बात स्पष्ट करने के लिए धन्यवाद ।

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    6. @समरी जी,
      अब आपकी बातों पर मैं क्या कहूँ क्योंकि ऐसा लग रहा है जैसे मेरी आधी टिप्पणी को आपने पढ़ा लेकिन आधी को गोल कर दिया यहाँ तक की आपने सन्दर्भ भी नहीं देखा की क्या है।
      @कौन मजबूर करता है स्त्रियों को शःरीर बेचने पर ? कौन होते हैं उनके खरीदार ? 2 हाथ 2 पैर तो स्त्रियों के भी होते हैं ..उन्हें कोई दूसरा काम क्यूँ नहीं मिलता रोज़ी चलाने के लिए ?
      जिसका जिक्र भी न था फ़साने में वो बात उन्हें नागवार गुजरी है
      वैसे इसमें कुछ और भी जोड़ा जा सकता है जैसे की कौन मजबूर कर रहा है पुरुषों को आतंकवादी बन्ने पर या कौन पुरुषों को कह रहा है धरम के नाम पर दंगे करने के लिए वगेरह वगेरह?
      आपको पता होना चाहिए की मैं उन पुरुषों की बात नहीं कर रहा।और सभी पुरुष उन महिलाओं के पास नहीं जाते जो शरीर बेचने को मजबूर है।और मैंने पुरुषों की सहजता की बात की है ये नहीं कहा कि उनकी मानसिकता बहुत भली हो गई है।ये आपको भी पता होगा जैसे शहरी पुरुष महिलाओं को बराबरी पर नहीं देखना चाहते लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उन्हें वो महिला चुनौती लगती हो जिसने घूँघट न किया हो।वह इस बदलाव के प्रति धीरे धीरे सहज हो ही गया है।

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    7. हाँ सभी पुरुषों के साथ ऐसा नहीं है वैसे ही जैसे आपकी ये बात निम्न वर्ग की सभी महिलाओं पर लागू नहीं होती कि 'उन्हें रोजी के लिए कोई और जरिया क्यों नहीं मिलता'।और ये बात मैंने सभी के लिए नहीं बल्कि कुछ लोगों के लिए कही थी कि वो बात ही इस तरह करते हैं कि कोई पुरुष यदि सहज है तो भी उसे सहजता से नहीं लेगा।और ये काम केवल नारीवादी नहीं करते कुछ दलितवादी भी ऐसी बातें करते हैं जैसे कि अंबेडकर के शेर अब जाग गये हैं और अब सवर्णों की नींद हराम हो रही है वगेरह वगेरह।ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो कोई ऊँची जाति का है तो वो बस इसी खौफ में जीता है कि दलित अब आगे बढ़ रहा है।मुझे नहीं लगता कि इस तरीके से कोई फायदा होता है।और मैं उनका भी विरोध कर चुका हूँ।कोई असहमत है वो अलग बात हैँ।आपका दिया लिंक देखा लेकिन मैं अपनी टिप्पणी में पहले ही कह चुका हूँ कि पुरुषों के हिस्से में कर्तव्य बहुत कम है।इस स्थिति को बदला कैसे जाए इसी संदर्भ में मैंने रश्मि जी से सवाल भी किया था।पता नहीं आपको ऐसा क्यों लगा कि मैंने पुरुषों को कोई क्लीन चिट दे दी है जबकि मैंने लिखा कि कब माना जाएगा कि पुरुष की मानसिकता बदल गई।

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    8. @ राजन

      >> पता नहीं आपको ऐसा क्यों लगा कि मैंने पुरुषों को कोई क्लीन चिट दे दी है जबकि मैंने लिखा कि कब माना जाएगा कि पुरुष की मानसिकता बदल गई।
      मुझे आपकी पोस्ट ऐसा कतई नहीं लगा ।
      हाँ , पिछली टिप्पड़ी में शायद मैंने आपकी पोस्ट को बृहद रूप में नहीं समझा . मुझे भी बाद में ऐसा समझ में आया की मैंने केवल एक तरफा विचार व्यक्त किया . उसके लिए खेद है।

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    9. और हमें ख़ुशी है कि हमारे दो बेहतरीन पाठकों के बीच की गलतफहमियां दूर हो गयीं :)
      ये कहना बिलकुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि तुम जैसे पाठकों की वजह से ही लिखने का मन होता है। हमेशा तुम दोनों पोस्ट को ध्यान से पढ़ते ही नहीं हो अपनी टिपण्णी से उसे विस्तार भी देते हो।
      एक स्पेशल थैंक्यू तुम दोनों का :)
      हम थोड़े से गर्वित हैं :)

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  18. Just happened to see the archive, 2010 - 82 posts; 2011 - 75 posts; 2012 - 60 posts; there has been a geometric pro(re)gression in the posts, hope you reverse the trend this year.

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    1. बड़ी पारखी नज़र है,आपकी
      वादा तो नहीं है,वैसे कोशिश जरूर रहेगी .
      अब कहानियाँ भी इसी ब्लॉग पर पोस्ट करने लगी हूँ इसलिए दुसरे आलेख कम लिख पाती हूँ।

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